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शनिवार, 20 जुलाई 2019

हस्तलिपि

वकालत में 40 साल से ऊपर हो गए हैं। कॉलेज छोड़े भी लगभग इतना ही अरसा हो गया। वकालत के शुरू में हाथ से बहुत लिखा। उस वक्त तो दरख्वास्तें और दावे भी हाथ से लिखे जा रहे थे। टाइप की मशीनें आ चुकी थीं। फिर भी हाथ से लिखने का काम बहुत होता था। मैं टाइप कराने के पहले दावे हाथ से लिखता था। कई बार लिखते लिखते बीच में एक पैरा भी गलत हो जाता तो मैं सारे कागज फाड़ कर उसे शुरू से दोबारा लिखने बैठता। कई बार एक ही दावे को इसी तरह तीन-तीन बार शुरू से वापस लिखा। साल 2007 में कंप्यूटर मेरे पल्ले पड़ा। 2008 के आखिर में यह स्थिति हो गई के मैं दावे और अपनी वकालत का लगभग सारा काम अपने कंप्यूटर पर करने लगा। इस तरह लिखना कम हो गया। इसका सीधा असर मेरी हस्तलिपि पर पड़ा। हालांकि अब भी मैं अक्सर अदालत में तुरंत कोई दरख्वास्त देने की जरूरत होती है तो सीधे लेजर पेपर पर हाथ से लिखता हूं और प्रतिलिपियों के लिए उनकी फोटो प्रति करवा लेता हूं। जिस से अभी तक मेरी हस्तलिपि ठीक-ठाक बनी हुई है। हस्तलिपि पर एक बुरा असर बॉल पॉइंट पेन ने भी डाला है। जब तक होल्डर या निब वाले फाउंटेन पेन थे, तब तक हाथ से लिखने का आनंद कुछ और ही था।

उस साल मैंने कॉलेज में दाखिला लिया ही था। कॉलेज उसी इमारत की दूसरी मंजिल पर चलता था जिसके भूतल पर हमारा उच्च माध्यमिक विद्यालय था। स्कूल से पूरी तरह नाता टूट चुका था। बस 15 या 20 ₹ कॉशन मनी के जमा थे। एक दिन कॉलेज में दो पीरियड एकदम खाली थे। उस खाली समय में मैं क्या करूं, यह समझ नहीं आ रहा था। स्कूल में मेरे फूफाजी क्राफ्ट के अध्यापक थे और उन्हें प्रयोगशाला के लिए एक बड़ा सा हॉल और एक कमरा मिला हुआ था। मैं समय गुजारने उनके पास उसी प्रयोगशाला में पहुंच गया। अचानक मुझे याद आया कि मेरी कॉशन मनी अभी तक मैंने स्कूल से वापस नहीं ली है। तो सोचा, एक दरख्वास्त लिखकर दे दूं तो इतना समय है कि कॉशन मनी आज ही वापस मिल जाएगी।

Image result for विद्यार्थी और प्रधानाध्यापकप्रयोगशाला में रखी हुई छात्रों की पुरानी कॉपियों से एक कागज निकाला। कागज सामान्य साइज से बहुत बड़ा था, जैसा प्रैक्टिकल वाली कापियों का होता है। मुझे उसमें मुश्किल से 4 पंक्तियों की दरख्वास्त लिखनी थी। उस हिसाब से कागज बहुत बड़ा था। मैंने ऊपर, दाएं, बाएं ठीक-ठाक हाशिया छोड़ा। जिस से दरख्वास्त ठीक बीच में लिखी जाए और दरख्वास्त लिखना शुरू किया। हस्तलिपि ठीक-ठाक थी और भाषा भी अच्छी। मैं दरख्वास्त लिख कर सीधे स्कूल प्रिंसिपल के पास पहुंचा। वे अपने दफ्तर में अकेले थे। उन्होंने दरखास्त देखी, पूरी पढ़ी और आंखों से चश्मा हटा कर सीधे मेरी आँखों में देखते हुए पूछा - यह दरख्वास्त तुमने लिखी है? 

