@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

बुधवार, 9 दिसंबर 2009

दुल्हन ले आए, ताऊ-ताई को छोड़ आए




भारतीय विवाह एक बहुत जटिल और संष्लिष्ट समारोह है। इस में बहुत से सूत्र इस तरह एक दूसरे से गुंथे होते हैं कि अनेक गुत्थियों को समझना बहुत कठिन होता है। एक मित्र के पुत्र का विवाह था। मित्र के पिता तो बहुत वर्ष पहले गुजर गए। मित्र के काका अभी मौजूद हैं। हालांकि वृद्ध हो चुके हैं। मित्र जब भी गांव जाता हमेशा उन से कहता कि बेटे की शादी है, काकाजी आप को उस की बारात में चलना है।  शादी में काका जी दो दिन पहले ही आ गए। परिवार में सब से बड़ी उम्र के पुरुष। परिवार और मित्र जो भी जिस जिस समारोह में पहुँचा उन से मिल कर प्रसन्न होता। वे अधिक चल फिर नहीं रहे थे, लेकिन वे एक स्थान पर बैठे सब का अभिवादन स्वीकार करते और आशीर्वाद देते। 

बारात 350 किलोमीटर बसों से जानी थी। कुछ कारें भी साथ थीं। दस घंटे जाने का सफर और इतना ही आने का भी। और करीब बारह से चौदह घंटे का ठहराव. काका जी की अवस्था देख मित्र के मन में आया कि उन्हें बारात में बहुत कष्ट होगा। उन्हें आराम न मिलेगा, कहीं सर्दी में उन का स्वास्थ्य खराब न हो जाए। मित्र ने उन से अपने मन की बात कह दी। वे नाराज हो गए। कहने लगे मेरे पहले पोते का ब्याह है औऱ मैं ही न जाऊँ बारात में यह कैसे हो सकता है। कुछ देर बाद मैं पहुँचा तो मित्र ने बताया कि काकाजी मान नहीं रहे हैं। उन से बारात के कष्ट बता कर न जाने को कहा तो नाराज हो गए, बोल ही नहीं रहे हैं। मैं ने कहा सही बात है, उन्हें नहीं ले जाओगे तो बारात का क्या आनंद होगा। उन की तीन बेटियाँ, दामाद, एक बेटा-बहू साथ जा रहे हैं सब संभाल लेंगे। तुम उन से जा कर कहो कि मैं तो मजाक कर रहा थाष आप के बिना कोई बारात कैसे जा सकती है। यह बात मित्र ने कही तो काका जी खुश हो गए और बारात में गए और सकुशल वापस भी लौट आए। एक जरा सी बात ने काकाजी को नाराज किया और शादी में कुछ घंटों के लिए ही सही प्रसन्नता के स्थान पर अवसाद आ गया था वह दूर हो गया।

बारात जिस दिन जाना था उस से पहली रात मेरा हाजमा खराब हो गया। रात को अम्लता ने बहुत कष्ट दिया। मैं किसी तरह बारात में जाने से बच गया था। आज जब दुल्हन के लिए आशीर्वाद समारोह में पहुँचा तो वहाँ एक और विचित्र घटना पता लगी। बारात की एक बस रात को 12 बजे ही रवाना हो गई और करीब आधे बाराती उस से वापस रवाना हो गए। चार घंटे बाद जब दुल्हन की विदाई हुई तो बारात की फाइनल खेप वहाँ से रवाना हुई। दुल्हे के ताऊ भाँवर के बाद आ कर होटल के कमरे में कुछ आराम करने के लिए लेटे और उन्हें नींद लग गई। उसी कमरे में कुछ देर बाद ताई वहाँ आई तो बिस्तर खाली देख वह भी कुछ देर आराम के लिए लेट गई। होटल में और कोई बाराती था नहीं, तो उन्हों ने कमरे को अंदर से बंद कर दिया। बारात की दूसरी बस रवाना हो गई और ताऊ-ताई सोते रह गए। जब बस आधी दूर आ गई होटल वालों ने कमरे संभालना आरंभ किया तो एक कमरा बंद पाया। ताऊ-ताई को जगा कर कमरा खुलवाया गया। बारात को मोबाइल से खबर भेजी गई। ताऊ-ताई को दुल्हन के पिता ने बस में बिठा कर विदा किया। वे सकुशल वापस पहुँच भी गए। पर नाराज तो वे हो ही गए थे कि आखिर बारात उन्हें छोड़ कर कैसे आ गई। वे गुस्से के मारे या लज्जा के कारण आशीर्वाद समारोह में नहीं आए। अब उन्हें मनाने में मित्र को कई महिने लगेंगे, हो सकता है साल भी लगें। मुझे ही जा कर मनाना होगा। वैसे ताऊ-ताई थोड़ा साहस जुटाते और आशीर्वाद समारोह में इस विचित्र दुर्घटना का आंनंद ले कर शामिल होते तो समारोह का आनंद कुछ और ही होता।

स दूल्हे के पिता और बारात व्यवस्थापक यदि बारात की फाइनल खेप रवाना होते समय होटल के कमरे ठीक से चैक कर लेते तो यह घटना नहीं होती। उन की इस एक गलती ने समारोह का मजा खराब कर दिया। हालांकि पुराने जमाने की शादियाँ इसी तरह की विचित्र घटनाओं के लिए अविस्मरणीय बन जाती थीं और बार बार स्मरण की जाती हैं।

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

तब तो अब हड़ताल भी खत्म हो ही जाएगी

दि कोई पूछे कि भारत में सब से अधिक क्या होता है? तो सब से आसान उत्तर है, जी चुनाव!
बिलकुल सही है यहाँ चुनाव ही सब से अधिक होते हैं। शायद सब से मजबूत जनतंत्र की यही निशानी है, या फिर जनतंत्र है, यह साबित करने को यह सब करना होता है। अब देखिए ना, अभी मई में देश भर में लोकसभा के चुनाव हुए ही थे। पूरे दो माह तक देश इन की चपेट में रहा।  ये चुनाव निपटे ही  थे कि फिर से चुनाव के लिए मतदाता सूचियों में संशोधन का काम आरंभ हो गया। नवम्बर में नगर निगम के चुनाव जो होने थे। इस बार इस चुनाव में बहुत कुछ बदला गया। वार्डों का पुनर्सीमांकन किया गया। नए सिरे से पर्चियाँ डाल कर तय किया गया कि किस वार्ड से किस-किस तरह का आरक्षण रहेगा। ऐन वक्त पर यह भी तय हुआ कि इस बार मेयरक का चुनाव वार्ड पार्षद के स्थान पर सीधे जनता ही करेगी। इस जरा सी बात ने बहुत कुछ बदल दिया। पन्द्रह वर्ष से नगर निगम पर काबिज भाजपा को जनता ने विदा किया और मेयर कांग्रेसी चुन दिया। साथ में तीन चौथाई से अधिक वार्ड पार्षद भी कांग्रेस के चुन दिए।

स बीच कोटा के वकील 29 अगस्त को हड़ताल पर चले गए। हड़ताल एक सौ दस दिन पूरे कर के भी जारी है।  बून्दी और झालावाड़ जिलों के वकील भी इस हड़ताल में शामिल हैं। चाहते हैं कि कोटा में हाईकोर्ट की एक अदद बैंच स्थापित की जाए। एक चौथाई साल  हड़ताल चलते हो चुका है, लेकिन कोई नतीजा ही सामने नहीं है। जिस दिन नगर निगम के चुनाव के लिए आचार संहिता लागू होनी थी उस के ठीक पहले मुख्यमंत्री ने बुलाया, बात की। वे सभी मांगें मानने को तैयार थे। लेकिन हाईकोर्ट के मामले में आश्वासन तो दूर मुहँ से कुछ भी निकालने को मना कर दिया। वे जोधपुर से हैं जहाँ हाईकोर्ट की मुख्य पीठ है। वहाँ के लोग जयपुर में स्थापित की गई बैंच को ही पिछले 32 साल में बर्दाश्त नहीं कर पाए तो एक और बैंच को कैसे बर्दाश्त कर पाएंगे। यह बात मुख्यमंत्री के मुहँ से निकले तो कैसे? आखिर उन्हें अगली बार फिर वहीं से चुनाव जो लड़ना है। मुख्यमंत्री और तमाम राजनेता चुनाव में व्यस्त हो गए। इधर हड़ताल जारी रही। 

चुनाव के दौरान ही केन्द्रीय विधि मंत्री से दिल्ली में प्रतिनिधि मंडल ने भेंट की उन्हें सब कुछ बताया। उन के मुख से केवल इतना ही निकला कि 2010 में हाईकोर्टों की बैंचें खोलने के प्रस्ताव हैं। इन में एक बैंच राजस्थान में स्थापित की जाएगी।  स्थापना कहाँ हो? इस के लिए तथ्यात्मक रिपोर्ट के साथ राज्य सरकार रिपोर्ट करेगी तब निर्णय हो सकेगा। वकीलों का आंदोलन फिर से वहीं आ गया था। गेंद फिर से राज्य सरकार के पाले में थी। चुनाव संपन्न हो गए।  उसी दौर में कोटा अभिभाषक परिषद के सदस्य और कोटा  ही विधायक चुने गए राजस्थान के विधिमंत्री से बात हुई तो कहने लगे अभी चुनाव में व्यस्त हूँ, चुनाव नतीजे निकलते ही आप लोगों से आ कर मिलता हूँ। हड़ताल चलती रही। जब हड़ताल आरंभ हुई थी तो  बार काऊंसिल के चुनाव  की तैयारी आरंभ हो चुकी थी और कहा जा रहा था कि हड़ताल तो चुनाव की वजह से हो रही है जिस से उम्मीदवारों को  प्रचार का अवसर मिल जाए। हड़ताल के बीच ही राजस्थान की बार कौंसिल के चुनाव हो लिए। डेढ़ माह बाद  ठीक दो दिन पहले उस के नतीजे भी आ चुके हैं। हड़ताल फिर भी जारी है।

ब अभिभाषक परिषद के चुनाव आ गए हैं। सब चुनाव टल सकते हैं लेकिन अभिभाषक परिषद के नहीं। विधान में लिखा है कि दिसम्बर की 15 तारीख तक किसी भी हाल में चुनाव संपन्न किए जाएंगे और जनवरी की 3 तारीख तक हर हाल में नयी कार्यकारिणी को कार्यभार सोंप दिया जाएगा। तब से ये दो तारीखें पत्थर की लकीर हो गई हैं। लोगों ने अपने अपने नामांकन भर दिए हैं। परिषद के अध्यक्ष के लिए नौ और सचिव के लिए ग्यारह उम्मीदवार मैदान में हैं। कल नामांकन वापसी का दिन है। उस के बाद ही पता लगेगा कि कितने उम्मीदवार मैदान में रह गए हैं। जिन उम्मीदवारों को चुनाव लड़ना ही है, उन्हों ने प्रचार आरंभ कर दिया है।  वकील जब शाम को घर लौटते हैं और पत्नियाँ उन की जेब तलाशी करती हैं तो वहाँ रुपयों की जगह उम्मीदवारों द्वारा याद्दाश्त के लिए दी गई पर्चियाँ  निकलती हैं। उन्हें भी पता लग चुका है कि चुनाव आ गया है। वे पूछती हैं। इस चुनाव के बाद तो कोई चुनाव नहीं है न? जवाब मिलता है  -नहीं, अब कम से कम एक-दो माह तो कोई चुनाव नहीं है, तो वे कहती हैं तब तो अब हड़ताल भी खत्म हो ही जाएगी।

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

आखिर करोड़ों का क्या करेंगे?


'कहानी'
आखिर करोड़ों का क्या करेंगे?  

