मुक्तिबोध पर यह महेन्द्र 'नेह' का यह आलेख मुझे दिल्ली प्रवास में प्राप्त हुआ था। इसे यहाँ दो कड़ियों में प्रस्तुत कर रहा हूँ। पहली कड़ी आप कल पढ़ चुके हैं, पढ़िए दूसरी कड़ी .....
संस्कृति के प्रति मुक्तिबोध का रवैया वहुत व्यापक और संश्लिष्ट होते हुए भी अपने निहितार्थ में 'जन-संस्कृति’ के आलोक को विस्तीर्ण-करने का ही था। उनका मानना था कि जिस तरह समाज प्रभुवर्ग और श्रमजीवी वर्ग में विभाजित है, कला, साहित्य और संस्कृति का स्वरूप भी आम तौर पर वर्गीय होता है। प्रभुवर्ग अपने हितों और दृष्टिकोंण के आधार पर संस्कृति की व्याख्या तथा संरक्षण देता है, दूसरी और श्रमजीवी वर्ग अपनी चेतना से नई प्रतिरोध की संस्कृति और साहित्य का सृजन करता रहता है। अपनी गतिमान और दृन्दात्मक स्थिति के कारण संस्कृति के श्रेष्ठ मानवीय तत्वों का संचयन भी चलता रहता है, जिसे अपनाने में नई संस्कृति के निर्माताओं को गुरेज नहीं करना चाहिए। मुक्तिबोध परम्परा के नाम पर वासनाजन्य साहित्य को स्वीकृति नहीं देते थे, चाहे उसे कालिदास जैसे महाकवि ने ही क्यों न रचा हो। धर्म ने नाम पर अकर्मष्यता और साम्प्रदायिक के कथित पुरातन संस्कृति पोषक महाधीशों पर वे अपनी कविता में प्रहार करते हैं -
‘‘भारतीय संस्कृति के खंडेरों मेंजीवन्त कीर्ति की विदीर्ण युक्तियों
के लतियाये भालों पर / स्तम्भों के शीर्श पर /
मन्दिरों के श्रंगों पर। बैठे ये जनद्वेषी धुघ्घू ये घनघोर /
चीखते हैं रात दिन!!
घूमते हैं खंडेरों की गलियों में चारों ओर /
कुकुर पुराने और दम्भ के नये जोर
जनता के विद्वेषी / अनुभवी / कामचोर ........’’
मुक्तिबोध का मेरी रचनादृष्टि पर कैसा और कितना प्रभाव पड़ा है, यह तो मेरे पाठक और समीक्षक ही बेहतर बता पायेंगे। लेकिन मेरा मानना है कि मुक्तिबोध के साहित्य ने मेरी तत्व-दर्शी दृष्टि और भाव-बोध में इजाफा किया है। मेरे वर्ग - बोध को भी मुक्तिबोध के साहित्य ने अधिक पुख्ता तथा जन पक्षधरता को पहले से अधिक सच्चा ओर मजबूत बनाया है। मुक्तिबोध के साहित्य ने केवल मुझे ही नहीं, उन सभी रचनाकारों को गहराई से प्रभावित किया है, जो साहित्य की सामाजिक व परिवर्तनकारी भूमिका को आवश्यक मानते है।
मुक्तिबोध को आधुनिकतावादी - कलावादियों तथा जनवादी लेखओं आलोचकों दोनों के ही द्वारा पसंद करने के कई कारण रहे हैं। जनवादी लेखकों-आलोचकों द्वारा तो मुक्तिबोध को पसंद किया जाना स्वाभाविक है, क्योंकि उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में नई रचनाशीलता और समझ को जन्म दिया। प्रगतिशील लेखन को अपने पुराने कलेतर से निकालकर एवं व्यापक प्रष्ठभूमि पर अवास्थित किया। कला और समीक्षा के नये मापदण्ड निर्धारित किये। जहाँ तक आधुनिकतावादी-कलावादी लेखकों द्वारा मुक्तिबोध को पसंद किया जाने का प्रश्न है, उसको दो तरह से समझा जा सकता है। पहला तो मुक्तिबोध की प्रतिभा और सुजन कला है, जो अपनी समग्रता में बहुत कुछ ऐसा समेटे हुए है, जिसे नकारा नहीं जा सकता। दूसरा कारण आधुनिकतावादियों द्वारा मुक्तिबोध के साहित्य को जटिलता और रहस्यवाद की और धकेलना और उसकी भ्रम पूर्ण व्याख्याऐं करना रहा है। लेकिन जिस तरह प्रेम चंद और भगत सिंह के विचारों को विरूपित करने की अधिकांश चेष्ठाऐं अंततः भूलुंठित हुई है, मुक्तिबोध के साहित्य की कोंध भी मन को मानवीय और जन को जन-जन बनाने की बड़ी सामर्थ्य रखती है।
मुक्तिबोध के अंतर्विरोधों की व्याखा उनके देशकाल और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही की जानी चाहिए। मुक्तिबोध को अपने पारिवारिक दायित्वों और अत्यधिक धनाभाव में ही अपनी ज्ञानात्मक, साहित्यिक व सामाजिक भूमिका के लिए संघर्ष करना पड़ा। उनके सामने बहुत बड़े लक्ष्य थे, लेकिन उन्हें कई स्तरों पर जूझना था। एक ओर प्रगतिशील आन्दोलन अपनी चमक खो रहा था तो दूसरी ओर अज्ञेय के नेतृत्व में आधुनिकतावाद और कलावाद के अखाड़े में व्यक्तिवादी-सुविधावादी लेखकों की गोलबंदी हो रही थी। मुक्तिबोध को चूँकि साहित्य की पुरानी जमीन तोड़ कर नई जमीन का निर्माण करना था, नये पौधों को रोपना था, नई ज्ञाानात्मक चेतना में पक कर नये संस्कारों का निर्माण करना था, वे प्रत्यक्ष रूप से जनता के मुक्ति संग्रामों में न कूद सके। इसी कारण कबीर की तरह ज्ञानात्मक चेतना से युक्त होते हुए भी वे सधुक्कड़ी जन-भाषा का उस तरह का ताना-बाना न बुन सके। इसके बावजूद युग के अंतर्विरोधों की सर्वाधिक प्रखर व विवेक संगत समझ और जन-क्राान्तिकारी भूमिका न निभा पाने की आंतरिक वेदना का उनके मन-मस्तिष्क पर संघातिक असर पड़ा, जिसने उनके जीवन को ही छीन लिया।
- महेन्द्र नेह