बस के नजदीक पहुँचते ही दरवाजे के नीचे खड़े कंडक्टर ने पूछा कहाँ जाना है? आगर', मैं ने बताया और पूछा -'जगह मिलेगी, हम तीन सवारी हैं।
-क्यों नहीं मिलेगी। उस ने तुरंत ही कहा और ले जा कर हमें बस में आगे ड्राइवर के केबिन में जमा दिया। मुझे लगा, अब केबिन में कोई नहीं आएगा। लेकिन उस के बाद भी कंडक्टर तीन-चार लोगों को वहाँ जमा गया। वह एक छोटी बस थी। कुल तीस सवारी बैठ सकतीं थीं, लेकिन साठ से ऊपर तो वह बस के अंदर जरूर ही जमा चुका था। बस चल दी। कंडक्टर टिकट बनाने आया। तीन सवारी के 105 रुपए हुए। मैं ने कहा -भैया तीन में पांच का कंसेशन नहीं करोगे? उस ने कहा -पाँच रुपया कौन बड़ी बात है? आप सौ ही दे दीजिए। उस ने सौ में तीन टिकट बना दिए। ड्राइवर केबिन के पास तीन-चार लड़के खड़े थे, दो बोनट पर बैठे थे। वे आपस में चुहलबाजी कर रहे थे। ड्राइवर भी उन्हीं की मंडली का दिखाई पड़ा। वह भी चुहल में शामिल हो गया। वे कर्णप्रिय मालवी बोल रहे थे, जो शायद अब गांवों या छोटे कस्बों में ही सुन पाना संभव है। मैं मालवी का आनंद लेने लगा। इस उम्र के लड़कों की बातचीत में अक्सर कुछ गालियों का समावेश रहता है और सामान्य यौनिक गालियों का वे तकिया कलाम की तरह अवश्य प्रयोग करते हैं। करीब आधे घंटे से ऊपर चली चुहल में एक बार भी किसी यौनिक तो क्या, साधारण गाली या अपशब्द का भी उन्हों ने प्रयोग नहीं किया था। यह मेरे लिये सुखद अनुभव था। हम गाली-विहीन बोलचाल की भाषा की तलाश सभ्य कहलाए जाने वाले नगरीय मध्यवर्ग में तलाश कर रहे हैं और भविष्य में उस की संभावनाएँ तलाश कर रहे हैं। लेकिन वह यहाँ बिना किसी श्रम के इन ग्रामीण नौजवानों में सहज उपलब्ध थी। हो सकता है वे कुछ विशिष्ठ परिस्थितियों में उन का प्रयोग करते हों लेकिन इस सार्वजनिक बस में अनायास बातचीत के मध्य उन्हों ने पूर्ण शालीन भाषा का प्रयोग किया था। बस सारे रास्ते चालीस या उस से कम की गति से ही चल रही थी और मार्ग के 55 किलोमीटर उसने दो घंटे में पूरे करने थे। सड़क एक बस की चौड़ाई जितनी थी। सामने से कोई वाहन आने पर दोनों में से किसी एक को या दोनों को सड़क के नीचे उतरना पड़ता था।
मैं ने उन में अपनापा महसूस किया तो मैं भी उन की चुहल में शामिल हो गया। मैं किसी मुकदमे की बहस के सिलसिले में शाजापुर (म.प्र) गया था। बहस संतोष जनक हो गय़ी थी और हम वापस लौट रहे थे। शाजापुर से आगर तक यह बस थी। आगर से हमें कोटा की बस पकड़नी थी। मेरे मुवक्किल हरस्वरूप माथुर और उन के भतीजे प्रदीप मेरे साथ थे। बस एक स्थान पर रुकी वहाँ एक मार्ग अलग जा रहा था। बस उसी मार्ग पर मुड़ी। मैं ने उत्सुकता से एक नौजवान से पूछा -बस इधर जाएगी?
उत्तर मिला -बस एक किलोमीटर 'धूपाड़ा' तक जाएगी। फिर वापस लौट कर यहीं आएगी।
एक किलोमीटर गाँव तक बस का सवारियों को उतारने चढ़ाने के लिए जाना कुछ अजीब सा लगा। मैं ने पूछा - 'धूपाड़ा' बड़ा गाँव है?
-बड़ा गाँव ? सिटी है साहब, सिटी।
बताने वाला संभवतः विनोद कर रहा था। मैं ने भी विनोद में सम्मिलित होते हुए पूछा -तो वहाँ नगर पालिका जरूर होगी?
