@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: विद्यालय
विद्यालय लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
विद्यालय लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 9 जून 2018

बिकाऊ-कमाऊ की जगह कैसे हो सब के लिए मुफ्त शिक्षा?



यूँ तो हर कोई सोचता है कि एक अखबार खबरों का वाहक होता है। लेकिन जब मैं आज सुबह का अखबार पढ़ कर निपटा तो लगा कि आज का अखबार खबरों के वाहक से अधिक खुद खबर बन चुका है। अखबार के पहले तीन पृष्ठ पूरी तरह विज्ञापन थे। इन में जो विज्ञापन थे वे सभी कोचिंग कालेज, निजी शिक्षण संस्थानों और निजी विश्वविद्यालयों के थे। ये सभी विज्ञापन ऐसे नहीं थे जैसे अक्सर विद्यार्थियों की भर्ती की सूचना के लिए निकलते हैं। ये विज्ञापन रंगे –चुंगे थे, बिलकुल वसन्त में पौधों और वृक्षों पर खिले उन फूलों की तरह जो तरह तरह के कीटों को इसलिए आकर्षित करते हैं कि कीट आएँ और उन में परागण की प्रक्रिया को पूरा कर जाएँ, वे पौधे और वृक्ष जल्दी ही फलों से लद कर अमीर हो जाएँ। 

आज के अखबार ने खुद अपनी हालत से यह खबर दी है कि, खबरों से बढ़ कर व्यवसाय है, किसी भी वस्तु की गुणवत्ता से अधिक मूल्य उस की बिकने की क्षमता में है। कोई भी व्यवसायी बड़ा व्यवसायी तब है जब वह बेहतरीन मालों के मुकाबले अपना सड़ा हुआ माल लोगों को सफलता से बेच लेता है। गुणवत्ता वाला माल तो कोई भी बेच सकता है उस में कोई कला नहीं। असली कला तो इस बात में है कि बिना गुणवत्ता वाला बेचा जा सके। जीवन के लिए बेहद जरूरी सामान बेच डालने में कोई कला नहीं है, कला इस बात में है कि कतई गैर जरूरी सामान बेजा जाए और खरीददार उसे जरूरी चीजों पर तरजीह दे कर खरीद ले। यही वे सर्वोपरि मूल्य है जो पूंजीवाद ने विगत पचास सालों में स्थापित किए हैं।

आज से साठ बरस पहले, जब वाकई नेहरू का जमाना था। तब एक बच्चा बिना स्कूल में दाखिला लिए रोज बस्ता ले कर स्कूल जाता था, इस लिए कि वह अभी पूरे चार बरस का भी नहीं था और स्कूल में दाखिला केवल पाँच बरस का पूरा होने पर ही हो सकता था। वह पूरे बरस स्कूल जाता रहा। एक अध्यापक ने उसे टोका कि उस का नाम रजिस्टर में नहीं है तो वह क्लास में कैसे बैठा है। बच्चा रुआँसा सा कक्षा के बाहर आ कर खड़ा हुआ तो हेड मास्टर ने राउंड पर देख लिया और सारी बात पता लगने पर उस अध्यापक को डाँट खानी पड़ी कि स्कूल अध्ययन के लिए है यदि कोई बिना दाखिला लिए भी क्लास में पढ़ने के लिए बैठता है तो उसे वहाँ से हटाने का कोई अधिकार नहीं है। आज का जमाना दूसरा है, यदि फीस नियत दिन तक जमा नहीं की जाए तो विद्यार्थी को अगले दिन से क्लास में बैठने की इजाजात नहीं होती। 

उच्च शिक्षा की स्थिति और खतरनाक है। हमारे जमाने में एक ठेला चलाने या मंडी में माल ढोने वाला मजदूर यह सपना देख सकता था कि वह उस के बेटे बेटी को डाक्टर या इंजिनियर बना सकता है। उस का बच्चा किसी सरकारी स्कूल में पढ़ कर भी किसी मेडीकल या इंजिनियरिंग कालेज में दाखिला पा सकता था, पाता था और पढ़ कर डाक्टर इंजिनियर भी बनता था। आज स्थिति बिलकुल विपरीत है। तीन साल पहले मेरे परिवार के एक बच्चे ने मेडीकल एंट्रेंस के लिए तैयारी करना शुरू किया था तब हम भी सोचते थे कि वह एडमीशन पा लेगा। लेकिन प्रवेश परीक्षा पास कर लेने पर और कालेजों में कुल खाली सीटों की संख्या के बराबर वाली पात्रता सूची में आधे से ऊपर नाम होने पर भी स्थिति यह रही कि कालेज की फीस भर पाना मुमकिन नहीं था। मित्रों ने कहा कि उसे एक साल और तैयारी करनी चाहिए जिस से वह मेरिट में ऊपर चढ़े और किसी कम फीस वाले कालेज में दाखिला ले सके। लेकिन उस ने मना कर दिया और अपने ही शहर के पीजी कालेज में बीएससी में दाखिला ले लिया। मेरे पूछने पर उस ने बताया कि सरकारी कालेज की फीस इतनी है कि उसे चुकाने में परिवार की कुल आमदनी भी पर्याप्त नहीं है। फिर बाकी घर कैसे चलेगा। 

