शब्दों के सफर वाले अजित वडनेरकर जी कोटा रह चुके हैं, और कोटा की कचौड़ियों के स्वाद से भली तरह परिचित हैं। मैं ने जब उन से भिलाई जाने का उल्लेख किया तो उन्हें तुरंत ही कचौड़ियाँ याद आ गईं। हमारी योजना सुबह बस से चल कर शाम को भोपाल से छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस पकड़ने की थी। लेकिन अजित जी ने कहा कि बस के भोपाल पहुँचने और छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस पकड़ने में दो ही घंटों का अंतराल है जो बहुत कम है। हमने योजना बदली और 27 जनवरी को सुबह निकलने के बजाय 26 की रात को ट्रेन से निकलने का मन बनाया और आरक्षण करवा लिया। अब हमारे पास भोपाल में आठ घंटे थे। अजित जी को बताया गया कि कचौड़ियाँ भोपाल पहुंचने की व्यवस्था हो गयी है, पर वहाँ आप तक कैसे पहुंचेगी? बोले, ट्रेन से उतर कर मेरे घर आ जाइए।
भोपाल में इतने कम अंतराल में अजित जी के घर जाने का अर्थ था किसी अन्य से न मिल पाना। वैसे भी हमारे पास चार बैग होने से कहीं आना जाना दूभर था। पर पल्लवी त्रिवेदी से मिलने की इच्छा थी, भोपाल जंक्शन के आस पास ही उन का ऑफिस होने से उन से मिल पाना संभव प्रतीत हो रहा था। पर पता लगा कि वे राजस्थान यात्रा पर हैं और उसी दिन भोपाल पहुंचेंगी। रवि रतलामी जी से मिल सकता था। पर वे भी दूर थे। अन्य के बारे में तो इस अल्प अंतराल में मिल पाने की सोचना भी संभव नहीं था। मैं ने किसी को बताया भी नहीं। मेरे साढ़ू भाई हॉकी रिकार्डों के संग्रहण के लिए विश्व प्रसिद्ध हॉकी स्क्राइब बी.जी. जोशी इस अंतराल में सीहोर उन के घर आने का निमंत्रण दे रहे थे। पर उन से माफी मांग ली गई, अजित जी के यहाँ जाना तय हो गया।
26 को यात्रा से निकलने के पहले अजित जी की कचौड़ियों के साथ साथ भिलाई तक ले जाने के लिए दौ पैकेट लोंग के सेव भी लाए गए। पता किया तो ट्रेन 22.30 के बजाय 23.30 पर आने वाली थी। हम 23.10 पर ही स्टेशन पहुँच गए। ट्रेन लेट होती गई और 27 जनवरी को 00.30 बजे उस ने प्लेटफार्म प्रवेश किया और एक बजे ही रवाना हो सकी। ट्रेन चलते ही हम सो लिए। आँख खुली तो सुबह हो चुकी थी और ट्रेन अशोक नगर स्टेशन पर खड़ी थी। कॉफी की याद आई, लेकिन पैसेन्जर ट्रेन में कहाँ कॉफी? बीना पहुँची तो सामने ही स्टाल पर कॉफी थी। उतर कर स्टॉल वाले से कॉफी देने को कहा तो बोला 10 मिनट बाद बिजली आने पर। मैं ने पूछा यहाँ पावर कट है? बताया गया कि बिजली 10 बजे आएगी। यानी भोपाल पहुंचने का समय हो चुका था। ट्रेन भोपाल पहुंचने तक वडनेरकर जी का दो बार फोन आ गया। स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही पल्लवी जी का खयाल आया। लेकिन घड़ी ने सब खयाल निकाल दिए। ऑटोरिक्षा की मदद से वडनेरकर जी के घर पहुंचे तो दो बज चुके थे। वापसी में मात्र चार घंटों का समय था।
सैकण्ड फ्लोर पर दो छोटे फ्लेट्स को मिला कर बनाया हुआ घर। एक दम साफ सुथरा और सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया हुआ। बरबस ही आत्मीयता प्रदर्शित करते छोटे-छोटे कमरे। कमरों में फर्श से केवल छह इंच ऊंचा फर्नीचर। मैं ने फोन पर ही उन्हें बता दिया था कि हम दोनों बाप-बेटे मंगलवारिया हैं सो नाश्ते वगैरह की औपचारिकता न हो। जवाब मिला था, कैसा नाश्ता? भोजन तैयार है। जाते ही अजित और मैं बातों में मशगूल। भाभी हमारे लिए कॉफी ले आईं। हमें प्रातःकालीन कर्मों से भी निवृत्त होना था। कॉफी सुड़क कर जैसे ही मैं स्नानघर में घुसने लगा अजित जी को कचौड़ियाँ याद आ गई। बोले, मेरी कचौड़ियाँ? भाई एक तो निकाल कर दे ही दो। वैभव कचौड़ियों के पैकेट के लिए बैग संभालने लगा। मैं ने पूछा- आप को तो पांच बजे नौकरी पर जाना होगा? तो बताया कि उन्हों ने सिर्फ मेरी खातिर आज अवकाश ले लिया है।
दोनों पिता पुत्र प्रातःकालीय कर्मों से निवृत्त हुए तो भोजन तैयार था। हम दोनों और अजित बैठ गए। दाल, सब्जियाँ, चपाती और देश में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ बासमती चावल, साथ में नमकीन और अचार। भूख चरम पर पहुंच गई। हम भोजन के साथ बातें करते रहे। अजित बता रहे थे कुछ दिनों पहले यात्रा के बीच ही अफलातून जी उन के मेहमान रह चुके हैं। उन के साथ बिताए समय के बारे में बताते रहे। ब्लागरी और ब्लागरों के बारे में, कुछ भोपाल, कोटा और राजगढ़ जहाँ अजित का बचपन गुजरा के बारे में बातें हुई। इस बीच हम जरूरत से अधिक ही भोजन कर गए। तभी भाभी जी ने ध्यान दिलाया कि उन का पुत्र किस तरह पढ़ते पढ़ते सो गया है। अजित देखने गए तो उसका चित्र कैमरे में कैद कर लाए। भोजन के उपरांत भी हम बातें ही करते रहे। पता लगा भाभीजी अध्यापिका हैं और रोज 40 किलोमीटर दूर एक कस्बे में अध्यापन के लिए जाती हैं। पूरी तरह एक श्रमजीवी परिवार। इस बीच अजित जी ने हमारे अनेक चित्र ले डाले। बातों में कब पाँच बज गए पता न चला। भाभी जी ने फिर गरम गरम कॉफी परोस दी।
अब चलने का समय हो चला था। अजित के माता पिता सैकण्ड फ्लोर पर चढ़ने उतरने की परेशानी के चलते निकट ही ग्राउंड फ्लोर पर अपने घर पर निवास करते हैं। हम अपने सामानों की पैकिंग करने लगे, कोई जरूरी वस्तु छूट न जाए। अजित वैभव को साथ ले कर पिता जी के घर खड़ी कार निकालने चल दिए। वे कार ले कर लौटे तो मैं ने अपने बैग उठाए। शेष सामान अजित का पुत्र उठाने लगा तो लगा वह घायल है। भाभी ने बताया कि वह दो दिन पहले ही वह बाइक पर टक्कर खा चुका है। उस के पूरे शरीर पर चोटें थीं। चोटें टीस रही थीं, जिस तरह वह चल रहा था लगा बहुत तकलीफ में है। फिर भी वह सामान उठाने को तत्पर था। मेरे पूछने पर भाभी ने बताया कि क्या क्या चिकित्सा कराई गई है।
जब भी मैं किसी को बीमार या चोटग्रस्त देखता हूँ और चिकित्सा के बारे में पता करता हूँ तो खुद बहुत तकलीफ में आ जाता हूँ। मैं ने अपने घर आयुर्वेदिक चिकित्सा देखी और सीखी, बाद में होमियोपैथी सीखी, और उसे अपनाया तो घर में ही दवाखाना बन गया। धीरे धीरे यह काम कब पत्नी शोभा ने हथिया लिया पता ही नहीं लगा। होमियोपैथी की बदौलत दोनों बच्चे बड़े हो गए कभी बिरले ही किसी डाक्टर या अस्पताल जाने का काम पड़ा।
मैं ने भाभी को होमियोपैथिक दवा लिख कर दे दी। कार आ चुकी थी, हम सामान सहित कार में लद लिए अजित, भाभी और उन का पुत्र साथ थे। हम स्टेशन पहुंचे तो ट्रेन आने में मात्र दस मिनट थे। अजित के पुत्र को चलने में तकलीफ थी। मैं ने अजित जी को प्लेटफार्म तक पहुँचाने की औपचारिकता करने से मना किया। वे राजी हो गए। जाते जाते उन्हें यह जरूर कहा कि वे होमियोपैथी दवा आज ले कर बेटे को जरूर दें। उन्हों ने आश्वस्त किया कि वे जरूर देंगे। अजित जी को विदा कर हम अपना सामान उठाए अपने प्लेटफार्म की ओर चले। ऐसा लग रहा था जैसे हम अभी अभी अपना घर और परिजन छोड़ कर आ रहे हैं।
मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009
पुणे के स्थान पर बल्लभगढ़ और पाबला जी का गुस्सा
विनोद जी और अनिता जी
अभिषेक ओझा बता रहे थे कि मैं पूर्वा से बात कर लूंगा कि वह किस बस से कहाँ उतरेगी। हम ने दोनों ही स्थितियाँ पूर्वा की माताजी को बता दीं। वे तनिक आश्वस्त हो गयीं। अगले दिन सुबह आठ बजे मैं ने पूर्वा को फोन लगाया तो वह बस में थी। उस ने बताया कि विनोद अंकल उस के इंस्टीट्यूट पर आकर उसे बस में बिठा गए थे। उस का अभिषेक से भी संपर्क हो चुका था। शाम को जब दुबारा फोन पर बात हुई तो पता लगा कि वह साक्षात्कार दे कर मुम्बई वापस भी पहुँच चुकी थी। जब उस की बस पूना पहुँची तो अभिषेक बस स्टॉप पर उस का इंतजार करते मिले। उसे केईएम अस्पताल छोड़ा। साक्षात्कार आधे घंटे में ही पूरा हो लिया। वह बाहर आई तो अभिषेक अभी गए नहीं थे। दोनों ने किसी रेस्तराँ में नाश्ता किया और पूर्वा को मुम्बई की बस में बिठा कर ही अभिषेक अपने काम पर लौटे। इस खबर को जान कर शोभा प्रसन्न हो गईं। उन की बेटी पहली बार पूना गई थी और उसे अकेला नहीं रहना पड़ा था।
कुछ दिन बाद पता लगा कि पूना केईएम अस्पताल में जिस स्थान के लिए पूर्वा ने साक्षात्कार दिया था वैसा ही एक स्थान बल्लभगढ़ (फरीदाबाद) के सिविल अस्पताल में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) हरियाणा सरकार और एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था इण्डेप्थ नेटवर्क के संयुक्त प्रयासों से चल रहे व्यापक जन स्वास्थ्य सेवाओं के प्रोजेक्ट में भी स्टेटीशियन/ डेमोग्राफर का स्थान रिक्त है। उस ने वहाँ के लिए आवेदन किया और एक टेलीफोनी साक्षात्कार के उपरांत यह तय हो गया कि पूर्वा को पूना के स्थान पर बल्लभगढ़ में ही यह पद मिल जाएगा। वह अपने नियुक्ति पत्र की प्रतीक्षा करने लगी। उस का नियुक्ति पत्र किन्हीं कारणों से विलंबित हो गया जिस का लाभ यह हुआ कि उस ने आश्रा प्रोजेक्ट के उस के जिम्मे के सभी कामों को पूरा कर दिया जिस से उस की अनुपस्थिति से आश्रा प्रोजेक्ट को कोई हानि न हो। बाद में यह तय हुआ कि वह 2 फरवरी को बल्लभगढ़ में अपनी नयी नियुक्ति पर उपस्थिति देगी। इधर वैभव को भी जनवरी के अंत तक अपना प्रोजेक्ट और ट्रेनिंग शुरू करनी थी।
बलविंदर सिंह पाबला
सोमवार, 9 फ़रवरी 2009
आम के पहले बौरों की नैसर्गिक गंध और सौंदर्य का अहसास
गणतंत्र दिवस की रात को कोटा से बाहर जाना हुआ और 31 जनवरी की रात को वापसी हुई। पहली फरवरी को रविवार था और सोमवार को सुबह 6 बजे फिर ट्रेन पकड़नी थी। कल रात ही वापस लौटा हूँ। मैं चाहता था कि इस बीच कुछ आलेख सूचीबद्ध कर जाऊँ। लेकिन यह संभव नहीं हो सका। पहली यात्रा के दौरान मुझे अंतर्जाल उपलब्ध भी हुआ। लेकिन वहाँ से कोई आलेख लिख पाना संभव नहीं हो सका। हाँ कुछ चिट्ठों पर टिप्पणियाँ अवश्य कीं।
दोनों यात्राएँ बिलकुल निजि थीं। लेकिन चिट्ठाकारी, जैसा कि इस का नाम है, निजत्व का सार्वजनीकरण ही तो है। निजत्व का यही सार्वजनीकरण चिट्ठाकारों और पाठकों के बीच वे रिश्ते कायम करता है जो यदि बन जाएँ तो शायद बहुत ही मजबूत होते हैं। ऐसे रिश्ते जो शायद वर्गहीन साम्यवादी, समतावादी समाज में विश्वास करने वाले लोगों के सपनों में होते हैं। जिन के बीच किसी तरह का बाहरी कारक नहीं होता और जो केवल मानवीय आधार पर टिके होते हैं। जिन्हें प्रेम, प्यार, मुहब्बत के रिश्ते कहा जा सकता है। ये रिश्ते किसी आम को चूस कर कूड़े के ढेर पर फेंकी हुई गुठली के बरसात में अनायास ही बिना किसी की इच्छा, आकांक्षा और प्रयत्न के ही अंकुरा कर पौधे में तब्दील हो जाने की तरह अंकुराते हैं। बस जरूरत है तो इतनी कि इस अंकुराए पौधे को पूरी ममता और स्नेह से कूड़े के ढेर से उठा कर किसी बगिया की क्यारी में रोप कर खाद पानी देते हुए वहाँ तक सहेजा जाए जहाँ वह रसीले, सुस्वादु और मीठे फल देने लगे।मैं ने इन दोनों यात्राओं में इन गुठलियों का अंकुराना, अंकुराए पौधों का ममता और स्नेह के साथ कूड़े के ढेऱ से हटाया जाना और किसी बगिया की क्यारी में रोपना, सहेजना महसूस किया है। उन के फलों की मृदुलता तो अभी चखी जानी शेष है, लेकिन किशोर पौधों पर पहली पहली बार आए आम के बौरों की नैसर्गिक गंध और सौंदर्य का अहसास भी हुआ है।
बेटा वैभव चार माह से उल्लेख कर रहा था कि उसे एमसीए के आखिरी पड़ाव में किसी उद्योग में कोई प्रोजेक्ट करते हुए प्रशिक्षण प्राप्त करना होगा। वह प्रयासशील भी था कि इस के लिए कोई अच्छी जगह उसे मिले। मैं ने जिन्दगी के मेले ब्लॉग के ब्लागर बी एस पाबला जी से इस का उल्लेख किया तो उन्हों ने दो दिन बाद ही कहा कि वैभव को तुरंत भेज दें, उस की ट्रेनिंग यहाँ भिलाई में हो जाएगी। उन्हें तो यह भी पता न था कि वैभव की सेमेस्टर परीक्षा ही जनवरी में समाप्त होगी और उस के बाद ही उसे ट्रेनिंग करनी है। मगर यह तय हो गया कि वैभव को भिलाई में ही ट्रेनिंग करनी है।
इस बीच बेटी पूर्वा जो अपने अंतिम शिक्षण संस्थान अंतर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान (आईआईपीएस) के आश्रा प्रोजेक्ट में वरिष्ठ शोध अधिकारी थी अपने प्रोजेक्ट के पूरा होने तक किसी नए काम की तलाश में थी। उसे पूना के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल (केईएम) द्वारा एक अंतर्राष्ट्रीय संस्थान की सहायता से किए जा रहे व्यापक जन स्वास्थ्य सेवाओं के पायलट प्रोजेक्ट में स्टेटीशियन कम डेमोग्राफर के पद के लिए साक्षात्कार के लिए आमंत्रण मिला और उस का पूना जाना तय हो गया।
