"ज्ञानदत्त G.D. Pandey, मन्दी? कहां है मन्दी? रेल यातायात डील करते समय मुझे मन्दी नहीं दीखती। कितना सीमेण्ट, कोयला, स्टील, उर्वरक ... सब चले जा रहा है अनवरत। और बहुत कुछ जा रहा है पूर्वान्चल/बिहार को! मुझे बताया गया कि ग्रोथ रेट सात परसेण्ट के आस-पास है। विपक्ष जोर लगा कर भी मंहगाई को सफल चुनावी मुद्दा नहीं बना पाया। सो मन्दी तो मिथक है। जिसे हम सब एक्स्प्लेनेशन के लिये पाल रहे हैं"
लेकिन उन लाखों लोगों से पूछें जो मंदी के नाम पर छंटनी के फलस्वरूप बेरोजगार कर दिए गए हैं। उन से पूछें जिन से उन के माथे पर छंटनी की तलवार लटका कर आठ घंटों के स्थान पर चौदह और सोलह घंटे काम लिया जा रहा है या उन से कम वेतनों पर काम करने की नयी सेवा शर्तें तय करा ली गई हैं। उन विद्यार्थियों से पूछें जिन के कैंपस सेलेक्शन के बाद अभी तक नियुक्तियों का पता नहीं है। जहाँ नियुक्तियाँ हो भी रही हैं वहाँ वेतन लगभग आधे कर दिए गए हैं। एक सोफ्टवेयर इंजिनियर को छह से दस हजार प्रतिमाह की नौकरी के प्रस्ताव मिल रहे हैं। उन के लिए मंदी है। नहीं है तो फिर जनता को झाँसा दे कर लूटा जा रहा है।
ज्ञान जी ने जो उदाहरण दिए हैं वे सब रेलवे से संबद्ध हैं। भारतीय रेलवे आबादी और उस की जरूरतों के मुकाबले बहुत छोटी हो गई है। उस के पास सवारियाँ ढोने को कम गाड़ियाँ हैं। जो हैं उन्हें चलाने के लिए पर्याप्त रेलपथ नहीं हैं। गाड़ियों की सूची इतनी व्यस्त है कि एक जरा सी भी बाधा से कई दिनों तक का मामला खराब हो जाता है। इधर कोटा के आसपास जो थर्मल बिजलीघर हैं उन के बारे में पिछले दिनों खबर थी कि कोयला समय पर नहीं पहुँचा, केवल सात दिनों का स्टॉक रह गया। जो व्यवसाय समाज की आवश्यकता से बहुत न्यून हो जाएगा वहाँ मंदी क्या असर दिखाएगी? लेकिन जिन व्यवसायों में पिछले सालों में मुनाफा बरस रहा था। सारी फालतू पूँजी वहीं समेट दी गई। अतिउत्पादन से वहाँ मंदी आनी ही थी। नतीजा यह हुआ कि बहुत सी इकाइयाँ बैठ गई और उन में लगी पूँजी की कीमत नगण्य हो गई। यही तो मंदी का गणित है।
कुछ क्षेत्रों में तेजी से पूँजी का बहना, उस का संकेन्द्रण और अतिउत्पादन। बाकी सब क्षेत्रों में तो मंदी नहीं दिखाई देगी। वहाँ तो पूँजी का अभाव महंगाई को ही बढ़ाएगा। यही कारण है कि एक ओर मंदी का विशाल दानव दिखाई पड़ता है तो दूसरी ओर महंगाई की दानवी मुहँ बाए खड़ी हो जाती है। आज की अर्थव्यवस्था में जो उत्पादन की अराजकता है। वही तो इन संकटों की जन्मदाता है। एक वर्ष प्याज और टमाटर के भाव आसमान पर होते हैं तो अगले वर्ष उसी की खेती बहुसंख्यक किसान करते हैं और फिर अतिउत्पादन से दोनों सड़ने लगते हैं। लागत न मिलने पर किसान आत्महत्या पर मजबूर हो जाते हैं।
सीमेंट, कोयला, स्टील और उर्वरक ये सब जीवन के लिए आधारभूत वस्तुएं हैं। इन के उत्पादन में मुनाफा कम है और लागत के लिए विशाल पूंजी की आवश्यकता है। इतनी बड़ी पूँजी कौन लगाए? इनमें मंदी का क्या असर हो सकता है? एक बात और, मंदी के बहाने बढ़ाई गई बेरोजगारी, वेतनों में कमी और महंगाई। उपभोक्ताओं की जेब में पहुँचने वाली धनराशि को बड़ी मात्रा में कम करती है और बाजार सिकुड़ता है। यह मंदी के प्रभाव में और तेजी लाती है।
मंदी तो है। मेरा कहना तो यही था कि अर्थव्यवस्था के नियोजन से इस मंदी पर काबू पाया जा सकता है। किन हम आग लगने पर कुआँ खोदने दौड़ते हैं। पहले से पानी की व्यवस्था नहीं रखते या फिर आग न लगने देने के साधन नहीं करते। क्या हमें वे नहीं करने चाहिए? बड़े भाई ने विपक्षी दलों द्वारा महंगाई के मुद्दे का लाभ न उठा सकने पर निराशा जाहिर की है, पर विपक्षी दल है कहाँ? सब पक्ष में ही खड़े हैं कोई खुल कर खड़ा है तो कोई पर्दे के पीछे। विपक्ष में तो अब बस जनता रह गई है, चूसे जाने के लिए।
16 टिप्पणियां:
एकदम सही बात द्विवेदी साहब, ये जो भेड़े है ( मैं तो भेद ही कहूँगा क्योंकि वोट देते वक्त ये झुंडों में ही चलते है इनका दुःख दर्द समझने वाला कोई नहीं ! विपक्ष भी तो सत्ता पक्ष वाले का सौतेला भाई ही तो है, उससे कोई उम्मीद रखना मूर्खता है ! वह भी बस इसी जुगाड़ में है की किसी तरह सत्ता तक पहुँच सकू, बस !
