@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: निदा फ़ाजली
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रविवार, 18 जनवरी 2009

नाड़े और इज़ारबंद, लटकाने, दिखाने, इतराने और कविता कहने के

आज दीतवार है।   बकौल मराठी माणूस कम और मालवी मिनख ज्यादा के ब्लाग पर उदृत पत्र के लेखक आर डी सक्सेना यह आदित्यवार है।  उधर मालवी में ही नहीं, इधर हाड़ौती में भी इसे दीतवार ही बागते हैं।  मगर हमारे नवीं कक्षा के अंग्रेजी के अध्यापक जी की नजर में इस का रिश्ता अंग्रेजी से भी है।  कक्षा में जब पूछा गया कि कल का सवाल हल कर लाए? तो एक छात्र का उत्तर था, -खाल तो दीतवार छो। (कल तो इतवार था, छुट्टी का दिन)  छात्र से उस का गांव पूछा तो पटना बताया।  पटना से यहाँ कैसे आए? तो जवाब था, पैदल।  अध्यापक जी चकरा गए।  बिहार की राजधानी से राजस्थान तक का सफर रोजाना पैदल?  दूसरे छात्रों ने बताया कि पटना आठ किलोमीटर पर एक गाँव का नाम है जहाँ से वह रोज पढ़ने आता है।  अध्यापक जी बोले, अब समझा यहाँ के लोग वार के पहले दी लगाकर बोलते हैं, दीतवार, दी सोमवार, दी मंगलवार............।

 आज भी दीतवार है, कुछ वक्त का लुत्फ उठाया जा सकता है।

 नए मुकदमे के सब कागज तैयार, अदालत में पेश करने के लिए कवर लगा कर सिलाई का काम ही शेष रह गया।  तभी आवाज आई नाड़ा कहाँ गया?  मुंशी बोल रहा था। सब जगह तलाश करने पर नाड़ा मेज के नीचे पाया गया।  कागजों को सहजते संवारते चुपके से नीचे खिसक गया था।  नाड़ा, यानी फाइल सीने का फीता जो कभी लाल रंग का होता था, आज हरे रंग का होने लगा है ताकि कोई इसे लाल फीताशाही न कहे।  हरी फीताशाही भारत में भी खूब चल रही है।  किसी जमाने में पाकिस्तान की फौजी हुकूमत ने सारे सरकारी फीतों को लाल से हरे रंग में बदल डाला था।  लाल फीताशाही एक ऑर्डर से खत्म हो गई।  फीताशाही वहाँ भी कायम है और यहाँ भी।  शाह अफसर या मंत्री कोई भी हो, फर्क क्या पड़ता है?

अब नाड़े का जिक्र हुआ तो उस के शानदार नाम इज़ारबंद का उल्लेख होना वाजिब है।   तो सीधे ग़ालिब पर ही आ जाएँ।  निदा फ़ाज़ली साहब फरमाते हैं....

इज़ारबंद से ग़ालिब का रिश्ता अजीब शायराना था।  इज़ारबंद दो फारसी शब्दों से बना हुआ एक लफ्ज़ है। इसमें इज़ार का अर्थ पाजामा होता है और बंद यानी बाँधने वाली रस्सी।  ये इज़ारबंद मशीन के बजाय हाथों से बनाए जाते थे और औरतों के इज़ारबंद मर्दों से अलग होते थे। 
औरतों के लिए इज़ारबंद में चाँदी के छोटे छोटे घुँघरु भी होते थे और इनमें सच्चे मोती भी टाँके जाते थे। लखनऊ की चिकन, अलीगढ़ की शेरवानी, भोपाल के बटुवों और राजस्थान की चुनरी की तरह ये इज़ारबंद भी बड़े कलात्मक होते थे। 
ये इज़ारबंद आज की तरह अंदर उड़स कर छुपाए नहीं जाते थे। ये छुपाने के लिए नहीं होते थे।  पुरुषों के कुर्तों या महिलाओं के ग़रारों से बाहर लटकाकर दिखाने के लिए होते थे।  पुरानी शायरी में ख़ासतौर से नवाबी लखनऊ में प्रेमिकाओं की लाल चूड़ियाँ, पायल, नथनी और बुंदों की तरह इज़ारबंद भी सौंदर्य के बयान में शामिल होता था। 
 