साक्षात्कार के लिए मुंबई से पूना जाना वैसा ही था जैसे मैं सुबह कोटा से जयपुर जा कर उच्चन्यायालय में किसी मुकदमे की बहस कर शाम को कोटा वापस लौट आऊँ। लेकिन पूर्वा कभी पूना गई नहीं थी, उस के लिए वह अनजाना नगर था। उसने बताया कि वह पूना जा कर उसी दिन वापस आ जाएगी। लेकिन इस बताने ने ही घर में प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिए। एक माँ सवाल करने लगी, कैसे जाएगी? कौन साथ जाएगा? अकेली गई तो बस से जाएगी या ट्रेन से? वहाँ कैसे पहुंचेगी? एक पिता के पास इन सवालों का कोई उत्तर नहीं था। केवल एक विश्वास था कि उस की बेटी यह सब सहजता से कर लेगी। पर माँ कैसे इन सब का विश्वास कर पाती। उस ने प्रस्ताव दिया कि आप को जाना चाहिए बेटी का साक्षात्कार कराने के लिए। बेटी कहने लगी, रिजर्वेशन नहीं मिलेगा और इस काम के लिए आप के मुंबई आने की जरूरत नहीं है। बेटी की योग्यताओं से विश्वस्त माँ की चिन्ताएँ इस से कैसे समंझ पातीं? उस के सवालों का कोई उत्तर मेरे पास नहीं था। उत्तर तलाशते हुए मुझे दो ही नाम याद आए। मुम्बई में कुछ हम कहें की चिट्ठाकार अनीता कुमार जी और उन के जीवन साथी विनोद जी। पूर्वा अनिता जी से पूर्व परिचित थी और उन से बहुत दूर नहीं रहती थी। पूना में याद आए ओझा-उवाच और कुछ लोग ... कुछ बातें... के ब्लॉगर अभिषेक ओझा।
पूर्वा ने चैम्बूर बस स्टॉप जा कर पूना जाने वाली बसों का पता किया तो वहाँ वह असमंजस में आ गई कि उसे किस बस से जाना चाहिए जिस से वह सुबह दस बजे तक पूना पहुंच सके। उस ने मुझे बताया तो मैं ने अनिता जी से संपर्क किया। उन्हों ने सवाल विनोद जी के पाले में डाल दिया, विनोद जी बोले हम सुबह खुद जाएँगे और पूर्वा बिटिया को सही बस में बिठा आएँगे। पूर्वा की तो बस की खोज समाप्त होने के साथ बस तक का सफर स्कीम में मिल गया। उधर अभिषेक ओझा बता रहे थे कि मैं पूर्वा से बात कर लूंगा कि वह किस बस से कहाँ उतरेगी। हम ने दोनों ही स्थितियाँ पूर्वा की माताजी को बता दीं। वे तनिक आश्वस्त हो गयीं। (जारी)
(चित्रों में अनिता कुमार जी और अभिषेक ओझा)
सोमवार, 26 जनवरी 2009
अधूरा है गणतंत्र हमारा
भारत को गणतंत्र बनाने का संकल्प लिए साठ वर्ष पूरे होने को हैं। संविधान को लागू होने का साठवाँ साल चल रहा है। इस अवसर को स्मरण करने के लिए हम यहाँ प्रस्तुत संविधान की उद्देशिका के पाठ को दुबारा पढ़ सकते हैं।
हम ने तय किया था कि हम भारत को एक ऐसा संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाएंगे जिस में सभी को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्राप्त होगा, जिस में विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता होगी, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त होगी।
हमें विचार करना है कि क्या हम अपने इस संकल्प को पूरा कर पाए हैं? कोई भी सुधि व्यक्ति नहीं कह सकता है कि हम अपने उस संकल्प को पूरा कर पाए हैं। हम सोच सकते हैं कि उनसठ वर्षों की इस लम्बी अवधि के बाद भी हम ऐसा क्यों नहीं कर सके। हम यह भी विचार कर सकते हैं कि क्या हमारा देश आज उस संकल्प की दिशा में आगे बढ़ रहा है। यदि बढ़ रहा है तो उस की गति तीव्र है या मंद? गति मंद है तो उस के कारक क्या हैं। हम संकल्प को पूरा करने में जो कारक हैं उन को चीन्ह सकते हैं। उन को हटा सकते हैं। ऐसा कर के हम अपने संकल्प को पूरा करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ सकते हैं।
हम विचार करें, और अपने आस पास यथाशक्ति इस संकल्प को पूरा करने के लिए काम करें। जितना अधिक हम कर सकते हैं।
हम ने तय किया था कि हम भारत को एक ऐसा संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाएंगे जिस में सभी को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्राप्त होगा, जिस में विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता होगी, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त होगी।
हमें विचार करना है कि क्या हम अपने इस संकल्प को पूरा कर पाए हैं? कोई भी सुधि व्यक्ति नहीं कह सकता है कि हम अपने उस संकल्प को पूरा कर पाए हैं। हम सोच सकते हैं कि उनसठ वर्षों की इस लम्बी अवधि के बाद भी हम ऐसा क्यों नहीं कर सके। हम यह भी विचार कर सकते हैं कि क्या हमारा देश आज उस संकल्प की दिशा में आगे बढ़ रहा है। यदि बढ़ रहा है तो उस की गति तीव्र है या मंद? गति मंद है तो उस के कारक क्या हैं। हम संकल्प को पूरा करने में जो कारक हैं उन को चीन्ह सकते हैं। उन को हटा सकते हैं। ऐसा कर के हम अपने संकल्प को पूरा करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ सकते हैं।
हम विचार करें, और अपने आस पास यथाशक्ति इस संकल्प को पूरा करने के लिए काम करें। जितना अधिक हम कर सकते हैं।
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सभी को गणतंत्र दिवस की शुभ कामनाएँ
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मैं आज शाम से अपने कुछ निजि कार्यों के संबंध में कोटा से बाहर जा रहा हूँ, और शायद अगले दस दिनों तक कोटा से बाहर रहूँगा। इस बीच अनवरत और तीसरा खंबा के पाठकों से दूर रहने का अभाव खलता रहेगा। इस बीच संभव हुआ तो आप से रूबरू होने का प्रयत्न करूंगा। कुछ आलेख सूचीबद्ध करने का प्रयत्न है। यदि हो सका तो वे आप को पढ़ने को मिलते रहेंगे।
रविवार, 25 जनवरी 2009
वह, पति कब था
- दिनेशराय द्विवेदी
वह,
पति कब था?
पति कब था?
उस ने सिर्फ
हथिया लिया था
कब्जा/स्वामित्व
मेरे शरीर पर
मैं समझी थी
कम से कम
मकान और जमीन की
तरह ही शायद करे
मेरी देखभाल
लेकिन, औरत?
होती है
मैं समझी थी
कम से कम
मकान और जमीन की
तरह ही शायद करे
मेरी देखभाल
लेकिन, औरत?
होती है
जीती जागती,
वह तो वस्तु भी नहीं
क्यों करे?
कोई और
उस की चिंता
और मैं
नहीं समझ पायी
यही एक बात,
मुझे ही करना है
सब कुछ
मेरे लिए
जीने के लिए भी, और
मुक्ति के लिए भी।
लेबल:
कविता,
पत्नी,
शादी,
स्त्री-पुरुष,
poetry
शुक्रवार, 23 जनवरी 2009
जरूरी सरकारी कर्तव्यों में बाधा के चक्कर
कल जब मैं जिला न्यायालय से सड़क पार कलेक्ट्री परिसर में उपभोक्ता मंच की ओर जा रहा था तो रास्ते में टैगोर हॉल के बाहर पुराने स्कूल के जमाने के मित्र मिल गए, उन के साथ ही मेरा एक भतीजा भी था। दोनों ही अलग अलग पंचायत समितियों में शिक्षा अधिकारी हैं। दोस्त से दोस्त की तरह और भतीजे से भतीजे की तरह मिलने के बाद दोस्त से पूछा -यहाँ कैसे? जवाब मिला -मीटिंग थी।
अब? दूसरी मीटिंग है। वे आपस में जो चर्चा कर रहे थे वे शायद मिड-डे-मील से संबंधित थीं। मैं ने कहा तुम्हें भी अध्ययन के साथ मील में फंसा दिया। हाँ अभी मील की मीटिंग से आ रहे हैं। इस के बाद चुनाव की मीटिंग है, लोकसभा चुनाव की तैयारियाँ जोरों पर हैं। मैं ने पूछा -और शिक्षा? तो उन का कहना था कि उस की मीटिंग परीक्षा परिणामों के उपरांत जून जुलाई में होगी। वह यहाँ नहीं होगी। प्रशासन को शिक्षा से क्या लेना देना?
वे और मैं दोनों ही जल्दी में थे, सो चल दिए अपने अपने कामों पर।
दोपहर बाद जब काम लगभग सिमट गया सा था, केवल एक अदालत से एक दस्तावेज हासिल करना भर रह गया था और आधे घंटे की फुरसत थी। हम हफ्ते भर बाद निकली साफ धूप का आनंद लेने एक तख्ते पर बैठे बतिया रहे थे। पास वाले वरिष्ठ वकील बाहर गए हुए थे, उन के दो कनिष्ठ साथ थे। एक कनिष्ठ जिस की पत्नी शिक्षिका हैं, सुनाने लगा....
"भाई साहब! मेरी पत्नी जिस स्कूल में अध्य़ापिका है वहाँ कुल तीन अध्यापिकाएँ हैं और पहली से ले कर पाँचवीं कक्षा तक कुल डेढ़ सौ विद्यार्थी। तीन में से एक छह माह के लिए प्रसूती अवकाश पर चली गई है। एक की ड्यूटी चुनाव के लिए जिला चुनाव अधिकारी के यहाँ लगा दी गई है। अब एक अध्यापिका कैसे स्कूल को संभाले। बीमार हो जाए तब भी स्कूल तो जैसे तैसे जाना ही होगा। उसे बंद तो नहीं किया जा सकता। इस बात को बताने के लिए वह शिक्षा अधिकारी के कार्यालय स्वयं आ भी नहीं सकती। आए तो स्कूल कौन देखे?चिट्ठी पत्री को कोई महत्व नहीं है।
पास के गांव के स्कूल में चार अध्यापिकाएँ हैं और छात्र केवल नौ। उस विद्यालय से एक अध्यापिका को अस्थाई तौर पर मेरी पत्नी वाले स्कूल में लगवा देने से काम चल सकता है। मेरी पत्नी ने उस स्कूल की एक अध्यापिका को इस के लिए मना कर उस से लिखवा भी लिया है। उस स्कूल के प्रधानाध्यापक ने भी उस पर अनापत्ति लिख दी है। उस पत्र को देने के लिए दो हफ्ते पहले शिक्षा अधिकारी के दफ्तर में मुझे जाना पड़ा शिक्षा अधिकारी ने हाँ भी कह दी। कहा एक दो दिन में आदेश आ जाएगा। चार दिन में आदेश न आने पर मैं फिर उन से मिला। तो कहने लगे, - मैं जरा कुछ अर्जेंट कामों में उलझ गया था। आप कुछ देर रुको। मैं वहाँ पौन घंटा रुका। लेकिन शिक्षा अधिकारी फिर अपने कामों में भूल गए। याद दिला ने पर बोले, -अभी आदेश निकलवाता हूँ। बाबू को बुलवाया तो पता लगा कि वह जरूरी रिपोर्टें ले कर कलेक्ट्री गया हुआ है। मुझे दो दिन बाद आदेश के बारे में पता करने को कहा गया है। फिर चार दिन बाद कोई व्यवस्था न होने पर उन से मिला तो कहा, बाबूजी अवकाश पर हैं आप को आने की जरूरत नहीं है आदेश दूसरे दिन अवश्य ही निकल जाएगा। तीन दिन गुजरने पर भी जब आदेश नहीं आया तो मैं फिर वहाँ पहुँचा। इस बार मुझे देखते ही शिक्षा अधिकारी बोले। अरे! आप का आदेश अभी नहीं पहुँचा। ऐसा कीजिए आप बाबू जी से मिल लीजिए और खुद ही आदेश लेते जाइए। मैं बाबू के पास पहुँचा तो वह मुझे वहीं बैठा कर फाइल ले कर शिक्षा अधिकारी के यहाँ गया। बीस मिनट में वापस लौटा। फिर आदेश टाइप किया, उस पर हस्ताक्षर करवाकर लाया और डिस्पैच रजिस्टर में चढ़ा कर मुझ से पूछा कि आप कौन हैं? बताने पर उस ने आदेश देने से मना कर दिया कि आप विभागीय कर्मचारी नहीं है। आदेश डाक से भिजवा देंगे, कल आप को मिल जाएगा।
इस तरह मेरे चार-पांच चक्कर लगाने के बाद भी आदेश नहीं मिला, अब देखते हैं कि कल मिलता है या नहीं।"
मैं ने उस से पूछा -शिक्षा अधिकारी कौन है? तो उस ने मेरे मित्र का नाम बताया। मैं भौंचक्का रह गया।
मैं ने शाम को अपने मित्र से बात की तो कहने लगा। यार! भैया, बहुत चक्कर हैं, इस नौकरी में। पहले देखना पड़ता है कि इस तरह के आदेश से किसी को कोई एतराज तो नहीं है। वरना यहाँ जिला मुख्यालय पर टिकना मुश्किल हो जाए। पहले तुमने बताया होता तो उसे यहाँ तक आने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
आज मैं ने उस कनिष्ठ वकील से पूछा कि क्या वह आदेश पहुँच गया? तो उस ने बताया कि आदेश रात को ही चपरासी घर पहुँचा गया था।
मुझे अभी भी समझ नहीं आ रहा है कि यह सामान्य प्रशासन का आदेश देना और इस तरह की व्यवस्थाएँ करना तो उस का खुद का कर्तव्य था। इस के लिए उस की माहतत शिक्षिका के पति को चार-पाँच चक्कर क्यों लगाने पड़े? और पहली ही बार में वह आदेश जारी क्यों नहीं कर दिया गया। वे कौन से चक्कर हैं जो जरूरी विभागीय कर्तव्यों में इस तरह बाधा बन जाते हैं।
भारत के भावी कर्णधारों की परवाह कौन कर रहा है?
अब? दूसरी मीटिंग है। वे आपस में जो चर्चा कर रहे थे वे शायद मिड-डे-मील से संबंधित थीं। मैं ने कहा तुम्हें भी अध्ययन के साथ मील में फंसा दिया। हाँ अभी मील की मीटिंग से आ रहे हैं। इस के बाद चुनाव की मीटिंग है, लोकसभा चुनाव की तैयारियाँ जोरों पर हैं। मैं ने पूछा -और शिक्षा? तो उन का कहना था कि उस की मीटिंग परीक्षा परिणामों के उपरांत जून जुलाई में होगी। वह यहाँ नहीं होगी। प्रशासन को शिक्षा से क्या लेना देना?
वे और मैं दोनों ही जल्दी में थे, सो चल दिए अपने अपने कामों पर।
दोपहर बाद जब काम लगभग सिमट गया सा था, केवल एक अदालत से एक दस्तावेज हासिल करना भर रह गया था और आधे घंटे की फुरसत थी। हम हफ्ते भर बाद निकली साफ धूप का आनंद लेने एक तख्ते पर बैठे बतिया रहे थे। पास वाले वरिष्ठ वकील बाहर गए हुए थे, उन के दो कनिष्ठ साथ थे। एक कनिष्ठ जिस की पत्नी शिक्षिका हैं, सुनाने लगा....