मैंने कहा- बिल्कुल मैंने ही लिखी है। 
उन्होंने दोबारा पूछा और उन्हेंं मुझ से फिर वही जवाब मिला।


तब तक पीरियड खत्म होने की घंटी बज गई और अध्यापक खत्म हुए पीरियड की कक्षा के उपस्थिति रजिस्टर रखने और अगली कक्षा के लेने के लिए प्रिंसिपल के कार्यालय में आने लगे। प्रिंसिपल ने एक वरिष्ठ अध्यापक से मेरी दरखास्त दिखाकर कहा- देखिए दास साहब! यह दरख्वास्त इस बच्चे ने लिखी है। 

दास साहब ने दरख्वास्त देखकर कहा -मैं इसे जानता हूं। पिछले साल मैं ही इसका कक्षा अध्यापक था। यह इसी ने लिखी है। 

उसके बाद प्रिंसिपल साहब ने मेरी दरख्वास्त उनके कार्यालय में आने वाले हर अध्यापक को दिखाई और फिर कहा कि मैं आप लोगों को यह दरख्वास्त इसलिए दिखा रहा हूं कि यह इस बच्चे ने लिखी है। जबकि हमारे स्टाफ में से किसी की भी लिखी हुई इतनी खूबसूरत दरख्वास्त मैंने आज तक नहीं देखी। खैर।


स्टाफ के चले जाने के बाद प्रिंसिपल साहब मुझे लेकर खुद केशियर के पास गए और उसे कहा कि वह तुरंत मेरी कॉशन मनी वापस लौटा दे। इसके बाद वे स्कूल के राउंड पर चले गए। केशियर कोई जरूरी काम कर रहा था। उसने मुझे पूछा- भैया मैं हाथ का काम निपटा कर तुम्हारी कॉशन मनी दे दूंगा, तुम्हें जल्दी तो नहीं है‌? मैंने उन्हें कहा- मुझे कोई जल्दी नहीं है? आप आराम से दीजिए। कैशियर को अपना काम निपटाने में 15-20 मिनट लग गए। तब तक प्रिंसिपल साहब स्कूल का राउंड लगा कर वापस आ गए। उन्होंने केशियर को लगभग डांटते हुए पूछा, तुमने अभी तक इसकी कॉशन मनी वापस नहीं लौटाई?

वे जवाब देते उसके पहले ही मैंने उन्हें बताया कि मैंने ही इन्हें हाथ का काम निपटा कर देने के लिए कहा था, इसलिए देर हो गई। प्रिंसिपल साहब ने मेरी ओर देखा फिर केशियर को कहा, ठीक है तुम अपना काम कर लो। लेकिन इस बच्चे को ज्यादा देर मत बिठाओ। आगे इसे कॉलेज की क्लास भी अटेंड करनी है। कैशियर ने मुझे अपना काम छोड़ उसी समय प्रिंसिपल साहब के सामने ही कॉशन मनी की राशि मुझे दे दी।

मुझे यह घटना अभी तक भी इसलिए याद है कि अच्छी हस्तलिपि से सुंदर तरीके से लिखे जाने का इससे अच्छा सम्मान मैंने अपने जीवन में फिर कभी नहीं देखा।

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

जरूरी सरकारी कर्तव्यों में बाधा के चक्कर

कल जब मैं जिला न्यायालय से सड़क पार कलेक्ट्री परिसर में उपभोक्ता मंच की ओर जा रहा था तो रास्ते में टैगोर हॉल के बाहर पुराने स्कूल के जमाने के मित्र मिल गए, उन के साथ ही मेरा एक भतीजा भी था।  दोनों ही अलग अलग पंचायत समितियों में शिक्षा अधिकारी हैं।  दोस्त से दोस्त की तरह और भतीजे से भतीजे की तरह मिलने के बाद दोस्त से पूछा -यहाँ कैसे? जवाब मिला -मीटिंग थी।

अब? दूसरी मीटिंग है।  वे आपस में जो चर्चा कर रहे थे वे शायद मिड-डे-मील से संबंधित थीं।  मैं ने कहा तुम्हें भी अध्ययन के साथ मील में फंसा दिया।  हाँ अभी मील की मीटिंग से आ रहे हैं।  इस के बाद चुनाव की मीटिंग है, लोकसभा चुनाव की तैयारियाँ जोरों पर हैं।  मैं ने पूछा -और शिक्षा? तो उन का कहना था कि उस की मीटिंग परीक्षा परिणामों के उपरांत जून जुलाई में होगी।  वह यहाँ नहीं होगी।  प्रशासन को शिक्षा से क्या लेना देना?

