@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

'गिरता है शह सवार ही मैदाने जंग में'

भारतीय जनता पार्टी के दो पुरोधा अडवाणी और जसवंत (जिन में से एक निकाले जा चुके हैं) जिन्ना को सेकुलर कह चुके हैं, तो कोई तो वजह होगी। नेहरू पर उंगली उठाने से नेहरू की सेहत पर क्या फर्क पड़ेगा? उन पर पहले भी बहुत उंगलियाँ उठती रही हैं, और उठती रहेंगी।  यह एक खास राजनीति की जरूरत भी है।  फिर यह भी है कि गलतियाँ किस से नहीं हुई?  कौन घुड़सवार है जो घोड़े से नहीं गिरा?  मशहूर उक्ति है कि 'गिरता है शह सवार ही मैदाने जंग में'।  जो मैदाने जंग में ही नहीं हो वही नहीं गिरेगा।  बाद में लड़ने वालों पर उंगलियाँ भी वही उठाता है।  

गलती तो बहुत बड़ी भारतीय साम्यवादियों से भी हुई थी।  वे अपने ही दर्शन को ठीक से नहीं समझ कर मनोवाद के शिकार हुए थे। सोवियत संघ और मित्र देशों का पक्ष ले कर अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम से अपने को अलग कर लेने की गलती के लिए उसी सोवियत संघ के और विश्व साम्यवाद के सब से बड़े नेता  स्टॉलिन ने भी उन्हें गलत ठहराया था।  उस के बाद भी उन्हों ने कम गलतियाँ नहीं की हैं।  कभी वामपंथी उग्रवाद के बचकानेपन के और कभी दक्षिणपंथी अवसरवाद के शिकार होते रहे हैं और आज तक हो रहे हैं। 

लेकिन आज जसवंत ने मुर्दे को कब्र से निकाला है तो यह आसानी से फिर से दफ़्न नहीं होने वाला।  नेहरू के साथ पटेल पर भी उंगली उठी और पटेल को अपना आदर्श मानने वाले गुजरात में जसवंत की पुस्तक प्रतिबंधित कर दी गई। चाहे वे नेहरू हों, या फिर पटेल, या फिर कथित सेकुलर जिन्ना, इन के राष्ट्र प्रेम पर उंगली उठाना इतना आसान तो नहीं है। गलतियाँ तो ये सब कर सकते थे और उन्हों ने कहीं न कहीं की ही हैं। लेकिन आजादी के इन दीवानों से ये गलतियाँ क्यों हुई? इस समय में क्या इस की तह में जाना जरूरी नहीं हो गया है? मेरी समझ में तो इस बात की खोज और विश्लेषण होना चाहिए कि आखिर वे कौन सी परिस्थितियाँ थीं जिन के कारण इन तीनों से और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की प्रमुख धारा से ये गलतियाँ हुई कि जिन्ना उस मुख्य धारा से अलग हुए। देश बंट गया। यहाँ तक भी जाना प्रासंगिक और महत्वपूर्ण होगा कि उन परिस्थितियों को उत्पन्न होने देने के लिए जिम्मेदार शक्तियाँ कौन सी थीं? उन शक्तियों का क्या हुआ?  वे  शक्तियाँ आज कहाँ हैं? और क्या कर रही हैं?

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

'गीत' बीच में ये जवानी कहाँ आ गई ...

अनवरत पर अब तक आप ने पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ की ग़ज़लें पढ़ी हैं।  ‘यक़ीन’ साहब ने सैंकड़ों ग़ज़लों के साथ गीत और नज्में भी कम नहीं लिखी हैं। यहाँ प्रस्तुत है उन का एक मासूम गीत ..............

'गीत'

बीच में ये जवानी कहाँ आ गई ...
  • पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

रोज़ मिलते थे हम
साथ रहते थे हम
बीच में ये जवानी कहाँ आ गई ....


बात करते थे
घुट-घुट के पहरों कभी
ये बला कौन-सी दर्मियाँ आ गई .....