"भाई साहब! मेरी पत्नी जिस स्कूल में अध्य़ापिका है वहाँ कुल तीन अध्यापिकाएँ हैं और पहली से ले कर पाँचवीं कक्षा तक कुल डेढ़ सौ विद्यार्थी। तीन में से एक छह माह के लिए प्रसूती अवकाश पर चली गई है। एक की ड्यूटी चुनाव के लिए जिला चुनाव अधिकारी के यहाँ लगा दी गई है। अब एक अध्यापिका कैसे स्कूल को संभाले। बीमार हो जाए तब भी स्कूल तो जैसे तैसे जाना ही होगा। उसे बंद तो नहीं किया जा सकता। इस बात को बताने के लिए वह शिक्षा अधिकारी के कार्यालय स्वयं आ भी नहीं सकती। आए तो स्कूल कौन देखे?चिट्ठी पत्री को कोई महत्व नहीं है।
पास के गांव के स्कूल में चार अध्यापिकाएँ हैं और छात्र केवल नौ। उस विद्यालय से एक अध्यापिका को अस्थाई तौर पर मेरी पत्नी वाले स्कूल में लगवा देने से काम चल सकता है। मेरी पत्नी ने उस स्कूल की एक अध्यापिका को इस के लिए मना कर उस से लिखवा भी लिया है। उस स्कूल के प्रधानाध्यापक ने भी उस पर अनापत्ति लिख दी है। उस पत्र को देने के लिए दो हफ्ते पहले शिक्षा अधिकारी के दफ्तर में मुझे जाना पड़ा शिक्षा अधिकारी ने हाँ भी कह दी। कहा एक दो दिन में आदेश आ जाएगा। चार दिन में आदेश न आने पर मैं फिर उन से मिला। तो कहने लगे, - मैं जरा कुछ अर्जेंट कामों में उलझ गया था। आप कुछ देर रुको। मैं वहाँ पौन घंटा रुका। लेकिन शिक्षा अधिकारी फिर अपने कामों में भूल गए। याद दिला ने पर बोले, -अभी आदेश निकलवाता हूँ। बाबू को बुलवाया तो पता लगा कि वह जरूरी रिपोर्टें ले कर कलेक्ट्री गया हुआ है। मुझे दो दिन बाद आदेश के बारे में पता करने को कहा गया है। फिर चार दिन बाद कोई व्यवस्था न होने पर उन से मिला तो कहा, बाबूजी अवकाश पर हैं आप को आने की जरूरत नहीं है आदेश दूसरे दिन अवश्य ही निकल जाएगा। तीन दिन गुजरने पर भी जब आदेश नहीं आया तो मैं फिर वहाँ पहुँचा। इस बार मुझे देखते ही शिक्षा अधिकारी बोले। अरे! आप का आदेश अभी नहीं पहुँचा। ऐसा कीजिए आप बाबू जी से मिल लीजिए और खुद ही आदेश लेते जाइए। मैं बाबू के पास पहुँचा तो वह मुझे वहीं बैठा कर फाइल ले कर शिक्षा अधिकारी के यहाँ गया। बीस मिनट में वापस लौटा। फिर आदेश टाइप किया, उस पर हस्ताक्षर करवाकर लाया और डिस्पैच रजिस्टर में चढ़ा कर मुझ से पूछा कि आप कौन हैं? बताने पर उस ने आदेश देने से मना कर दिया कि आप विभागीय कर्मचारी नहीं है। आदेश डाक से भिजवा देंगे, कल आप को मिल जाएगा।
इस तरह मेरे चार-पांच चक्कर लगाने के बाद भी आदेश नहीं मिला, अब देखते हैं कि कल मिलता है या नहीं।"
मैं ने उस से पूछा -शिक्षा अधिकारी कौन है? तो उस ने मेरे मित्र का नाम बताया। मैं भौंचक्का रह गया।
मैं ने शाम को अपने मित्र से बात की तो कहने लगा। यार! भैया, बहुत चक्कर हैं, इस नौकरी में। पहले देखना पड़ता है कि इस तरह के आदेश से किसी को कोई एतराज तो नहीं है। वरना यहाँ जिला मुख्यालय पर टिकना मुश्किल हो जाए। पहले तुमने बताया होता तो उसे यहाँ तक आने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
आज मैं ने उस कनिष्ठ वकील से पूछा कि क्या वह आदेश पहुँच गया? तो उस ने बताया कि आदेश रात को ही चपरासी घर पहुँचा गया था।
मुझे अभी भी समझ नहीं आ रहा है कि यह सामान्य प्रशासन का आदेश देना और इस तरह की व्यवस्थाएँ करना तो उस का खुद का कर्तव्य था। इस के लिए उस की माहतत शिक्षिका के पति को चार-पाँच चक्कर क्यों लगाने पड़े? और पहली ही बार में वह आदेश जारी क्यों नहीं कर दिया गया। वे कौन से चक्कर हैं जो जरूरी विभागीय कर्तव्यों में इस तरह बाधा बन जाते हैं।
भारत के भावी कर्णधारों की परवाह कौन कर रहा है?
गुरुवार, 22 जनवरी 2009
कविता आगे पढ़ी तो कवि सम्मेलन यहीं समाप्त
कोई तीस-बत्तीस बरस पहले की बात है। मेरे पितृ-नगर बाराँ में मुख्य चौराहे पर कवि सम्मेलन आयोजित किया गया था। सड़क रोक दी गई थी। कोई चार हजार श्रोता जमीन पर बिछे फर्शों पर विराजमान थे। कोई हजार इन के पीछे थे। इन श्रोताओं में नगर के सम्मानित और प्रतिष्ठित लोगों से ले कर सब से निचले तबके के कविता प्रेमी थे।
एक से एक सुंदर कविताएँ पढी़ जा रही थीं। एक मधुर गीतकार के गीत पढ़ चुकने के उपरांत संचालक को लगा कि इतने अच्छे गीत के बाद शायद ही किसी कवि को जनता पसंद करे। ऐसी हालत में संचालक के पास एक ही विकल्प रहता है कि वह किसी हास्य कवि को मंच पर खड़ा कर दे।
यही हुआ भी। उस वर्ष ग्वालियर के नए नए मशहूर हुए हास्य कवि प्रदीप चौबे को बुलाया गया था। उन के नाम की सिफारिश नगर पालिका के किसी पार्षद ने की थी। कवि चौबे ने मंच पर आते ही हास्य कवियों की अदा में तीन चार चुटकले सुनाए। चुटकले ऐसे थे कि महिलाओं की उपस्थिति में कोई अपने घर में न सुना सके। कुछ ने उन चुटकुलों का आनंद लिया, कोई हंसा तो किसी ने तालियाँ बजाईं। जैसे ही मधुर गीत का माहौल स्वाहा हुआ और श्रोतागण हलके मूड में आए। चौबे जी ने अपनी कविता आरंभ कर दी। चोबे जी कुल तीन पंक्तियाँ पढ़ पाए थे चौथी पढ़ने की तैयारी में थे कि एक अधेड़ पुरुष दर्शकों के ठीक बीच में से खड़े हुए और तेज आवाज में बोले, "चौबे जी कविता बाद में पहले हमारी सुनिए।"
चौबे जी चौंक गए, उन का कविता पाठ वहीं ठहर गया। सभा में सन्नाटा छा गया। बोलने खड़े हुए ठिगनी काठी के सज्जन ने खादी की पेन्ट शर्ट पहनी थी, चश्मा लगाए हुए थे। वे थे, नगर के दीवानी मामलात के खास वकील श्याम किशोर शर्मा।
चौबे जी! यह बारां का कवि सम्मेलन है। यहाँ कविताएँ सुनी जाती हैं। चुटकुले नहीं और जो आप पढ़ रहे हैं वह कविता नहीं है। यौन जुगुप्सा जगाने का मंत्र है जो महिलाओं का सरासर अपमान है। आप से निवेदन है कि आप अब इस मंच से कविताएँ नहीं पढ़ें। आप हमारे मेहमान हैं इस लिए हम आप से सिर्फ निवेदन कर रहे हैं। यदि हमारा निवेदन स्वीकार नहीं है तो कवि सम्मेलन यहीं समाप्त हो जाएगा।
प्रदीप चौबे हक्के-बक्के रह गए। उन्हें उसी समय मंच से नीचे उतरना पड़ा। उन्हें ससम्मान उन के ठहरने के स्थान पहुँचाया गया और उन के मानदेय का तुरंत भुगतान कर दिया गया।
प्रदीप चौबे के साथ एक भी कवि मंच से नहीं उतरा। कवि सम्मेलन रात भर चला कवियों ने श्याम किशोर जी को पूरा सम्मान दिया। कहा भी कि यदि इस तरह के श्रोता सब स्थानों पर मिलें तो कवि सम्मेलन फिर से उच्च सम्मान पाने लगें।
एक से एक सुंदर कविताएँ पढी़ जा रही थीं। एक मधुर गीतकार के गीत पढ़ चुकने के उपरांत संचालक को लगा कि इतने अच्छे गीत के बाद शायद ही किसी कवि को जनता पसंद करे। ऐसी हालत में संचालक के पास एक ही विकल्प रहता है कि वह किसी हास्य कवि को मंच पर खड़ा कर दे।
यही हुआ भी। उस वर्ष ग्वालियर के नए नए मशहूर हुए हास्य कवि प्रदीप चौबे को बुलाया गया था। उन के नाम की सिफारिश नगर पालिका के किसी पार्षद ने की थी। कवि चौबे ने मंच पर आते ही हास्य कवियों की अदा में तीन चार चुटकले सुनाए। चुटकले ऐसे थे कि महिलाओं की उपस्थिति में कोई अपने घर में न सुना सके। कुछ ने उन चुटकुलों का आनंद लिया, कोई हंसा तो किसी ने तालियाँ बजाईं। जैसे ही मधुर गीत का माहौल स्वाहा हुआ और श्रोतागण हलके मूड में आए। चौबे जी ने अपनी कविता आरंभ कर दी। चोबे जी कुल तीन पंक्तियाँ पढ़ पाए थे चौथी पढ़ने की तैयारी में थे कि एक अधेड़ पुरुष दर्शकों के ठीक बीच में से खड़े हुए और तेज आवाज में बोले, "चौबे जी कविता बाद में पहले हमारी सुनिए।"
चौबे जी चौंक गए, उन का कविता पाठ वहीं ठहर गया। सभा में सन्नाटा छा गया। बोलने खड़े हुए ठिगनी काठी के सज्जन ने खादी की पेन्ट शर्ट पहनी थी, चश्मा लगाए हुए थे। वे थे, नगर के दीवानी मामलात के खास वकील श्याम किशोर शर्मा।
चौबे जी! यह बारां का कवि सम्मेलन है। यहाँ कविताएँ सुनी जाती हैं। चुटकुले नहीं और जो आप पढ़ रहे हैं वह कविता नहीं है। यौन जुगुप्सा जगाने का मंत्र है जो महिलाओं का सरासर अपमान है। आप से निवेदन है कि आप अब इस मंच से कविताएँ नहीं पढ़ें। आप हमारे मेहमान हैं इस लिए हम आप से सिर्फ निवेदन कर रहे हैं। यदि हमारा निवेदन स्वीकार नहीं है तो कवि सम्मेलन यहीं समाप्त हो जाएगा।
प्रदीप चौबे हक्के-बक्के रह गए। उन्हें उसी समय मंच से नीचे उतरना पड़ा। उन्हें ससम्मान उन के ठहरने के स्थान पहुँचाया गया और उन के मानदेय का तुरंत भुगतान कर दिया गया।
प्रदीप चौबे के साथ एक भी कवि मंच से नहीं उतरा। कवि सम्मेलन रात भर चला कवियों ने श्याम किशोर जी को पूरा सम्मान दिया। कहा भी कि यदि इस तरह के श्रोता सब स्थानों पर मिलें तो कवि सम्मेलन फिर से उच्च सम्मान पाने लगें।
बुधवार, 21 जनवरी 2009
बाज़ार पर निगरानी न रखी जाए तो वह बेकाबू हो सकता है
"पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बारे में बहस का यह न तो समय है, न ही गुंजाइश. लेकिन मौजूदा संकट से हमने सीखा है कि अगर बाज़ार पर निगरानी न रखी जाए तो वह बेकाबू हो सकता है." .....
यह दुनिया के सब से ताकतवर देश के नए राष्ट्रपति के पहले भाषण का मुख्य अंश है। यह कह रहा है कि पूंजी
मनुष्य को नियंत्रित नहीं कर सकती, उस का नियंत्रण मनुष्य के हाथों में होना चाहिए। पूंजी का अपना चरित्र है। वह अपने भले के लिए काम करती है और इस के लिए वह मनुष्यों की, उन के जीवन की परवाह नहीं करती। पूंजी को मनुष्यों के जीवन के अनुकूल नियंत्रित करना होगा।
शायद यही इस सदी का सब से बड़ा सच है। अमरीकी जनता ने पूंजी के मनुष्य पर प्रभुत्व को पराजित कर दिया है। बराक ओबामा की जीत पूंजी के प्रभुत्व पर मनुष्य की जीत है। यह दूसरी बात है कि कोई भी सत्ताधारी हार कर भी नहीं हारता। वह बाजी को पलटने का प्रयत्न करता है। फिर से अपनी पुरानी सत्ता की स्थापना के प्रयत्नों में जुट जाता है। यही बराक ओबामा के समक्ष सब से बड़ी चुनौती है कि पूंजी के फिर से प्रभुत्व प्राप्त करने की कोशिशों को वे नाकाम कर दें। मनुष्य के पूंजी पर प्रभुत्व को कायम ही नहीं रखें, उसे और मजबूत बनाएँ।
वे आगे घोषणाएँ करते हैं...
"हम रोज़गार के नए अवसर पैदा करेंगे, सड़कें बनाएँगे, पुल बनाएँगे, फाइबर ऑप्टिक केबल बिछाएँगे, सौर और पवन ऊर्जा की मदद से देश को आगे बढ़ाएँगे, अपने कॉलेज और यूनिवर्सिटियों को बेहतर बनाएँगे, हम ये सब कर सकते हैं और हम करेंगे."
"अमरीका ईसाइयों, मुसलमानों, यहूदियों, हिंदुओं और नास्तिकों का भी देश है, इसे सबने मिलकर बनाया है, इसमें सबका योगदान है, अमरीका की नीतियों को हम हठधर्मी विचारों का गुलाम नहीं बनने देंगे।"
"पूरी दुनिया की शानदार राजधानियों से लेकर ग़रीब दुनिया के छोटे शहरों तक, वहाँ भी जहाँ से मेरे पिता आए थे, अमरीका हर उस देश का दोस्त है जो शांति चाहता है."
"हम ग़रीब देशों से कहना चाहते हैं कि हम उनके साथ हैं, हम उनकी तकलीफ़ के प्रति उदासीन नहीं हैं, हम चाहते हैं कि दुनिया के हर सुदूर कोने में लोगों तक खाना और पानी पहुँच सके."
"अमरीका दुनिया का महान लोकतंत्र है, आज पूरी दुनिया की नज़र हम पर है, अमरीका आज जो है वह अपने नेताओं की बुद्धिमत्ता की वजह से ही नहीं, बल्कि अमरीका की जनता की वजह से है."
अमरीका के 44वें राष्ट्रपति की इन घोषणाओं की दिशा में यदि अमरीका चल पड़ा तो तो न केवल अमंरीका बदलेगा, सारी दुनिया बदलेगी। बस अमरीका की तासीर उसे इस दिशा में चलने तो दे।
यह दुनिया के सब से ताकतवर देश के नए राष्ट्रपति के पहले भाषण का मुख्य अंश है। यह कह रहा है कि पूंजी
मनुष्य को नियंत्रित नहीं कर सकती, उस का नियंत्रण मनुष्य के हाथों में होना चाहिए। पूंजी का अपना चरित्र है। वह अपने भले के लिए काम करती है और इस के लिए वह मनुष्यों की, उन के जीवन की परवाह नहीं करती। पूंजी को मनुष्यों के जीवन के अनुकूल नियंत्रित करना होगा।
शायद यही इस सदी का सब से बड़ा सच है। अमरीकी जनता ने पूंजी के मनुष्य पर प्रभुत्व को पराजित कर दिया है। बराक ओबामा की जीत पूंजी के प्रभुत्व पर मनुष्य की जीत है। यह दूसरी बात है कि कोई भी सत्ताधारी हार कर भी नहीं हारता। वह बाजी को पलटने का प्रयत्न करता है। फिर से अपनी पुरानी सत्ता की स्थापना के प्रयत्नों में जुट जाता है। यही बराक ओबामा के समक्ष सब से बड़ी चुनौती है कि पूंजी के फिर से प्रभुत्व प्राप्त करने की कोशिशों को वे नाकाम कर दें। मनुष्य के पूंजी पर प्रभुत्व को कायम ही नहीं रखें, उसे और मजबूत बनाएँ।
वे आगे घोषणाएँ करते हैं...
"हम रोज़गार के नए अवसर पैदा करेंगे, सड़कें बनाएँगे, पुल बनाएँगे, फाइबर ऑप्टिक केबल बिछाएँगे, सौर और पवन ऊर्जा की मदद से देश को आगे बढ़ाएँगे, अपने कॉलेज और यूनिवर्सिटियों को बेहतर बनाएँगे, हम ये सब कर सकते हैं और हम करेंगे."
"अमरीका ईसाइयों, मुसलमानों, यहूदियों, हिंदुओं और नास्तिकों का भी देश है, इसे सबने मिलकर बनाया है, इसमें सबका योगदान है, अमरीका की नीतियों को हम हठधर्मी विचारों का गुलाम नहीं बनने देंगे।"
"पूरी दुनिया की शानदार राजधानियों से लेकर ग़रीब दुनिया के छोटे शहरों तक, वहाँ भी जहाँ से मेरे पिता आए थे, अमरीका हर उस देश का दोस्त है जो शांति चाहता है."
"हम ग़रीब देशों से कहना चाहते हैं कि हम उनके साथ हैं, हम उनकी तकलीफ़ के प्रति उदासीन नहीं हैं, हम चाहते हैं कि दुनिया के हर सुदूर कोने में लोगों तक खाना और पानी पहुँच सके."