वे और मैं दोनों ही जल्दी में थे, सो चल दिए अपने अपने कामों पर।

दोपहर बाद जब काम लगभग सिमट गया सा था, केवल एक अदालत से एक दस्तावेज हासिल करना भर रह गया था और आधे घंटे की फुरसत थी।  हम  हफ्ते भर बाद निकली साफ धूप का आनंद लेने एक तख्ते पर बैठे बतिया रहे थे।  पास वाले वरिष्ठ वकील बाहर गए हुए थे, उन के दो कनिष्ठ साथ थे।  एक कनिष्ठ जिस की पत्नी शिक्षिका हैं, सुनाने लगा....

"भाई साहब! मेरी पत्नी जिस स्कूल में अध्य़ापिका है वहाँ कुल तीन अध्यापिकाएँ हैं और पहली से ले कर पाँचवीं कक्षा तक कुल डेढ़ सौ विद्यार्थी।  तीन में से एक छह माह के लिए प्रसूती अवकाश पर चली गई है।  एक की ड्यूटी चुनाव के लिए जिला चुनाव अधिकारी के यहाँ लगा दी गई है।  अब एक अध्यापिका कैसे स्कूल को संभाले।  बीमार हो जाए तब भी स्कूल तो जैसे तैसे जाना ही होगा।  उसे बंद तो नहीं किया जा सकता।  इस बात को बताने के लिए वह शिक्षा अधिकारी के कार्यालय स्वयं आ भी नहीं सकती।  आए तो स्कूल कौन देखे?चिट्ठी पत्री को कोई महत्व नहीं है।

पास के गांव के स्कूल में चार अध्यापिकाएँ हैं और छात्र केवल नौ।  उस विद्यालय से एक अध्यापिका को अस्थाई तौर पर मेरी पत्नी वाले स्कूल में लगवा देने से काम चल सकता है।  मेरी पत्नी ने उस स्कूल की एक अध्यापिका को इस के लिए मना कर उस से लिखवा भी लिया है।  उस स्कूल के प्रधानाध्यापक ने भी उस पर अनापत्ति लिख दी है।  उस पत्र को  देने के लिए दो हफ्ते पहले शिक्षा अधिकारी के दफ्तर में मुझे जाना पड़ा शिक्षा अधिकारी ने हाँ भी कह दी। कहा एक दो दिन में आदेश आ जाएगा।  चार दिन में आदेश न आने पर मैं फिर उन से मिला।  तो कहने लगे, - मैं जरा कुछ अर्जेंट कामों में उलझ गया था।  आप कुछ देर रुको।  मैं वहाँ पौन घंटा रुका।  लेकिन शिक्षा अधिकारी फिर अपने कामों में भूल गए।  याद दिला ने पर बोले, -अभी आदेश निकलवाता हूँ।   बाबू को बुलवाया तो पता लगा कि वह जरूरी रिपोर्टें ले कर कलेक्ट्री गया हुआ है।  मुझे दो दिन बाद आदेश के बारे में पता करने को कहा गया है।  फिर चार दिन बाद कोई व्यवस्था न होने पर उन से मिला तो कहा,  बाबूजी अवकाश पर हैं आप को आने की जरूरत नहीं है आदेश दूसरे दिन अवश्य ही निकल जाएगा।  तीन दिन गुजरने पर भी जब आदेश नहीं आया तो मैं फिर वहाँ पहुँचा।  इस बार मुझे देखते ही शिक्षा अधिकारी बोले।  अरे! आप का आदेश अभी नहीं पहुँचा। ऐसा कीजिए आप बाबू जी से मिल लीजिए और खुद ही आदेश लेते जाइए।  मैं बाबू के पास पहुँचा तो वह मुझे वहीं बैठा कर फाइल ले कर शिक्षा अधिकारी के यहाँ गया। बीस मिनट में वापस लौटा।  फिर आदेश टाइप किया,  उस पर हस्ताक्षर करवाकर लाया और डिस्पैच रजिस्टर में चढ़ा कर मुझ से पूछा कि आप कौन हैं?  बताने पर उस ने आदेश देने से मना कर दिया कि आप विभागीय कर्मचारी नहीं है। आदेश डाक से भिजवा देंगे, कल आप को मिल जाएगा।