  • दिनेशराय द्विवेदी 
भाई साहब ने दो दिन पहले फोन किया था कि मैं रविवार की रात को उपलब्ध रहूँगा या नहीं? बताया कि उन्हों ने विनय को फोन किया था, लेकिन वह गाँव गया हुआ है, तब तक लौटेगा नहीं। उन्हें नागपुर बेटे के पास जाना है और कोई उपलब्ध नहीं हो रहा है। मैं ने कहा वासु के बेटे की शादी है उस के संगीत कार्यक्रम में रहना होगा। पर नौ बजे तक छूट लूंगा। जब कोई उपलब्ध नहीं हो रहा है तो मेरे पास कोई विकल्प  नहीं रह गया था मैं ने कहा मैं आ जाउंगा आप को ट्रेन पर छोड़ दूंगा।
भाई साहब अध्यापक थे। फिर प्रिंसिपल और इंस्पेक्टर भी रहे। हमेशा सादगी भरा जीवन रहा उन का। अब भी शिष्य उन्हें पूछते रहते हैं। भाभी जी का देहांत हो चुका है। बेटी ससुराल में है। बेटा नागपुर में व्यवसाय कर रहा है। यहाँ के वे रहने वाले नहीं हैं। लेकिन उन के बहुत रिश्तेदार यहीँ रहते हैं। उन्हों ने भी कभी एक बड़ा सा भूखंड ले कर कुछ हिस्से पर मकान बना लिया था। वक्त गुजरने के साथ कौड़ियों के मोल लिया भूखंड लाखों, करोड़ से भी ऊपर का हो चुका है।  तीन सप्ताह बेटे के पास और पाँच  सप्ताह अकेले घऱ में रहते हैं। दो कमरे किराए पर दे रखे हैं। किराएदार से मकान की सुरक्षा रहती है। साल भर पहले बीमार हुए, रीढ़ की हड़्डी में बीमारी है, चार माह तो बिलकुल बिस्तर पर रहे। डाक्टर ने कुछ चलने फिरने की छूट दी तो अब पाँच सप्ताह बेटे के पास और तीन सप्ताह यहाँ मकान में रहने लगे हैं। अभी भी बेल्ट बांध कर रहना पड़ता है।
मैं भूल गया मुझे भाई साहब को छोड़ने जाना है। मैं वासु के बेटे की शादी की संगीत पार्टी में था। तभी वहाँ विनय पत्नी सहित दिखाई दिया। मुझे याद आया भाई साहब को छो़ड़ने जाना है। मुझे आश्चर्य हुआ कि विनय तो गांव गया हुआ था। उस ने मुझे देख अभिवादन किया। मैं ने पूछा गाँव नहीं जाते आज कल। तो कहा वहीं से आ रहा हूँ अभी, इस शादी के कारण। खाना आरंभ हो गया था। मैं ने पत्नी को इशारा किया और खुद खाना आरंभ कर दिया। कुछ देर में ही पत्नी भी आ गई। हम वहाँ से विदा ले घर पहुँचे। साढ़े नौ बज चुके थे। मैं ने रेलवे को फोन कर पूछा पता लगा ट्रेन सही समय 9.55 आ रही है। तभी भाई साहब का फोन आ गया। हम तुरंत रवाना हो गए। उन के साथ एक सूटकेस और एक बड़ा बैग था। दोनों का वजन पंद्रह-पंद्रह किलो से कम न था, एक पानी की कैटली थी। मैं ने सामान कार में रखा और हम रवाना हो गए। रास्ते में भाई साहब ने बताया कि उन्हों ने शादी में विनय की मदद की थी। विनय ने पिछले महिने ही रकम वापस उन के खाते में जमा करा दी है। सूटकेस और बैग में वजन अधिक है पुल पार कर प्लेटफार्म तक जाने में कठिनाई होगी। कुली कर लें तो बेहतर होगा। पर कुली ट्रेन में सामान चढ़ाने तक नहीं रुकेगा।

हाँ कार पार्क की वहाँ कुली नहीं था। मैं ने सूटकेस और बैग को उन में लगे पहियों पर खींचा और पुल तक ले गया। वे वाकई वजनी थे और आसानी से खिंच भी नहीं रहे थे। भाई साहब उन्हें खींचते तो रीढ? वापस आठ माह पुरानी स्थति में पहुँच जाती। मुझे अपनी किशोरावस्था याद आ गई मैं ने एक हाथ में बैग और एक में सूटकेस उठाया और पुल पर चढ़ गया। इसी तरह दूसरे प्लेटफार्म पर उतरा। हम करीब आधे घंटे पहले प्लेटफार्म पर थे।  अच्छी खासी सर्दी के बावजूद में पसीने में नहा गया था।  मैं ने कहा आजकल स्लीपर में परेशानी होती है। कई बार सवारियां अधिक हो जाती हैं। वे बताने लगे बेटा तो हमेशा एसी के लिए बोलता है पर मुझ से एसी बर्दाश्त नहीं होता, और फिर इस सर्दी में?
ट्रेन वक्त पर ही आ गई। उन्हे और उन का सामान चढाया। उन की बर्थ पर कोई सोया हुआ था और बर्थों के बीच फर्श पर भी। सीटों के नीचे सामान रखने को स्थान बिलकुल रिक्त न था। सोये हुए को जगाया गया। उसने तुरंत बर्थ खाली कर दी। सोये हुए के बारे में पूछा तो वह बताने लगा उन के साथ है। उन्हों ने छह टिकट कराए थे लेकिन दो वेटिंग में रह गए। उन्हों ने सामान को किसी तरह रखवाया। भाई साहब को लेटने की जगह मिल गई। गाड़ी चल दी तो हम वापस चले आए।
ह सब कल की बात थी। मैं सुबह काम पर चला गया। वापस लौटते हुए वासु के घर गया। कल वजन उठाने का करतब करने का नतीजा आने लगा था। हाथ, पैर और पीठ तीनों अकड़ना आरंभ कर चुके थे। मैं ने वासु को बताया कि मुझे भाई साहब को छोड़ने जाना पड़ा था। स्लीपर में बर्थ रिजर्व होते हुए भी मुश्किल से सफर किया होगा उन्हों ने। वासु कह रहा था। एसी में क्यों नहीं जाते? और बार बार यहाँ आने की जरूरत क्या है? बेटे के साथ क्यों नहीं रहते? आखिर करोड़ों का क्या करेंगे?

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

सौंदर्य और सार -शिवराम के कुछ दोहे

पिछले दो दिनों से आप अनवरत पर शिवराम की कविताएँ पढ़ रहे हैं। नवम्बर में जब मैं यात्रा पर था तो उन की तीन पुस्तकों का लोकार्पण हुआ। यात्रा से लौटते ही उन की तीनों पुस्तकें मिलीं, उन्हें पढ़ रहा हूँ। शिवराम का बहुत कुछ साथ रह कर सुना पढ़ा है। पर जब वह सब कुछ पुस्तक रूप में सुगठित हो कर आया है तो अहसास हो रहा है कि वे कितने बड़े कवि हैं। वास्तव में पुस्तकबद्ध साहित्य अपनी कुछ और ही छाप छोड़ता है। तीन पुस्तकों में एक "खुद साधो पतवार" उन के दोहों की पुस्तक है। दोहों में एक विशेषता है कि वे संक्षिप्त और स्वतंत्र होते हैं। सारा सौंदर्य और सार चंद शब्दों में व्यक्त होता है। उन के अर्थ के अनेक आयाम होते हैं। यहाँ उन के कुछ दोहे प्रस्तुत कर रहा हूँ जो साहित्य के सब से प्राचीन विवाद 'तत्व और रूप' या 'सौन्दर्य और सार' पर अपनी बात कह रहे हैं।  

सौंदर्य और सार
  • शिवराम

दृष्टि जो अटके रूप में, सार तलक नहिं जाय।
सुंदरता के सत्य को, समझ वो कैसे पाय।।


मन, दृष्टि और वस्तु का, द्वंद जो ले आकार।
तब कोई रूप अनूप बन, होता है साकार।।


रूप अनोखा है मगर, सारहीन है सार।
ऐसी थोथी चारुता, आखिर को निस्सार।।


सुंदरता मन में बसे, बसे दृष्टि के माँहि।
असली सुंदर वो छवि, जाकी छवि मन माँहि।।


सुंदरता के मर्म की, क्या बतलाएँ बात।
किसी को दिन सुंदर लगे, किसी को लगती रात।।

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शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

'अनहद' शिवराम की कविता

ल शिवराम की कुछ अटपटी सी, लटपटी सी कविता "सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प" आप के सामने थी। आज उन की एक बहुत ही लघु कविता आप के सामने है। यह शिल्प का अनुपम उदाहरण है कि कितने कम शब्दों में जबर्दस्त कविता की जा सकती है। न्यूनतम शब्द होते हुए भी  अपनी विषय वस्तु को पूरी तीव्रता से रख देती है।

अनहद

  •  शिवराम
कौन कहता है
कि-
हर चीज की 
एक हद होती है

तुम्हारा ज़ब्र
अनहद,

हमारा सब्र
अनहद।

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

"सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प"

'शिवराम' बहुत बड़े लेखक हैं, नामी नाटककार हैं, उन के नाटकों के बहुत भाषाओं में अनुवाद हुए हैं, वे देश में और बाहर खेले गए हैं, वे समर्थ कवि भी हैं और ऊपर से आलोचक भी हैं। पर वे अभी पत्रिकाओं नाट्य, साहित्य और सांस्कृतिक संगठनों तक सीमित हैं। उन के नाटकों और कविताओं की कुछ किताबें प्रकाशित हुई हैं लेकिन सीमित संख्या में। जब आप उन की चर्चा करते हैं तो मैं केवल चर्चा सुन कर रह जाता हूँ। मैं उन्हें पढ़ना चाहता हूँ। लेकिन कैसे पढ़ूँ? उन की किताब मुझे मिले तब न। उन की रचनाएँ इंटरनेट पर किसी तरह आ जाएँ तो मैं पढ़ भी सकता हूँ और लोगों को पढ़ने के लिए कह भी सकता हूँ। इंटरनेट महत्वपूर्ण साहित्य को विश्व भर में उपलब्ध कराने का माध्यम बन रहा है। ब्लाग इस कमी की पूर्ति कर रहे हैं।
ज शाम अजित वडनेरकर जी से फोन पर लंबी बात हुई तो यह सब उन्हों ने कहा, मैं ने गुना। वास्तव में इंटरनेट और ब्लाग की यह भूमिका बहुत बड़ी है। उन से और भी बात हुई कि ब्लाग पर क्या लिखना चाहिए? लेकिन वह फिर कभी। अभी संदर्भ में 'शिवराम' आ गए हैं, तो उन की एक विचित्र कविता पढ़िए!  पढ़िए क्या गुनगुनाइए! और कोई धुन पकड़ में आ जाए तो उसे औरों को भी सुनाइए। कविता का शीर्षक है  "सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प"

"सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प"
  •  शिवराम
मनमोहन की नाव में, छेद पचास हजार।
तबहु तैरे ठाट से, बार बार बलिहार।।

नाव नदिया में डूबी
नदी की किस्मत फूटी
नदी में सिंधु डूबा जाय
सिंधु में सेतु रहा दिखाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

वाम झरोखा बैठिके, दाँयी मारे आँख।
कबहु दिखावे नैन तो, कबहु खुजावे काँख।।
नयन से नयन लड़ावै
प्रेम बढ़तो जावै
नयनन कुर्सी रही इतराय
'सेज' में मनुआ डूबो जाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

माया सच्ची, माया झूठी, सिंहासन की माया
ये जग झूँठा, ये जग साँचा, ये जग ब्रह्म की माया।।
माया ब्रह्म के अंग लगे
ब्रह्मा माया में रमे
ब्रह्म को माया रही लुभाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

अड़ अड़ के वाणी हुई, अड़ियल, चपल, कठोर।
सपने सब बिखरन लगे, घात करी चितचोर।।
चित्त की बात निराली
तुरप बिन पत्ते खाली
चेला चाल चल रहा
गुरू अब हाथ मल रहा
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।


अब आप ही बताएँ कि कैसी रही कविता? और कैसी रही गप्प?

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

ऐ लड़की * महेन्द्र 'नेह' की एक कविता

महेन्द्र नेह की एक कविता उन के सद्य प्रकाशित संग्रह थिरक उठेगी धरती से ...