"अमरीका दुनिया का महान लोकतंत्र है, आज पूरी दुनिया की नज़र हम पर है, अमरीका आज जो है वह अपने नेताओं की बुद्धिमत्ता की वजह से ही नहीं, बल्कि अमरीका की जनता की वजह से है."
अमरीका के 44वें राष्ट्रपति की इन घोषणाओं की दिशा में यदि अमरीका चल पड़ा तो तो न केवल अमंरीका बदलेगा, सारी दुनिया बदलेगी। बस अमरीका की तासीर उसे इस दिशा में चलने तो दे।
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मंगलवार, 20 जनवरी 2009
होटल में बाघ या बाघ के घर इंसान
पत्रिका की खबर है, राजस्थान के एक गांव शेरपुर के निकट के एक होटल में घुस आया। अफरा-तफरी मच गई। वह रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान की दीवार फांदकर होटल परिसर में घुसा वहां उसने करीब पांच मिनट चहलकदमी की। बाघ को देखने के लिए लोगों की भीड जमा हो गई।
बाघ एक पखवाडे में तीसरी बार आबादी क्षेत्र में घुस आया था। बाघ के पार्क से बाहर आने का मुख्य कारण सरसों के खेत हैं। इन दिनों खेतों में उगी सरसों में नील गाय व जंगली सुअर रहते हैं और बाघ को यहाँ शिकार करने में आसानी रहती है।
खबर कतई चौंकाने वाली है। सुबह ज्ञान दत्त जी अपने आलेख मे इंसानों की बढ़ रही आबादी के थम जाने की सुखद कल्पना कर रहे थे। मैं उस के विश्वसनीय होने की कामना कर रहा हूँ। पर यह मनुष्य के सायास प्रयासों के बिना हो सकेगा ऐसा नहीं लगता है।
वह जंगल था, बाघ के साम्राज्य का एक भाग। हमने उस के साम्राज्य को सीमित कर दिया और बाकी जगह हथिया ली। वहाँ खेत बना दिए। होटल बना दिए ताकि उस विगत के सम्राट के दर्शनार्थियों की सुविधा दी जा सके, कायदे से उन की जेबें तराशी जा सकें।
हकीकत यह है कि बाघ तो अपने ही साम्राज्य में है। इंसान उस के साम्राज्य में कब का घुसा बैठा है।
बाघ एक पखवाडे में तीसरी बार आबादी क्षेत्र में घुस आया था। बाघ के पार्क से बाहर आने का मुख्य कारण सरसों के खेत हैं। इन दिनों खेतों में उगी सरसों में नील गाय व जंगली सुअर रहते हैं और बाघ को यहाँ शिकार करने में आसानी रहती है।
खबर कतई चौंकाने वाली है। सुबह ज्ञान दत्त जी अपने आलेख मे इंसानों की बढ़ रही आबादी के थम जाने की सुखद कल्पना कर रहे थे। मैं उस के विश्वसनीय होने की कामना कर रहा हूँ। पर यह मनुष्य के सायास प्रयासों के बिना हो सकेगा ऐसा नहीं लगता है।
वह जंगल था, बाघ के साम्राज्य का एक भाग। हमने उस के साम्राज्य को सीमित कर दिया और बाकी जगह हथिया ली। वहाँ खेत बना दिए। होटल बना दिए ताकि उस विगत के सम्राट के दर्शनार्थियों की सुविधा दी जा सके, कायदे से उन की जेबें तराशी जा सकें।
हकीकत यह है कि बाघ तो अपने ही साम्राज्य में है। इंसान उस के साम्राज्य में कब का घुसा बैठा है।
सोमवार, 19 जनवरी 2009
चुनाव बार के, बदलती धारणाएँ और परिणाम
हमारी बार (अभिभाषक परिषद) के चुनाव हर साल होते हैं। दस वर्ष पहले तक स्थिति यह थी कि कोई वरिष्ठ वकील जिस की एक वकील के रूप में अच्छी प्रतिष्ठा भी रही हो बार का अध्यक्ष चुना जाता था और दस वर्ष के आस पास की वकालत का कोई नौजवान सचिव। बाकी कार्यकारिणी में वरिष्ठ और कनिष्ठ सभी लोगों का मेल रहता था। इस से बार की एक छवि बनती थी। इस का असर ये था कि बार का अध्यक्ष या सचिव होना न केवल गर्व और सम्मान की बात थी बल्कि उन्हें पूरे नगर में नहीं प्रांत भर में सम्मान मिलता था। यह भी मान्यता थी कि ऐसे लोग योग्य वकील होते हैं।
इस मान्यता का असर धीरे धीरे यह होने लगा कि संस्थागत विधिक सेवार्थी ऐसे लोगों को काम देने लगे। धीरे धीरे मान्यता हो गई कि जो वकील बार का अध्यक्ष या मंत्री चुना जाएगा उसे संस्थागत विधिक सेवार्थियों का काम मिलने लगेगा। यह काम वकीलों की प्रतिष्ठा में तो वृद्धि करता ही है। उन की आमदनी में भी गुणित वृद्धि लाता है। इस से अब वे वकील जो कि अपने काम, आय और प्रतिष्ठा में वृद्धि लाने की कामना रखते थे इन पदों की ओर ललचाई निगाहों से देखने लगे।
बीस वर्ष पूर्व इन पदों के लिए दो से अधिक प्रत्याशी होते ही नहीं थे। अब इन प्रत्याशियों की संख्या बढ़ने लगी। साथ साथ यह होड़ भी कि किसी भी तरह से चुनाव में विजय हासिल की जाए। इस के लिए चुनाव के पहले सब मतदाताओं से उन के घरों पर जा कर मिलना। वकीलों के भोज आमंत्रित करना, उन के चुनाव में मतदाता बने रहने के लिए आवश्यक वार्षिक शुल्क की अदायगी स्वयं के खर्चे पर कर देना आरंभ हो गया। धीरे धीरे होने यह लगा कि जो जितने अधिक वकीलों को भोज दे वह उतना ही लाभ लेने लगा। कुछ उम्मीदवार हर वर्ष ही चुनाव में उम्मीदवार होने लगे। हार गए तो अगली बार फिर उम्मीदवार हो गए। इस बार अध्यक्ष पद के लिए चार उम्मीदवार थे। उन में से दो ऐसे थे जो तीसरी बार अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ रहे थे। इस के अलावा दो उम्मीदवार नए थे।
इन दो नए उम्मीदवारों में एक पुराने समाजवादी विचारों के मुस्लिम वकील थे। वे पूरे सिद्धान्तवादी और आज के जमाने का कोई भी चुनाव लड़ पाने में पूरी तरह अक्षम। एक और तो सामान्य धारणा यह कि जहाँ बार में मुस्लिम वकीलों की संख्या पन्द्रह प्रतिशत हो वहाँ महत्वपूर्ण पद पर कोई मुस्लिम वकील जीत नहीं सकता, दूसरी ओर आज लोहिया के रंग के कठोर समाजवादी को कौन पसंद करे? हाँ मुलायम समाजवादी हो तो कोई संभावना भी बनती है। फिर भी वे खड़े हो गए। आम धारणा यह थी कि उन्हें कम से कम मुस्लिम वोट तो मिलेंगे ही। लेकिन यह धारणा पूरी तरह से असत्य सिद्ध हो गई। मुस्लिम वकीलों ने उन से कहा कि वे मतदान के पहले कम से कम मुस्लिम वकीलों को तो भोज दे ही दें। उन्हों ने इस के लिए सख्ती से इनकार कर दिया कि वे मतदान के पहले किसी मतदाता को चाय तक नहीं पिलाएँगे। नतीजा यह कि मुस्लिम मतदाताओं ने ही उन्हें ठुकरा दिया और वे कुछ मतों से चुनाव हार गए। यदि आधे मुस्लिम मतदाता भी उन्हें वोट दे देते तो शायद वे जीत जाते। बाद में कहने लगे, अच्छा ही हुआ कि वे हार गए, वरना उन्हें शायद साल भर कुछ काम ऐसे करने पड़ते जो उन की आत्मा गवारा नहीं करती।
संस्थागत विधिक सेवार्थी जो बार के अध्यक्ष और सचिव में एक अच्छा वकील देखने लगे थे और काम उन्हे देने लगे थे। कुछ बरसों से सोचने लगे हैं कि उन का यह दृष्टिकोण गलत है। अब वे बार के पदाधिकारियों को काम देने से कतराने लगे हैं और दूसरे वकीलों में अपने लिए अच्छा वकील तलाशने लगे हैं।
इस मान्यता का असर धीरे धीरे यह होने लगा कि संस्थागत विधिक सेवार्थी ऐसे लोगों को काम देने लगे। धीरे धीरे मान्यता हो गई कि जो वकील बार का अध्यक्ष या मंत्री चुना जाएगा उसे संस्थागत विधिक सेवार्थियों का काम मिलने लगेगा। यह काम वकीलों की प्रतिष्ठा में तो वृद्धि करता ही है। उन की आमदनी में भी गुणित वृद्धि लाता है। इस से अब वे वकील जो कि अपने काम, आय और प्रतिष्ठा में वृद्धि लाने की कामना रखते थे इन पदों की ओर ललचाई निगाहों से देखने लगे।
बीस वर्ष पूर्व इन पदों के लिए दो से अधिक प्रत्याशी होते ही नहीं थे। अब इन प्रत्याशियों की संख्या बढ़ने लगी। साथ साथ यह होड़ भी कि किसी भी तरह से चुनाव में विजय हासिल की जाए। इस के लिए चुनाव के पहले सब मतदाताओं से उन के घरों पर जा कर मिलना। वकीलों के भोज आमंत्रित करना, उन के चुनाव में मतदाता बने रहने के लिए आवश्यक वार्षिक शुल्क की अदायगी स्वयं के खर्चे पर कर देना आरंभ हो गया। धीरे धीरे होने यह लगा कि जो जितने अधिक वकीलों को भोज दे वह उतना ही लाभ लेने लगा। कुछ उम्मीदवार हर वर्ष ही चुनाव में उम्मीदवार होने लगे। हार गए तो अगली बार फिर उम्मीदवार हो गए। इस बार अध्यक्ष पद के लिए चार उम्मीदवार थे। उन में से दो ऐसे थे जो तीसरी बार अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ रहे थे। इस के अलावा दो उम्मीदवार नए थे।
इन दो नए उम्मीदवारों में एक पुराने समाजवादी विचारों के मुस्लिम वकील थे। वे पूरे सिद्धान्तवादी और आज के जमाने का कोई भी चुनाव लड़ पाने में पूरी तरह अक्षम। एक और तो सामान्य धारणा यह कि जहाँ बार में मुस्लिम वकीलों की संख्या पन्द्रह प्रतिशत हो वहाँ महत्वपूर्ण पद पर कोई मुस्लिम वकील जीत नहीं सकता, दूसरी ओर आज लोहिया के रंग के कठोर समाजवादी को कौन पसंद करे? हाँ मुलायम समाजवादी हो तो कोई संभावना भी बनती है। फिर भी वे खड़े हो गए। आम धारणा यह थी कि उन्हें कम से कम मुस्लिम वोट तो मिलेंगे ही। लेकिन यह धारणा पूरी तरह से असत्य सिद्ध हो गई। मुस्लिम वकीलों ने उन से कहा कि वे मतदान के पहले कम से कम मुस्लिम वकीलों को तो भोज दे ही दें। उन्हों ने इस के लिए सख्ती से इनकार कर दिया कि वे मतदान के पहले किसी मतदाता को चाय तक नहीं पिलाएँगे। नतीजा यह कि मुस्लिम मतदाताओं ने ही उन्हें ठुकरा दिया और वे कुछ मतों से चुनाव हार गए। यदि आधे मुस्लिम मतदाता भी उन्हें वोट दे देते तो शायद वे जीत जाते। बाद में कहने लगे, अच्छा ही हुआ कि वे हार गए, वरना उन्हें शायद साल भर कुछ काम ऐसे करने पड़ते जो उन की आत्मा गवारा नहीं करती।
संस्थागत विधिक सेवार्थी जो बार के अध्यक्ष और सचिव में एक अच्छा वकील देखने लगे थे और काम उन्हे देने लगे थे। कुछ बरसों से सोचने लगे हैं कि उन का यह दृष्टिकोण गलत है। अब वे बार के पदाधिकारियों को काम देने से कतराने लगे हैं और दूसरे वकीलों में अपने लिए अच्छा वकील तलाशने लगे हैं।
रविवार, 18 जनवरी 2009
नाड़े और इज़ारबंद, लटकाने, दिखाने, इतराने और कविता कहने के
आज दीतवार है। बकौल मराठी माणूस कम और मालवी मिनख ज्यादा के ब्लाग पर उदृत पत्र के लेखक आर डी सक्सेना यह आदित्यवार है। उधर मालवी में ही नहीं, इधर हाड़ौती में भी इसे दीतवार ही बागते हैं। मगर हमारे नवीं कक्षा के अंग्रेजी के अध्यापक जी की नजर में इस का रिश्ता अंग्रेजी से भी है। कक्षा में जब पूछा गया कि कल का सवाल हल कर लाए? तो एक छात्र का उत्तर था, -खाल तो दीतवार छो। (कल तो इतवार था, छुट्टी का दिन) छात्र से उस का गांव पूछा तो पटना बताया। पटना से यहाँ कैसे आए? तो जवाब था, पैदल। अध्यापक जी चकरा गए। बिहार की राजधानी से राजस्थान तक का सफर रोजाना पैदल? दूसरे छात्रों ने बताया कि पटना आठ किलोमीटर पर एक गाँव का नाम है जहाँ से वह रोज पढ़ने आता है। अध्यापक जी बोले, अब समझा यहाँ के लोग वार के पहले दी लगाकर बोलते हैं, दीतवार, दी सोमवार, दी मंगलवार............।
आज भी दीतवार है, कुछ वक्त का लुत्फ उठाया जा सकता है।
नए मुकदमे के सब कागज तैयार, अदालत में पेश करने के लिए कवर लगा कर सिलाई का काम ही शेष रह गया। तभी आवाज आई नाड़ा कहाँ गया? मुंशी बोल रहा था। सब जगह तलाश करने पर नाड़ा मेज के नीचे पाया गया। कागजों को सहजते संवारते चुपके से नीचे खिसक गया था। नाड़ा, यानी फाइल सीने का फीता जो कभी लाल रंग का होता था, आज हरे रंग का होने लगा है ताकि कोई इसे लाल फीताशाही न कहे। हरी फीताशाही भारत में भी खूब चल रही है। किसी जमाने में पाकिस्तान की फौजी हुकूमत ने सारे सरकारी फीतों को लाल से हरे रंग में बदल डाला था। लाल फीताशाही एक ऑर्डर से खत्म हो गई। फीताशाही वहाँ भी कायम है और यहाँ भी। शाह अफसर या मंत्री कोई भी हो, फर्क क्या पड़ता है?
अब नाड़े का जिक्र हुआ तो उस के शानदार नाम इज़ारबंद का उल्लेख होना वाजिब है। तो सीधे ग़ालिब पर ही आ जाएँ। निदा फ़ाज़ली साहब फरमाते हैं....
इज़ारबंद की ढीली से क्या उमीदे वफ़ा
तो ये हुआ इस दीतवार लुत्फ़िया। इस में बीबीसी और निदा फ़ाजली साहब का उल्लेख हुआ है और इस्तेमाल भी। दोनों का बहुत बहुत शुक्रिया।
आज भी दीतवार है, कुछ वक्त का लुत्फ उठाया जा सकता है।
नए मुकदमे के सब कागज तैयार, अदालत में पेश करने के लिए कवर लगा कर सिलाई का काम ही शेष रह गया। तभी आवाज आई नाड़ा कहाँ गया? मुंशी बोल रहा था। सब जगह तलाश करने पर नाड़ा मेज के नीचे पाया गया। कागजों को सहजते संवारते चुपके से नीचे खिसक गया था। नाड़ा, यानी फाइल सीने का फीता जो कभी लाल रंग का होता था, आज हरे रंग का होने लगा है ताकि कोई इसे लाल फीताशाही न कहे। हरी फीताशाही भारत में भी खूब चल रही है। किसी जमाने में पाकिस्तान की फौजी हुकूमत ने सारे सरकारी फीतों को लाल से हरे रंग में बदल डाला था। लाल फीताशाही एक ऑर्डर से खत्म हो गई। फीताशाही वहाँ भी कायम है और यहाँ भी। शाह अफसर या मंत्री कोई भी हो, फर्क क्या पड़ता है?
अब नाड़े का जिक्र हुआ तो उस के शानदार नाम इज़ारबंद का उल्लेख होना वाजिब है। तो सीधे ग़ालिब पर ही आ जाएँ। निदा फ़ाज़ली साहब फरमाते हैं....
