स्वामी जी ने अद्वैत वेदांत के दर्शन को जिस सरल तरीके से दुनिया को समझाया वह अद्भुत ही है। यहाँ तक कि उन्होने भौतिक विज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान के बीच की बहुत महीन रेखा को भी ध्वस्त कर दिया। मुझे तो उन्हें पढ़ने और समझने के दौरान यह भी समझ आया कि नास्तिकता और आस्तिकता भी कृत्रिम भेद हैं। स्वामी जी तो यहाँ तक भी कह गए कि न कोई चिरंतन स्वर्ग है और न ही चिरंतन नर्क।
मुझे जब ग्यारहवीं कक्षा के इम्तहान में हिन्दी का पर्चा मिला तो उस का पहला प्रश्न गद्यांश था। जिस में कहा गया था कि, 'औरों को देख कर अपने मार्ग का निश्चय न करो, अपने लिए रास्ते का निर्माण खुद करो। स्वामी जी एक स्थान पर कहते हैं...
प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपना आदर्श ले कर उसे अपने जीवन में ढालने का प्रयत्न करे। बजाय इस के कि वह दूसरों के आदर्शों को ले कर चरित्र गढ़ने की चेष्ठा करे, अपने ही आदर्श का अनुसरण करना सफलता का अधिक निश्चित मार्ग है। संभव है, दूसरे का आदर्श वह अपने जीवन में ढालने में कभी समर्थ न हो। यदि हम किसी नन्हें बालक को एक दम बीस मील चलने को कह दें, तो वह या तो मर जाएगा या हजार में से एक रेंगता रांगता वहाँ तक पहुँचा तो भी वह अधमरा हो जाएगा। बस हम भी संसार के साथ ऐसा ही करने का प्रयत्न करते हैं। किसी समाज के सब स्त्री-पुरुष न एक मन के होते हैं, न एक योग्यता के और न एक ही शक्ति के। अतऐव उनमें से प्रत्येक का आदर्श भी भिन्न भिन्न होना चाहिए; और इन आदर्शों में से एक का भी उपहास करने का हमें कोई अधिकार नहीं। अपने आदर्श को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक को जितना हो सके यत्न करने दो। फिर यह भी ठीक नहीं कि मैं तु्म्हारे अथवा तुम मेरे आदर्श द्वारा जाँचे जाओ। आम की तुलना इमली से नहीं होनी चाहिए और न इमली की आम से। आम की तुलना के लिए आम ही लेना होगा, और इमली के लिए इमली। इसी प्रकार हमें अन्य सब के संबंध में भी समझना चाहिए।
बहुत्व में एकत्व ही सृष्टि का नियम है। प्रत्येक स्त्री-पुरुष में व्यक्तिगत रूप से कितना ही भेद क्यों न हो, उन सब के पीछे वह एकत्व ही विद्यमान है। स्त्री-पुरुषों के भिन्न चरित्र एवं उन की अलग-अलग श्रेणियाँ सृष्टि की स्वाभाविक विभिन्नता मात्र हैं। अतएव एक ही आदर्श द्वारा सब की जाँच करना अथवा सब के सामने एक ही आदर्श रखना किसी भी प्रकार से उचित नहीं है। ऐसा करने से केवल एक अस्वाभाविक संघर्ष उत्पन्न हो जाता है और फल यह होता है कि मनुष्य स्वयं से ही घृणा करने लगता है तथा धार्मिक एवं उच्च बनने से रुक जाता है। हमारा कर्तव्य तो यह है कि हम प्रत्येक को उस के अपने उच्चतम आदर्श को प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करें, तथा उस आदर्श को सत्य के जितना निकटवर्ती हो सके लाने का यत्न करें।
आज हम जिस तरह अपने आदर्श को ही सब के लिए सर्वोपरि मानने पर चल पड़े हैं उस ने मानव जीवन में अनेक संघर्षों को जन्म दे दिया है। मेरा इशारा ठीक ही धर्म और संप्रदायों के व्यवहार की ओर है। जब कि यहाँ स्वामी जी की आदर्श से तात्पर्य धर्म से ही है। जो अनिवार्यतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए भिन्न होगा, उस के मन,योग्यता और शक्ति के अनुरूप।