दिन वो गुड़ियों के, वो बेतकल्लुफ़ जहाँ
मिलना खुल के वो और हँसना-गाना कहाँ

हाय बेफ़िक्र भोले ज़माने गए
इक झिझक बेक़दम, बेज़ुबाँ आ गई ...
ये बला कौन-सी दर्मियाँ आ गई .....

बस ज़रा बात पर कट्टी कर लेना फिर
चट्टी उँगली भिड़ा बाथ भर लेना फिर

रूठने के मनाने के दिन खो गए
सामने उम्र की हद अयाँ आ गई ...
ये बला कौन-सी दर्मियाँ आ गई .....

रोज़ मिलते थे हम
साथ रहते थे हम
बीच में ये जवानी कहाँ आ गई .....

बात करते थे
घुट-घुट के पहरों कभी
ये बला कौन-सी दर्मियाँ आ गई .....


पढें और प्रतिक्रिया जरूर दें।

शनिवार, 15 अगस्त 2009

मिथ्या साबित आजादी और जनता के सपने


आजादी की बासठवीं वर्षगाँठ है। गाँव-गाँव में समारोह हो रहे हैं। शायद वही गाँव ढाणी शेष रह जाएँ, जहाँ कोई स्कूल भी नहीं हो। अपेक्षा की जा सकती है कि जहाँ अन्य कोई सरकारी दफ्तर नहीं होगा वहाँ स्कूल तो होगा ही। नगरों में बड़े बड़े सरकारी आयोजन हो रहे हैं। सरकारी इमारतें रोशनी से जगमगा रही हैं। कल रात नगर के प्राचीन बाजार रामपुरा में था तो वहाँ सरकारी इमारत के साथ दो अन्य इमारतें भी जगमगा रही थीं। पूछने पर पता लगा कि ये दोनों जगमगाती इमारतें मंदिर हैं और जन्माष्टमी के कारण रोशन हैं। जन्माष्टमी को जनता मना रही है। आज नन्दोत्सव की धूम रहेगी। कृष्ण जन्म भारत में जनता का त्योहार है। इसे केवल हिन्दू ही नहीं मना रहे होते हैं। अन्य धर्मावलम्बी और नास्तिक कहे-कहलाए जाने वाले लोग भी इस त्योहार में किसी न किसी रुप में जुटे हैं। जन्माष्टमी को कोई सरकारी समर्थन प्राप्त नहीं है। क्यों है? इन दोनों में इतना फर्क कि हजारों साल पुराने कृष्ण से जनता को इतना नेह है। आजादी की वर्षगाँठ से वह इतना निकट नहीं। वह केवल बासठ बरसों में एक औपचारिकता क्यों हो गया है?

कल दिन में मुझे एक पुराना गीत स्मरण हो आया। 1964 में जब मैं सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था। हमारे विद्यालय ने इसी गीत पर एक नृत्य नाटिका प्रस्तुत की थी, जिस में मैं भी शामिल था। गीत के बोल आज भी विस्मृत नहीं हुए हैं। बहुत बाद में पता लगा कि यह गीत शील जी का था। इस गीत में आजादी के तुरंत बाद के जनता के सपने गाए गए थे। आप भी देखिए क्या थे वे सपने? ..........

आदमी का गीत
-शील

देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल।
नया संसार बसाएंगे, नया इन्सान बनाएंगे।।

सौ-सौ स्वर्ग उतर आएँगे,
सूरज सोना बरसाएँगे,
दूध-पूत के लिए पहिनकर
जीवन की जयमाल,
रोज़ त्यौहार मनाएंगे,
नया संसार बसाएंगे, नया इंसान बनाएंगे।

देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल।
नया संसार बसाएँगे, नया इन्सान बनाएँगे॥

सुख सपनों के सुर गूंजेंगे,
मानव की मेहनत पूजेंगे
नई चेतना, नए विचारों की
हम लिए मशाल,
समय को राह दिखाएंगे,
नया संसार बसाएंगे, नया इन्सान बनाएंगे

देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल।
नया संसार बसाएंगे, नया इन्सान बनाएंगे।

एक करेंगे मनुष्यता को,
सींचेंगे ममता-समता को,
नई पौध के लिए, बदल
देंगे तारों की चाल,
नया भूगोल बनाएँगे,
नया संसार बसाएंगे, नया इन्सान बनाएंगे

देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल।
नया संसार बसाएँगे, नया इन्सान बनाएँगे॥

इस गीत में शील जी के देखे सपने, जो इस देश का निर्माण करने वाली मेहनतकश किसान, मजदूर और आम जनता के सपने हैं, नवनिर्माण का उत्साह, उल्लास और उत्सव है। जनता कैसा भारत बनाना चाहती थी इस का ब्यौरा है।  लेकिन विगत बासठ वर्षों में हमने कैसा भारत बनाया है? हम जानते हैं। वह हमारे सामने प्रत्यक्ष है। जनता के सपने टूट कर चकनाचूर हो चुके हैं।  चूरा हुए सपने के कण तो अब मिट्टी में भी तलाश करने पर भी नहीं मिलेंगे।

क्या झूठी थी वह आजादी?  और यदि सच भी थी, तो हमारे कर्णधारों ने उसे मिथ्य करने में कोई कोर-कसर न रक्खी थी। आज देश उसी मिथ्या या मिथ्या कर दी गई आजादी का जश्न मना रहा है। वह जश्न सरकारी है या फिर उस झूठ के असर में आए हुए लोग कुछ उत्साह दिखा रहे हैं। करोड़ों भारतीय दिलों में आजादी की 62वीं सालगिरह पर उत्साह क्यों नहीं है। इस की पड़ताल उन्हीं करोड़ों श्रमजीवियों को करनी होगी, जिन के सपने टूटे हैं।  वे आज भी यह सपना देखते हैं। उन्हों ने सपने देखना नहीं छोड़ा है।  इन सपनों के लिए, उन्हें साकार करने के लिए, एक नई आजादी हासिल करने के लिए एक लड़ाई और लड़नी होगी। लगता है यह लड़ाई आरंभ नहीं हुई। पर यह भ्रम है। लड़ाई तो सतत जारी है। बस फौजें बिखरी बिखरी हैं। उन्हें इकट्ठा होना है। इस जंग को जीतना है।

मिथ्या की जा चुकी आजादी की सालगिरह पर, हम मेहनतकश, अपने सपनों को साकार करने वाली एक नयी आजादी को हासिल करने के लिए इकट्ठे हों।  ऐसी आजादी के लिए, जिस का सपना इस गीत में देखा गया है।  जिस दिन हम इसे  हासिल कर लेंगे।  आजादी के जश्न में सारा भारत दिल से झूमेगा। भारत ही क्यों पूरी दुनिया झूम उठेगी।

आजादी के इस पर्व पर,  
नयी और सच्ची आजादी के लिए शुभकामनाएँ!