इज़ारबंद से ग़ालिब का रिश्ता अजीब शायराना था। इज़ारबंद दो फारसी शब्दों से बना हुआ एक लफ्ज़ है। इसमें इज़ार का अर्थ पाजामा होता है और बंद यानी बाँधने वाली रस्सी। ये इज़ारबंद मशीन के बजाय हाथों से बनाए जाते थे और औरतों के इज़ारबंद मर्दों से अलग होते थे।
औरतों के लिए इज़ारबंद में चाँदी के छोटे छोटे घुँघरु भी होते थे और इनमें सच्चे मोती भी टाँके जाते थे। लखनऊ की चिकन, अलीगढ़ की शेरवानी, भोपाल के बटुवों और राजस्थान की चुनरी की तरह ये इज़ारबंद भी बड़े कलात्मक होते थे।
ये इज़ारबंद आज की तरह अंदर उड़स कर छुपाए नहीं जाते थे। ये छुपाने के लिए नहीं होते थे। पुरुषों के कुर्तों या महिलाओं के ग़रारों से बाहर लटकाकर दिखाने के लिए होते थे। पुरानी शायरी में ख़ासतौर से नवाबी लखनऊ में प्रेमिकाओं की लाल चूड़ियाँ, पायल, नथनी और बुंदों की तरह इज़ारबंद भी सौंदर्य के बयान में शामिल होता था।
ग़ालिब की आदत थी जब रात को शेर सोचते थे तो लिखते नहीं थे। जब शेर मुकम्मल हो जाता था तो इज़ारबंद में एक गाँठ लगा देते थे। सुबह जाग कर इन गाठों को खोलते जाते थे और इस तरह याद करके शेरों को डायरी में लिखते जाते थे।फ़ाज़ली साहब ने यहाँ इज़ारबंद से ताल्लुक रखते कुछ मुहावरों का उल्लेख भी किया है, जैसे एक ‘इज़ारबंद की ढीली’ जो उस स्त्री के लिए इस्तेमाल होता है जो चालचलन में अच्छी न हो. फ़ाज़ली साहब ने इस मुहावरे को इस तरह छंदबद्ध किया है-
जफ़ा है ख़ून में शामिल तो वो करेगी जफ़ाइज़ारबंद की ढीली से क्या उमीदे वफ़ा
‘इज़ारबंद की सच्ची’ से मुराद वह औरत है जो नेक हो ‘वफ़ादार हो'। इस मुहावरे का शेर इस तरह है,
अपनी तो यह दुआ है यूँ दिल की कली खिले
जो हो इज़ारबंद की सच्ची, वही मिले
जो हो इज़ारबंद की सच्ची, वही मिले
इज़ारबंदी रिश्ते के मानी होते हैं, ससुराली रिश्ता। पत्नी के मायके की तरफ़ का रिश्ता।
घरों में दूरियाँ पैदा जनाब मत कीजे
इज़ारबंदी ये रिश्ता ख़राब मत कीजे
इज़ारबंदी ये रिश्ता ख़राब मत कीजे
इज़ार से बाहर होने का अर्थ होता है ग़ुस्से में होश खोना।
पुरानी दोस्ती ऐसे न खोइए साहब
इज़ारबंद से बाहर न होइए साहब
इज़ारबंद से बाहर न होइए साहब
इज़ारबंद में गिरह लगाने का मतलब होता है किसी बात को याद करने का अमल।
निकल के ग़ैब से अश्आर जब भी आते थे
इज़ारबंद में ‘ग़ालिब’ गिरह लगाते थे
इज़ारबंद में ‘ग़ालिब’ गिरह लगाते थे
ग़ालिब तो रात के सोचे हुए शेरों को दूसरे दिन याद करने के लिए इज़ारबंद में गिरहें लगाते थे और उन्हीं के युग में एक अनामी शायर नज़ीर अकबराबादी इसी इज़ारबंद के सौंदर्य को काव्य विषय बनाते थे।
कबीर और नज़ीर को पंडितों तथा मौलवियों ने कभी साहित्यकार नहीं माना। कबीर अज्ञानी थे और नज़ीर नादान थे। इसलिए कि वो परंपरागत नहीं थे। अनुभव की आँच में तपाकर शब्दों को कविता बनाते थे।
नज़ीर मेले ठेलों में घूमते थे। जीवन के हर रूप को देखकर झूमते थे. इज़ारबंद पर उनकी कविता उनकी भाषा का प्रमाण है। उनकी नज़्म के कुछ शेर -
गोटा किनारी बादल-ओ- मुक़्क़ैश के सिवा
थे चार तोला मोती जो तोला इज़ारबंद
थे चार तोला मोती जो तोला इज़ारबंद
धोखे में हाथ लग गया मेरा नज़ीर तो
लेडी ये बोली जा, मेरा धो ला इज़ारबंद
लेडी ये बोली जा, मेरा धो ला इज़ारबंद
तो ये हुआ इस दीतवार लुत्फ़िया। इस में बीबीसी और निदा फ़ाजली साहब का उल्लेख हुआ है और इस्तेमाल भी। दोनों का बहुत बहुत शुक्रिया।
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शुक्रवार, 16 जनवरी 2009
एक चैट, भारत-पाकिस्तान पर
मकर संक्रान्ति के दिन अवकाश था, मैं अंतर्जाल पर जीवित पकड़ा गया, एक ब्लागर साथी के हाथों। उन से चैट हुई। चैट इतनी अच्छी हुई कि बिना उन से पूछे सार्वजनिक करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। चलिए बिना भूमिका के आप पढ़िए....
मैं: नमस्ते
?????? जी! संक्रान्ति की राम राम!
??????: मकर संक्रान्ति की बहुत बहुत बधाई हो आप को भी। सर! क्या हम वर्तमान स्थिति पर कोई बात कर सकते हैं? भारत और पाकिस्तानम के बारे में? यदि आप के पास समय हो?
मैं: आप अपनी बात कहें।
??????:मैं सोचता हूँ कि ये भारत की कायरता है जो उस ने अब तक कोई कदम नहीं उठाया है। ऐसा ही जब संसद पर हमला हुआ था तब भी हुआ था। हमने जितने सबूत थे पाकिस्तान को दिए उस ने सब नकार दिए। यहाँ तक कि आतंकवादियों को सबूतों और गवाहों की कमी को दिखाते हुए रिहा तक कर दिया ( हो सकता है ये मेरी सीमित सोच हो) इस लिए आप इस बात पर रोशनी डालिए।
मैं: आप का कहना कुछ हद तक सही है। लेकिन आज हम कोई दुनिया में अकेले नहीं हैं। पूरा विश्व समुदाय है। हम अपनी जमीन पर कोई भी कार्यवाही कर सकते हैं। लेकिन पाकिस्तान की जमीन पर कोई भी कार्यवाही करने के पहले पूरे विश्व समुदाय में उस के लिए माहौल बनाना आवश्यक है। उस काम को हमारी सरकार बखूबी कर रही है। जल्दबाजी और क्रोध में उठाया गया कदम उल्टा भी पड़ जाता है। हाँ यदि माहौल बनने के उपरांत भी ऐसा न किया जाए तो फिर कायरता है। हमारे देश में तो माहोल है। लेकिन वैश्विक समुदाय में माहौल बनाने में कुछ समय और लग सकता है। अभी तो हमें सरकार का साथ देते हुए उसे आगे कार्यवाही करने के लिए लगातार तत्पर रखना है।
??????:जब अमेरिका किसी की परवाह नहीं करता तो हम क्यों करें?
मैं: सबूत केवल पाकिस्तान को ही नहीं दिये हैं अपितु इसीलिए वैश्विक समुदाय में दिए गए हैं ताकि कोई बाद में पंगा न करे। हम भारत की तुलना अमेरिका से नहीं कर सकते, और परवाह तो उसे भी करनी पड़ती है।
??????:अब पाकिस्तान ने अफगानिस्तान से लगते इलाकों से सेना हटा कर हमारी सीमा के पास लगा दी।
मैं: वह अमरीका की चिंता का विषय है। इस से उस को परेशानी होगी।
??????: वहाँ वजीरीस्तान के कबीलों के सरदारों ने भी पाकिस्तान का साथ देने की हामी भर दी है।
मैं: वह हमारे हित में ठीक है। आप को अमेरिका का अधिक साथ मिलेगा।
??????: कल तक तो अमेरीका का रिप्रेजेण्टेटिव था।
मैं: वे पाकिस्तान का साथ नहीं दे रहे वे वस्तुतः पाकिस्तान को तोड़ना या वहाँ अपनी हुकूमत देखना चाहते हैं।
??????: और आज खिलाफ हो रहा है हाँ जो अमेरीका का मंसूबा है हम वो क्यों नहीं कर सकते?
मैं:पाकिस्तान अपने अंतर्विरोधों से टूटेगा। किसी बाहरी हमले से नहीं।
??????: इंदिरा ने तो जीता जिताया लाहौर तक वापिस दे दिया। कहने का मतलब है कि हम सांस भी लेंगे तो अमेरिका से पूछ कर?
मैं: झगड़े के वक्त पड़ौसी के घर में घुस कर मार करेंगे तो बाद में वापस अपने घर आना तो पड़ेगा न।
??????: आतंकवादियों ने हमारे घर पर आक्रमण किया है, ना कि अमरीका पर?
मैं: आज जमीने युद्ध से नहीं वहाँ के रहने वालों की इच्छा के आधार पर किसी देश में बनी रह सकती हैं।
आप ने सही कहा है। आतंकवाद से निपटना तो हमें ही पड़ेगा। लेकिन दूसरे के घर जा कर मार करने के लिए बहुत तैयारी जरूरी है।
फिर हम मोहल्ले के बदमाश को पीटने के पहले उस के खिलाफ माहोल तो बनना पड़ेगा। वरना खुद ही धुन दिए जाएंगे। और मुकदमा भी आप के खिलाफ ही बनेगा।
??????: ये तो एक्सक्यूज है। अमरीका ने सद्दाम को मारने से पहले, उस के देश को तबाह करने से पहले किसी से पूछा था? लादेन के देश (अफगानिस्तान) में घुस कर उस के देश को तबाह कर दिया?
मैं: वहाँ परिस्थिति भिन्न थी सद्दाम खुद दूसरे देश में सेना ले कर घुसा था और उस देश ने अमरीका की मदद मांगी थी। आज पाकिस्तान जरा घुसने की हिमाकत कर डाले तो काम बहुत आसान हो जाए। उस के लिए देश और सेना तैयार खड़ी है, लेकिन वह ऐसा नहीं करेगा।
??????: आशा करें कि वह ऐसा करे। ओ.के. सर! आप के साथ चैट कर के अच्छा लगा। मैं आप से सहमत हूँ।
मैं: हाँ तैयारी तो वैसी रखनी चाहिए। पर उस का इंतजार तो नहीं किया जा सकता। इसलिए विश्व में लगातार माहौल बनाना पड़ेगा और अभी तो संयुक्त राष्ट्र में आतंकवाद के मामले को ऐसे उठाना होगा कि कश्मीर का मामला उठे ही नहीं, और पाकिस्तान उठाने की कोशिश करे तो उस का मुहँ बंद कर दिया जाए।
धन्यवाद!
??????: बहुत धन्यवाद! ओ. के. सर!
मैं:दिवस शुभ हो!
??????:आप का भी दिवस शुभ हो मकर संक्रांति की बहुत बहुत शुभकामनाएँ।
मैं: नमस्ते
?????? जी! संक्रान्ति की राम राम!
??????: मकर संक्रान्ति की बहुत बहुत बधाई हो आप को भी। सर! क्या हम वर्तमान स्थिति पर कोई बात कर सकते हैं? भारत और पाकिस्तानम के बारे में? यदि आप के पास समय हो?
मैं: आप अपनी बात कहें।
??????:मैं सोचता हूँ कि ये भारत की कायरता है जो उस ने अब तक कोई कदम नहीं उठाया है। ऐसा ही जब संसद पर हमला हुआ था तब भी हुआ था। हमने जितने सबूत थे पाकिस्तान को दिए उस ने सब नकार दिए। यहाँ तक कि आतंकवादियों को सबूतों और गवाहों की कमी को दिखाते हुए रिहा तक कर दिया ( हो सकता है ये मेरी सीमित सोच हो) इस लिए आप इस बात पर रोशनी डालिए।
मैं: आप का कहना कुछ हद तक सही है। लेकिन आज हम कोई दुनिया में अकेले नहीं हैं। पूरा विश्व समुदाय है। हम अपनी जमीन पर कोई भी कार्यवाही कर सकते हैं। लेकिन पाकिस्तान की जमीन पर कोई भी कार्यवाही करने के पहले पूरे विश्व समुदाय में उस के लिए माहौल बनाना आवश्यक है। उस काम को हमारी सरकार बखूबी कर रही है। जल्दबाजी और क्रोध में उठाया गया कदम उल्टा भी पड़ जाता है। हाँ यदि माहौल बनने के उपरांत भी ऐसा न किया जाए तो फिर कायरता है। हमारे देश में तो माहोल है। लेकिन वैश्विक समुदाय में माहौल बनाने में कुछ समय और लग सकता है। अभी तो हमें सरकार का साथ देते हुए उसे आगे कार्यवाही करने के लिए लगातार तत्पर रखना है।
??????:जब अमेरिका किसी की परवाह नहीं करता तो हम क्यों करें?
मैं: सबूत केवल पाकिस्तान को ही नहीं दिये हैं अपितु इसीलिए वैश्विक समुदाय में दिए गए हैं ताकि कोई बाद में पंगा न करे। हम भारत की तुलना अमेरिका से नहीं कर सकते, और परवाह तो उसे भी करनी पड़ती है।
??????:अब पाकिस्तान ने अफगानिस्तान से लगते इलाकों से सेना हटा कर हमारी सीमा के पास लगा दी।
मैं: वह अमरीका की चिंता का विषय है। इस से उस को परेशानी होगी।
??????: वहाँ वजीरीस्तान के कबीलों के सरदारों ने भी पाकिस्तान का साथ देने की हामी भर दी है।
मैं: वह हमारे हित में ठीक है। आप को अमेरिका का अधिक साथ मिलेगा।
??????: कल तक तो अमेरीका का रिप्रेजेण्टेटिव था।
मैं: वे पाकिस्तान का साथ नहीं दे रहे वे वस्तुतः पाकिस्तान को तोड़ना या वहाँ अपनी हुकूमत देखना चाहते हैं।
??????: और आज खिलाफ हो रहा है हाँ जो अमेरीका का मंसूबा है हम वो क्यों नहीं कर सकते?
मैं:पाकिस्तान अपने अंतर्विरोधों से टूटेगा। किसी बाहरी हमले से नहीं।
??????: इंदिरा ने तो जीता जिताया लाहौर तक वापिस दे दिया। कहने का मतलब है कि हम सांस भी लेंगे तो अमेरिका से पूछ कर?
मैं: झगड़े के वक्त पड़ौसी के घर में घुस कर मार करेंगे तो बाद में वापस अपने घर आना तो पड़ेगा न।
??????: आतंकवादियों ने हमारे घर पर आक्रमण किया है, ना कि अमरीका पर?
मैं: आज जमीने युद्ध से नहीं वहाँ के रहने वालों की इच्छा के आधार पर किसी देश में बनी रह सकती हैं।
आप ने सही कहा है। आतंकवाद से निपटना तो हमें ही पड़ेगा। लेकिन दूसरे के घर जा कर मार करने के लिए बहुत तैयारी जरूरी है।
फिर हम मोहल्ले के बदमाश को पीटने के पहले उस के खिलाफ माहोल तो बनना पड़ेगा। वरना खुद ही धुन दिए जाएंगे। और मुकदमा भी आप के खिलाफ ही बनेगा।
??????: ये तो एक्सक्यूज है। अमरीका ने सद्दाम को मारने से पहले, उस के देश को तबाह करने से पहले किसी से पूछा था? लादेन के देश (अफगानिस्तान) में घुस कर उस के देश को तबाह कर दिया?
मैं: वहाँ परिस्थिति भिन्न थी सद्दाम खुद दूसरे देश में सेना ले कर घुसा था और उस देश ने अमरीका की मदद मांगी थी। आज पाकिस्तान जरा घुसने की हिमाकत कर डाले तो काम बहुत आसान हो जाए। उस के लिए देश और सेना तैयार खड़ी है, लेकिन वह ऐसा नहीं करेगा।
??????: आशा करें कि वह ऐसा करे। ओ.के. सर! आप के साथ चैट कर के अच्छा लगा। मैं आप से सहमत हूँ।
मैं: हाँ तैयारी तो वैसी रखनी चाहिए। पर उस का इंतजार तो नहीं किया जा सकता। इसलिए विश्व में लगातार माहौल बनाना पड़ेगा और अभी तो संयुक्त राष्ट्र में आतंकवाद के मामले को ऐसे उठाना होगा कि कश्मीर का मामला उठे ही नहीं, और पाकिस्तान उठाने की कोशिश करे तो उस का मुहँ बंद कर दिया जाए।
धन्यवाद!
