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शनिवार, 15 अगस्त 2009

मिथ्या साबित आजादी और जनता के सपने


आजादी की बासठवीं वर्षगाँठ है। गाँव-गाँव में समारोह हो रहे हैं। शायद वही गाँव ढाणी शेष रह जाएँ, जहाँ कोई स्कूल भी नहीं हो। अपेक्षा की जा सकती है कि जहाँ अन्य कोई सरकारी दफ्तर नहीं होगा वहाँ स्कूल तो होगा ही। नगरों में बड़े बड़े सरकारी आयोजन हो रहे हैं। सरकारी इमारतें रोशनी से जगमगा रही हैं। कल रात नगर के प्राचीन बाजार रामपुरा में था तो वहाँ सरकारी इमारत के साथ दो अन्य इमारतें भी जगमगा रही थीं। पूछने पर पता लगा कि ये दोनों जगमगाती इमारतें मंदिर हैं और जन्माष्टमी के कारण रोशन हैं। जन्माष्टमी को जनता मना रही है। आज नन्दोत्सव की धूम रहेगी। कृष्ण जन्म भारत में जनता का त्योहार है। इसे केवल हिन्दू ही नहीं मना रहे होते हैं। अन्य धर्मावलम्बी और नास्तिक कहे-कहलाए जाने वाले लोग भी इस त्योहार में किसी न किसी रुप में जुटे हैं। जन्माष्टमी को कोई सरकारी समर्थन प्राप्त नहीं है। क्यों है? इन दोनों में इतना फर्क कि हजारों साल पुराने कृष्ण से जनता को इतना नेह है। आजादी की वर्षगाँठ से वह इतना निकट नहीं। वह केवल बासठ बरसों में एक औपचारिकता क्यों हो गया है?

कल दिन में मुझे एक पुराना गीत स्मरण हो आया। 1964 में जब मैं सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था। हमारे विद्यालय ने इसी गीत पर एक नृत्य नाटिका प्रस्तुत की थी, जिस में मैं भी शामिल था। गीत के बोल आज भी विस्मृत नहीं हुए हैं। बहुत बाद में पता लगा कि यह गीत शील जी का था। इस गीत में आजादी के तुरंत बाद के जनता के सपने गाए गए थे। आप भी देखिए क्या थे वे सपने? ..........

आदमी का गीत
-शील

देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल।
नया संसार बसाएंगे, नया इन्सान बनाएंगे।।

सौ-सौ स्वर्ग उतर आएँगे,
सूरज सोना बरसाएँगे,
दूध-पूत के लिए पहिनकर
जीवन की जयमाल,
रोज़ त्यौहार मनाएंगे,
नया संसार बसाएंगे, नया इंसान बनाएंगे।

देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल।
नया संसार बसाएँगे, नया इन्सान बनाएँगे॥

सुख सपनों के सुर गूंजेंगे,
मानव की मेहनत पूजेंगे
नई चेतना, नए विचारों की
हम लिए मशाल,
समय को राह दिखाएंगे,
नया संसार बसाएंगे, नया इन्सान बनाएंगे

देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल।
नया संसार बसाएंगे, नया इन्सान बनाएंगे।

एक करेंगे मनुष्यता को,
सींचेंगे ममता-समता को,
नई पौध के लिए, बदल
देंगे तारों की चाल,
नया भूगोल बनाएँगे,
नया संसार बसाएंगे, नया इन्सान बनाएंगे

देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल।
नया संसार बसाएँगे, नया इन्सान बनाएँगे॥

इस गीत में शील जी के देखे सपने, जो इस देश का निर्माण करने वाली मेहनतकश किसान, मजदूर और आम जनता के सपने हैं, नवनिर्माण का उत्साह, उल्लास और उत्सव है। जनता कैसा भारत बनाना चाहती थी इस का ब्यौरा है।  लेकिन विगत बासठ वर्षों में हमने कैसा भारत बनाया है? हम जानते हैं। वह हमारे सामने प्रत्यक्ष है। जनता के सपने टूट कर चकनाचूर हो चुके हैं।  चूरा हुए सपने के कण तो अब मिट्टी में भी तलाश करने पर भी नहीं मिलेंगे।

क्या झूठी थी वह आजादी?  और यदि सच भी थी, तो हमारे कर्णधारों ने उसे मिथ्य करने में कोई कोर-कसर न रक्खी थी। आज देश उसी मिथ्या या मिथ्या कर दी गई आजादी का जश्न मना रहा है। वह जश्न सरकारी है या फिर उस झूठ के असर में आए हुए लोग कुछ उत्साह दिखा रहे हैं। करोड़ों भारतीय दिलों में आजादी की 62वीं सालगिरह पर उत्साह क्यों नहीं है। इस की पड़ताल उन्हीं करोड़ों श्रमजीवियों को करनी होगी, जिन के सपने टूटे हैं।  वे आज भी यह सपना देखते हैं। उन्हों ने सपने देखना नहीं छोड़ा है।  इन सपनों के लिए, उन्हें साकार करने के लिए, एक नई आजादी हासिल करने के लिए एक लड़ाई और लड़नी होगी। लगता है यह लड़ाई आरंभ नहीं हुई। पर यह भ्रम है। लड़ाई तो सतत जारी है। बस फौजें बिखरी बिखरी हैं। उन्हें इकट्ठा होना है। इस जंग को जीतना है।

मिथ्या की जा चुकी आजादी की सालगिरह पर, हम मेहनतकश, अपने सपनों को साकार करने वाली एक नयी आजादी को हासिल करने के लिए इकट्ठे हों।  ऐसी आजादी के लिए, जिस का सपना इस गीत में देखा गया है।  जिस दिन हम इसे  हासिल कर लेंगे।  आजादी के जश्न में सारा भारत दिल से झूमेगा। भारत ही क्यों पूरी दुनिया झूम उठेगी।

आजादी के इस पर्व पर,  
नयी और सच्ची आजादी के लिए शुभकामनाएँ!