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

मृत्यु के नृत्य के घुंघरुओं की आवाज

शोषण, दमन और उत्पीड़न से जन्मे विद्रोह का रंग कैसा हो सकता है? आप पचास रंगों का अनुमान लगा सकते हैं। लेकिन मेरा मत है कि वह श्याम के अतिरिक्त कुछ हो ही नहीं सकता।   प्रकाश खा जाने वाला कैसे कोई भी रंग उपजा सकता है। शोषण, दमन और उत्पीड़न का स्रोत ही श्याम जन्मता है। यही श्याम  उसे चुनौती देता है। इसी श्याम रंग कृष्ण भी हैं।  उस के जन्मने  के पहले ही घोषणा हो जाती है ....... ऐ! आतताई! तू अपनी ही सहोदरा को सताए है।  अब ले,  उसी की कोख से तेरी मृत्यु जन्म ले  रही है।
प्रकाश निगलने वाले के पास दृष्टि नहीं होती। लेकिन आहट सुनने के लिए कान होते हैं, जिन में घंटियाँ बजने लगती हैं। उसे सब दिशाओं से नृत्य करती मृत्यु के घुंघरुओं की आवाज आती सुनाई देने लगती है। वह  उस अंधे की तरह तलवार चलाने लगता है, जिसे सब ओर से खतरा है। दमन बढ़ता है। स्वयं को बचाने के लिए वह अपना हर दांव खेलने लगता है। वह एक-एक कर नवजातों को मारने लगता है। लेकिन अपनी मृत्यु को छू तक नहीं पाता। उस की मृत्यु जन्म लेती है, और उस के आस-पास ही पनपने लगती है।
कृष्ण जन्मता है, वंशी की धुन छेड़ता है तो  कण-कण नृत्य करने लगता है। यह नृत्य जहाँ उन के लिए जीवन है, दमनकारी के लिए मृत्यु की आहट वह उसे नष्ट कर देना चाहता है। लेकिन वह नष्ट हो सकता है, भला? वह तो जैसे-जैसे तलवार चलती है विकसित होता है, युवा होता है। उस के विरुद्ध चला गया हर दाँव असफल हुआ जाता है।  दमनकारी उसे नष्ट करना चाहता है, लेकिन निकट आने से भय लगता है। उस का संधान किया हर शस्त्र परास्त होता जाता है। यहाँ तक कि उस के तरकस में अब कोई दूर-मारक तीर बचता ही नहीं। अब आमने सामने के द्वंद्व युद्ध के अलावा कोई उपाय ही नहीं रहा।  फिर भी वह खुद चल कर उस के नजदीक नहीं जाना चाहता।  उसे आमंत्रित करता है। कृष्ण यही तो चाहता है। श्याम अपने सखाओं को साथ लिए पूरी अल्हड़ता के साथ चल देता है।  द्वंद्व युद्ध के लिए।  श्याम जानता है, दमन, शोषण और अत्याचार का अंत अब निकट है, उन के स्रोत ने अपनी मृत्यु को आमंत्रित किया है। वह यह भी जानता है कि वहाँ श्याम के स्वागत की तैयारियाँ  कैसी हैं?
 साक्षात काल बना चला आता है, कृष्ण।  परकोटों और दुर्दांत रक्षकों से घिरा शत्रु, उस के हर पग से कांप उठता है।  श्याम के जन्मने का कारण वही है, श्याम को उसने खुद ही बुलाया है।  लेकिन उसे खुद तक नहीं पहुँचने देने की सारी योजनाएँ भी तैयार हैं। वह चाहता है कृष्ण की मृत्यु हो जाए और वह अमर। लेकिन यह संभव कहाँ।  एक-एक कर हर अवरोध धराशाई होता है। वह सोच पाए कि अब  कृष्ण को कैसे रोका जाए? कृष्ण उस की गर्दन तक आ पहुँचा। 
अंत हुआ, शोषण, दमन और अत्याचार का, यह सब सोचते हैं।  लेकिन कृष्ण नहीं। वह तो धरती पर अभी बहुत जीवित है। वह चल पड़ता है। आगे और आगे, वहाँ, जहाँ अभी बहुत सा शोषण, दमन और अत्याचार शेष है। पालक माता उस की प्रतीक्षा में है। प्रेम उस का  बाट जोह रहा हैं।  पर उसे कहाँ विश्राम इस सब  के लिए। वह तो अब युद्ध भूमि में है। उसे तो अब किसी पार्थ का सारथी बनना है। उसे तो अभी घोषणा करनी है ..........
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत,
अभ्युत्थानमधर्मस्य स्वात्मानं सृजाम्यहम।।

कृष्ण जन्म के पर्व पर सभी को 
हार्दिक शुभकामनाएँ!

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

'सुनामी बच्ची' कविता 'यादवचंद्र'

दिवंगत श्रद्धेय  यादवचंद्र जी की एक कविता 'मेरी हत्या न करो माँ' आप अनवरत पर पहले पढ़ चुके हैं। आज पढ़िए उन की एक और कविता ......