??????: बहुत धन्यवाद! ओ. के. सर!
मैं:दिवस शुभ हो!
??????:आप का भी दिवस शुभ हो मकर संक्रांति की बहुत बहुत शुभकामनाएँ।
बुधवार, 14 जनवरी 2009
बड़ी संकरात को राम राम!
आज मकर संक्रांति है। पिछले वर्ष मैं ने मकर संक्रान्ति पर हिन्दी की बोलियों में से एक हाड़ौती बोली में आलेख लिखा था। उसे अधिक लोग नहीं पढ़ पाए थे। कुल तीन टिप्पणियाँ प्राप्त हुई थीं। लेकिन यह बोली व्यापक रूप से राजस्थान के चार जिलों कोटा, बाराँ, बून्दी और झालावाड़ में बोली जाती है। आप का इस से परिचय हो इस लिए आज फिर से इस बोली में अपना आलेख लिखा है। हो सकता है आप को यह बोझिल लगे। लेकिन पढ़िए अवश्य ही। इस से हिन्दी की एक बोली से आप का परिचय तो होगा ही। वैसे थोड़ा प्रयास करेंगे तो समझ भी सभी आएगा। विषय भी आप को रोचक लगेगा। आप पिछले वर्ष का आलेख पढना चाहें तो यहाँ चटका लगा कर पढ़ सकते हैं। उस में हाड़ौती में संक्रान्ति के पर्व से संबंधित परंपराओं का उल्लेख है। साथ वाले मानचित्र में देश और राजस्थान में हाड़ौती की स्थिति दिखाई गई है।
राम राम! सभी जणाँ के ताईं बड़ी सँकरात को राम राम!!
बहणाँ बरो न मानँ, के जणाँ के ताईं तो राम राम करी। पण जण्याँ के ताईं न करी। पण जणाँन मँ जण्याँ भी तो सामिल छे।
आज बड़ी संकरात छे। बड़ी अश्याँ, के सँकराताँ तो बारा होवे छे, जद जद भी भगवान सूरजनाराण एक रासी सूँ दूसरी मँ परबेस करे, तो उँ सूँ सँकरात खेवे। आसमान मँ बण्या याँ बारा घराँ का सात मालिक बताया। एक घर तो खुद भगवान सूरजनाराण को, एक घर चन्दरमाँ को, अर बाकी मंगळ जी, बुध म्हाराज, बरहस्पति जी, शुक्कर जी अर् शनि म्हाराज का दो-दो घर।
भगवान सूरजनाराण बरस का बारा म्हींना में हर घर मँ एक म्हीनों रेह छ। अब शनि म्हाराज व्हाँका ही बेटा छ, ज्याँ का दोन्यूँ घर लाराँ लाराँ ही पड़ छ। जी सूँ दो म्हीनाँ ताईं भगवान सूरजनाराण क ताईं बेटा क य्हाँ रेहणी पड़ छ। अब आज व्ह शनि म्हाराज का घर मँ उळगा तो दो म्हीना पाछे मार्च का म्हीनाँ में ही खड़ेगा। सूरजनाराण एक म्हींना सूँ तो गुरू म्हाराज बरहस्पति का घर म्हँ छा, अब दो म्हींना बेटा शनी का घर म्हँ रहेगा, फेर म्हींनों भर बरहस्पति का घर मं रहेगा। फेर एक म्हीनों मंगळ म्हाराज क य्हाँ, फेर एक म्हीनो शुक्कर जी क य्हाँ, फेर एक म्हीनों बुध जी क य्हाँ। ऊँ क बाद एक म्हीनों चन्दरमा जी का घर रेह र आपणा घरणे फूगगा ज्हाँ फेर एक म्हीनों रेहगा। ऊंक पाछे फेर पाछा ई बुध जी, शुक्कर जी, मंगळ जी, बरहस्पति जी ती घराँ में एक एक म्हींना म्हींना भर रेता हुया जद पाछा बेटा का घरणे पधारेगा तो अगला बरस की बड़ी संकरात आवेगी।
उश्याँ बरस को आरंभ मंगळ सूँ होणी छावे नँ, जीसूं तेरा अपरेल नँ जद भगवान सूरजनाराण मंगळ म्हाराज का घर मँ परबेस करे तो ऊँ दन बैसाखी मनावे छे। अर ऊं दन ही सूरजनाराण का बरस को आरंभ होवे छे। ऊँ क आस पास ही आपणी गुड़ी पड़वा भी आवे छे।
दो म्हीनाँ ताईं जद भगवान सूरजनाराण को मुकाम गुरू म्हाराज बरहस्पति जी क य्हाँ रह छ। तो कोई भी आडो ऊँळो काम करबा की मनाही छ। अब आपण परथीबासियाँ का तो सारा काम ही आडा ऊँळा होवे। जीसूँ ही आपण याँ दो म्हीनां क ताईं मळ का म्हीना ख्हाँ छाँ। अर य्हाँ में भगवद् भजन, कथा भागवत अर दान पुण्य का कामाँ क अलावा दूसरा काम न्हँ कराँ। आज ऊ एक म्हींनो पूरो होयो। आज सूँ फेर सारा काम सुरू होता। हर बरस सुरू हो ही जावे छे। पण ईं बरस आज क दन ही बरहस्पति जी खुद भी घरणे फ्हली सूँ ई बिराज रिया छे। अब दोन्यूँ को मिलण अर साथ 10 फरवरी ताँईं रहगो जीसूँ व्हाँ ताईं आडा ऊँळा काम, जासूँ आपण मंगळ काम ख्हाँ छाँ न होवेगा, जश्याँ सादी-ब्याऊ, मुंडन आदी।
बड़ी संकरात पे अतनो ही खेबो छ!
आप को परेमी,
ऊई, दिनेसराई दुबेदी
सोमवार, 12 जनवरी 2009
दुनिया भर की लड़कियों के नाम, ‘यक़ीन’साहब की एक ग़ज़ल,
दुनिया भर की लड़कियों के नाम
'यक़ीन' साहब की एक 'ग़ज़ल'
- पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
सोज़े-पिन्हाँ को बना ले साज़ लड़की!
बोल ! कुछ तो बोल बेआवाज़ लड़की!
लब सिले हैं और आँखें चीख़ती हैं
कैसी चुप्पी है ये कैसा राज़ लड़की!
क्यूँ बया बन कर रही, बुलबुल बनी तू
काश अपने को बना ले बाज़ लड़की!
फ़ित्रतन ज़ालिम है ये मक्कार दुनिया
क्यूँ है तू मासूम मिस्ले-क़ाज़ लड़की!
इक कबूतर-सी फ़क़त पलकें न झपका
लोग दुनिया के हैं तीरन्दाज़ लड़की!
तू कोई अबला नहीं, पहचान ख़ुद को
और बदल तेवर तेरा अन्दाज़ लड़की!
गूँज कोयल की कुहुक-सी वादियों में
बन्द कर ये सिसकियों का साज़ लड़की!
सोच इस दुनिया को तुझ से बैर क्यूँ है
क्यूँ है इक मोनालिसा पर नाज़ लड़की!
क़त्ल क्यूँ होती है तेरी कोख में तू
क्या हुआ जननी का वो ऐज़ाज़ लड़की!
तू तो माँ है, क्यूँ तुझे समझा खिलौना
पूछ इन मर्दों से ओ ग़मबाज़ लड़की!
तू नहीं दुनिया से, इस दुनिया से मत डर
तुझ से है ये दुनिया-ए-नासाज़ लड़की!
अब स्वयं नेज़ा उठा, लिख भाग्य अपना
कर नए अध्याय का आग़ाज़ लड़की!
कौन तन्हा जीत पाया जंग कोई
मिल के हल्ला बोल यक्काताज़ लड़की!
तेरे स्वागत को है ये आकाश आतुर
खोल कर पर तू भी भर परवाज़ लड़की!
अपने आशिक़ पर नहीं लाज़िम तग़ाफ़ुल
बेसबब मुझ से न हो नाराज़ लड़की!
अपनी कू़व्वत का नहीं अहसास तुझ को
कर ‘यक़ीन’ इस बात पर जाँबाज़ लड़की!
* * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * *
अपने ही आदर्श का अनुसरण करना सफलता का निश्चित मार्ग है
आज स्वामी जी की जयन्ती है। उन जैसे मार्गदर्शक महापुरुष दुनिया में कम ही हुए हैं। उपनिषदों के दर्शन को जिस विस्तार से शंकराचार्य जी ने व्याख्यायित किया था। उसे और अधिक सरलीकृत और आधुनिक विज्ञान के आलोक में पुनर्व्याख्यायित करने का महान काम स्वामी विवेकानंद ने किया। उन्हों ने विभिन्न दिशाओं की ओर बढ़े जा रहे षडदर्शनों को इस तरह व्याख्यायित किया कि वे एक ही दर्शन के विभिन्न फलक दिखाई देने लगे।
स्वामी जी ने अद्वैत वेदांत के दर्शन को जिस सरल तरीके से दुनिया को समझाया वह अद्भुत ही है। यहाँ तक कि उन्होने भौतिक विज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान के बीच की बहुत महीन रेखा को भी ध्वस्त कर दिया। मुझे तो उन्हें पढ़ने और समझने के दौरान यह भी समझ आया कि नास्तिकता और आस्तिकता भी कृत्रिम भेद हैं। स्वामी जी तो यहाँ तक भी कह गए कि न कोई चिरंतन स्वर्ग है और न ही चिरंतन नर्क।
मुझे जब ग्यारहवीं कक्षा के इम्तहान में हिन्दी का पर्चा मिला तो उस का पहला प्रश्न गद्यांश था। जिस में कहा गया था कि, 'औरों को देख कर अपने मार्ग का निश्चय न करो, अपने लिए रास्ते का निर्माण खुद करो। स्वामी जी एक स्थान पर कहते हैं...
आज हम जिस तरह अपने आदर्श को ही सब के लिए सर्वोपरि मानने पर चल पड़े हैं उस ने मानव जीवन में अनेक संघर्षों को जन्म दे दिया है। मेरा इशारा ठीक ही धर्म और संप्रदायों के व्यवहार की ओर है। जब कि यहाँ स्वामी जी की आदर्श से तात्पर्य धर्म से ही है। जो अनिवार्यतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए भिन्न होगा, उस के मन,योग्यता और शक्ति के अनुरूप।
स्वामी जी ने अद्वैत वेदांत के दर्शन को जिस सरल तरीके से दुनिया को समझाया वह अद्भुत ही है। यहाँ तक कि उन्होने भौतिक विज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान के बीच की बहुत महीन रेखा को भी ध्वस्त कर दिया। मुझे तो उन्हें पढ़ने और समझने के दौरान यह भी समझ आया कि नास्तिकता और आस्तिकता भी कृत्रिम भेद हैं। स्वामी जी तो यहाँ तक भी कह गए कि न कोई चिरंतन स्वर्ग है और न ही चिरंतन नर्क।
मुझे जब ग्यारहवीं कक्षा के इम्तहान में हिन्दी का पर्चा मिला तो उस का पहला प्रश्न गद्यांश था। जिस में कहा गया था कि, 'औरों को देख कर अपने मार्ग का निश्चय न करो, अपने लिए रास्ते का निर्माण खुद करो। स्वामी जी एक स्थान पर कहते हैं...
प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपना आदर्श ले कर उसे अपने जीवन में ढालने का प्रयत्न करे। बजाय इस के कि वह दूसरों के आदर्शों को ले कर चरित्र गढ़ने की चेष्ठा करे, अपने ही आदर्श का अनुसरण करना सफलता का अधिक निश्चित मार्ग है। संभव है, दूसरे का आदर्श वह अपने जीवन में ढालने में कभी समर्थ न हो। यदि हम किसी नन्हें बालक को एक दम बीस मील चलने को कह दें, तो वह या तो मर जाएगा या हजार में से एक रेंगता रांगता वहाँ तक पहुँचा तो भी वह अधमरा हो जाएगा। बस हम भी संसार के साथ ऐसा ही करने का प्रयत्न करते हैं। किसी समाज के सब स्त्री-पुरुष न एक मन के होते हैं, न एक योग्यता के और न एक ही शक्ति के। अतऐव उनमें से प्रत्येक का आदर्श भी भिन्न भिन्न होना चाहिए; और इन आदर्शों में से एक का भी उपहास करने का हमें कोई अधिकार नहीं। अपने आदर्श को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक को जितना हो सके यत्न करने दो। फिर यह भी ठीक नहीं कि मैं तु्म्हारे अथवा तुम मेरे आदर्श द्वारा जाँचे जाओ। आम की तुलना इमली से नहीं होनी चाहिए और न इमली की आम से। आम की तुलना के लिए आम ही लेना होगा, और इमली के लिए इमली। इसी प्रकार हमें अन्य सब के संबंध में भी समझना चाहिए।
बहुत्व में एकत्व ही सृष्टि का नियम है। प्रत्येक स्त्री-पुरुष में व्यक्तिगत रूप से कितना ही भेद क्यों न हो, उन सब के पीछे वह एकत्व ही विद्यमान है। स्त्री-पुरुषों के भिन्न चरित्र एवं उन की अलग-अलग श्रेणियाँ सृष्टि की स्वाभाविक विभिन्नता मात्र हैं। अतएव एक ही आदर्श द्वारा सब की जाँच करना अथवा सब के सामने एक ही आदर्श रखना किसी भी प्रकार से उचित नहीं है। ऐसा करने से केवल एक अस्वाभाविक संघर्ष उत्पन्न हो जाता है और फल यह होता है कि मनुष्य स्वयं से ही घृणा करने लगता है तथा धार्मिक एवं उच्च बनने से रुक जाता है। हमारा कर्तव्य तो यह है कि हम प्रत्येक को उस के अपने उच्चतम आदर्श को प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करें, तथा उस आदर्श को सत्य के जितना निकटवर्ती हो सके लाने का यत्न करें।
आज हम जिस तरह अपने आदर्श को ही सब के लिए सर्वोपरि मानने पर चल पड़े हैं उस ने मानव जीवन में अनेक संघर्षों को जन्म दे दिया है। मेरा इशारा ठीक ही धर्म और संप्रदायों के व्यवहार की ओर है। जब कि यहाँ स्वामी जी की आदर्श से तात्पर्य धर्म से ही है। जो अनिवार्यतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए भिन्न होगा, उस के मन,योग्यता और शक्ति के अनुरूप।
शनिवार, 10 जनवरी 2009
अजित वडनेरकर का जन्म दिन और पुरुषोत्तम 'यकीन' की नए साल की बधाई
उन्हें ढेर सारी बधाइयाँ!
जरा आप भी दीजिएगा!
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इस मौके पर किसी काव्य रचना की तलाश करते करते पुरुषोत्तम यकीन की गज़ल़ पर नज़र पड़ी। नए साल के आगमन पर रची गई इस ग़ज़ल का आनंद लीजिए .....
'ग़ज़ल'
!!! मुबारक हो तुम को नया साल यारो !!!
पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
मुबारक हो तुम को नया साल यारो
यहाँ तो बड़ा है बुरा हाल यारो
मुहब्बत पे बरसे मुसीबत के शोले
ज़मीने-जिगर पर है भूचाल यारो
अमीरी में खेले है हर बदमुआशी
है महनतकशी हर सू पामाल यारो
बुरे लोग सारे नज़र शाद आऐं
भले आदमी का है बदहाल यारो
बहुत साल गुज़रे यही कहते-कहते
मुबारक-मुबारक नया साल यारो
फ़रेबों का हड़कम्प है इस जहाँ में
‘यक़ीन’ इस लिए बस हैं पामाल यारो
पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
मुबारक हो तुम को नया साल यारो
यहाँ तो बड़ा है बुरा हाल यारो
मुहब्बत पे बरसे मुसीबत के शोले
ज़मीने-जिगर पर है भूचाल यारो
अमीरी में खेले है हर बदमुआशी
है महनतकशी हर सू पामाल यारो
बुरे लोग सारे नज़र शाद आऐं
भले आदमी का है बदहाल यारो
बहुत साल गुज़रे यही कहते-कहते
मुबारक-मुबारक नया साल यारो
फ़रेबों का हड़कम्प है इस जहाँ में
‘यक़ीन’ इस लिए बस हैं पामाल यारो
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शुक्रवार, 9 जनवरी 2009
विराम चिन्ह कैसे टंकित करें? विष्णु बैरागी जी का अनुभव
विराम चिन्हों को कैसे टंकित किया जाए? इस विषय पर पहले ही दो आलेख आ चुके हैं। मेरे विचार में उतना लिखा जाना पर्याप्त था। जिस तरीके से टंकित किए जाने की बात उन दो आलेखों, अर्धविराम (;), अल्पविराम (,), प्रश्नवाचक चिन्ह(?) और संबोधन चिन्ह (!) कैसे लगाएँ? और विराम चिन्हों पर फिर से एक विचार
में कही गई थी, उसे लगभग सभी पाठकों की सहमति भी मिली थी। बात इतनी सी थी कि लगी आदत छूटती नहीं।
लेकिन बैरागी जी का ई-पत्र मिला और उसे सार्वजनिक करने का आग्रह भी। मेरे विचार में जिस तरह उन्हों ने अपने विचार प्रकट किए हैं वे अनेक लोगों को पुरानी आदत छुड़ाने में मदद कर सकते हैं। ई-पत्र इस प्रकार है...