ऐ लड़की
  • महेन्द्र  'नेह'
ऐ, लड़की
ऐ, लड़की
तू प्यार के धोखे में मत आ


ऐ, लड़की
तू जिसे प्यार समझे बैठी है
वह और कुछ है
प्यार के सिवा


ऐ, लड़की तूने
अपने पाँव नहीं देखे
तूने अपनी बाँहें नहीं देखीं
तूने मौसम भी तो नहीं देखा


ऐ, लड़की
तू प्यार कैसे करेगी?
ऐ, लड़की
तू अपने पाँवों में बिजलियाँ पैदा कर

 ऐ, लड़की
तू अपनी बाँहों में पंख उगा
ऐ, लड़की
तू मौसम को बदलने के बारे में सोच
ऐ, लड़की
तू प्यार के धोखे में मत आ।

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

विपक्ष में तो अब बस जनता रह गई है, चूसे जाने के लिए

पिछले आलेख पर बड़े भाई ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी थी .....
"ज्ञानदत्त G.D. Pandey 1 December, 2009 4:31 PM   मन्दी? कहां है मन्दी? रेल यातायात डील करते समय मुझे मन्दी नहीं दीखती। कितना सीमेण्ट, कोयला, स्टील, उर्वरक ... सब चले जा रहा है अनवरत। और बहुत कुछ जा रहा है पूर्वान्चल/बिहार को! मुझे बताया गया कि ग्रोथ रेट सात परसेण्ट के आस-पास है। विपक्ष जोर लगा कर भी मंहगाई को सफल चुनावी मुद्दा नहीं बना पाया। सो मन्दी तो मिथक है। जिसे हम सब एक्स्प्लेनेशन के लिये पाल रहे हैं"


लेकिन उन लाखों लोगों से पूछें जो मंदी के नाम पर छंटनी के फलस्वरूप बेरोजगार कर दिए गए हैं। उन से पूछें जिन से उन के  माथे पर छंटनी की तलवार लटका कर आठ घंटों के स्थान पर चौदह और सोलह घंटे काम लिया जा रहा है या उन से कम वेतनों पर काम करने की नयी सेवा शर्तें तय करा ली गई हैं। उन विद्यार्थियों से पूछें जिन के कैंपस सेलेक्शन के बाद अभी तक नियुक्तियों का पता नहीं है। जहाँ नियुक्तियाँ हो भी रही हैं वहाँ वेतन लगभग आधे कर दिए गए हैं। एक सोफ्टवेयर इंजिनियर को छह से दस हजार प्रतिमाह की नौकरी के प्रस्ताव मिल रहे हैं। उन के लिए मंदी है। नहीं है तो फिर जनता को झाँसा दे कर लूटा जा रहा है।

ज्ञान जी ने जो उदाहरण दिए हैं वे सब रेलवे से संबद्ध हैं। भारतीय रेलवे आबादी और उस की जरूरतों के मुकाबले बहुत छोटी हो गई है। उस के पास सवारियाँ ढोने को कम गाड़ियाँ हैं। जो हैं उन्हें चलाने के लिए पर्याप्त रेलपथ नहीं हैं। गाड़ियों की सूची इतनी व्यस्त है कि एक जरा सी भी बाधा से कई दिनों तक का मामला खराब हो जाता है। इधर कोटा के आसपास जो थर्मल बिजलीघर हैं उन के बारे में पिछले दिनों खबर थी कि कोयला समय पर नहीं पहुँचा, केवल सात दिनों का स्टॉक रह गया। जो व्यवसाय समाज की आवश्यकता से बहुत न्यून हो जाएगा वहाँ मंदी क्या असर दिखाएगी? लेकिन जिन व्यवसायों में पिछले सालों में मुनाफा बरस रहा था। सारी फालतू पूँजी वहीं समेट दी गई। अतिउत्पादन से वहाँ मंदी आनी ही थी। नतीजा यह हुआ कि बहुत सी इकाइयाँ बैठ गई और उन में लगी पूँजी की कीमत नगण्य हो गई। यही तो मंदी का गणित है।


कुछ क्षेत्रों में तेजी से पूँजी का बहना, उस का संकेन्द्रण और अतिउत्पादन। बाकी सब क्षेत्रों में तो मंदी नहीं दिखाई देगी। वहाँ तो पूँजी का अभाव महंगाई को ही बढ़ाएगा। यही कारण है कि एक ओर मंदी का विशाल दानव दिखाई पड़ता है तो दूसरी ओर महंगाई की दानवी मुहँ बाए खड़ी हो जाती है। आज की अर्थव्यवस्था में जो उत्पादन की अराजकता है। वही तो इन संकटों की जन्मदाता है। एक वर्ष प्याज और टमाटर के भाव आसमान पर होते हैं तो अगले वर्ष उसी की खेती बहुसंख्यक किसान करते हैं और फिर अतिउत्पादन से दोनों सड़ने लगते हैं। लागत न मिलने पर किसान आत्महत्या पर मजबूर हो जाते हैं।
सीमेंट, कोयला, स्टील और उर्वरक ये सब जीवन के लिए आधारभूत वस्तुएं हैं। इन के उत्पादन में मुनाफा कम है और लागत के लिए विशाल पूंजी की आवश्यकता है। इतनी बड़ी पूँजी कौन लगाए? इनमें मंदी का क्या असर हो सकता है? एक बात और, मंदी के बहाने बढ़ाई गई बेरोजगारी, वेतनों में कमी और महंगाई। उपभोक्ताओं की जेब में पहुँचने वाली धनराशि को बड़ी मात्रा में कम करती है और बाजार सिकुड़ता है। यह मंदी के प्रभाव में और तेजी लाती है।


मंदी तो है। मेरा कहना तो यही था कि अर्थव्यवस्था के नियोजन से इस मंदी पर काबू पाया जा सकता है।  किन हम आग लगने पर कुआँ खोदने दौड़ते हैं। पहले से पानी की व्यवस्था नहीं रखते या फिर आग न लगने देने के साधन नहीं करते। क्या हमें वे नहीं करने चाहिए? बड़े भाई ने विपक्षी दलों द्वारा महंगाई के मुद्दे का लाभ न उठा सकने पर निराशा जाहिर की है, पर विपक्षी दल है कहाँ? सब पक्ष में ही खड़े हैं कोई खुल कर खड़ा है तो कोई पर्दे के पीछे। विपक्ष में तो अब बस जनता रह गई है, चूसे जाने के लिए।

सोमवार, 30 नवंबर 2009

मनुष्य अपनी ही बनाई व्यवस्था के सामने इतना विवश हो गया है?

न्यायालयों का बहिष्कार 90 दिन पूरे कर चुका है। इस बीच सारा काम अस्तव्यस्त हो चला है। बिना निपटाई हुई पत्रावलियाँ, कुछ नए काम, कुछ पुराने कामों से संबंधित छोटे-बड़े काम, डायरी आदि।  अपने काम के प्रति आलस्य का एक भाव घर कर चुका है। लेकिन लग रहा है कि जल्दी ही काम आरंभ हो लेगा। इसी भावना के तहत कल दफ्तर को ठीक से संभाला। सरसरी तौर पर देखी गई डाक को ठिकाने लगाया। पत्रावलियों को यथा-स्थान पहुँचाया। अभी भी बहुत सी पत्रावलियाँ देखे जाने की प्रतीक्षा में हैं। कुछ मुवक्किलों को रविवार का समय दिया था। सुबह उठ कर उसी की तैयारी में लगा। लेकिन तभी शोभा ने सूचना दी कि पीछे के पड़ौसी बता कर गए हैं कि ओम जी की माताजी का देहान्त हो गया है। ओम जी मेरे कॉलेज के सहपाठी रहे हैं और आज कल पड़ौसी। इन दिनों विद्यालय में प्राचार्य हैं।  उन के माता पिता दोनों वृद्ध हैं, पिता जी कुछ अधिक क्षीण और बीमार थे। समझा  जाता था कि वे अब मेहमान हैं, लेकिन उन के पहले ही माता जी चल दीं।


स समाचार ने दिन भर के काम की क्रमबद्धता में अचानक हलचल पैदा कर दी। मैं ने जानकारी की कि वहाँ अंतिम संस्कार के लिए रवानगी कब होगी, पता लगा कि कम से कम साढ़े दस तो बजेंगे, उन के बड़े भाई के आने की प्रतीक्षा है। मैं जानता हूँ कि माँ की उम्र कुछ भी क्यूँ न हो, और उन का जाना कितना ही तयशुदा क्यों न हो? फिर भी उन का चला जाना पुत्रों के लिए कुछ समय के लिए ही सही बहुत बड़ा आघात होता है। लेकिन मैं इस वक्त वहाँ जा कर कुछ नहीं कर सकूंगा सिवाय इस के कि लोगों से बेकार की बातों में उलझा रहूँ। संवेदना की इतनी बाढ़ आई हुई होगी की मेरा कुछ भी कहना नक्कारखाने में तूती की आवाज होगी। मैं ने अपने कामों को पुनर्क्रम देना आरंभ किया। मुवक्किलों को फोन किया कि वे दिन में न आ कर शाम को आएँ। शाम को एक पुस्तक के लोकार्पण में जाना था उसे निरस्त किया और अपने कार्यालय के काम निपटाता रहा। शोभा और मेरा प्रात- स्नान भी रुक गया था, सोचते थे वहाँ से आ कर करेंगे। शोभा के ठाकुर जी बिना स्नान रहें यह  उस से बर्दाश्त नहीं हुआ।  उस ने साढ़े दस बजते बजते स्नान कर लिया। सवा ग्यारह पर समाचार मिला कि जाने की तैयारी है। मैं उन के घर पहुँचा और साथ हो लिया।
 नेक लोग मिले। कई बहुत दिनों में। अभिवादन हुए। एक व्यवसायिक पड़ौसी कहने लगे  - आज कल आप घऱ के बाहर बहुत कम निकलते हैं, बहुत दिनों में मिले। उन की बात सही थी। मैं ने मुहल्ले के लोगों पर निगाह दौड़ाई तो पता लगा अधिकांश की स्थिति मेरी जैसी ही है। या तो वे घर के बाहर होते हैं या घर में,  परमुहल्ले में नहीं होते, एक दूसरे के साथ। मैं सोचने लगा कि ऐसा क्यों हो रहा है? मैं ने उन्हें कहा कि इस मोहल्ले में हम जो लोग रहते हैं सभी निम्न मध्यवर्गीय लोग हैं। जो लोग सरकारी या सार्वजनिक उपक्रम की सेवा में हैं या थे,  उन के अलावा जितने भी लोग हैं, वे सभी क्या पिछले तीन चार सालों से आर्थिक रूप से अपने आप को अपनी नौकरियों और व्यवसायों में सुरक्षित महसूस नहीं करते? और क्या इसी लिए वे खुद अपने को सुरक्षित बनाए रखने के लिए अधिकतर निष्फल प्रयत्न करते हुए अचानक बहुत व्यस्त नहीं हो गए हैं? मुझे उन का जवाब वही मिला जो अपेक्षित था।


ब तक हम गंतव्य तक पहुँच चुके थे। जानकार लोग काम में लग गए। बाकी डेढ़ घंटे तक फालतू थे, जब तक पंच-लकड़ी देने की स्थिति न आ जाए। वहाँ यही चर्चा आगे बढ़ी। बहुत लोगों से वही जवाब मिला जो पहले मिला था। बात निकली तो पता लगा कि इस स्थिति ने लोगों को निश्चिंत या कम निश्चिंत और  चिंतित व  प्रयत्नशील लोगों के दो खेमें में बांट दिया है। उन के रोज के व्यवहार में परिवर्तन आ चुका है। एक मंदी ने लोगों के जीवन को इतना प्रभावित कर दिया था। कि वे आपस में मिलने से महरूम हो गए थे। महंगाई की चर्चा भी छिड़ी, उस ने भी दोनों तरह के लोगों को अलग-अलग तरह से प्रभावित किया था। उन लोगों की बात भी हुई जो निजि संस्थानों में काम करते हैं। बहुत पैसा और श्रम लगा कर पढ़े लिखे नौजवान, जिन्हें बहुत प्रतिष्ठित वेतनों वाली नौकरियाँ मिल गई हैं, उन की भी बात हुई कि वे किस तरह काम में लगे होते हैं कि घर लौटने पर खाने और आराम करने को भी समय कम पड़ता है।
क ही बात थी कि कब मंदी में सुधार होगा? करोड़ों लोगों को इस ने प्रयत्नों के स्थान पर भाग्य के भरोसे छोड़ दिया है। घर की महिलाएँ जो इस बात को समझ ही नहीं पा रही हैं अधिक देवोन्मुख होती जा रही हैं। पहले यह मंदी दूसरी बार आने में आठ-दस वर्ष का समय लेती थी। अब तो पहली का असर किसी तरह जाता है कि दूसरी मुहँ बाए खड़ी रहती है। इस ने बहुत से प्रश्न उत्तरों की तलाश के लिए और खड़े कर दिए थे। क्या इस मंदी का कोई इलाज नहीं है? क्या भावी पीढ़ियाँ इसी तरह इस का अभिशाप झेलती रहेंगी? मनुष्य क्या इतना विवश हो गया है अपनी ही बनाई हुई व्यवस्था के सामने?