सुनामी बच्ची

  • यादवचंद्र
नहीं जानती सुनामी बच्ची
अपना माँ-बाप, गाँव-घर
नहीं जानती सुनामी बच्ची
अपना देश-जाति, धर्म-ईश्वर
नहीं जानती सुनामी बच्ची
राग-विराग, नेह-संवेदना
नहीं जानती सुनामी बच्ची
शुभ-अशुभ, सुन्दर-असुन्दर
उस के होठों पर चुपड़ी है
मौत-सी सख्त बर्फ
नहीं जानती सुनामी बच्ची
दूध और जहर का फर्क

जब गर्भ में थी-
भूडोल  के पालने पर डोलती रही
जब जानलेवा दरारों ने उगला....
तो दूध के लिए
ज्वार की छातियाँ टटोलती रही
भाई तस्करों के साथ रावलपिंडी के दौरे पर था
बाप डिस्टीलरी से 
वापस नहीं लौटा था
बहन होटलों में 
पर्यटकों के साथ लिपटी पड़ी थी
और नंगी लाशों पर सुनामी लहरें
मुहँ बाए खड़ी थीं
शेष कोई न था वहाँ
बची थी सिर्फ-
सुनामी बच्ची

और अब 
सब कुछ ठण्डा पड़ चुका है
गर्म हैं सिर्फ
भविष्यवक्ताओं की वाणियाँ
गर्म हैं सिर्फ
राष्ट्राध्यक्षों के तूफानी वक्तव्य
गर्म हैं सिर्फ
सिने तारिकाओं के 
नेकेड तूफानी कल्चरल प्रोग्राम
गर्म हैं सिर्फ
पर्यटक होटलों में
कहकहाँ की वापसी की शानदार मुहिमें
गर्म हैं सिर्फ 
थाई बेटियों के देह-व्यापार में
महताब फिट करने की लामिसाल कोशिशें

लेकिन याद रखो
कल सुनामी बच्ची की मुट्ठी में 
बन्दूक होगी
और तुम्हारे मुहँ पर थूकने के लिए
हर जुबान पर थूक होगी
आ...क.............थू !
************







रविवार, 9 अगस्त 2009

'धर्मपति' तो विश्व में एक ही है, अन्य कोई भी पुरुष कैसे धर्मपति कहाएगा?

‘नारी’ चिट्ठे पर एक प्रश्न किया गया है कि पुरुष के लिए ‘धर्मपति’ शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया जाता? वास्तविकता यह है कि शब्दों का निर्माण सदियों में होता है। समाज विकास की विभिन्न अवस्थाओं में शब्दों के उपयोग से उन के अर्थ परिवर्तित होते रहते हैं।  ‘धर्मपति’ शब्द का प्रयोग क्यों नहीं होता?  इस प्रश्न का उत्तर इतिहास में नारी की स्थिति से निर्धारित होगा, वर्तमान स्थिति से नहीं। इतिहास में विशेष रुप से सामंती काल में नारी को सम्पत्ति और वस्तु के रूप में ही देखा गया है। उसी के अनुरूप उस के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्दों के अर्थ बने हैं। सहोदर या रिश्ते के भाई-बहनों के अतिरिक्त यदि कोई राखी बांध कर भाई या बहन बनते हैं तो वे ‘धर्मभाई’ या ‘धर्मबहन’ कहलाते हैं। यदि ‘धर्मपति’ शब्द को इस अर्थ में देखें तो उस शब्द से क्या अर्थ लिया जाएगा?  इस का आप स्वयं अनुमान कर सकते हैं।