-पंद्रह हजार की जनसंख्या है। लेकिन नगर पालिका हम बनने नहीं देते। हाउस टैक्स और न जाने क्या क्या टैक्स लग जाएंगे, इस लिए। और ये जो आप ने मोड़ पर घर देखे थे ये 'धूपाड़ा' की कॉलोनी है। अब वह नौजवान वाकई विनोद ही कर रहा था।
मैं ने भी उस विनोद का आनंद लेने के लिए उस से पूछा -तो भाई! इस सिटी की खासियत क्या है?
-यहाँ लोहे और इस्पात के औजार बनते हैं। गैंती, फावड़ा, कैंची, संडासी आदि। उस ने और भी अनेक औजारों के नाम बताए।
-तब तो यहाँ सरौतियाँ भी बनती होंगी? मैं ने पूछा।
-हाँ, बनती हैं और बहुत अच्छी बनती हैं। छोटी-बड़ी सब तरह की। आप को लेनी हो तो दरवाजे के अंदर चले जाइए, अंदर दाएं हाथ पर दुकान में मिलेगी, तीस रुपए की एक।
तब तक बस रुक चुकी थी। पास ही एक सुंदर मुगल कालीन और उसी शैली का विशाल दरवाजा था। दरवाजे की ठीक से मरम्मत की हुई थी और उसे सुंदर रंगों से रंगा हुआ भी था। पूरा गाँव एक फोर्ट वाल के अंदर था। फोर्टवाला के बाहर खाई थी। शाम पूरी तरह घिर आयी थी। मेरे ससुराल में सरौतियाँ दस से बीस रुपए में मिल जाती हैं। मैं ने सरौती लेने का विचार त्याग दिया। लेकिन तब तक माथुर साहब कहने लगे -ले आते हैं, वकील साहब। यहाँ की निशानी रहेगी। मैं ने कहा -बस इतने थोड़े ही रुकेगी? तो ड्राइवर ने कहा -आप ले आओ हम तब तक चाय पिएंगे। माथुर साहब का आग्रह देख मैं नीचे उतरा। पास ही एक मूत्रालय बना देखा जिस में पुरुषों और स्त्रियों के लिए सुविधा थी। हम ने उस का इस्तेमाल किया, फिर चले 'धूपाड़ा' सिटी में।
अंदर पुराने नगर के चिन्ह स्पष्ट थे रास्ते के दोनों और दुकानें बनी थीं। दरवाजे से पहली और दूसरी दुकानें लुहारों की थी। दुकानें क्या? उन की कार्यशाला भी वही थी। लोहा गरम करने के लिए धौंकनियाँ बनी थीं और कूटने के लिए स्थान बने थे। इन के आगे चौराहा था जहाँ से दाएँ बाएँ फिर बाजार निकल रहे थे। हमने पहली ही दुकान पर सरौतियाँ देखीं। विभिन्न आकार और बनावट की थीं। सुंदर कारीगरी भी की हुई थी। हमने सब से छोटी और कम कीमत की साधारण सरौती पसंद की। उस से सुपारी काट कर देखी। सख्त सुपारी भी ऐसे कट रही थी जैसे आलू काट रहे हों। मैं जितनी सरौतियाँ अब तक इस्तेमाल कर चुका था उन में वह सब से तेज थी। हम ने उन्हीं में से दो खरीदीं। एक मेरे लिए और एक माथुर साहब के लिए। हमारे पूछने पर दुकानदार ने बताया कि ये स्टील की बनी हैं, और बेकार हुई कमानी के लोहे की नहीं, बल्कि नए इस्पात की हैं। वे टाटा का इस्पात प्रयोग करते हैं। गाँव कब का बसा है? पूछने पर बताया की कम से कम तीन-चार सौ साल पहले का है और संभवतः पाटीदारों का बसाया हुआ है। उत्तर कितना सही था यह तो रेकॉर्ड से ही पता लग सकता है। बताया कि यहाँ के औजार प्रसिद्ध हैं और आस पास के कस्बों में ही खप जाते हैं। इतने में बस के हॉर्न की आवाज सुनाई दी। हम समझ गए कि हमें वापस पुलाया जा रहा है। हम तेजी से वापस लौटे। बस चलने को स्टार्ड खड़ी थी। हम ने अपनी सीट संभाली और बैठ गए।