रविवार, 29 नवंबर 2009

वित्तीय पूँजी ने आर्थिक ही नहीं सांस्कृतिक संकट भी उत्पन्न कर दिया है -डा. जीवन सिंह


विश्वम्भर नाथ चतुर्वेदी ‘शास्त्री’ स्मृति समारोह में महेन्द्र नेह के कविता-संग्रह ‘थिरक उठेगी धरती’ का लोकार्पण
डा. जीवन सिंह, शिवराम व रमेश प्रजापति का सम्मान


हिन्दी व संस्कृत के यशस्वी विद्वान विश्वम्भर नाथ चतुर्वेदी ‘शास्त्री’ की स्मृति में विगत 8 वर्षों से लगातार  आयोजित किया जा रहा स्मृति-समारोह विशिष्ट साहित्यिक विमर्श और सम्मान के कारण मथुरा नगर की साहित्यिक गतिविधियों में विशिष्ट स्थान प्राप्त कर चुका है।  इस बार 23 नवम्बर को आयोजित समारोह  "यह दौर और कविता" विषय पर आयोजित परिचर्चा, जनकवि महेन्द्र 'नेह' के कविता संग्रह ‘थिरक उठेगी धरती’ का लोकार्पण, साहित्यिक अन्ताक्षरी की प्रस्तुति तथा रविकुमार की कविता पोस्टर प्रदर्शनी  के कारण मथुरा  नगर का एक चर्चित समारोह बन गया।  का0 धर्मेन्द्र स्मृति सभागार में आयोजित साहित्यिक समारोह में आमंत्रित साहित्यकारों के साथ-साथ बड़ी संख्या में ब्रज-क्षेत्र के प्रमुख रचनाकारों, बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भाग लिया।

मारोह के मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध समीक्षक डा0 जीवन सिंह थे। उन्हों ने चर्चा करते हुए कहा कि वर्तमान दौर मे वित्तीय पूँजी ने भारतीय समाज के समक्ष न केवल अभूतपूर्व वित्तीय संकट खड़ा कर दिया है अपितु सामाजिक-सांस्कृतिक संकट भी खड़ा कर दिया है।  जिस के कारण समाज की उत्पादक शक्तियों किसानों-मजदूरों व आम आदमी का जीवन यापन कठिन हो गया है। मीडिया नये नये भ्रमों की सृष्टि करके मानवता के इस संकट को बढ़ा रहा है।  उन्हों ने इस अवसर पर जन कवि महेन्द्र नेह के कविता संग्रह  "थिरक उठेगी धरती" का लोकार्पण करते हुए कहा कि महेन्द्र की ये कविताऐं व्यवस्था की जकड़बंदी के विरूद्ध प्रतिरोध जगाती हैं  और जन गण के आशामय भविष्य की ओर संकेत करती हैं। इन कविताओं में लोक जीवन की संवेदनाऐं व प्रकृति की थिरकन रची-बसी है।
सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और ‘अभिव्यक्ति’ के संपादक शिवराम ने कहा कि शास्त्री जी के जीवन में जो भाव व मूल्यबोध था, वही उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक सक्रियता की बुनियाद था। सभ्यता और संस्कृति का निर्माण शोषण व उत्पीड़न पर जीवित अनुत्पादक शक्तियाँ नहीं कर सकतीं। अभावों और संघर्षों में जीने वाले ही नयी व बेहतर संस्कृति का निर्माण करते हैं।  उन्होंने कहा कि महेन्द्र 'नेह' की कविताऐं हमारे जीवन की वास्तविकताओं को सामने रखती हैं तथा सामाजिक परिवर्तन की ओर प्रेरित करती हैं।
दिल्ली से आए वरिष्ठ साहित्यकार ‘अलाव’ के संपादक राम कुमार ‘कृषक’ ने परिचर्चा में भाग लेते हुए कहा कि हिंदी की समकालीन कविता में आधुनिकता के नाम पर जीवन की वास्तविकताओं से पलायन व जन पक्षधरता नष्ट होने की आशंकाऐं बढ़ रहीं हैं। उन्होंने कहा कि महेन्द्र नेह की कविताओं का वैचारिक परिप्रेक्ष्य सिर्फ मनोलोक से जन्म नहीं लेता बल्कि अपने समय के यथार्थ और आम आदमी की कठिनाइयों से उपजता है। नेह की कविता जनता से सीधे जुड़ाव और जन परम्परा के विस्तार की कविता है।
दिल्ली के युवा कवि रमेश प्रजापति ने ‘थिरक उठेगी धरती’ में शामिल कविताओं को वर्तमान दौर में प्रकृति समाज और संस्कृति की धड़कनों को व्यक्त करने वाली क्रान्तिधर्मी कविताऐं बताया। कार्यक्रम का संचालन करते हुए शिवदत्त चतुर्वेदी ने कहा कि शास्त्री जी की स्मृति में आयोजित यह समारोह नगर की मूल्यवान परम्परा और प्रगतिशील जनवादी संस्कृति का सांझा अभियान बन गया है।

वि महेन्द्र 'नेह' ने अपने नये काव्य-संग्रह ‘थिरक उठेगी धरती’ से प्रतिनिधि रचनाओं का पाठ करते हुए कहा कि मेरी कविताऐं यदि इस धरती और लोक की व्यथा और इसकी गौरवशाली स्वातंत्र्य चेतना की अभिव्यक्ति बन पाती हैं तो मैं समझूँगा कि मैं इस माटी व समाज के प्रति अपने ऋण और दायित्व को चुका रहा हूँ। इस अवसर पर  डा. जीवन सिंह, शिवराम व रमेश प्रजापति का सम्मान किया गया।

मारोह की अध्यक्षता कर रहे साहित्यकार डा0 अनिल गहलौत ने कहा कि वर्तमान अर्थ पिशाची दौर ने मध्यवर्ग को साहित्य और संस्कृति से दूर करके अर्थ के सम्मोहन में बांध दिया है। महेन्द्र 'नेह' की कविताऐं इस दौर में धन की लिप्सा और उसके प्रभुत्व को चुनौती देने वाली प्रेरणादायक कविताऐं हैं।
मारोह में कानपुर से पधारे परेश चतुर्वेदी एवं आस्था चतुर्वेदी ने महेन्द्र नेह की कविताओं की कलात्मक प्रस्तुति की। उपेन्द्र नाथ चतुर्वेदी, विपिन स्वामी एवं पं. रूप किशोर शर्मा ने साहित्यिक अन्ताक्षरी के युग को जीवित करते हुए श्रेष्ठ कविताओं की सस्वर प्रस्तुति से श्रोताओं को रोमांचित कर दिया। राजस्थान के प्रसिद्ध चित्रकार रवि कुमार द्वारा बनाये गये कविता पोस्टरों ने कार्यक्रम स्थल को जन पक्षधर कविता व चित्रकला का आधुनिक तीर्थ बना दिया। सभी उपस्थित रचनाकारों व दर्शकों ने उनकी कविता पोस्टर प्रदर्शनी की भरपूर सराहना की। आयोजकों की ओर से मधुसूदन चतुर्वेदी व डा.डी.सी. वर्मा ने सभी उपस्थित श्रोताओं का आभार प्रदर्शन किया। समारोह के अंत में ‘वर्तमान साहित्य’ के संपादक जनवादी साहित्यकार डा.के.पी. सिंह व जन कवि हरीश भादानी के निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया गया एवं उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई।


 प्रस्तुति- उपेन्द्र नाथ चतुर्वेदी
                                       

शनिवार, 28 नवंबर 2009

वादा पूरा न होने तक प्रमुख की कुर्सी पर नहीं बैठेगी ममता

यात्रा की बात बीच में अधूरी छोड़ इधर राजस्थान में स्थानीय निकायों के चुनाव परिणाम की बात करते हैं। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत से कुछ स्थान कम मिले थे। लेकिन उस कमी को पूरा  कर लिया गया। राजस्थान में कांग्रेस के बाद दूसरी ताकत भाजपा है, लेकिन उस में शीर्ष स्तर से ले कर तृणमूल स्तर तक घमासान छिड़ा है। नतीजा यह हुआ कि लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने बढ़त बना ली। अब राजस्थान के आधे स्थानीय निकायों के चुनाव हुए हैं और जो परिणाम  आए हैं उन से कांग्रेस को बल्लियों उछलने का मौका लग गया है। कोटा में पिछले 15 वर्षों से भाजपा का नगर निगम पर एक छत्र कब्जा था। भाजपा चाहती तो इस 15 वर्षों के काल में नगर को एक शानदार उल्लेखनीय नगर में परिवर्तित कर सकती थी। लेकिन नगर निगम में बैठे महापौरों और पार्षदों ने अपने और अपने आकाओं के हितों को साधने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया।

स चुनाव की खास बात यह थी कि आधे स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित थे। लेकिन कोटा के मामले में कुछ ऐसा हुआ कि 60 में से 29 महिलाओं के लिए आरक्षित हो सके और 31 पुरुषों के पास रह गए। महापौर का स्थान महिला के लिए आरक्षित था। चुनाव जीतने की पहला नियम होता है कि आप पार्टी का उम्मीदवार ऐसा चुनें जिस से घरेलू घमासान पर रोक लगे। इस बार कांग्रेस ने यहीं बाजी मार ली। वह नगर की एक प्रमुख गैर राजनैतिक महिला चिकित्सक को महापौर का चुनाव लड़ने के लिए मैदान में लाई जिस पर किसी को असहमति  नहीं हो सकती थी। अधिक से अधिक यह हो सकता था कि जिन नेताओं के मन में लड्डू फूट रहे होंगे वे रुक गए। उम्मीदवार उत्तम थी, जनता को भी पसंद आ गई।


भाजपा यह काम नहीं कर पाई। उस ने एक पुरानी कार्यकर्ता को मैदान में उतारा तो पार्टी के आधे दिग्गज घर बैठ गए चुनाव मैदान में प्रचार के लिए नहीं निकले। वैसे निकल भी लेते तो परिणाम पर अधिक प्रभाव नहीं डाल सकते थे। कांग्रेस की डॉ. रत्ना जैन  321 कम पचास हजार मतों से जीत गई। पार्षदों के मामले में भी यही हुआ। भाजपाइयों ने आपस में तलवारें भांजने का शानदार प्रदर्शन किया और 60 में से 9 पार्षद जिता लाए, कांग्रेस ने 43 स्थानों पर कब्जा किया बाकी स्थान निर्दलियों के लिए खेत रहे। जीते हुए पार्षदों में एक सामान्य स्थान से महिला ने चुनाव लड़ा और जीत गई। इस तरह 30-30 महिला पुरुष पार्षद हो गए। अब निगम में महापौर सहित 31 महिलाएँ और 30 पुरुष हैं। कहते हैं महिलाओं घर संभालने में महारत हासिल होती है। देखते हैं ये महिलाएँ किस तरह अगले पाँच बरस तक अपने नगर-घऱ को संभालती हैं।

कोटा, जयपुर, जोधपुर और बीकानेर चार नगर निगमों के चुनाव हुए।  चारों में मेयर का पद कांग्रेस ने हथिया लिया है। यह दूसरी बात है कि जयपुर में भाजपा के 46 पार्षद कांग्रेस के 26 पार्षदों के मुकाबले जीत कर आए हैं। एक वर्ष बाद मेयर के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव लाने का अधिकार है। देखते हैं साल भर बाद जयपुर की मेयर किस तरह अपना पद बचा सकेगी। यदि अविश्वास प्रस्ताव पारित होता है तो चुनाव तो फिर से जनता ने सीधे मत डाल कर करना है, वह क्या करती है।  कुल 46 निकायों में 29 में कांग्रेस, 10 में भाजपा, 6 में  निर्दलीय और एक में बसपा के प्रमुखों ने कब्जा किया है। भाजपा को मिली तगड़ी हार के बाद भी प्रदेश अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी का कहना है कि परिणाम निराशाजनक नहीं हैं। जहाँ कांग्रेस के 716 पार्षद विजयी हुए वहीं भाजपा ने भी अपने 584 पार्षद इन निकायों में पहुँचा दिए हैं। इन निकायों ने एक दार्शनिक का यह कथन एक बार फिर साबित किया कि जब दो फौजे युद्ध करती हैं तो हर फौज के सिपाही आपस में मार-काट करते हैं नतीजा यह होता है कि जिस फौज के सिपाही आपस में कम मारकाट करते हैं वही विजयी होती है।



ब से चौंकाने वाला परिणाम चित्तौड़गढ़ जिले की रावतभाटा नगर पालिका से आया है। जहाँ कांग्रेस और भाजपा के प्रत्याशी पालिका प्रमुख के चुनाव में अपनी लुटिया डुबो बैठे। यहाँ की जनता ने पालिका प्रमुख के पद के लिए एक किन्नर ममता को चुना है।  रावतभाटा नगर में सब से बड़ी समस्या यह है कि यहाँ भूमि स्थानांतरण पर बरसों से रोक है। किसी भी भूमि के क्रयविक्रय का पंजीयन नहीं हो पाता है। यह बात नगर आयोजना और विकास में बाधा बनी हुई है। ममता ने शपथ लेते ही घोषणा कर दी है कि जब तक भूमि स्थानांतरण पर से रोक नहीं हटती वह मेयर की कुर्सी पर नहीं बैठेगी, अलग से कुर्सी लगा कर या स्टूल पर बैठ कर अपना काम निपटाएगी।