शब्दकोष में एक शब्द है ‘धर्मचारिणी’, जिस का अर्थ है ‘वफादार पत्नी’। एक ही गुरुकुल में एक साथ अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों के लिए शब्द ‘धर्मभ्राता’ है। एक वैध विवाह के फलस्वरूप उत्पन्न संतान के लिए ‘धर्मज’ शब्द है तो वैध विवाह के अतिरिक्त अन्य संबंध से उत्पन्न संतान को अधर्मज की संज्ञा दी गई है। ‘धर्मपत्नी’ शब्द का प्रयोग ‘वैध रूप से विवाहित पत्नी’ के लिए किया जाता है। यह दूसरी बात है कि एक वैध पत्नी के होते हुए बिना वैध विवाह-विच्छेद के उसे त्याग कर किसी अन्य स्त्री से संबंध बना लेने और समाज में उसे अपनी पत्नी प्रदर्शित करने के लिए ऐसा पुरुष उसे ही ‘धर्मपत्नी’ कहता फिरता है।

इतिहास में कुछ समुदायों में स्त्री को एकाधिक पति रखने की छूट रही है। आज भी कुछ समुदायों में सब सहोदर भाइयों की पत्नी एक ही होती है। लेकिन सद्य इतिहास में एकाधिक पतियों की परंपरा लुप्तप्रायः हो गई और हिन्दी भाषी क्षेत्रों में तो बिलकुल नहीं रही। इस कारण से एक प्रधानपति और अन्य उपपति जैसी स्थिति तो नहीं ही रही है। जिस से केवल उस व्यक्ति को जिस से वैध रूप से विवाह होता है उसे धर्मपति कहने की आवश्यकता हो। महाभारत में अर्जुन द्वारा द्रोपदी को वर लाने पर कुंती के यह कह देने मात्र से कि ‘सब भाई बाँट लो’, द्रोपदी सब भाइयों की साँझा पत्नी हो गई। यह स्थिति बताती है कि भले ही उस काल में स्वयंवर की परंपरा रही होगी लेकिन पत्नी एक वस्तु मात्र थी। उस परिस्थिति में द्रोपदी के लिए केवल अर्जुन ही कथित ‘धर्मपति’ हो सकता था, शेष भाई केवल पति।

भारतीय समाज में 1955 में हिन्दू विवाह अधिनियम के पूर्व तक पुरुष एकाधिक विवाह कर सकता था और एकाधिक पत्नियाँ रख सकता था। एकाधिक पत्नियों की स्थिति में यह भी होता रहा कि एक विवाहित पत्नी होती थी और अन्य विवाह के बिना रहने वाली पत्नियाँ। ऐसी अवस्था में विवाहित पत्नी को बिना विवाह वाली पत्नियों से पृथक चिन्हित करने की आवश्यकता रही होगी। वहीं धर्मपत्नी शब्द अस्तित्व में आया। इस कारण एकाधिक पत्नियों में ‘धर्मपत्नी’ वह स्त्री है जिस से पुरुष का विधिपूर्वक विवाह हुआ है। लेकिन स्त्री को एकाधिक पति रखने का अधिकार नहीं था। उस का तो एक ही पति हो सकता था। इस कारण से ‘धर्मपति’ शब्द का प्रयोग होना संभव नहीं था। 

इन सब के अतिरिक्त ‘धर्मपति’ शब्द के अप्रयोग का मुख्य कारण कुछ और ही है, जिस से यह शब्द व्यवहार में नहीं आ सका।  ऋग्वेद में 'वरुण' को ऋत का देवता कहा गया है। जिस का अर्थ यह है कि वह विधियों (कानून-नियम, जिस में प्राकृतिक नियम भी सम्मिलित हैं) को स्थापित रखने वाला देवता है। वरुण  इंद्र से भी अधिक पूज्य और आदरणीय रहा है।  यह कहा गया है कि ऋत के कारण ही सूर्य नियम से प्रतिदिन उदय और अस्त होता है। वह  सामुहिक रुप से अर्जित संपत्ति का ठीक से बंटवारा भी करता था। वरुण समाज और प्रकृति में धर्म के आचरण का प्रमुख था। इन कारणों से उसे ‘धर्मपति’ कहा गया जिस का अर्थ था ‘धर्म का अधिष्ठाता।  एक बार वरुण के लिए ‘धर्मपति’ शब्द के रूढ़ हो जाने के कारण किसी साधारण अर्थ में इस शब्द का प्रयोग वैसे भी निषिद्ध हो चुका था। इसी से वरुण के अतिरिक्त किसी भी अर्थ में ‘धर्मपति’ शब्द कभी प्रयोग में नहीं लिया गया। आज जब स्त्रियाँ कानूनी रूप से बराबरी का अधिकार प्राप्त कर चुकी हैं और व्यवहार में इस ओर बढ़ रही हैं तब ‘धर्मपत्नी’ शब्द अपनी अर्थवत्ता खोता जा रहा है। धर्मपत्नी शब्द का प्रयोग न्यून से न्यूनतर होता जा रहा है। कुछ काल के पश्चात हो सकता है यह केवल पुस्तकों में रह जाए और केवल पति और पत्नी शब्दों का प्रचलन ही पर्याप्त हो।