विपक्ष में तो अब बस जनता रह गई है, चूसे जाने के लिए।
-खुद ही तो अपना पक्ष निर्धारित किया है उदासीनता का जामा पहन कर!!
jyada kya likhun ............
.........aap bhee to .........
मानव समाज का इतिहास गवाह है कि भले राजाओं और भली सरकारों की हमेशा कमी रही है. बाकियों के राज में जनता को हर तरह से पिसना पडता है.
हिन्दुस्तान में हम क्रमश: इसी दिशा में बढ रहे हैं, ऐसा लगता है.
सस्नेह -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
अब यह तो प्रणव बाबू के दिल से पूछिये कि मंदी है कि नहीं। कछुये को तो समुद्री तूफ़ान भी नही दिखते।
और जनता किस विपक्ष के पक्ष में जाती साहब! वह जो अमेरिका का सबसे बडा पिट्ठू है?
आप के लेख के एक एक शव्द से सहमत हुं पक्ष ओर विपक्ष दोनो ही एक ही थाली के चट्टॆ बट्टॆ है. धन्यवाद इस लेख के लिये
यदि मंदी है तो मंहगाई क्यों? अपने बहुत छोटे से आर्थिक ज्ञान से इतना जानते हैं कि मंदी में मंहगाई नहीं बढती है. आपका कहना सही है कि उन लोगों का भय जिनसे अब आठ घंटे के स्थान पर बारह चौदह घंटे काम लिया जा रहा है.
रही पक्ष-विपक्ष की बात तो विपक्ष अब करता ही क्या है? सरकार को गिराओ और उसे गद्दी पर बिठाओ..............
द्विवेदी सर...
उजाले में रहने वालों को अंधेरे दिखाई नहीं देते हैं...एक बार बस विदर्भ या बुंदेलखंड के ग्रामीण इलाकों का दौरा कर लीजिए...घास की रोटियां खाते किसान....बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर...
जय हिंद...
पक्ष हो या विपक्ष संसद में तो सभी पूंजीपतियों के ही प्रतिनिधि हैं। वे जनता की बात भी कैसे कर सकते हैं। अपनी बारी आने पर उनको भी वही सब करना है जो आज का सत्ता पक्ष कर रहा है यानी पूंजीपतियों के हित में नियम-कानून बनाना। बाकी मुद्दे तो वे उतना ही उठाते हैं जितना वोट बैंक के लिए जरूरी हो। बस तरीका यही है कि लोगों को बताया जाए कि इस परजीवी सरकार को ढोना हमारी कोई मजबूरी नहीं है। भले ही यह कठिन हो लेकिन तरीका तो यही है। लोगों तक सीधी सरल भाषा में हमें सच्चाई को पहुंचाना होगा। और जनता की इतिहास निर्माण की शक्ति को जागृत करना होगा। उसे विपक्ष नहीं बल्कि सत्ता पक्ष बनाना होगा।
जनता के लिये तो एक ओर साँप नाथ तो दूसरी ओर नाग नाथ । प्रेशर वाल्व खुल जाता है और यह जनता कुछ समय के लिये शांत हो जाती है लेकिन कभी न कभी तो यह गुस्सा सर चढकर बोलेगा । द्विवेदी जी... धन्यवाद ..अच्छा विशेषण ।
मंदी और मंहगाई दोनो एक साथ देख चक्कर आते है. दो तरफा मार या हौव्वा समझ नहीं आता.
विपक्ष में तो अब बस जनता रह गई है. यह सही लिखा.
मंदी है गरीबी है -और जबरदस्त है -कभी ज्ञान जी को बुलाता हूँ गाँवों को दिखने के लिए !
भाई
जय सिंह से सहमत !
बहुत सही कहा जी।
बिल्कुल सही कहा है।
घुघूती बासूती
सब जल्दी ठीक हो जाय सिर्फ ऐसी आशा की जा सकती है.
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