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

रात की बारिश और फरीदाबाद से दिल्ली का सफर


रात सोने के पहले तारीख बदल चुकी थी। सर्दी के लिहाज से हलका कंबल  लिया था, एक चादर भी साथ रख लिया। केवल कंबल में भी गर्मी लगी तो उसे हटा कर चादर से काम चलाना पड़ा। सुबह पाँच के आसपास एक बार नींद खुली, यह लघुशंका के लिए थी।  बाथरूम गया तो  रास्ते में बालकनी गीली दिखाई दी। गौर किया तो पता लगा रात बारिश हुई है। सर्दी कम होने का कारण यही था। अभी रात शेष थी। दुबारा बिस्तर पर लेटा तो नींद फिर लग गई।  इस बार उठा तो आठ बज चुके थे। निपटते-निपटाते साढ़े नौ बज गए। झटपट नाश्ता किया और चल दिया। मैं सोचता था कि डेढ़ नहीं तो दो घंटे में तो निश्चित स्थान पर पहुँच ही लूंगा। गंतव्य के लिए मुझे बदरपुर बॉर्डर से जिस बस को पकड़ना था उस का रूट नंबर मुझे अजय झा बता चुके थे। बॉर्डर तक कैसे पहुँचना है इतना जानना था। इस के लिए मकान मालिक ने मदद की और मैं पहुँचा सेक्टर तीन की पुलिया पर।  दो-तीन मरियल से ठुकपिट कर शक्ल बिगाड़े रिक्शा आए लेकिन बॉर्डर के नाम से ही बिदक गए। फिर एक हरे रंग का नया सा मिला, उसने बिठा लिया और बदरपुर बॉर्डर उतारा। मोबाइल ग्यारह में आठ मिनट कम बता रहा था।
विचित्र नजारा था। मेट्रो के लिए चल रहे काम और शायद निर्माणाधीन फ्लाई ओवर के कारण  बेहद अफरातफरी थी। यहाँ भी स्थाई-अस्थाई बाजार उगे थे। पता ही नहीं लग रहा था कि कहाँ से बस मिलेगी? मुझे कुछ पान की दुकानें दिखीं। पूरा एक दिन हो गया था, पान खाए। पास गया तो उन में गुटखे लटक रहे थे और भी बहुत कुछ था पर पान नहीं था। तलाश करने पर एक जगह पान भी दिखे दुकानदार उस की दीवार घड़ी दुरुस्त करने में जुटा था। मैं ने उसे पान बनाने को कहा तो उस ने बस एक नजर मेरी और देख वापस अपने काम में जुट गया। मैं ने एक मिनट उस का इंतजार किया और खुद को उपेक्षित पा कर वहाँ से चल दिया। रास्ते में कुछ लोग मोजे, रुमाल, बटुए आदि बेच रहे थे। मुझे याद आया मैं रुमाल लेना भूल गया हूँ। मैंने दस रुपए में एक रुमाल खरीदा और उसी से पूछा कि बस कहाँ मिलेगी? उस ने दूर खड़ी बसों की ओर इशारा किया। मैं तकरीबन पौन किलोमीटर चल कर बसों तक पहुँचा तो मेरे रूट की बस बिलकुल खाली थी, ड्राइवर-कंडक्टर  अंदर बैठ कर अपना सुबह का टिफिन निपटा रहे थे। मैंने पूछा तो उन्हों ने आगे जाने का इशारा किया। आधा किलोमीटर और आगे चल कर मैं बस तक पहुँचा। सवारियाँ बैठ रही थीं। मैं चढ़ा और खुद को खुशकिस्मत पाया कि वहाँ एक सीट बैठने के लिए खाली मौजूद थी। कुछ देर बैठे रहने के बाद कंडक्टर को पूछा तो उस ने बताया कि बस 11: 38 पर चलेगी। मैं लेट हो चुका था।
चे समय के इस्तेमाल का मेरे पास कोई जरिया नहीं था, लेकिन लोगों के पास था। एक बच्ची हाथ में कमंडल और उस में बिठाई तस्वीर ले कर मांगने के लिए बस में चढ़ गई। वह कुछ नहीं बोल रही थी। हर सवारी के आगे कुछ देर खड़ी होती, कुछ मिलता तो ठीक नहीं तो आगे बढ़ जाती। ऐसे ही बच्चे, महिलाएँ कोटा अदालत में खूब आते हैं, सब के सब पक्के प्रोफेशनल। मेरे एक साथी उन्हें कई बार नसीहतें दे चुके हैं। उन से काम कराने के बदले मजदूरी देने का प्रस्ताव भी करते हैं। पर कौन स्थाय़ी रोजगार छोड़ अस्थाई की और झाँकता है। बच्ची बस से उतरी तो एक युवक नारियल की फांके लिए बेचने चढ़ा, कुछ लोगों ने उस का स्वागत किया। उस के बाद एक पैंसिल बेचने वाला चढ़ा। मेरे पास की सीट पर बेटी के साथ बैठे सज्जन ने पैंसिलें खरीदीं। तभी बस ने हॉर्न दिया। पैंसिल बेचने वाला उतर गया, बस चल दी।

जिस तरह बस चल रही थी लग रहा था कि कम से कम एक डेढ़ घंटा जरूर लेगी। मैंने कंडक्टर को अपना गंतव्य बताया। उसने मुझे आश्वस्त किया कि वह मुझे सही स्थान पर उतार देगा। एक स्टॉप पहले ही उस ने मुझे आगे के दरवाजे पर बुलाया और मेरे स्टॉप पर उतार दिया। बाद में पता लगा कि उस ने मुझे एक स्टॉप पहले ही उतार दिया था। अपने राम पैदल चल पड़े। मेट्रो स्टेशन के पास पहुँच कर मैं ने मोबाइल से अजय से संपर्क करना चाहा पर वहाँ सिग्नल गायब थे। मैं एक और चल दिया और सिग्नल मिलने तक चलता रहा। अजय से बात हुई तो वे मुझे लेने आ गए। हम मिलन स्थल पहुँच गए। पाबला जी तो वहाँ पहले से ही थे श्रीमती संजू तनेजा, राजीव तनेजा, कार्टूनिस्ट इरफान, और खुशदीप सहगल भी पहुँचे हुए थे। बातों के साथ नाश्ता चल रहा था। सभी बहुत आत्मीयता के साथ मिले। मैं बैठा ही था कि अचानक पीछे रोशनी चमकी। मुड़ कर देखा तो टेबल पर रखा पाबला जी का कैमरा हमें कैद कर रहा था।



गुरुवार, 26 नवंबर 2009

भेंट अरुण जी अरोरा से, और चूहे के बिल

म पूर्वा के आवास पर पहुँचे। पूर्वा डेयरी से दूध ले कर कुछ देर बाद आई। तीसरा पहर अंतिम सांसे गिन रहा था, ढाई बज चुके थे। सफर ने थका दिया था और दोनों सुबह से निराहार थे। मैं तुरंत दीवान पर लेट लिया। पूर्वा ने घऱ से लड़्डू-मठरी संभाले और शोभा ने रसोई। कुछ ही देर में कॉफी-चाय तैयार थी। उस ने बहुत राहत प्रदान की। सुबह जल्दी सोकर उठे थे इस लिए चाय-कॉफी पीने के बावजूद नींद लग गई। शाम को उठते ही दुबारा कॉफी तैयार थी और शाम के भोजन की तैयारी। मैं ने पूर्वा का लेपटॉप संभाला और मेल देख डाली।
शाम के भोजन के बाद मैं और शोभा अरुण अरोरा जी के घर पहुँचे। अरुण जी तब तक अपने काम से वापस नहीं लौटे थे। हम कुछ देर मंजू भाभी से बातें करते रहे। तभी अरुण जी आ गए। उन से बहुत बातें हुईं। पिछले दिनों उन्हों ने अपने उद्योग का काया पलट कर दिया। एक पूरा नया प्लांट जो अधिक क्षमता से काम कर सकता है स्थापित कर लिया। अब नए प्लांट को अधिक काम चाहिए, उसी में लगे हैं। काम के आदेश मिलने लगे हैं और प्राप्त करने के प्रयास हैं। कई नमूने के काम चल रहे हैं, नमूने पसंद आ जाएँ तो ऑर्डर मिलने लगें। किसी भी उद्यमी के जीवन का यह महत्वपूर्ण समय होता है। इसी समय वह पूरी निगेहबानी और मुस्तैदी से काम कर ले तो बाजार में साख बन जाती है और आगे काम मिलना आसान हो जाता है। उन के लिए यह समय वास्तव में महत्वपूर्ण और चुनौती भरा है। मैं ने उन से ब्लागरी में वापसी के लिए कहा तो बोले। एक बार नमस्कार कर दिया तो कर दिया। उन के स्वर में दृढ़ता तो थी, लेकिन उतनी नहीं कि उन की वापसी संभव ही न हो। मुझे पूरा विश्वास है, एक बार वे अपने उद्यम की इस क्रांतिक अवस्था से आगे बढ़ कर उसे गतिशील अवस्था में पाएँगे तो ब्लागरी में अवश्य वापस लौटेंगे और एक नए रूप और आत्मविश्वास के साथ।
मैं ने अरुण जी को बताया कि पाबला जी भी दिल्ली आए हुए हैं और कल कुछ ब्लागर दिल्ली में मिलेंगे।  पाबला जी आप से मिलना भी चाहते हैं। कल रविवार है, दिल्ली चलिए, शाम तक लौट आएंगे, कल रविवार भी है। उन्हें यह सुन कर अच्छा लगा, लेकिन वे रविवार को भी व्यस्त थे कुछ संभावित ग्राहकों के साथ उन की दिन में बैठक थी। उन्हों ने कहा यदि समय हो तो पाबला जी को इधर फरीदाबाद लेते आइए, मुझे बहुत खुशी होगी।  हमने अरुण जी के उद्यम की सफलता के लिए अपनी शुभेच्छाएँ व्यक्त कीं और वापस लौट पड़े। वापसी पर पाबला जी और अजय कुमार झा से फोन पर बात हुई।  उन्हों ने बताया कि सुबह 11 बजे दिल्ली में यथास्थान पहुँचना है। दिन में सो जाने के कारण  आँखों में नींद नहीं थी। मैं देर तक पूर्वा के लैप पर ब्लाग पढता रहा, कुछ टिप्पणियाँ भी कीं। फिर सोने का प्रयास करने लगा आखिर मुझे अगली सुबह जल्दी  दिल्ली के लिए निकलना था।

आज का दिन
ज मुम्बई और देश आतंकी हमले की बरसी को याद कर रहा है, और याद कर रहा है अचानक हुए उस हमले से निपटने में प्रदर्शित जवानों के शौर्य और बलिदान को। शौर्य और बलिदान जवानों का कर्म और धर्म है। जो जन उन से सुरक्षा पाते हैं उन्हें, उन का आभार व्यक्त करना ही चाहिए। लेकिन वह सूराख जिस के कारण वे चूहे हमारे घर में दाखिल हुए, मरते-मरते भी घर को यहाँ-वहाँ कुतर गए, अपने दाँतों के निशान छोड़ गए। देखने की जरूरत है कि क्या वे सूराख अब भी हैं? क्या अब भी चूहे घऱ में कहीं से सूराख कर घुसने की कारगुजारी कर सकते हैं? और यदि वे अब भी घुसपैठ कर सकते हैं तो सब से पहले घर की सुरक्षा जरूरी है। उस के लिए शौर्य और बलिदान की क्षमता ही पर्याप्त नहीं। घर के लोगों की एकता और सजगता ज्यादा जरूरी है।  मैं दोहराना चाहूँगा। पिछले वर्ष लिखी कुछ पंक्तियों में से इन्हें ....

वे जो कोई भी हैं
ये वक्त नहीं
सोचने का उन पर

ये वक्त है
अपनी ओर झाँकने और
युद्धरत होने का

आओ संभालें
अपनी अपनी ढालें
और तलवारें

बुधवार, 25 नवंबर 2009

उमंगों की उम्र में कोई क्यों खुदकुशी कर लेता है?