अब हालात ये हैं कि डाक्टर और इंजिनियर बनने के लिए पहले एक बच्चा साल दो साल कोचिंग करे। उस में दो-चार लाख खर्च करे। फिर एडमीशन के लिए भटकता फिरे कि उस की हैसियत का कोई कालेज है कि नहीं। एक मध्यम वर्गीय परिवार की पहुँच से शिक्षा केवल इसलिए हाथ से निकल जाए कि वह फीस अदा नहीं कर सकता तो समझिए कि शिक्षा सब से अधिक बिकाऊ और कमाऊ कमोडिटी बन गयी है। हर साल महंगी से और महंगी होती जा रही है। वह अब केवल उच्च और उच्च मध्यम वर्ग मात्र के लिए रह गयी है। 

आजाद भारत के आरंभिक सालों में एक सपना देखा गया था कि जल्दी ही हम शिक्षा और स्वास्थ्य को पूरी तरह निशुःल्क कर पाएंगे। लेकिन वह सपना आजादी के पहले तीस सालों में ही भारतीय आँखों से विदा हो गया। यह नेहरू के बाद की राजनीति की देन है। पिछले पाँच सालों की राजनीति ने उसे पूरी तरह कमाऊ-बिकाऊ कमोडिटी बना डाला है। आज जो राजनीति चल रही है वह इस पर कतई नहीं सोचती। शिक्षा राजनैतिक विमर्श से दूर चली गयी है। माध्यमिक शिक्षा पर कुछ काम दिल्ली में दिल्ली की राज्य आप पार्टी की सरकार ने पिछले दिनों जरूर किया है उस ने अपने अधिकतम संसाधनों का उपयोग किया। उस की उपलब्धियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं। लेकिन वे भी ऊँट के मुहँ में जीरा मात्र है। इस से देश का काम नहीं चल पाएगा। 

आज जरूरत इस बात की है कि राजनीति के सबसे महत्वपूर्ण सवालों में शिक्षा का सवाल शामिल हो और लक्ष्य यह स्थापित किया जाए कि अगले दस सालों में हम देश के नागरिकों को संपूर्ण मुफ्त शिक्षा उपलब्ध करा सकें। यह साल कुछ महत्वपूर्ण प्रान्तों की विधानसभाओँ और लोकसभा चुनने का साल है। इस साल में राजनीति रोहिणी के सूरज की तपन की तरह अपने उच्च स्तर पर होगी। देखते हैं राजनीति की इस गर्मी में सब के लिए सारी शिक्षा मुफ्त का नारा कहीं स्थान पाता है या नही? या फिर वह ताल, तलैयाओँ, झीलों और नदियों की तरह सूख जाने वाला है?