शनिवार, 8 अगस्त 2009

दर्शन और विज्ञान का अन्तर्सम्बन्ध और एक अनाम रचनाकार की रचना 'काशः दुनिया कम्प्यूटर होती'

साँख्य के विरोध और पक्ष में बहुत कुछ कहा गया है। उन सब पर जाया जाए तो यह श्रंखला बहुत लंबी हो जाएगी। इस कारण यहीं विराम लेना ठीक है। 'दर्शन का मानव जीवन में महत्व' एक महत्वपूर्ण विषय है। इस पर जरूर बात होनी चाहिए। मैं ने साँख्य से बात आरंभ करने का प्रयत्न किया है। साँख्य को चुनने का मुख्य कारण एक तो इस का प्राचीनतम दर्शन होना था, दूसरे अपने काल की दृष्टि से यह सब से अधिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता था।
जब से मनुष्य ने सोचना आरंभ किया एक प्रश्न हमेशा उस के सामने रहा कि 'विश्व और उस का व्यापार कैसे चलता है?' तत्कालीन उपलब्ध तथ्यों के आधार पर दार्शनिकों ने इस का उत्तर देने का प्रयत्न किया। धीरे-धीरे दार्शनिक प्रणालियाँ विकसित होती चली गईं। दुनिया के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में इस का मूल देखा जा सकता है। लेकिन वहाँ वे स्फुट विचार थे। उपनिषदों में इन विचारों को विस्तार प्राप्त हुआ। बाद में विकसित होते होते इन्हें दर्शन प्रणालियों का रूप प्राप्त हुआ। भारत में मुख्यतः साँख्य और वेदान्त प्रणालियाँ विकसित हुईं। जगत की व्युत्पत्ति और उस के व्यापार की तार्किक व्याख्या करने वाली प्रणालियों ने वैज्ञानिकों को इन की सत्यता को परखने का अवसर प्रदान किया। इस तरह हम कह सकते हैं कि दर्शन ने विज्ञान का मार्गदर्शन किया।
लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं होती है। जब विज्ञान ने दर्शनों को परखना आरंभ किया, तो उन की अनेक प्रस्थापनाओं को अपने प्रयोगों और उन के परिणामों से खारिज भी किया। इस तरह दर्शन ने जो निष्कर्ष दिए थे उन्हें विज्ञान के निष्कर्षों ने प्रतिस्थापित करना आरंभ कर दिया। यहाँ दर्शन की एक नई भूमिका आरंभ हो गई। अब उसे विज्ञान के निष्कर्षों के अनुरूप स्वयं को बदलना था, अर्थात जिन अवधारणओं को विज्ञान द्वारा परख कर खारिज या मान्य कर दिया था, दर्शन को स्वयं के विकास के लिए उस के आगे की यात्रा आरंभ करनी थी। इस रह हम देखते हैं कि दर्शन और विज्ञान के बीच एक विचित्र संबंध है। दर्शन विज्ञान का पथप्रदर्शन करता है, लेकिन विज्ञान दर्शन को खुद को दुरूस्त करने का अवसर देता है और दर्शन खुद को संशोधित करते हुए पुनः नयी अवधारणा प्रस्तुत कर विज्ञान का मार्गदर्शन कर सकता है। बहुत लोग किसी एक दर्शन प्रणाली के अनुयायी हो कर विज्ञान की अनदेखी करते हुए दर्शन का राग अलापते रहे और आज तक अलाप रहे हैं। लेकिन यह ठीक नहीं है। जहाँ तक विज्ञान अपनी खोजों से