ग़ालिब की आदत थी जब रात को शेर सोचते थे तो लिखते नहीं थे।  जब शेर मुकम्मल हो जाता था तो इज़ारबंद में एक गाँठ लगा देते थे। सुबह जाग कर इन गाठों को खोलते जाते थे और इस तरह याद करके शेरों को डायरी में लिखते जाते थे।
फ़ाज़ली साहब ने यहाँ इज़ारबंद से ताल्लुक रखते कुछ मुहावरों का उल्लेख भी किया है, जैसे एक ‘इज़ारबंद की ढीली’  जो उस स्त्री के लिए इस्तेमाल होता है जो चालचलन में अच्छी न हो. फ़ाज़ली साहब ने  इस मुहावरे को इस तरह छंदबद्ध किया है-
जफ़ा है ख़ून में शामिल तो वो करेगी जफ़ा
इज़ारबंद की ढीली से क्या उमीदे वफ़ा


‘इज़ारबंद की सच्ची’ से मुराद वह औरत है जो नेक हो ‘वफ़ादार हो'।  इस मुहावरे का शेर इस तरह है,
अपनी तो यह दुआ है यूँ दिल की कली खिले
जो हो इज़ारबंद की सच्ची, वही मिले

इज़ारबंदी रिश्ते के मानी होते हैं, ससुराली रिश्ता।  पत्नी के मायके की तरफ़ का रिश्ता।
घरों में दूरियाँ पैदा जनाब मत कीजे
इज़ारबंदी ये रिश्ता ख़राब मत कीजे

इज़ार से बाहर होने का अर्थ होता है ग़ुस्से में होश खोना।
पुरानी दोस्ती ऐसे न खोइए साहब
इज़ारबंद से बाहर न होइए साहब

इज़ारबंद में गिरह लगाने का मतलब होता है किसी बात को याद करने का अमल।
निकल के ग़ैब से अश्आर जब भी आते थे
इज़ारबंद में ‘ग़ालिब’ गिरह लगाते थे

ग़ालिब तो रात के सोचे हुए शेरों को दूसरे दिन याद करने के लिए इज़ारबंद में गिरहें लगाते थे और उन्हीं के युग में एक अनामी शायर नज़ीर अकबराबादी इसी इज़ारबंद के सौंदर्य को काव्य विषय बनाते थे।
कबीर और नज़ीर को पंडितों तथा मौलवियों ने कभी साहित्यकार नहीं माना।  कबीर अज्ञानी थे और नज़ीर नादान थे।   इसलिए कि वो परंपरागत नहीं थे।  अनुभव की आँच में तपाकर शब्दों को कविता बनाते थे।
नज़ीर मेले ठेलों में घूमते थे।  जीवन के हर रूप को देखकर झूमते थे. इज़ारबंद पर उनकी कविता उनकी भाषा का प्रमाण है। उनकी नज़्म के कुछ शेर -
छोटा बड़ा, न कम न मझौला इज़ारबंद
है उस परी का सबसे अमोला इज़ारबंद
गोटा किनारी बादल-ओ- मुक़्क़ैश के सिवा
थे चार तोला मोती जो तोला इज़ारबंद
धोखे में हाथ लग गया मेरा नज़ीर तो
लेडी ये बोली जा, मेरा धो ला इज़ारबंद

तो ये हुआ इस दीतवार लुत्फ़िया।  इस में बीबीसी और निदा फ़ाजली साहब का उल्लेख हुआ है और इस्तेमाल भी।  दोनों का बहुत बहुत शुक्रिया।