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

जहाँ मैं ने पैदल चलना शुरू किया

पिछली चार पोस्टें (बाकी पूजा तू झेलपूर्वजों के गाँव में ...गैता का नगर राज्य और महाराज की बगीची और अपने पूर्वजों के गाँव की बगीची और उस के मंदिर हमारी 10 अप्रेल 2011 की  ग्राम यात्रा से संबंधित थीं। अगले दिन अवकाश नहीं था, अदालत जाना था। उस से अगले दिन रामनवमी का अवकाश था। बहुत दिनों से एक कर्ज था जिसे उतारना था। बचपन में कभी बेटी अस्वस्थ हुई थी तो अम्मा ने कहा था कि मैं ने संकल्प लिया है कि इसे एक बार अवश्य इंद्रगढ़ माताजी के यहाँ ढुकाउंगी। कमजोर और भावुक क्षणों  में ऐसे संकल्प कर लेना भारतीय जन की आम आदत है। अम्मा का घूमने का चाव भी इसी तरह पूरा होता है। यदि वे साल में ऐसे एक-दो संकल्प न करती रहती तो शायद उन्हें घर परिवार से बाहर जाने का अवसर ही नहीं मिलता। इस बार पत्नीजी ने कहा कि बच्चे घर पर हैं, अवकाश भी है, इस ऋण से भी मुक्त हुआ जाए। मुझे भी उस क्षेत्र में जाने का अवसर वर्षों से न मिला था। वहाँ एक वकील मित्र और दो पुराने मुवक्किलों से मिलने की इच्छा थी। मैं ने पत्नी जी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 
यात्रा के मार्ग के खेत, गेहूँ काटा जा चुका है
 ब हम गैंता से लौट रहे थे तो बीच में एक और पुराना कस्बा सुल्तानपुर पड़ता था। डूंगरली जाते समय पत्नी जी ने यहाँ की एक दुकान पर माताजी को चढ़ाने के कपड़े सजे देख लिए थे। वे कह रही थीं कि वहाँ से हमें माताजी के कपड़े लेने हैं। जैसे ही सुल्तानपुर आया मैं ने दुकान देखना आरंभ किया। जैसे ही वह दुकान दिखी मैं ने पास ही कार पार्क कर दी। पत्नी जी दुकान में प्रवेश कर गईं। मैं कॉफी के लिए दुकान तलाशने लगा। आखिर एक दिखी तो मैं ने वहाँ कॉफी बनाने को कहा और पास की दुकान पर पान बनवाने लगा। अचानक मुझे स्मरण हो आया कि इसी कस्बे में दाहजी (दादाजी) का विद्यार्थी जीवन गुजरा था। दाहजी के पिताजी खेड़ली छोड़ गैंता आ गए थे। नए कस्बे में आजीविका आसान न थी। किसी तरह गुजारा होता था। बच्चों की शिक्षा वहाँ हो सकना संभव न था। दाहजी के मामा संपन्न थे, इसी कस्बे सुल्तानपुर में रहते थे। उन्हों ने एक गुरुकुल स्थापित किया था। जहाँ संस्कृत, गणित, ज्योतिष, धर्मशास्त्र, कर्मकांड आदि की शिक्षा प्रदान की जाती थी। दाहजी को उन के पिता ने यहीं भेज दिया। दाहजी ने इसी कस्बे में मामा के गुरुकुल में रह कर शिक्षा ग्रहण की। उन की उस शिक्षा का लाभ मुझे भी मिला। सही मायने में मेरे पहले शिक्षक मेरे दाहजी ही थे। जिन्हों ने मुझे आरंभिक गणित और ज्योतिष सिखाई। मेरी माँ बताती है कि वह किसी समारोह में यहाँ कुछ दिन के लिए आई थीं। मैं ने यहीं पहली बार पैदल चलना आरंभ किया था। 

मुझे गुरुकुल के बारे में जानने की इच्छा हुई। मैं ने पान वाले से पूछा -यहाँ एक पुराना संस्कृत महाविद्यालय होता था, क्या अब भी है? उस ने बताया कि कोई एक फर्लांग आगे इसी सड़क पर बायीँ और एक मंदिर दिखाई देगा, वहीं वह विद्यालय था। लेकिन विद्यालय तो बरसों पहले बंद हो चुका है। दाहजी के मामा जी के संतान न थी। उन्हों ने अपने ही कुल के एक बालक को गोद लिया था। वह उन की संपत्ति का स्वामी हुआ। उस ने अपने जीवन काल में उस संस्कृत विद्यालय को चलाने का प्रयत्न भी किया, शायद इस भय से कि लोग उसे विरासत मिली संपत्ति पर प्रश्नचिन्ह खड़ा न करने लगें। लेकिन उस के जीवनकाल में ही वह विद्यालय दुर्व्यवस्था का शिकार हो कर बंद हो गया। अब केवल इमारत और मंदिर बचा है। मंदिर में पूजा होती है लेकिन इमारत का कोई अन्य उपयोग होने लगा है। दाहजी के मामा जी ने यह सोच कर विद्यालय आरंभ किया होगा कि यह उन के वंश को जीवित रखेगा, किन्तु ऐसा उन्होंने कभी सोचा भी न होगा कि एक पीढ़ी बाद ही वह बंद हो जाएगा। 