खिर चौदह नवम्बर का दिन तय हुआ, बल्लभगढ़ पूर्वा के यहाँ जाने के लिए। पत्नी शोभा उत्साहित थी। उस ने बेटी के लिए अपने खुद के ब्रांडेड दळ के लड्डू और मठरी बनाई थीं। पिछली बार बेसन के लड्डू जो वह ले गई थी उस में घी के महक देने की शिकायत आई थी। जिसे डेयरी वाले तक पहुँचाया तो उस ने माफी चाही थी कि दीवाली की मांग पर घी पहले से तैयार कर पीपों में भर दिया  गया था इस कारण से महक गया। इस बार शोभा ने खुद कई दिनों तक दूध की मलाई को निकाल कर दही से जमाया और बिलो कर लूण्या-छाछ किया, फिर लूण्या को गर्म कर घी तैयार किया। मुझे बताया गया तब वह महक रहा था, उसी देसी घी की तरह जो हमने बचपन में अपने घर बिलो कर बनाया जाता था। इस घी से बने लड्डू। यह सब तैयारी 13 को ही हो चुकी थी आखिर 14 को सुबह छह बजे की जनशताब्दी से निकलना था। रात नौ बजे पाबला जी को यह समझ फोन मिलाया कि वे दिल्ली पहुँच चुके होंगे। लेकिन तब वे लेट हो चुकी ट्रेन में ही थे जो उस समय बल्लभगढ़ के आसपास ही चल रही थी।
 सुबह हम जल्दी उठे, पति-पत्नी ने स्नान किया, तैयार हुए और बैग उठा कर पास के ऑटो स्टेंड पहुँचे। सुबह के  पाँच बजे थे। तसल्ली की बात थी कि वहाँ दो ऑटो खड़े मिले। न मिलते तो हमारी तैयारी काफूर हो जाती फिर किसी पड़ौसी को तैयार कर 12 किलोमीटर स्टेशन तक छोड़ने को कहना पड़ता। खैर हम ट्रेन के रवाना होने के  बीस मिनट पहले ट्रेन के डिब्बे में थे। पूरी ट्रेन आरक्षित होने के बावजूद एक चौथाई सवारियाँ हमारे पहले ही वहाँ अपना स्थान घेर चुकी थीं। ट्रेन एक मिनट देरी से चली। अभी चंबल पुल भी पार न किया था कि माल बेचने वाले आरंभ हो गए। चाय, कॉफी, दूध और फ्रूटी पेय के अतिरिक्त कुछ न था जो हमारे लिए उपयुक्त होता। शिवभक्त शोभा शादी के पहले से ही सोमवार और प्रदोष का व्रत रखती हैं। हमने खूब कहा कि अब तो जैसा मिलना था वर मिल चुका, अब तो इन्हें छोड़ दे पर उस ने न छोड़ा। (शायद अगले जन्म में हम से अच्छे की चाहत हो)  हम ने सोचा कोई दूसरा इसी जनम में बुक हो गया तो हम तो इन के साथ से वंचित हो जाएंगे। सो हम भी करने लगे, देखें कैसे दूसरा कोई बुक होता है। उस दिन सोमवार नहीं शनिवार था लेकिन प्रदोष था। इस लिए आधुनिक और देसी खाद्यों का विक्रय करने वाले उन रेलवे के हॉकरों का हम पर कोई असर न हुआ।


ट्रेन तेजी से गंतव्य की ओर चली जा रही थी, आधी दूरी से कुछ अधिक ही दूरी तय भी कर चुकी थी। अचानक  हमारे ही कोच में हमारे सामने वाले दूसरे कोने में हंगामा हो गया और वह दृश्य सामने आ गया जो कभी देखा न था। इमर्जैंसी खिड़की के पास से जंजीर खींची गई, ट्रेन न रुकी तो उस के बाद वाले ने, फिर उस के बाद वाले ने एक साथ पाँच स्थानों से जंजीर खींची गई। फिर वेक्यूम पास होने की जोर की आवाज आई और उसका अनुसरण करती ब्रेक लगने की, ट्रेन बीच में खड़ी हो चुकी थी। इसी लाइन पर कुछ दिन पहले ही एक ट्रेन की जंजीर सिपाहियों ने मुलजिम के अपने कब्जे से भाग निकलने के कारण खींची थी और खड़ी ट्रेन को दूसरी ट्रेन ने टक्कर मार दी थी। गार्ड  और कुछ अन्य सवारियों को मृत्यु अपने साथ ले गई। मेरी कल्पना में वही चित्र उभरने लगा था।



हले पता लगा कोई बच्ची खिड़की से गिर गई है। आखिर खिड़की से कैसे गिर गई? खिड़की में तो जंगला लगा है। बताया गया कि वह इमर्जेंसी खिड़की थी और जंगला खिसका हुआ था। फिर भी इस सर्दी में मैं खुद आस पास के शीशे शीतल हवा के आने के कारण बंद करवा चुका था। एक छोटी बच्ची वाले ने उस खिड़की का शीशा कैसे खुला रखा था? समझ नहीं आ रहा था। मैं उठा और उस ओर गया जहाँ से बच्ची के गिरने की बात कही गई थी। वहाँ जा कर पता लगा गिरने वाली बच्ची कोई 20-22 साल की लड़की थी और मर्जी से खिड़की से कूद गई थी। उस का पिता उस के साथ था जो उस वक्त टॉयलट गया हुआ था। सीट पर लड़की का शॉल पड़ा था जो उस ने कूदने के पहले वहीं छोड़ दिया था। सीट पर एक लड़का बैठा था। उस से पूछा कि उसने नहीं पकड़ा उसे? उस के पीछे वाले यात्री ने बताया कि इसे तो कुछ पता नहीं यह तो सो रहा था। उस लड़के ने कहा कि मैं जाग रहा होता तो किसी हालत में उसे न कूदने देता, पकड़ लेता। लड़की के पिता का कहीं पता न था। ट्रेन पीछे चलने लगी थी।
कोई दो किलो मीटर पीछे चल कर रुकी। आसपास देखा गया। फिर सीटी बजा कर दुबारा पीछे चली एक किलोमीटर चल कर फिर खड़ी हो गई। वहाँ ट्रेक के किनारे मांस के बहुत ही महीन टुकड़े छिटके हुए दिखाई दे रहे थे। लोग ट्रेन से उतर कर देखने लगे किसी ने आ कर बताया कि लड़की नहीं बची। उस के शरीर के कुछ हिस्से पिछले डिब्बे के पहियों से चिपके हैं। गाड़ी फिर पीछे चलने लगी। इस बार रुकी तो कुछ ही देर में लोगों ने आ कर बताया कि लड़की की बॉडी मिल गई है। पिता आया और अपना सामान समेट कर वहीं उतर गया।

मैं अपनी सीट पर आया तो सहयात्री ने बताया कि पहले वह लड़की और उस का पिता इसी सीट पर आ कर बैठा था। लड़की पिता के साथ जाने को तैयार न थी और उतरने को जिद कर रही थी। फिर जब सीट वाले आए तो दोनों उठ कर चले गए। उन्हें फिर वहीं सीट मिली जहाँ इमरजेंसी खिड़की थी। डब्बे में यात्री कयास लगाने लगे कि क्यों लड़की कूदी होगी। एक खूबसूरत लड़की के आत्महत्या करने पर जितने कयास लगाए जा सकते थे लगाए गए। मैं सोच रहा था। समाज आखिर ऐसे कारण क्यों पैदा करता है कि उमंगों भरे दिनों में कोई जवान इस तरह खुदकुशी कर लेता है?
ट्रेन पूरे दो घंटे लेट हो चुकी थी। बल्लभगढ़ पहुँची तो पूर्वा के शनिवार का अर्ध कार्यदिवस समाप्त होने वाला था। उसे फोन किया तो बोली मैं खुद ही आप को स्टेशन के बाहर मुख्य सड़क पर मिलती हूँ। हम ट्रेन से उतर कर अपना सामान लाद सड़क तक पहुँचे तब तक पूर्वा भी आ पहुँची। हम पूर्वा के आवास की और जाने वाले शेयरिंग ऑटो में बैठे। उस ने मुश्किल से आठ मिनट में पूर्वा के आवास के नजदीक उतार दिया। 

मंगलवार, 24 नवंबर 2009

निगम चुनाव के मतदान के बाद का दिन

राजस्थान की कुछ स्वायत्त संस्थाओं के लिए मतदान कल संपन्न हो गए। 26 नवम्बर को मतगणना होगी और पता लग जाएगा कि मतदाताओं ने क्या लिखा है। इस चुनाव में मतदाताओं के पास विकल्प नहीं थे। वही काँग्रेस और भाजपा द्वारा मनोनीत और कुछ निर्दलीय उम्मीदवार। कोटा नगर निगम के लिए भी मतदान हुआ। लोगों का नगर की गंदगी, सड़कों, रोडलाइट्स, निर्माण आदि से रोज का लेना देना है। उन की वार्ड पार्षद से इतनी सी आकांक्षा रहती है कि मुहल्लों की सफाई नियमित होती रहे, रोड लाइट्स जलती रहें, सड़कें सपाट रहें, अतिक्रमण न हों। लेकिन उन की ये आकांक्षाएँ कभी पूरी नहीं होतीं। हो जाएँ तो अगले चुनाव  में उम्मीदवारों के पास कहने को क्या शेष रहे?

पिछली तीन टर्म से कोटा नगर निगम में भाजपा का बोर्ड रहा। नगर की सफाई, रोशनी, अतिक्रमण आदि की स्थिति वैसी ही नहीं है जैसे आज से पन्द्रह वर्ष पहले थी। हर टर्म में बद से बदतर होती गई है। अधिकांश पार्षदों ने अपने रिश्तेदारों के नाम ठेके ले कर अपने बैंक बैलेंस बढ़ाए हैं। उन्हें सफाई के लिए मिलने वाले रोज मजदूरी के मजदूरों की फर्जी हाजरी भर कर ठेकेदार से कमीशन खाने के कीर्तिमान बनाए हैं। नगर वैसे का वैसा है।

मेरे घर के सामने एक पार्क है। इस की व्यवस्था नगर निगम के पास है। जब भी इस की सफाई और घास कटाई की आवश्यकता होती है पार्षद के पास जाना होता है। वह कभी मजदूर लगा देता है कभी हटा देता है। जब वह नहीं सुनता है तो निगम के अफसरों और विधायक को कहना पड़ता है। उस का असर होता है तत्काल कोई न कोई व्यवस्था हो जाती है। लेकिन चार दिन बाद वही अंधेरी रात।

निगम चुनाव के बीस दिन पहले बिना कुछ कहे मजदूर आए साथ आया पुराना पार्षद। पार्क की घास की छंटाई और सफाई कर दी। घास को पानी दिया। रोज सार संभाल होने लगी। नालियाँ सड़कें भी साफ हुई। कचरा भी समय से उठने लगा। लोग प्रसन्न हुए कि चुनाव के बहाने कुछ तो हुआ। कुछ लोगों ने इस अवसर का व्यक्तिगत लाभ भी उठाया। अपने घरों के बागीचों को भी साफ कराया। कुछ ने अपने गमलों में मिट्टी भरवा कर नए पौधे लगवा लिए।

ज मतदान के बाद का पहला दिन है। पार्क से काम करने वाला माली गायब है। आज सड़क बुहारने वाले भी नहीं आए हैं। कचरा परसों उठा था, आज उठने का नंबर था लेकिन अभी तक कोई नहीं आया है, जानते हैं आएगा भी नहीं। आएगा तो तब जब कचरा सड़क रुद्ध करने लगेगा और कोई शिकायत करेगा। मैं सोचता हूँ कि कहीं पार्षद मिल जाए तो उसे कहूँगा। पर उस से भी क्या लाभ मुझे पता है उस का जवाब होगा कि अब तो 26 तारीख के बाद नए पार्षद से बात करना।

सोमवार, 23 नवंबर 2009

यात्रा में भूली, अनवरत की दूसरी वर्षगाँठ


पिछला सप्ताह पूरा यात्रा में गुजरा। यूँ तो कोटा में 29 अगस्त से वकीलों ने न्यायिक कार्य का बहिष्कार किया हुआ है। कहा जा सकता है कि मैं भी पूरी तरह फुरसत में हूँ। लेकिन यह केवल कहे जाने वाली बात है। वास्तविकता कुछ और ही है। जब वकील अदालत से बाहर होते हैं तो उन के किसी मुकदमे में उस मुवक्किल को जिस की वे पैरवी कर रहे हैं किसी तरह का स्थाई नुकसान न उठाना पड़े, इस की जिम्मेदारी वकील पर आ पड़ती है।  इस के लिए वकील का रोज अदालत परिसर तक जाना और मुकदमों को अदालत में न जाकर भी नियंत्रित करना जरूरी हो जाता है। सामान्य परिस्थितियों में मुकदमे की पैरवी की वैकल्पिक व्यवस्था की जा सकती है लेकिन ऐसे में अपना मुख्यालय छोड़ पाना दुष्कर हो जाता है। इस कारण से मेराअगस्त के अंत से कोटा में ही रहना हुआ। इस बीच मुंबई में अनिता कुमार-विनोद जी के पुत्र के विवाह में जाने की तैयारी अवश्य थी लेकिन उसी समय बेटे को बाहर जाना था सो मुम्बई का टिकट रद्द करवाना पड़ा।  