इस तरह मेरे चार-पांच चक्कर लगाने के बाद भी आदेश नहीं मिला, अब देखते हैं कि कल मिलता है या नहीं।" 

मैं ने उस से पूछा -शिक्षा अधिकारी कौन है? तो उस ने मेरे मित्र का नाम बताया।  मैं भौंचक्का रह गया।

मैं ने  शाम को अपने मित्र से बात की तो कहने लगा।  यार! भैया, बहुत चक्कर हैं, इस नौकरी में।  पहले देखना पड़ता है कि  इस तरह के आदेश से किसी को कोई एतराज तो नहीं है।  वरना यहाँ जिला मुख्यालय पर टिकना मुश्किल हो जाए।  पहले तुमने बताया होता तो उसे यहाँ तक आने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

आज मैं ने उस कनिष्ठ वकील से पूछा कि क्या वह आदेश पहुँच गया? तो उस ने बताया कि आदेश रात को ही चपरासी घर पहुँचा गया था।

मुझे अभी भी समझ नहीं आ रहा है कि यह सामान्य प्रशासन का आदेश देना और इस तरह की व्यवस्थाएँ करना तो उस का खुद का कर्तव्य था।  इस के लिए उस की माहतत शिक्षिका के पति को चार-पाँच चक्कर क्यों लगाने पड़े? और पहली ही बार में वह आदेश जारी क्यों नहीं कर दिया गया।  वे कौन से चक्कर हैं जो जरूरी विभागीय कर्तव्यों में इस तरह बाधा बन जाते हैं।

भारत के भावी कर्णधारों की परवाह कौन कर रहा है?

रविवार, 14 दिसंबर 2008

कभी नहीं भूलेगा, स्कूल में हुई धुनाई का दिन

शास्त्री जी ने अध्यापकों से सजा-पिटाई के किस्से अध्यापक या जल्लाद ?  और अध्यापकों ने दिया धोखा ! उन के ब्लाग सारथी पर लिखे हैं। पढ़ कर मुझे स्कूल में हुई अपनी धुनाई का किस्सा याद आ गया। ये उन दिनों की बात है जब सब से अधिक मारपीट करने वाले अध्यापक को सब से श्रेष्ठ अध्यापक समझा जाता था। ऐसे अध्यापक के जिम्मे छोड़ कर माता पिता अपने हाथों से बच्चों को मारने पीटने की जिम्मेदारी का एक हिस्सा अध्यापकों को हस्तांतरित कर देते थे। यह दूसरी बात है कि कुछ जिम्मेदारी वे हमेशा अपने पास रखते थे।


हर साल मध्य मई से दिवाली तक हम दादा जी के साथ रहते थे और दिवाली से मध्य मई में गर्मी की छुट्टियाँ होने तक हम पिता जी के साथ रहते। पिता जी हर साप्ताहिक अवकाश में दादा जी और दादी को संभालने आते थे। फिर पिता जी को बी.एड़. करने का अवकाश मिला तो वे साल भर बाहर रहे। हमें पूरे साल दादा जी के साथ रहना पड़ा था। उसी साल छोटी बहिन ने जन्म लिया, तब मैं पांचवीं क्लास  में था। पिता जी बी.एड. कर के आए तो हमें जुलाई में ही अपने साथ सांगोद ले गए। वे कस्बे के सब से ऊंची शिक्षा के विद्यालय, सैकण्डरी स्कूल के सब से सख्त अध्यापक थे। हालांकि वे बच्चों की मारपीट के सख्त खिलाफ थे। लेकिन अनुशासन टूटने पर दंड देना भी जरूरी समझते थे। स्कूल का लगभग हर काम उन के जिम्मे था। स्कूल का पूरा स्टाफ उन्हें बैद्जी कहता था, वे आयुर्वेदाचार्य थे और मुफ्त चिकित्सा भी करते थे। बस वे नाम के हेड मास्टर नहीं थे। हेड मास्टर जी को इस से बड़ा आराम था। वे या तो दिन भर  में एक-आध क्लास लेने के लिए अपने ऑफिस से बाहर निकलते थे या फिर किसी फंक्शन में या कोई अफसर या गणमान्य व्यक्ति के स्कूल में आ जाने पर। सब अध्यापकों का मुझे भरपूर स्नेह मिलता।

