@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: समूह का जिम्मेदार हिस्सा

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

समूह का जिम्मेदार हिस्सा

खिर आज बार  (अभिभाषक परिषद) के चुनाव संपन्न हो गए। मेरा वकालत में इकत्तीसवाँ वर्ष भी इसी माह पूरा हुआ है। दिसंबर 1978 में मुझे बार कौंसिल ने पंजीकरण की सूचना दे दी थी। हालांकि मैं ने इस के भी करीब छह माह पहले से ही अदालत जाना आरंभ कर दिया था। मैं कभी भी अभिभाषक परिषद की गतिविधियों के केंद्र से अधिक दूर नहीं रहा। कुछ कारणों से पिछले पाँच वर्षों से स्वयं को दूर रखना पड़ा।  लेकिन तीसरा खंबा आरंभ करने के बाद इस सब से दूर रहना संभव नहीं था। यदि वकीलों तक अपनी बात को सही ढंग से पहुँचाना है तो वही एक मात्र मंच ऐसा है जिस से यह काम किया जा सकता है। इस बार अपने एक कनिष्ठ अभिभाषक  रमेशचंद्र नायक को कार्यकारिणी की सदस्यता के लिए चुनाव लड़ाया। सामान्य रूप से वह एक बहुत अच्छा उम्मीदवार था। लेकिन चुनाव में जिस तरह की प्रतियोगिता थी उस से मुझे भी उस में व्यस्त होना पड़ा। पिछले चार पांच दिन तो इसी में निकल गए। उस श्रम का ही नतीजा रहा कि नायक चुनाव में सफलता हासिल कर  नए वर्ष में  अभिभाषक परिषद कोटा का काम संभालने वाली नई कार्यकारिणी की सदस्यता हासिल कर सका। रमेशचंद्र नायक का यह पहला अवसर है जब उस ने वकीलों के समूह की जिम्मेदारी को हाथ में लिया है। वह इसे मन से पूरी करेगा और साल के अंत में उस से बड़ी जिम्मेदारी को उठाने के लिए सक्षम होगा और तन-मन से तैयार भी।

 रमेशचंद्र नायक
र समूह के लोगों की अपनी समस्याएँ होती हैं, चाहे वह समूह घर पर परिवार के रूप में हो, नजदीकी रिश्तेदारों का समूह हो, मोहल्ले की सोसायटी का समूह हो या साथ काम करने वाले लोगों का समूह हो। हर जगह यह समूह किसी न किसी तरह की समस्याओं का सामना कर रहा होता है। हम सभी स्थानों पर वैयक्तिक समस्याओं के हल के लिए जूझते हैं लेकिन समूह की समस्याओं से कतरा जाते हैं। नतीजा यह होता है कि सामुहिक समस्याएँ बढ़ती रहती हैं और हम वैयक्तिक मार्ग तलाशते रहते हैं और आगे बढ़ते रहते हैं। इन वैयक्तिक मार्गों पर वही व्यक्ति सर्वाधिक सफल रहता है जो सब से चालाक होता है, सब से सीधे व्यक्ति का मार्ग सब से पहले बंद होता है और उसे एक बंद सुरंग में छोड़ देता है।

प इस वैयक्तिक मार्ग पर चल कर किसी सुरंग में अकेले फँसे रह जाएँ, उस से अच्छा है कि आप सामुहिक समस्याओं के हल के लिए आगे आएँ। इस के लिए कहीं न कहीं समूह की कोई न कोई सामुहिक जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी। जब आप समूह में रहेंगे तो हमेशा किसी अंधेरी सुरंग से दूर रहेंगे और किसी सुरंग में फँस भी गए तो अकेले नहीं होंगे। रमेशचंद्र नायक की इस सफलता के साथ-साथ हमारे वकालत के दफ्तर के सभी  साथी महसूस कर रहे हैं कि वे अब समूह का अधिक जिम्मेदार हिस्सा हैं।

10 टिप्‍पणियां:

अजित वडनेरकर ने कहा…

समूह मे रहकर सामूहिक जिम्मेदारी से बचना स्वार्थ है। ऐसे लोगों की अधिकत उस समूह के पिछड़ते जाने का कारण होती है।
ज़रूरी है कि ऐसे लोगों को लगातार सचेत, सतर्क और कार्यशील बनाने के प्रयत्न भी समूह की ओर से होते रहें।