में कही गई थी, उसे लगभग सभी पाठकों की सहमति भी मिली थी। बात इतनी सी थी कि लगी आदत छूटती नहीं।
लेकिन बैरागी जी का ई-पत्र मिला और उसे सार्वजनिक करने का आग्रह भी। मेरे विचार में जिस तरह उन्हों ने अपने विचार प्रकट किए हैं वे अनेक लोगों को पुरानी आदत छुड़ाने में मदद कर सकते हैं। ई-पत्र इस प्रकार है...
दिनेशजी,मुझे इस से आगे एक भी शब्द कहने की जरूरत नहीं।नमस्कार,पूर्णविराम से पहले रिक्ति न रखने का आपका सुझाव पूर्णत: उपयोगी रहा। वैयाकरणिकता और व्यावहारिकता का सुन्दर समन्वय है आपका परामर्श।आपके इस परामर्श के बाद आज पहली पोस्ट लिखी/प्रस्तुत की (आपके परामर्श पर अमल करते हुए) और देखा कि यह मेरी ऐसी पहली पोस्ट रही जिसमें पूर्ण विराम, अगली पंक्ति में पृथक शब्द के रूप में नहीं गया। इससे पोस्ट की सुन्दरता और प्रभाव में तो वृध्दि हुई ही, पूर्ण विराम से किसी पंक्ति के प्रारम्भ होने से जो व्याकुलता उपजती थी, उससे भी मुक्ति मिली।मेरी इस टिप्पणी को आप सार्वजनिक कर सकते हैं (अपितु अवश्य कीजिएगा)। सम्भवत:, अन्य मित्रों को भी यह उपाय उपयोगी अनुभव हो।हां, पुरानी आदत, इस पर अमल करने में बाधक बन रही है। नई आदत डालने में समय भी लगेगा और अतिरिक्त श्रम भी। किन्तु जो मिला है, उसके लिए यह बहुत ही कम कीमत है।आपने प्रस्तुति का भोंडापन दूर करने में सहायता की। यह उपकार से कम नहीं है।विनम्र,--
बुधवार, 7 जनवरी 2009
ढाई दिन का किस्सा, नकारात्मक ऊर्जा का शिकार कंप्यूटर अस्पताल में
रविवार, 4 जनवरी 2009,
अनवरत और तीसरा खंबा दोनों पर एक एक आलेख लिखने का मन था। शाम को जैसे ही लिखने बैठा। कंप्यूटर जी ने हथियार पटक दिए, -हम बहुत बीमार हैं, पहले हमारा इलाज कराइए। बात उस की सही थी। बेचारे की एक सिस्टम फाइल कब से नष्ट हो चुकी थी। उस का इलाज हम कर भी चुके होते। लेकिन जैसे ही हम ने सीडी कम्प्यूटर जी के लिपिक को थमाई, पता लगा सीडी को घुमा कर देख ही नहीं रहे हैं। अब तो अस्पताल ही चारा है। आम हिन्दुस्तानी आदत कि कल चलेंगे अस्पताल, पूरा महीना निकल गया। कम्प्यूटर जी जैसे तैसे काम करते रहे। हम आप मिलते रहे।
रविवार शाम को कम्प्यूटर जी के सिस्टम की कुछ फाइलें और गायब हो गई। माई कम्प्यूटर के दरवाजे पर ताला लटक गया। कम्यूटर जी बोलते तो सही, पर हर बार एक ही शब्द हेंग, हेंग, हेंग ............
हम समझ गए, कम्प्यूटर हमारी नकारात्मक ऊर्जा का शिकार हो चुका है। हमने कहा तुम आराम करो, आज अस्पताल की छुट्टी है। कल खुलेगा तो ले चलेंगे।
सोमवार, 5 जनवरी 2009,
सुबह कम्प्यूटर जी को अस्पताल पहुँचा कर अदालत गए। अपने सिस्टम की सीडी घर ही रह गई। अदालत से घर पहुँचे तो, सीडी अस्पताल पहुँचाई। रात को आठ बजे कंप्यूटर जी घर पहुँचे। हमने उन की जाँच परख की तो वे अस्पताल से आ कर नए नए लग रहे थे।
सब से पहले वाइरस रक्षक देखा, कहीं नहीं दिखा। हमने कहा ये वाइरस रक्षक पहनो। उस ने पहना और थोड़ी देर बाद फिर से कहने लगा, हेंग, हेंग, हेंग ............
ध्यान से देखा तो वाइरस रक्षक का एक दूसरे वाइरस रक्षक से युद्ध चल रहा था। कोई नया रक्षक था, था भी दमदार। हमने स्क्रीन पर उन का लोगो तो देखा था और नाम भी। मगर समझे थे कि कोई नया गाने बजाने वाला है। पर वह तो ब्लेक कमांडो निकला। कंप्यूटर फिर हेंग हो कर उन की लड़ाई का आनंद ले रहा था। हमारी क्या सुनता।
हमने सोचा एक रक्षक को निकाल दो। हमने एक रक्षक को निकाल कर बाहर किया तो कम्प्यूटर जी ने सुनना चालू किया। हमने ब्रॉड बैंड चालू किया। मेल पढ़ ही रहे थे कि कम्प्यूटर जी की बत्ती गुल!
अब कोई चारा नहीं, सिवा इस के कि उन्हें फिर से अस्पताल पहुँचाया जाए।
मंगलवार, 6 जनवरी 2009
कम्प्यूटर जी को फिर से अस्पताल पहुँचाया। फिर से उन का इलाज हुआ। शाम घर आए तो हमारे मुवक्किल हाजिर। देर रात ही कम्प्यूटर जी से बात हो सकी। पहले ढ़ाई दिनों की खबर ली। बैरागी जी पूछ रहे थे, वकील साहब कहाँ हैं? उन का फोन नम्बर भी था, सो उन से बतियाए। कम्प्यूटर जी को सही पाया तो उन की दुकान सजाने का काम करते रहे। जब दुकान कुछ कुछ सज कर तैयार हुई तो सोने का समय हो गया।
बुधवार,7 जनवरी 2009
अब सुबह उठ कर पहले ढ़ाई दिनों की भाई लोगों की कारगुजारियाँ देखीं। एक सज्जन के लिए सलाह लिख तीसरा खंबा को मोर्चे पर रवाना किया। ढाई दिन का ये किस्सा आप को बता दिया है। अदालत जाने का समय हो रहा है और अभी नहाए नहीं हैं। उस के बिना अपनी पंडिताइन सुबह का नाश्ता देती नहीं। वह भी नहीं मिला सुबह से अब तक दो कॉफी मिली है, उसी से काम चल रहा है। पंडिताइन इस से ज्यादा सैंक्शन करने वाली नहीं है। अब उठने के सिवा कोई चारा नहीं है। कम्प्यूटर भी कह रहा है, बस एक दो औजार लटका कर शुरु कर दिया घिसना। मेरे बाकी औजार तो लौटाओ। उसे कह दिया है, आज मुहर्रम मनाओ, कल मुहर्रम की छुट्टी है। आज क़तल की रात अपनी है, उसी में तुम्हारे औज़ार लौटाएँगे।
शाम को मिलते हैं, टिपियाते हुए।
जय! कंप्यूटर जी की !
अनवरत और तीसरा खंबा दोनों पर एक एक आलेख लिखने का मन था। शाम को जैसे ही लिखने बैठा। कंप्यूटर जी ने हथियार पटक दिए, -हम बहुत बीमार हैं, पहले हमारा इलाज कराइए। बात उस की सही थी। बेचारे की एक सिस्टम फाइल कब से नष्ट हो चुकी थी। उस का इलाज हम कर भी चुके होते। लेकिन जैसे ही हम ने सीडी कम्प्यूटर जी के लिपिक को थमाई, पता लगा सीडी को घुमा कर देख ही नहीं रहे हैं। अब तो अस्पताल ही चारा है। आम हिन्दुस्तानी आदत कि कल चलेंगे अस्पताल, पूरा महीना निकल गया। कम्प्यूटर जी जैसे तैसे काम करते रहे। हम आप मिलते रहे।
रविवार शाम को कम्प्यूटर जी के सिस्टम की कुछ फाइलें और गायब हो गई। माई कम्प्यूटर के दरवाजे पर ताला लटक गया। कम्यूटर जी बोलते तो सही, पर हर बार एक ही शब्द हेंग, हेंग, हेंग ............
हम समझ गए, कम्प्यूटर हमारी नकारात्मक ऊर्जा का शिकार हो चुका है। हमने कहा तुम आराम करो, आज अस्पताल की छुट्टी है। कल खुलेगा तो ले चलेंगे।
सोमवार, 5 जनवरी 2009,
सुबह कम्प्यूटर जी को अस्पताल पहुँचा कर अदालत गए। अपने सिस्टम की सीडी घर ही रह गई। अदालत से घर पहुँचे तो, सीडी अस्पताल पहुँचाई। रात को आठ बजे कंप्यूटर जी घर पहुँचे। हमने उन की जाँच परख की तो वे अस्पताल से आ कर नए नए लग रहे थे।
सब से पहले वाइरस रक्षक देखा, कहीं नहीं दिखा। हमने कहा ये वाइरस रक्षक पहनो। उस ने पहना और थोड़ी देर बाद फिर से कहने लगा, हेंग, हेंग, हेंग ............
ध्यान से देखा तो वाइरस रक्षक का एक दूसरे वाइरस रक्षक से युद्ध चल रहा था। कोई नया रक्षक था, था भी दमदार। हमने स्क्रीन पर उन का लोगो तो देखा था और नाम भी। मगर समझे थे कि कोई नया गाने बजाने वाला है। पर वह तो ब्लेक कमांडो निकला। कंप्यूटर फिर हेंग हो कर उन की लड़ाई का आनंद ले रहा था। हमारी क्या सुनता।
हमने सोचा एक रक्षक को निकाल दो। हमने एक रक्षक को निकाल कर बाहर किया तो कम्प्यूटर जी ने सुनना चालू किया। हमने ब्रॉड बैंड चालू किया। मेल पढ़ ही रहे थे कि कम्प्यूटर जी की बत्ती गुल!
अब कोई चारा नहीं, सिवा इस के कि उन्हें फिर से अस्पताल पहुँचाया जाए।
मंगलवार, 6 जनवरी 2009
कम्प्यूटर जी को फिर से अस्पताल पहुँचाया। फिर से उन का इलाज हुआ। शाम घर आए तो हमारे मुवक्किल हाजिर। देर रात ही कम्प्यूटर जी से बात हो सकी। पहले ढ़ाई दिनों की खबर ली। बैरागी जी पूछ रहे थे, वकील साहब कहाँ हैं? उन का फोन नम्बर भी था, सो उन से बतियाए। कम्प्यूटर जी को सही पाया तो उन की दुकान सजाने का काम करते रहे। जब दुकान कुछ कुछ सज कर तैयार हुई तो सोने का समय हो गया।
बुधवार,7 जनवरी 2009
अब सुबह उठ कर पहले ढ़ाई दिनों की भाई लोगों की कारगुजारियाँ देखीं। एक सज्जन के लिए सलाह लिख तीसरा खंबा को मोर्चे पर रवाना किया। ढाई दिन का ये किस्सा आप को बता दिया है। अदालत जाने का समय हो रहा है और अभी नहाए नहीं हैं। उस के बिना अपनी पंडिताइन सुबह का नाश्ता देती नहीं। वह भी नहीं मिला सुबह से अब तक दो कॉफी मिली है, उसी से काम चल रहा है। पंडिताइन इस से ज्यादा सैंक्शन करने वाली नहीं है। अब उठने के सिवा कोई चारा नहीं है। कम्प्यूटर भी कह रहा है, बस एक दो औजार लटका कर शुरु कर दिया घिसना। मेरे बाकी औजार तो लौटाओ। उसे कह दिया है, आज मुहर्रम मनाओ, कल मुहर्रम की छुट्टी है। आज क़तल की रात अपनी है, उसी में तुम्हारे औज़ार लौटाएँगे।
शाम को मिलते हैं, टिपियाते हुए।
जय! कंप्यूटर जी की !
शनिवार, 3 जनवरी 2009
क्या है, नकारात्मक ऊर्जा ?