उस दिन ड्राइंग की क्लास छूटी ही थी कि पता नहीं किस मामले पर एक सहपाठी से कुछ कहा सुनी हो गई थी। मुझे हल्की से हल्की गाली भी देनी नहीं आती थी। ऐसा लगता था जैसे मेरी जुबान जल जाएगी। एक बार पिता जी के सामने बोलते समय एक सहपाठी ने चूतिया शब्द का प्रयोग कर दिया था, तो मुझे ऐसा लगा था जैसे मेरे कानों में गर्म सीसा उड़ेल दिया गया हो। उस सहपाठी से मैं ने बोलना छोड़ दिया था, हमेशा के लिए। ड्राइंग क्लास के बाद जब उस सहपाठी से झगड़ा हुआ तो उस ने मुझे माँ की गाली दे दी। मेरे तो तनबदन में आग लग गई। मैं ने उस का हाथ पकड़ा और ऐंठता चला गया। इतना कि वह दोहरा हो कर चिल्लाने लगा। दूसरे सहपाठियों ने उसे छुड़ाया।


वह सहपाठी सीधा बाहर निकला। मैदान में हेडमास्टर जी और पिताजी खड़े आपस में कोई मशविरा कर रहे थे। वह सीधा उन के पास पहुंचा। मैं डरता न था तो पीछे पीछे मैं भी पहुँच गया मेरे पीछे क्लास के कुछ और छात्र भी थे। उस ने सीधे ही हेडमास्टर जी से शिकायत की कि उसे दिनेश ने मारा है। हेडमास्टर जी ने पूछा कौन है दिनेश? उस ने मेरी और इशारा किया ही था कि मुकदमे में दंड का निर्णय सुना दिया गया की मैं दस दंड बैठक लगाऊँ। यूँ दण्ड बैठक लगाने में मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। उस से सेहत भी बनती थी। पर मुझे बुरा लगा कि मुझे सुना ही नहीं गया। मैं ने कहा मेरी बात तो सुनिए। यह स्पष्ट रूप से राजाज्ञा का उल्लंघन था। यह राज्य के मुख्य अनुशासन अधिकारी, यानी पिता जी से कैसे सहन होता। उन्हों ने धुनाई शुरू कर दी। उम्र का केवल आठवाँ बरस पूरा होने को था। रुलाई आ गई। रोते रोते ही कहा -पहले उसने मेरी माँ को गाली दी थी।

  माँ का नाम ज़ुबान पर आते ही धुनाई मशीन रुकी। तब तक मेरी तो सुजाई हो चुकी थी। पिताजी एक दम शिकायतकर्ता सहपाठी की और मुड़े और उस से कहा -क्य़ो? उस के प्राण एकदम सूख गए। वह डर के मारे पीछे हटा। शायद यह उस की स्वीकारोक्ति थी। वह तेजी पीछे हटता चला गया। पीछे बरांडे का खंबा था जिस में सिर की ऊँचाई पर पत्थर के कंगूरे निकले हुए थे। एक कंगूरे के कोने से उस का सिर टकराया और सिर में छेद हो गया। सिर से तेजी से खून निकलने लगा। पिताजी ने आव देखा न ताव, उसे दोनों हाथों में उठाया और अपनी भूगोल की प्रयोगशाला में घुस गए। कोई अंदर नहीं गया। वहाँ उन का प्राथमिक चिकित्सा केंद्र भी था। जब दोनों बाहर निकले। तब शिकायकर्ता के सिर पर अस्पताल वाली पट्टी बंधी थी और पिताजी ने उसे कुछ गोलियाँ खाने को दे दी थीं। अगली क्लास शुरू हो गई थी। मास्टर जी कह रहे थे। आज तो बैद्जी ने बच्चे को बहुत मारा। मेरे क्लास टीचर के अलावा पूरे स्टाफ को पहली बार पता लगा था कि जिस लड़के को वै्दयजी ने मारा वह उन की खुद की संतान था।

शिकायत कर्ता लड़के ने ही नहीं मेरी क्लास के किसी भी लड़के ने मेरे सामने किसी को गाली नहीं दी। वे मेरे सामने भी वैसे ही रहते, जैसे वे मेरे पिताजी के सामने रहते थे। शिकायत करने वाले लड़के से मेरी दोस्ती हो गई और तब तक रही जब तक हम लोग सांगोद कस्बे में रहे।