विगत फरवरी में बेटी पूर्वा ने बल्लभगढ़ (फरीदाबाद) में अपने नए काम पर पद  भार संभाला था। उसे वहाँ छोड़ने गए तो उस के लिए आवास की व्यवस्था की जिस में फरीदाबाद के साथी ब्लागर अरुण जी अरोरा और उन की पत्नी मंजू भाभी ने महति भूमिका अदा की थी। हम चार दिन उन्हीं के मेहमान रहे। अरुण जी के सौजन्य से ही ब्लागवाणी के कार्यालय में मैथिली जी, सिरिल, अविनाश वाचस्पति जी,  आलोक पुराणिक जी और ....... से भेंट हुई थी। पखवाड़े भर बाद जब पूर्वा को एक बार देखने वापस फरीदाबाद जाना हुआ तो अरुण  जी के अतिरिक्त किसी से मिलना नहीं हो सका और किसी भी तरह तीसरी बार उधर का रुख भी नहीं हो सका। पूर्वा अवश्य माह डेढ़ माह में कोटा आती रही। बहुत दिन हो जाने के कारण एक बार पूर्वा के पास जाना ही था। पहले 7 नवम्बर जाना तय हुआ, लेकिन जोधपुर के एक मुवक्किल ने दबाव बनाया उन का काम तुरंत जरूरी है और जोधपुर जाना हो सकता है। यह कार्यक्रम निरस्त हुआ। लेकिन जोधपुर यात्रा भी टल गई। फिर 14-15 नवम्बर को फरीदाबाद जाना तय हुआ। तभी खबर मिली कि पाबला जी भी उन्हीं दिनों दिल्ली आ रहे हैं। सुसंयोग देख कर मैं ने पत्नी शोभा के वहाँ तीन रात्रि रुकने का कार्यक्रम तय कर लिया। इस बहाने दो -दिन एक रात दिल्ली रुकना हुआ और वहीं अनेक ब्लागर साथियों से भेंट हुई जिस का विवरण आप को पाबला जी, अजय कुमार झा और खुशदीप सहगल जी से आप को मिल चुका है और मिलता रहेगा।

दिल्ली में ही मुझे पुनः जोधपुर पहुँचने का संदेश मिला तो मैं 17 की शाम कोटा पहुँच कर 18 की रात ही जोधपुर के लिए लद लिया। दो दिनों में जोधपुर का काम निपटा कर वापस कोटा पहुँचा। दोनों ओर की यात्रा बस से हुई उस ने जो कष्ट और आनंद दिया वह निराला था। 21 नवम्बर की सुबह कोटा पहुँचा तो हालत यह थी कि दिन भर सोता रहूँ। लेकिन सप्ताह भर की अनुपस्थिति ने अदालत जाने को विवश किया। शाम हालत यह थी कि न खुद का पता था, न दुनिया का। पर ब्लागरी ऐसी चीज हो गई कि उस दिन भी अनवरत और तीसरा खंबा पर एक एक आलेख पेल ही दिए। आज शामं अचानक ध्यान आया कि अनवरत की वर्षगांठ इन्हीं दिनों होनी चाहिए। देखा तो पता लगा कि अनवरत का जन्मदिन 20 नवम्बर को ही निकल चुका है।
ब देर से ही सही हम अनवरत की दूसरी वर्षगाँठ को स्मरण किए लेते हैं। 20 नवम्बर 2007 को आरंभ हुआ अनवरत दो वर्ष पूरे कर चुका है, .यह आलेख इस का 370वाँ आलेख है और 41000 से अधिक चटके इस पर लोग लगा चुके हैं।

अनवरत का पहला आलेख



आप सब के आशीर्वाद और स्नेह की आकांक्षा के साथ ......

रविवार, 22 नवंबर 2009

"फिल वक्त" महेन्द्र 'नेह' की एक कविता 'थिरक उठेगी धरती से'

ज मथुरा में महेन्द्र 'नेह' के नए काव्य संग्रह 'थिरक उठेगी धरती' का लोकार्पण है। उन के पिता श्री विश्वंभरनाथ चतुर्वेदी 'शास्त्री' का स्मृति समारोह भी है। निजि कारणों से इस समारोह में उपस्थित नहीं हो पा रहा हूँ, इस का बहुत अफसोस भी है। इस अवसर पर इस काव्य संकलन से एक कविता आप के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। शायद इसे ही उस समारोह में मेरी उपस्थिति मान ली जाए। 

फिल वक्त
  • महेन्द्र 'नेह' 

फिल वक्त
खामोश हैं / मेरे साथी


इस खामोशी में 
पल रहे हैं बवंडर
इस खामोशी में 
छुपी हैं समूची धरती की 
झिलमिलाती तस्वीरें / जिन पर 
इन्सानी फसलों को तबाह करते
खूनखोर जानवरों ने 
रख दिए हैं अपने / भारी भरकम बूट


पाँवो सहित 
तोड़ दिए जाएँगे बूट
तब हिंसा नहीं / प्रतिहिंसा होगी मुखर
जब टूटेगी खामोशी
मेरे साथियों की


धरती / अपनी धुरी पर
तनिक और झुकेगी
और तेजी से थिरक उठेगी तब 


फिल वक्त
खामोश हैं मेरे साथी।

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शनिवार, 21 नवंबर 2009

महेन्द्र 'नेह' के काव्य संग्रह 'थिरक उठेगी धरती' का लोकार्पण विश्वंभर नाथ चतुर्वेदी 'शास्त्री' समारोह में 22 नवम्बर को

प अष्टछाप के कवियों कुम्भनदास (१४६८ ई.-१५८२ ई.), सूरदास (१४७८ ई.-१५८० ई.), कृष्णदास (१४९५ ई.-१५७५ ई.), परमानन्ददास (१४९१ ई.-१५८३ ई.), गोविन्ददास (१५०५ ई.-१५८५ ई.), छीतस्वामी (१४८१ ई.-१५८५ ई.), नन्ददास (१५३३ ई.-१५८६ ई.) और चतुर्भुजदास से अवश्य ही परिचित होंगे। इन में 'छीतस्वामी' स्वामी के वंश में प्रत्येक पीढ़ी में कम से कम एक वंशज कवि अवश्य ही हुआ है। इन्हीं के वंश में थे विश्वंभरनाथ चतुर्वेदी 'शास्त्री'। वे स्वातंत्र्य चेतना, जनतांत्रिक मूल्यों, और श्रम सम्मान के उन्नायक; शिक्षा, साहित्य व संस्कृति के साधक; और पेशे से अध्यापक थे। प्रतिवर्ष उन की स्मृति में एक समारोह का आयोजन मथुरा के उन के प्रेमी और प्रशंसक करते हैं। इस वर्ष भी उन का स्मृति समारोह 22 नवम्बर,2009 रविवार को का. धर्मेंद्र सभागार बिजलीघऱ केंट, मथुरा में अपरान्ह 2 बजे से आयोजित किया जा रहा है।

स समारोह में मुख्य अतिथि साहित्यकार और समालोचक डॉ. जीवन सिंह हैं और अध्यक्षता डॉ. अनिल गहलोत कर रहे हैं। इस समारोह में कोटा से नाटककार-कवि शिवराम, दिल्ली से कवि रामकुमार कृषक, बड़ौदा से कवि डॉ. विष्णु विराट, जयपुर से कवि शैलेंद्र चौहान. रतलाम से कवि अलीक, दिल्ली से कवि रमेश प्रजापति और मथुरा से हनीफ मदार उपस्थित रहेंगे, समारोह का संचालन शिवदत्त चतुर्वेदी करेंगे। समारोह में एक परिचर्चा 'यह दौर और कविता' विषय पर होगी और महेन्द्र 'नेह' के काव्य संकलन 'थिरक उठेगी धरती' का लोकार्पण होगा। समारोह में सम्मिलित होने वालों के लिए रविकुमार (रावतभाटा) के कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी बोनस होगी।

मैं ने आरंभ में ही कहा था कि छीत स्वामी के वंशजों की हर पीढ़ी में कोई न कोई कवि हुआ है। स्व. विश्वंभरनाथ चतुर्वेदी 'शास्त्री' की अगली पीढ़ी के कवि आप के चिर-परिचित महेन्द्र 'नेह' हैं जिन के काव्य संग्रह का लोकार्पण इस समारोह में होना है। मेरी इस समारोह में उपस्थित होने की अदम्य इच्छा थी, पिछले पूरे सप्ताह यात्रा पर होने और थकान व सर्दी के असर से पीड़ित होने से मैं स्वयं इस समारोह में उपस्थित नहीं हो पा रहा हूँ। लेकिन यह मथुरा और आस-पास के लोगों के लिए अनुपम अवसर है इस समारोह में उपस्थित होने और इन सभी साहित्यिक व्यक्तियों का सानिध्य प्राप्त करने का। आप सभी इस समारोह में सादर आमंत्रित हैं।

शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

हमारे समय के अग्रणी रचनाकार : गजानन माधव मुक्तिबोध (2)

महेन्द्र 'नेह' द्वारा मुक्तिबोध के रचना कर्म का संक्षिप्त अवलोकन (2)

 मुक्तिबोध पर यह महेन्द्र 'नेह' का यह आलेख मुझे दिल्ली प्रवास में प्राप्त हुआ था। इसे यहाँ दो कड़ियों में प्रस्तुत कर रहा हूँ। पहली कड़ी आप कल पढ़ चुके हैं, पढ़िए दूसरी कड़ी .....
संस्कृति के प्रति मुक्तिबोध का रवैया वहुत व्यापक और संश्लिष्ट होते हुए भी अपने निहितार्थ में 'जन-संस्कृति’ के आलोक को विस्तीर्ण-करने का ही था।  उनका मानना था कि जिस तरह समाज प्रभुवर्ग और श्रमजीवी वर्ग में विभाजित है, कला, साहित्य और संस्कृति का स्वरूप भी आम तौर पर वर्गीय होता है। प्रभुवर्ग अपने हितों और दृष्टिकोंण के आधार पर संस्कृति की व्याख्या तथा संरक्षण देता है, दूसरी और श्रमजीवी वर्ग अपनी चेतना से नई प्रतिरोध की संस्कृति और साहित्य का सृजन करता रहता है। अपनी गतिमान और दृन्दात्मक स्थिति के कारण संस्कृति के श्रेष्ठ मानवीय तत्वों का संचयन भी चलता रहता है, जिसे अपनाने में नई संस्कृति के निर्माताओं को गुरेज नहीं करना चाहिए। मुक्तिबोध परम्परा के नाम पर वासनाजन्य साहित्य को स्वीकृति नहीं देते थे, चाहे उसे कालिदास जैसे महाकवि ने ही क्यों न रचा हो।  धर्म ने नाम पर अकर्मष्यता और साम्प्रदायिक के कथित पुरातन संस्कृति पोषक महाधीशों पर वे अपनी कविता में प्रहार करते हैं -
‘‘भारतीय संस्कृति के खंडेरों में
जीवन्त कीर्ति की विदीर्ण युक्तियों
के लतियाये भालों पर / स्तम्भों के शीर्श पर /
मन्दिरों के श्रंगों पर। बैठे ये जनद्वेषी धुघ्घू ये घनघोर /
चीखते हैं रात दिन!!
घूमते हैं खंडेरों की गलियों में चारों ओर /
कुकुर पुराने और दम्भ के नये जोर
जनता के विद्वेषी / अनुभवी / कामचोर ........’’