परिवर्तन जगत का नियम है। यदि परिवर्तन न हो, तो समय का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। समय है, अर्थात परिवर्तन है। परिवर्तन की अपनी दिशा भी होती है। या तो वह पीछे की ओर होता है, या वह आगे की ओर। परिवर्तन में शक्ति या ऊर्जा लगती है। परिवर्तन जगत का नियम है लेकिन फिर भी हम जगत को वैसा ही बनाए रखना चाहते हैं, जैसा कि वह है तो परिवर्तन को रोकने के लिए भी ऊर्जा की आवश्यकता होगी।
जब भी हम कोई काम करते हैं तो उस से परिवर्तन होना निश्चित है। वह वांछित या अवांछित हो सकता है, लेकिन होता है। जब किसी वांछित परिवर्तन के लिए हम अपनी ऊर्जा का प्रयोग करते हैं तो ऊर्जा का उपयोग उस दिशा में होना चाहिए जिस दिशा में हम परिवर्तन चाहते हैं। लेकिन हमारी पद्धति के कारण हमारी इच्छा के विपरीत बहुत सारी ऊर्जा विपरीत दिशा में लग कर नष्ट हो जाती है। यह ऊर्जा हमारी इच्छानुसार काम तो आती ही नहीं अपितु वह इच्छित परिणाम प्राप्ति में बाधा और बन जाती है। इसी ऊर्जा को जो हमारी इच्छित परिणामों में बाधा बनती है और उसे ही मैं नकारात्मक ऊर्जा समझता हूँ।
हम अपनी ऊर्जा का सायास या अनचाहे, यह नकारात्मक उपयोग करते चलते हैं और जीवन में बहुत सी ऊर्जा नष्ट कर बैठते हैं। इस से वांछित परिणाम तो मिलते नहीं, उन के मिलने में देरी होती है। माध्यमिक कक्षाओं तक सभी ने विज्ञान पढ़ा है। जब हम बल और गति पढ़ रहे थे। तब एक बात पढ़ाई गई थी कि किसी भी वस्तु को धक्का देने में अधिक ऊर्जा लगती है बनिस्पत उस वस्तु को खींचने में। यह नकारात्मक ऊर्जा का एक अच्छा उदाहरण है।
क्यों रथ में घोड़े आगे होते हैं? क्यों रेल का इंजन आगे की ओर होता है? दोनों भार को खींचते हैं। जरा इस पर विचार करें तो पाएंगे कि यदि इंजन पीछे होता और डब्बों को धकिया रहा होता तो इच्छित परिणाम के लिए हमारा ऊर्जा व्यय दुगना होता, और घोड़े रथ के पीछे जोत दिए जाते तो वे कभी रथ को धकिया ही नहीं पाते। होता यह है कि जब हम किसी वस्तु को धक्का देते हैं तो उस वस्तु पर लगाया गया बल दो भागों में बंट जाता है। एक भाग उस वस्तु को जिस दिशा में हटाया जा रहा है उस दिशा में और दूसरा गुरुत्वाकर्षण की दिशा में। बल का यह दूसरा हिस्सा जो गुरुत्वार्षण की दिशा में लगता है वह वस्तु को पृथ्वी की और दबाता है। वह नष्ट तो होता ही है साथ ही वस्तु को हटाने में बाधा भी पैदा करता है, क्यों कि यह पृथ्वी के केन्द्र की दिशा में लगता है। जो ऊर्जा गुरुत्वाकर्षण की दिशा में यहाँ लगती है उसे हम नकारात्मक ऊर्जा कह सकते हैं। क्यों कि यह नष्ट होते होते भी इच्छित परिणाम के विपरीत काम भी करती है।
इस के विपरीत जब हम उसी वस्तु को इच्छित दिशा में हटाने के लिए खींचते हैं। तो भी बल दो हिस्सों में विभाजित हो जाता है। एक खींचने की दिशा में और दूसरा गुरुत्वाकर्षण के विपरीत। यहाँ पहला हिस्सा तो पहले की तरह इच्छित दिशा में काम करता ही है, दूसरा भाग जो पृथ्वी के केन्द्र की दिशा से विपरीत लगता है वह वस्तु को भूमि से ऊपर उठाता है। इस तरह पहले जो ऊर्जा नष्ट हो कर बाधा पैदा कर रही थी, वह अब काम आती है और वस्तु को इच्छित दिशा की ओर ले जाने में सहजता उत्पन्न करती है।
हमारे कहे गए और लिखे गए शब्दों के साथ भी यही होता है। यदि वे इच्छित दिशा में परिवर्तन को रोकने में इस्तेमाल हो जाते हैं।
मैं ने अपने प्रिय एक साथी चिट्ठाकार के लिए एक टिप्पणी की थी। कि उन में बहुत ऊर्जा है, लेकिन वे नकारात्मक ऊर्जा को साथ लिए चलते हैं और परिणाम शून्य हो जाता है। तब साथी चिट्ठाकार ने जानने के लिए प्रश्न किया कि नकारात्मक ऊर्जा से मेरा क्या तात्पर्य है? मेरा नकारात्मक ऊर्जा से वही तात्पर्य था, जो इस आलेख में स्पष्ट किया है।
जब भी हम कोई काम करते हैं तो उस से परिवर्तन होना निश्चित है। वह वांछित या अवांछित हो सकता है, लेकिन होता है। जब किसी वांछित परिवर्तन के लिए हम अपनी ऊर्जा का प्रयोग करते हैं तो ऊर्जा का उपयोग उस दिशा में होना चाहिए जिस दिशा में हम परिवर्तन चाहते हैं। लेकिन हमारी पद्धति के कारण हमारी इच्छा के विपरीत बहुत सारी ऊर्जा विपरीत दिशा में लग कर नष्ट हो जाती है। यह ऊर्जा हमारी इच्छानुसार काम तो आती ही नहीं अपितु वह इच्छित परिणाम प्राप्ति में बाधा और बन जाती है। इसी ऊर्जा को जो हमारी इच्छित परिणामों में बाधा बनती है और उसे ही मैं नकारात्मक ऊर्जा समझता हूँ।
हम अपनी ऊर्जा का सायास या अनचाहे, यह नकारात्मक उपयोग करते चलते हैं और जीवन में बहुत सी ऊर्जा नष्ट कर बैठते हैं। इस से वांछित परिणाम तो मिलते नहीं, उन के मिलने में देरी होती है। माध्यमिक कक्षाओं तक सभी ने विज्ञान पढ़ा है। जब हम बल और गति पढ़ रहे थे। तब एक बात पढ़ाई गई थी कि किसी भी वस्तु को धक्का देने में अधिक ऊर्जा लगती है बनिस्पत उस वस्तु को खींचने में। यह नकारात्मक ऊर्जा का एक अच्छा उदाहरण है।
क्यों रथ में घोड़े आगे होते हैं? क्यों रेल का इंजन आगे की ओर होता है? दोनों भार को खींचते हैं। जरा इस पर विचार करें तो पाएंगे कि यदि इंजन पीछे होता और डब्बों को धकिया रहा होता तो इच्छित परिणाम के लिए हमारा ऊर्जा व्यय दुगना होता, और घोड़े रथ के पीछे जोत दिए जाते तो वे कभी रथ को धकिया ही नहीं पाते। होता यह है कि जब हम किसी वस्तु को धक्का देते हैं तो उस वस्तु पर लगाया गया बल दो भागों में बंट जाता है। एक भाग उस वस्तु को जिस दिशा में हटाया जा रहा है उस दिशा में और दूसरा गुरुत्वाकर्षण की दिशा में। बल का यह दूसरा हिस्सा जो गुरुत्वार्षण की दिशा में लगता है वह वस्तु को पृथ्वी की और दबाता है। वह नष्ट तो होता ही है साथ ही वस्तु को हटाने में बाधा भी पैदा करता है, क्यों कि यह पृथ्वी के केन्द्र की दिशा में लगता है। जो ऊर्जा गुरुत्वाकर्षण की दिशा में यहाँ लगती है उसे हम नकारात्मक ऊर्जा कह सकते हैं। क्यों कि यह नष्ट होते होते भी इच्छित परिणाम के विपरीत काम भी करती है।
इस के विपरीत जब हम उसी वस्तु को इच्छित दिशा में हटाने के लिए खींचते हैं। तो भी बल दो हिस्सों में विभाजित हो जाता है। एक खींचने की दिशा में और दूसरा गुरुत्वाकर्षण के विपरीत। यहाँ पहला हिस्सा तो पहले की तरह इच्छित दिशा में काम करता ही है, दूसरा भाग जो पृथ्वी के केन्द्र की दिशा से विपरीत लगता है वह वस्तु को भूमि से ऊपर उठाता है। इस तरह पहले जो ऊर्जा नष्ट हो कर बाधा पैदा कर रही थी, वह अब काम आती है और वस्तु को इच्छित दिशा की ओर ले जाने में सहजता उत्पन्न करती है।
हमारे कहे गए और लिखे गए शब्दों के साथ भी यही होता है। यदि वे इच्छित दिशा में परिवर्तन को रोकने में इस्तेमाल हो जाते हैं।
मैं ने अपने प्रिय एक साथी चिट्ठाकार के लिए एक टिप्पणी की थी। कि उन में बहुत ऊर्जा है, लेकिन वे नकारात्मक ऊर्जा को साथ लिए चलते हैं और परिणाम शून्य हो जाता है। तब साथी चिट्ठाकार ने जानने के लिए प्रश्न किया कि नकारात्मक ऊर्जा से मेरा क्या तात्पर्य है? मेरा नकारात्मक ऊर्जा से वही तात्पर्य था, जो इस आलेख में स्पष्ट किया है।
शुक्रवार, 2 जनवरी 2009
विराम चिन्हों पर फिर से एक विचार
अनवरत के आलेख अर्धविराम (;), अल्पविराम (,), प्रश्नवाचक चिन्ह(?) और संबोधन चिन्ह (!) कैसे लगाएँ? पर अनेक टिप्पणियाँ हुई। एक अन्य ब्लाग पर एक आलेख में इस पर एक स्नेहासिक्त छेड़ छाड़ भी पढ़ने को मिली। वहाँ जो बात लपेट कर कही गई थी, उस पर मैं उतने ही आदर के साथ टिपिया कर आ गया हूँ।
बैरागी जी, इस मामले को यहीं न छोड़ने के लिए आदेश दिया था। इसलिए फिर से एक संक्षिप्त बात यहाँ कर रहा हूँ।
मैं ने उस आलेख में जो भी कुछ लिखा था, वह न तो व्याकरण से संबंध रखता था और न ही भाषा से। उस का संबंध विराम चिन्हों से भी नहीं था। सभी भाषा को अपने हिसाब से सीखते हैं और अपने हिसाब से लिखते हैं। जो भी लिखता है उस का संबंध अपने लिखे से होता है। लेखक का लेखन एक तरह से लेखक के व्यक्तित्व के एक पक्ष को सामने लाता है। यह प्रत्येक व्यक्ति की अपनी आजादी है कि वह किस तरह से स्वयं को और अपने विचारों को प्रकट करना चाहता है। मेरे आलेख का आशय कतई यह नहीं था कि मैं किसी की अपनी आजादी में दखल देना चाहता हूँ, या किसी की गलती की ओर उस का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ।
मेरा उस आलेख का मंतव्य मात्र इतना ही था कि विराम चिन्ह इस तरह लगें कि पूर्ण विराम वाक्य के अंत में इस तरह लगे कि उस का एक अभिन्न भाग बना रहे। उस से अगले वाक्य का भाग न लगे। विशेष रुप से ऐसा तो कभी न हो कि वाक्य एक पंक्ति में समाप्त हो जाए और पूर्ण विराम अगली पंक्ति के आरंभ में लगा हो और अगला वाक्य वहाँ से आरंभ हो रहा हो।
कंप्यूटर पर आरंभ में जब मैं टाइपिस्ट से टाइप कराने लगा तभी यह समस्या सामने आई थी और तब हम ने उस का हल यही खोज निकाला था कि वाक्य के अंतिम शब्द और पूर्ण विराम के बीच कोई रिक्ती (स्पेस) न छोड़ी जाए। हमने देखा कि बिना कोई स्पेस छोडे़ पूर्ण विराम लगाने के उपरांत एक रिक्ति (स्पेस) छोड़ कर अगला वाक्य प्रारंभ करने पर भी पूर्ण विराम बीच में मध्यस्थ की भांति खड़ा नजर आता है। तो हमने पूर्ण विराम के उपरांत दो रिक्तियाँ (डबल स्पेस) छोड़ना आरंभ कर दिया। इस से टाइपिंग की सुंदरता बढ़ गई और अपरूपता समाप्त हो गई।
बाद में जब मैं ने कम्प्यूटर लिया और खुद टाइपिंग की जरूरत पड़ी तो मैं बाजार से टाइपिंग सिखाने वाली पुस्तक खरीद कर लाया, जो मनोज प्रकाशन मंदिर, 31/8, जागृति विहार, मेरठ द्वारा प्रकाशित है। इस पुस्तक के टंकण गति प्राप्त करने के नियमों में पहला नियम यही है कि, "प्रत्येक विद्यार्थी को हिन्दी तथा अंग्रेजी टंकण में पूर्ण विराम, प्रश्नवाचक चिन्ह, विस्मय बोधक चिन्ह को शब्द के तुरंत बाद लगा कर दो स्पेस छोड़ना चाहिए, अन्यथा आधी गलती मानी जाएगी।"
मैं ने उक्त नियम का पालन किया, और कर रहा हूँ। इस से सुन्दरता बढ़ी है और गति भी। इस पुस्तक में और भी नियम दिए हैं. वे कभी बाद में, आज इतना ही बहुत है। हाँ बेंगाणी जी ने कहा है कि वे पूर्ण विराम के स्थान पर अंग्रेजी में प्रयुक्त होने वाले बिंदु का प्रयोग करते हैं। वह भी सही है क्यों कि कोई चालीस वर्ष पहले यह तय हुआ था कि विराम चिन्ह और अंक अंग्रेजी वाले ही प्रयोग किये जाएँ जिस से सभी भाषाओं में एक रूपता बनी रहे। इस बहुत से प्रकाशनों ने अपनाया। करीब चालीस वर्ष से तो टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशनों में सभी में इन का प्रयोग होता चला आ रहा है। मुझे देवनागरी लिखते समय जिस में सभी अक्षर समान लंबाई के होते हैं पूर्ण विराम के स्थान बिंदु लगाना सौंदर्य की दृष्टि से ठीक नहीं लगा और मैं ने छोड़ दी गई खड़ी पाई को फिर से अपना लिया। कम से कम वह बिना मात्रा के अक्षर के बराबर तो होती है। बिंदु तो नीचे की तरफ वाहन के टायर के नीचे लगाए गए ओट के पत्थर की तरह लगता है। यह मेरी स्वयं की सौंदर्य दृष्टि के कारण ही है। हालांकि मैं भी मानता हूँ कि बेंगाणी जी का सुझाव अधिक उत्तम है। यदि देवनागरी लिखने वाले अधिकांश लेखक बिंदु को पूर्ण विराम की खड़ी पाई के स्थान पर अपना लें तो लिखने पढ़ने वालों की सौंदर्यदृष्टि भी बदलेगी और बिंदु भी सुंदर लगने लगेगा।
बैरागी जी, इस मामले को यहीं न छोड़ने के लिए आदेश दिया था। इसलिए फिर से एक संक्षिप्त बात यहाँ कर रहा हूँ।
मैं ने उस आलेख में जो भी कुछ लिखा था, वह न तो व्याकरण से संबंध रखता था और न ही भाषा से। उस का संबंध विराम चिन्हों से भी नहीं था। सभी भाषा को अपने हिसाब से सीखते हैं और अपने हिसाब से लिखते हैं। जो भी लिखता है उस का संबंध अपने लिखे से होता है। लेखक का लेखन एक तरह से लेखक के व्यक्तित्व के एक पक्ष को सामने लाता है। यह प्रत्येक व्यक्ति की अपनी आजादी है कि वह किस तरह से स्वयं को और अपने विचारों को प्रकट करना चाहता है। मेरे आलेख का आशय कतई यह नहीं था कि मैं किसी की अपनी आजादी में दखल देना चाहता हूँ, या किसी की गलती की ओर उस का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ।
मेरा उस आलेख का मंतव्य मात्र इतना ही था कि विराम चिन्ह इस तरह लगें कि पूर्ण विराम वाक्य के अंत में इस तरह लगे कि उस का एक अभिन्न भाग बना रहे। उस से अगले वाक्य का भाग न लगे। विशेष रुप से ऐसा तो कभी न हो कि वाक्य एक पंक्ति में समाप्त हो जाए और पूर्ण विराम अगली पंक्ति के आरंभ में लगा हो और अगला वाक्य वहाँ से आरंभ हो रहा हो।
कंप्यूटर पर आरंभ में जब मैं टाइपिस्ट से टाइप कराने लगा तभी यह समस्या सामने आई थी और तब हम ने उस का हल यही खोज निकाला था कि वाक्य के अंतिम शब्द और पूर्ण विराम के बीच कोई रिक्ती (स्पेस) न छोड़ी जाए। हमने देखा कि बिना कोई स्पेस छोडे़ पूर्ण विराम लगाने के उपरांत एक रिक्ति (स्पेस) छोड़ कर अगला वाक्य प्रारंभ करने पर भी पूर्ण विराम बीच में मध्यस्थ की भांति खड़ा नजर आता है। तो हमने पूर्ण विराम के उपरांत दो रिक्तियाँ (डबल स्पेस) छोड़ना आरंभ कर दिया। इस से टाइपिंग की सुंदरता बढ़ गई और अपरूपता समाप्त हो गई।
बाद में जब मैं ने कम्प्यूटर लिया और खुद टाइपिंग की जरूरत पड़ी तो मैं बाजार से टाइपिंग सिखाने वाली पुस्तक खरीद कर लाया, जो मनोज प्रकाशन मंदिर, 31/8, जागृति विहार, मेरठ द्वारा प्रकाशित है। इस पुस्तक के टंकण गति प्राप्त करने के नियमों में पहला नियम यही है कि, "प्रत्येक विद्यार्थी को हिन्दी तथा अंग्रेजी टंकण में पूर्ण विराम, प्रश्नवाचक चिन्ह, विस्मय बोधक चिन्ह को शब्द के तुरंत बाद लगा कर दो स्पेस छोड़ना चाहिए, अन्यथा आधी गलती मानी जाएगी।"
मैं ने उक्त नियम का पालन किया, और कर रहा हूँ। इस से सुन्दरता बढ़ी है और गति भी। इस पुस्तक में और भी नियम दिए हैं. वे कभी बाद में, आज इतना ही बहुत है। हाँ बेंगाणी जी ने कहा है कि वे पूर्ण विराम के स्थान पर अंग्रेजी में प्रयुक्त होने वाले बिंदु का प्रयोग करते हैं। वह भी सही है क्यों कि कोई चालीस वर्ष पहले यह तय हुआ था कि विराम चिन्ह और अंक अंग्रेजी वाले ही प्रयोग किये जाएँ जिस से सभी भाषाओं में एक रूपता बनी रहे। इस बहुत से प्रकाशनों ने अपनाया। करीब चालीस वर्ष से तो टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशनों में सभी में इन का प्रयोग होता चला आ रहा है। मुझे देवनागरी लिखते समय जिस में सभी अक्षर समान लंबाई के होते हैं पूर्ण विराम के स्थान बिंदु लगाना सौंदर्य की दृष्टि से ठीक नहीं लगा और मैं ने छोड़ दी गई खड़ी पाई को फिर से अपना लिया। कम से कम वह बिना मात्रा के अक्षर के बराबर तो होती है। बिंदु तो नीचे की तरफ वाहन के टायर के नीचे लगाए गए ओट के पत्थर की तरह लगता है। यह मेरी स्वयं की सौंदर्य दृष्टि के कारण ही है। हालांकि मैं भी मानता हूँ कि बेंगाणी जी का सुझाव अधिक उत्तम है। यदि देवनागरी लिखने वाले अधिकांश लेखक बिंदु को पूर्ण विराम की खड़ी पाई के स्थान पर अपना लें तो लिखने पढ़ने वालों की सौंदर्यदृष्टि भी बदलेगी और बिंदु भी सुंदर लगने लगेगा।
लेबल:
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