पहुँच गया है, उस के आगे भी उस के पास बहुत से अनुत्तरित प्रश्न मौजूद हैं। दर्शन का दायित्व है कि आज तक के वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर इन अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तरों के लिए अपनी अवधारणाएँ प्रस्तुत करे और विज्ञान की आगे की यात्रा के लिए उस के पथ प्रदर्शक का काम करे। मुझे लगता है कि एक शताब्दी से कुछ अधिक काल से इस काम में दर्शनशास्त्र और दार्शनिक पिछड़े हैं और दर्शनशास्त्र वैज्ञानिकों का मार्गदर्शन करने में स्वयं को असमर्थ पाता है। यह आज के दर्शनशास्त्र के विद्यार्थियों और अध्येताओं के लिए एक चुनौती है। मैं पिछले तीस वर्षों से लगातार यह सोच रहा हूँ कि विश्वविद्यालयों के स्नातक उपाधि के पाठ्यक्रम में भौतिकी और दर्शन विषय को एक साथ पढ़ने का अवसर विद्यार्थियों को क्यों नहीं मिलता है।
जब मैं साँख्य पढ़ रहा था तो मुझे बार-बार ईश्वरकृष्ण की पुस्तक साँख्यकारिका पढ़नी पड़ी। मेरे पास इस पुस्तक की जो प्रति थी वह 1960 का संस्करण था। इसे मेरे चाचा जी ने संस्कृत के स्नातकोत्तर के अध्ययन के लिए खरीदा था, तब इस का मूल्य मात्र एक रुपया था। पुस्तक पूरी ही थी। लेकिन पिछला कवर पृष्ठ निकल चुका था और कागज इस नाजुक अवस्था में पहुँच चुका था कि वह जरा भी लापरवाही बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं था। मैं ने पुस्तक की सुरक्षा के लिए उसे पुरानी कॉपी के एक पन्ने में लपेट दिया था। कल उस पन्ने को अलग कर पुस्तक पर एक नए कागज का कवर ठीक से लगा कर उसे अलमारी में सुरक्षित रखा। निकाला गया पन्ना देखा तो वह बेटी पूर्वा की किसी कॉपी का था। उस पर एक रचना लिखी थी। यह किस की रचना थी? यह तो मैं बता सकने में असमर्थ हूँ। लेकिन उस रचना को आप के सामने रखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। यह रचना आज के नौजवानों की महत्वाकांक्षा को बहुत खूबसूरती और रूमानियत के साथ प्रकट करती है जो शायद उस की आदिम आकांक्षा भी रही है। तो यह रचना प्रस्तुत है, आप को पसंद आए तो उस अनाम रचनाकार के लिए दो शब्द जरूर लिखें।
दुःख के लमहे डि-लीट करते
  • अनाम रचनाकार
काश दुनिया एक कम्प्यूटर होती, जिस में डू और अन-डू करते।
सुख के लमहे सेव हो जाते, दुःख के लमहे डि-लीट करते।।

मज़े की मनचाही विंडो, जब चाहे हम औपन करते।
मुस्तकबिल के ताने बाने, अपनी चाहत से खुद ही बुनते।।

ख्वाहिशों की होती फाइल, जिस में कट और कॉपी करते।
जब भी होता वायरस पैदा, दुनिया को री-फॉर्मेट करते।।

खुशियों के रंगों से तस्क़ीन, फीके लमहे रंगीन करते।
काश दुनिया एक कम्प्यूटर होती, जिस में डू और अन-डू करते।।