@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: "सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प"

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

"सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प"

'शिवराम' बहुत बड़े लेखक हैं, नामी नाटककार हैं, उन के नाटकों के बहुत भाषाओं में अनुवाद हुए हैं, वे देश में और बाहर खेले गए हैं, वे समर्थ कवि भी हैं और ऊपर से आलोचक भी हैं। पर वे अभी पत्रिकाओं नाट्य, साहित्य और सांस्कृतिक संगठनों तक सीमित हैं। उन के नाटकों और कविताओं की कुछ किताबें प्रकाशित हुई हैं लेकिन सीमित संख्या में। जब आप उन की चर्चा करते हैं तो मैं केवल चर्चा सुन कर रह जाता हूँ। मैं उन्हें पढ़ना चाहता हूँ। लेकिन कैसे पढ़ूँ? उन की किताब मुझे मिले तब न। उन की रचनाएँ इंटरनेट पर किसी तरह आ जाएँ तो मैं पढ़ भी सकता हूँ और लोगों को पढ़ने के लिए कह भी सकता हूँ। इंटरनेट महत्वपूर्ण साहित्य को विश्व भर में उपलब्ध कराने का माध्यम बन रहा है। ब्लाग इस कमी की पूर्ति कर रहे हैं।
ज शाम अजित वडनेरकर जी से फोन पर लंबी बात हुई तो यह सब उन्हों ने कहा, मैं ने गुना। वास्तव में इंटरनेट और ब्लाग की यह भूमिका बहुत बड़ी है। उन से और भी बात हुई कि ब्लाग पर क्या लिखना चाहिए? लेकिन वह फिर कभी। अभी संदर्भ में 'शिवराम' आ गए हैं, तो उन की एक विचित्र कविता पढ़िए!  पढ़िए क्या गुनगुनाइए! और कोई धुन पकड़ में आ जाए तो उसे औरों को भी सुनाइए। कविता का शीर्षक है  "सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प"

"सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प"
  •  शिवराम
मनमोहन की नाव में, छेद पचास हजार।
तबहु तैरे ठाट से, बार बार बलिहार।।

नाव नदिया में डूबी
नदी की किस्मत फूटी
नदी में सिंधु डूबा जाय
सिंधु में सेतु रहा दिखाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

वाम झरोखा बैठिके, दाँयी मारे आँख।
कबहु दिखावे नैन तो, कबहु खुजावे काँख।।
नयन से नयन लड़ावै
प्रेम बढ़तो जावै
नयनन कुर्सी रही इतराय
'सेज' में मनुआ डूबो जाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

माया सच्ची, माया झूठी, सिंहासन की माया
ये जग झूँठा, ये जग साँचा, ये जग ब्रह्म की माया।।
माया ब्रह्म के अंग लगे
ब्रह्मा माया में रमे
ब्रह्म को माया रही लुभाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

अड़ अड़ के वाणी हुई, अड़ियल, चपल, कठोर।
सपने सब बिखरन लगे, घात करी चितचोर।।
चित्त की बात निराली
तुरप बिन पत्ते खाली
चेला चाल चल रहा
गुरू अब हाथ मल रहा
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।


अब आप ही बताएँ कि कैसी रही कविता? और कैसी रही गप्प?

13 टिप्‍पणियां:

विनोद कुमार पांडेय ने कहा…

बढ़िया कविता ये तो मुहावरे जैसे सुंदर बन गये बार बार कहने में और और अच्छा लगता है...बढ़िया कविता बढ़िया गप्प..बधाई

L.Goswami ने कहा…

excellent!

....पर जान पड़ा जल्दी खत्म हो गई.

prabhat gopal ने कहा…

badhia kavita, yatharth ko batati hui

मनोज कुमार ने कहा…

सरस, रोचक रचना के लिए बधाई।

राज भाटिय़ा ने कहा…

मनमोहन की नाव में, छेद पचास हजार।
तबहु तैरे ठाट से, बार बार बलिहार।।
बहुत सुंदर लगी यह गप्प, लेकिन यह नाव डुब क्यो नही रही?

Chandan Kumar Jha ने कहा…

ओह बहुत ही मजेदार …………………

Udan Tashtari ने कहा…

सटीक रचना...

वाह भई गप्प...वाह जी सप्प!!


आनन्द आ गया.

Udan Tashtari ने कहा…

एक फिल्म आई थी नदिया के पार..उसमे गाना था...जोगी जी वाह!!....उसी तर्ज पर है यह कविता भी. :)

Khushdeep Sehgal ने कहा…

चेला चाल चल रहा,
गुरु अब हाथ मल रहा...

राजनीति का सच यही है...

जय हिंद...

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत सुंदर रचना.

रामराम.

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

सुन्दर कविता! गप्प-सप्प!

रंजू भाटिया ने कहा…

बहुत बढ़िया पसंद आई यह कविता ...शुक्रिया इसको पढवाने के लिए

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

वाकई दुनिया कितनी सिकुडती जा रही है :)