मुक्तिबोध का मेरी रचनादृष्टि पर कैसा और कितना प्रभाव पड़ा है, यह तो मेरे पाठक और समीक्षक ही बेहतर बता पायेंगे। लेकिन मेरा मानना है कि मुक्तिबोध के साहित्य ने मेरी तत्व-दर्शी दृष्टि और भाव-बोध में इजाफा किया है। मेरे वर्ग - बोध को भी मुक्तिबोध के साहित्य ने अधिक पुख्ता तथा जन पक्षधरता को पहले से अधिक सच्चा ओर मजबूत बनाया है। मुक्तिबोध के साहित्य ने केवल मुझे ही नहीं, उन सभी रचनाकारों को गहराई से प्रभावित किया है, जो साहित्य की सामाजिक व परिवर्तनकारी भूमिका को आवश्यक मानते है।

मुक्तिबोध को आधुनिकतावादी - कलावादियों तथा जनवादी लेखओं आलोचकों दोनों के ही द्वारा पसंद करने के कई कारण रहे हैं। जनवादी लेखकों-आलोचकों द्वारा तो मुक्तिबोध को पसंद किया जाना स्वाभाविक है, क्योंकि उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में नई रचनाशीलता और समझ को जन्म दिया। प्रगतिशील लेखन को अपने पुराने कलेतर से निकालकर एवं व्यापक प्रष्ठभूमि पर अवास्थित किया। कला और समीक्षा के नये मापदण्ड निर्धारित किये। जहाँ तक आधुनिकतावादी-कलावादी लेखकों द्वारा मुक्तिबोध को पसंद किया जाने का प्रश्न है, उसको दो तरह से समझा जा सकता है। पहला तो मुक्तिबोध की प्रतिभा और सुजन कला है, जो अपनी समग्रता में बहुत कुछ ऐसा समेटे हुए है, जिसे नकारा नहीं जा सकता। दूसरा कारण आधुनिकतावादियों द्वारा मुक्तिबोध के साहित्य को जटिलता और रहस्यवाद की और धकेलना और उसकी भ्रम पूर्ण व्याख्याऐं करना रहा है। लेकिन जिस तरह प्रेम चंद और भगत सिंह के विचारों को विरूपित करने की अधिकांश चेष्ठाऐं अंततः भूलुंठित हुई है, मुक्तिबोध के साहित्य की कोंध भी मन को मानवीय और जन को जन-जन बनाने की बड़ी सामर्थ्य रखती है।

मुक्तिबोध के अंतर्विरोधों की व्याखा उनके देशकाल और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही की जानी चाहिए। मुक्तिबोध को अपने पारिवारिक दायित्वों और अत्यधिक धनाभाव में ही अपनी ज्ञानात्मक, साहित्यिक व सामाजिक भूमिका के लिए संघर्ष करना पड़ा। उनके सामने बहुत बड़े लक्ष्य थे, लेकिन उन्हें कई स्तरों पर जूझना था। एक ओर प्रगतिशील आन्दोलन अपनी चमक खो रहा था तो दूसरी ओर अज्ञेय के नेतृत्व  में आधुनिकतावाद और कलावाद के अखाड़े में व्यक्तिवादी-सुविधावादी लेखकों की गोलबंदी हो रही थी। मुक्तिबोध को चूँकि साहित्य की पुरानी जमीन तोड़ कर नई जमीन का निर्माण करना था, नये पौधों को रोपना था, नई ज्ञाानात्मक चेतना में पक कर नये संस्कारों का निर्माण करना था, वे प्रत्यक्ष रूप से जनता के मुक्ति संग्रामों में न कूद सके। इसी कारण कबीर की तरह ज्ञानात्मक चेतना से युक्त होते हुए भी वे सधुक्कड़ी जन-भाषा का उस तरह का ताना-बाना न बुन सके। इसके बावजूद युग के अंतर्विरोधों की सर्वाधिक प्रखर व विवेक संगत समझ और जन-क्राान्तिकारी भूमिका न निभा पाने की आंतरिक वेदना का उनके मन-मस्तिष्क पर संघातिक असर पड़ा, जिसने उनके जीवन को ही छीन लिया।
  • महेन्द्र नेह

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

हमारे समय के अग्रणी रचनाकार : गजानन माधव मुक्तिबोध (1)


महेन्द्र 'नेह' द्वारा मुक्तिबोध के रचना कर्म का संक्षिप्त अवलोकन
 मुक्तिबोध पर यह महेन्द्र 'नेह' का यह आलेख मुझे दिल्ली प्रवास में प्राप्त हुआ था। इसे यहाँ दो कड़ियों में प्रस्तुत कर रहा हूँ। पढ़िए पहली कड़ी.....
जानन माधव मुक्तिबोध हमारे समय के उन अग्रणी रचनाकारों में हैं, जिन्होंने देशकाल और परिस्थितियों की त्रासद सचाइयों और उसके साधारण जन पर पड़ने वाले प्रभावों की पड़ताल पूरी शिद्दत से की और अपनी कविताओं, कहानियों, लेखों व समीक्षा में युग की सच्चाइयों को उद्धाटित किया। मेरा मानना है कि निराला के अलावा मुक्तिबोध ही ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होने हिन्दी साहित्य को विश्व-साहित्य की कोटि में रखे जाने का मात्र सपना ही नहीं देखा, बल्कि इस बड़ी चुनौती के लिए प्राण-प्रण से चेष्टा भी की। अपने अध्ययन, मनन, चिंतन और संघर्ष के द्वारा उन्होंने इस दिशा में जो काम किया है, वह अभी हिन्दी के आम पाठकों तक नहीं पहुँच पाया।


मुक्तिबोध उन विरले लेखकों में से थे, जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से देश की कथित ‘आजादी’ के मर्म और 1947 के बाद भारत की राज्य-सत्ता पर काबिज नये शासक वर्ग के चरित्र की सच्चाई को समझ कर अपने लेखन के उद्देश्य तय किए थे। जब केवल सत्ता से नाभिनालबध्द लेखकों का समूह ही नहीं, बल्कि प्रगतिशील लेखकों का बड़ा हिस्सा भी नेहरू-युग की भ्रामक प्रगतिशीलता से सम्मोहित था, तब मुक्तिबोध ही थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं में इस सचाई को उद्घाटित किया कि देश का नये शासक-वर्ग का चरित्र मात्र जन-विरोधी ही नहीं है, बल्कि साम्राज्यवादियों जैसा ही क्रूर, निरंकुश और हिंसक भी है। उसके हित साम्राज्यवाद से टकराव के नहीं अपितु वह साम्राज्यवादी शोषण-दमन और उत्पीड़न में सहायक व साँझीदार है। इस संदर्भ में उनकी कहानी ‘क्लाड ईथरली’ को पढ़ना चाहिए, जिसमें वे लिखते हैं - ‘‘तो तुमने मैकामिलन की वह तकरीर भी पढ़ी होगी जो उसने.......... को दी थी। उसने क्या कहा था? यह देश, हमारे सैनिक गुट में तो नहीं है किन्तु संस्कृति और आत्मा से हमारे साथ है। क्या मैकमिलन सफेद झूठ कह रहा था? कतई नहीं। वह एक महत्वपूर्ण तथ्य पर प्रकाश डाल रहा था। उनकी कविता ‘‘बारह बजे रात के’’ से भी कुछ पंक्तिया उद्धृत करना चाहता हूँ -  
‘‘युध्द के लाल-लाल / प्रदीप्त स्फुलिंगों से लगते हैं / बिजली के दीप हमें / लंदन में वाशिंगटन / वाशिंगटन में पेरिस की पूँजी की चिंता में / युध्द की वात्र्ताऐं सोने न देती हैं / किराये की आजादी / चाँटे सी पड़ी है, पर रोने न देती है / जर्मनी संगीत / अमरीकी संगीत / जब मानव और मनुष्य हमें / होने न देता है’’   
मुक्तिबोध निरूद्देश्य लेखन के बजाय उद्येश्यपूर्ण व लक्ष्य-बद्ध लेखन के समर्थक थे। उनका मानना था कि साहित्य का उद्देश्य मानवीय भावनाओं के परिष्कार, जन को जन-जन करना, शोषण और सत्ता के घमण्ड को चूर करने वाला तथा ‘मानव-मुक्ति’ के लक्ष्यों से संचालित होना चाहिए। मानव-मुक्ति का उनके लिए अर्थ वर्गीय-मुक्ति से था। शोषित-पीड़ित मजदूरों और किसानों की मुक्ति उनके लिए कोई नारेबाजी नहीं थी, बल्कि इसमें वे समूचे मानव समाज की भूख, अंधेरे और अज्ञान से मुक्ति से जोड़ कर देखते थे।
वे कविता को केवल भावनाओं के उच्छवास का माध्यम नहीं मानते थे बल्कि मानवीय संवेदनाओं के ज्ञान व विवेक संगत होने के पक्षधर थे। ज्ञानात्मक संवेदनाऐं और संवेदनात्मक ज्ञान की अवधारणा मुक्तिबोध द्वारा सौन्दर्यशास्त्र पर उनके गहन अध्ययन की मौलिक अवधारणा है। लेखक की रचना-प्रक्रिया पर भी मुक्तिबोध ने जितना गहन पर्यवेक्षण व चिंतन किया है, उसे परवर्ती समीक्षक आगे नहीं बढ़ा सके।
मुक्तिबोध पश्चिमी आयातित विचारों को ज्यों का त्यों अपना लेने के विरोधी तथा अपनी संस्कृति की श्रेष्ठ विरासत व स्वदेशी के प्रबल समर्थक थे। उनकी कविताओं में यूकीलिप्टस और कैक्टस के बजाय पीपल, वट और बबूल के बिम्ब दिखाई देते हैं। इस संदर्भ में उनकी कुछ कविताओं, विशेष रूप से ‘‘चाहिए मुझे मेरा असंग बबूलपन’’ ‘‘घर की तुलसी’’ को पढ़ा जाना चाहिए। ‘घर की तुलसी’ की कुछ पंक्तियाँ देखिये -
‘‘मैं काल-विहंग परीक्षा के निज प्रहरों में
भी रहा खोज अपने स्वदेश का कोना निज
उग चलूँ अंधेरे के निःसंग सरोवर में
पंखुरियाँ खोलता लाल-लाल अग्निम सरसिज
वह भव्य कल्पना रूपायित
जब हुई कि मन में अकस्मात
इनकार भरी वह असंतोष की वन्हि
कह गई थी जरूर
घर की तुलसी तुमसे इतनी दूर
रेगिस्तानों से ज्यों नदियों का पूर’’
 वे भारतीय लेखकों और मीडिया के पश्चिम - प्रेम पर कटाक्ष करते हुए ‘क्लॉड ईथरली’ कहानी में कहते हैं - ‘‘यह भी सही है कि उनकी संस्कृति और आत्मा का संकट हमारी संस्कृहित और आत्मा का संकट है। यही कारण है कि आजकल के लेखक और कवि अमरीकी, ब्रिटिश तथा पश्चिम यूरोपीय साहित्य तथा विचारधाराओं में गोते लगाते हैं और वहाँ से अपनी आत्मा को शिक्षा और संस्कृति प्रदान करते हैं। क्या यह झूठ है ? और हमारे तथाकथित राष्ट्रीय अखबार और प्रकाशन-केन्द्र! वे अपनी विचारधारा और दृष्टिकोण कहाँ से लेते हैं ?’’
अपनी लम्बी कविता ‘‘जमाने का चेहरे’’ में वे कहते हैं -
‘‘साम्राज्यवादियों के पैसों की संस्कृति
भारतीय आकृति में बँध कर / दिल्ली को वाशिंगटन व लंदन का उपनगर / बनाने पर तुली है!! भारतीय धनतंत्री / जनतंत्री बुद्धिवादी / स्वेच्छा से उसी का कुली है!!’’
मुक्तिबोध के लेखन की एक और बड़ी मौलिक देन को मैं रेखांकित करना चाहता हूँ, वह है - आत्मालोचना और आत्म - संघर्ष!
हिन्दी के लेखकों की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि उनमें से अधिकांश बहुत थोड़ा और कम महत्वपूर्ण लिख कर ही आत्म-प्रशंसा और आत्म-मुग्धता के शिकार हो जाते हैं। इसके ठीक विपरीत मुक्तिबोध निरन्तर श्रेष्ठ लेखन की और बढ़ते हुए भी स्वयं की तीखी और मारक आलोचना करते हैं। जैसे जन-गण के प्रति अपने दायित्वों को पूरी तरह न निभाने के लिए स्वयं पर कोड़े बरसा रहें हो! मुक्तिबोध का समूचा साहित्य सत्ता-व्यवस्था के विरूद्ध औचित्यपूर्ण संघर्ष के साथ-साथ निरन्तर आत्म-संघर्ष और आत्म परिष्कार की प्रक्रिया से गुजरता है! एक ओर वे मानते है कि ‘‘तोड़ने ही होंगे गढ़ और दुर्ग सब’’ तो दूसरी और ‘‘नहीं चाहिए मुझे हवेली’’ में वे वर्तमान में पदों और पुरस्कारों की कुक्कुर-दौड़ में लगे सत्ता के चाकर साहित्यकारों के बरक्स लिखते हैं -
‘‘नहीं चाहिए मुझे हवेली
नहीं चाहिए मुझे इमारत
नहीं चाहिए मुझको मेरी
अपनी सेवाओं की कीमत
नहीं चाहिए मुझे दुश्मनी
करने कहने की बातों की
नहीं चाहिए वह आईना
बिगाड़ दे जो सूरत मेरी
बड़ो बड़ों के इस समाज में
शिरा शिरा कम्पित होती है
अहंकार है मुझको भी तो
मेरे भी गौरव की भेरी
यदि न बजे इन राजपथों पर
तो क्या होगा!! मैं न मरूँगा
कन्धे पर पानी की काँवड़
का यह भार अपार सहूँगा!!’’

  • महेन्द्र नेह