भारत के राजनीतिक परिदृष्य के मद्देनजर इसे व्यापक रूप में समझा जाना चाहिए। नेताओं के लिए राजनीति आज समूह का काम नहीं, वैयक्तिक ज्यादा है।

उम्मतें ने कहा…

चलिए मेहनत रंग लाई , श्री नायक को बधाई

Udan Tashtari ने कहा…

आप इस वैयक्तिक मार्ग पर चल कर किसी सुरंग में अकेले फँसे रह जाएँ, उस से अच्छा है कि आप सामुहिक समस्याओं के हल के लिए आगे आएँ।



--हाँ, शायद यही बेहतर मार्ग है..आपने इसी बहाने सोचने को मजबूर किया.


-नायक जी बधाई एवं शुभकामनाएँ.

शरद कोकास ने कहा…

द्विवेदी जी शानदार 31 वर्ष पूरे होने की बधाई आपके विचारों के नायकत्व में नायक जैसे युवा सदैव समूह की ताकत का सही एवं उचित प्रदर्शन करेंगे यह उम्मीद है ।

Smart Indian ने कहा…

आप इस वैयक्तिक मार्ग पर चल कर किसी सुरंग में अकेले फँसे रह जाएँ, उस से अच्छा है कि आप सामुहिक समस्याओं के हल के लिए आगे आएँ।

बिलकुल सही बात है मगर अफ़सोस यही है कि लम्बे अंतराल से व्यक्तिगत स्वार्थ सामूहिक हितों से ऊपर आ गए हैं. निष्ठा रही भी है तो बहुत से बहुत परिवार, धर्म, जाति, अंचल, संस्था या वाद तक न कि सम्पूर्ण समाज या राष्ट्र तक.

जब भी अभिभाषक शब्द पढता हूँ तो पहली नज़र में अभिभावक का भ्रम होता है क्योंकि इस अभिप्राय में हमेशा अधिवक्ता शब्द के प्रयोग से ही परिचित रहा हूँ.

सालगिरह की बधाई!

Arvind Mishra ने कहा…

मगर कभी कभी लगने लगता है की कुछ किया ही नहीं जा सकता ..खुद अपने परिवार में ही और दिनेश जी आप समूह की बात कर रहे हैं !

Himanshu Pandey ने कहा…

"जब आप समूह में रहेंगे तो हमेशा किसी अंधेरी सुरंग से दूर रहेंगे और किसी सुरंग में फँस भी गए तो अकेले नहीं होंगे। " - हाँ, यह बात महत्वपूर्ण है ।

३१ साल बहुत होते हैं - गहरा अनुभव !
प्रविष्टि का आभार ।

Abhishek Ojha ने कहा…

बधाई ! अक्सर ऐसे पद औपचारिकता मात्र रह गए हैं... ये जानकर दुःख होता है.

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

आपका प्रत्याशी विजयी हुआ। बधाई॥

आपके कचहरी के चक्कर में इकत्तीस वर्ष सफ़ल्ता से पूर्ण हुए, बधाई॥

क्या ऐसा कोई उपाय है कि कोई केस इकत्तीस महिनों में निपट सके :)

विष्णु बैरागी ने कहा…

आपकी यह पोस्‍ट विस्‍तृत विमर्श की मांग करती है। समूह में रहते हुए व्‍यक्तिगत समस्‍याओं का निदान पाना तनिक कठिन ही होता है। इसीलिए व्‍यक्ति, समूह की चिन्‍ताओं को परे धकेल कर व्‍यक्तिगत चिन्‍ताओं/समस्‍याओं के निदान की तलाश में लग जाता है। व्‍यक्तिगत समस्‍या का निदान, समूह की समस्‍या के निदान के रूप में पाने के लिए अत्‍यधिक धैर्य की आवश्‍‍यकता होती है।
आपने रोचकता से महत्‍वपूर्ण बात उठाई है। मैं एजेण्‍टों के संगठन से जुडा हूं। कभी-कभार ऐसा होता है कि एक की समस्‍या समूह की समस्‍या होती है। किन्‍तु समूह की समस्‍या सुलझाने के लिए लम्‍बी चौडी प्रक्रिया शुरु होती है जो समाप्‍त होने में लम्‍बा समय ले लेती है। उसके मुकाबले, व्‍यक्तिगत समस्‍या आसानी से और जल्‍दी निपट जाती है। यहीं आपकी बात पर विमर्श की सम्‍भावनाएं उपजती हैं।