कॉफी बन कर आ गई। पहला घूँट स्वादिष्ट था। पर दूसरे ही घूँट में एक अजीब सी महक और स्वाद ने सारा आनंद किरकिरा कर दिया। यह लहसुन था। इस इलाके में लहसुन बहुत होता है। गाय और भैंसैं चराई के दौरान लहसुन के कचरे को खाती हैं। लहसुन की गंद और स्वाद इतना तेज होता है कि वह उन के दूध में आने लगता है। हम लोग लहसुन बिलकुल नहीं खाते, इस लिए इस तरह के स्वाद के दूध से बचते हैं। खैर, जैसे-तैसे मैं ने कॉफी को गले से नीचे उतारा। यदि पत्नी जी को इस दूध की चाय पिला दी जाती तो दो घूँट के बाद वे तो उलटी ही कर देतीं। मैं पान लेकर लौटा तब तक पत्नी जी खरीददारी कर चुकी थीं। हम चल पड़े। मार्ग में बाईं ओर संस्कृत विद्यालय की इमारत और मंदिर दिखाई पड़ा। पर वहाँ रुकने का मन न हुआ। अंधेरा होते होते हम कोटा पहुँच चुके थे। 
कार की पिछली सीट से बच्चों का लिया चित्र
गली सुबह जैसे ही मैं अदालत जाने को तैयार हुआ। पत्नी जी कहने लगी कि आज अष्टमी है, मंदिर जा कर माताजी को नए कपड़े पहना आओ। मैं तो पहना नहीं सकती, वहाँ स्त्रियों का चबूतरे पर चढ़ना वर्जित है।  अब जिस गली में मैं रहता हूँ उस के अंत में एक मंदिर है, जहाँ एक हनुमान जी और एक माताजी की मूर्ति है। पत्नी जी जानतीं हैं कि मेरा पूजा-पाठ, ईश्वर से कोई लेना देना नहीं। लेकिन वह तो विश्वासी है। उसे लगता है कि मेरे अविश्वासी होने के कारण, कहीं ऐसा न हो कोई विपत्ति परिवार को देखनी पड़े, तो वह ऐसे अवसर तलाशती रहती है। मैं ने पूछा ये वस्त्र तो आप इंद्रगढ़ के लिए लाई थीं? तो पत्नी ने बताया कि वे दो लाई हैं। ये कैसे होता कि इंद्रगढ़ की माताजी को तो नए वस्त्र पहना दिए जाएँ और यहाँ गली के माता जी पुराने ही वस्त्रों से नवरात्र  कर लें? मैं ने मना करना उचित न समझा। हम दोनों मंदिर गए। अखंड रामायण पाठ जारी था। वहाँ एक बुजुर्ग मौजूद थे जो नवरात्र के इस अखंड रामायण पाठ के संचालक थे। मैं ने उन से माता जी को नए वस्त्र पहनाने की अनुमति चाही, तो वे कहने लगे आप ने पेंट पहन रखी है, आप कैसे पहनाएंगे, मैं ही पहना देता हूँ। उन्हों ने खुद ने भी पेंट पहनी हुई थी। उन्हों ने उसे उतार कर एक पंजा लपेटा और नए वस्त्र ले कर माताजी तक गए। मैं भी पीछे-पीछे वहाँ पहुँच गया। मुझे देख कहने लगे -अब आप आ गए हैं तो आप ही पहना दीजिए। मैं ने देखा कि माता जी को जो कपड़े पहनाए हुए थे उन पर धूल जमी थी। शायद पिछले नवरात्र के बाद किसी ने उन्हें बदला ही न था। मैं ने माता जी की मूर्ति के पुराने वस्त्र हटा कर उन्हें नए पहना दिए। नए वस्त्र पहनाते ही माता जी की मूर्ति दमकने लगी। बुजुर्ग सज्जन ने बताया कि उन्हों ने मंदिर के भोपा को माताजी के नए वस्त्रों के लिए पहले नवरात्र के दिन ही रुपए दे दिए थे, लेकिन वह आज तक नहीं लाया। अब आप ले आए तो अब उसे मना कर दूंगा। पत्नी ने एक नारियल के साथ ग्यारह रुपए भी वहाँ भेंट किए। हम वापस घर लौट चले। पत्नी के चेहरे पर संतोष के चिन्ह देख मुझे भी अच्छा लगा। 

रात को मैं जब देर तक अपने ऑफिस में बैठा रहा तो पत्नी ने आ कर हिदायत दी कि अब सो जाओ सुबह जल्दी निकलना है, देर हो गई तो इंद्रगढ़ में माता जी की चढ़ाई में परेशानी होगी। मैं ने हिदायत का पालन किया और थोड़ी देर में ही ऑफिस का काम निपटा कर सोने चला गया।

(अगली पोस्ट इंद्रगढ़ की यात्रा पर) 

रविवार, 14 दिसंबर 2008

कभी नहीं भूलेगा, स्कूल में हुई धुनाई का दिन

शास्त्री जी ने अध्यापकों से सजा-पिटाई के किस्से अध्यापक या जल्लाद ?  और अध्यापकों ने दिया धोखा ! उन के ब्लाग सारथी पर लिखे हैं। पढ़ कर मुझे स्कूल में हुई अपनी धुनाई का किस्सा याद आ गया। ये उन दिनों की बात है जब सब से अधिक मारपीट करने वाले अध्यापक को सब से श्रेष्ठ अध्यापक समझा जाता था। ऐसे अध्यापक के जिम्मे छोड़ कर माता पिता अपने हाथों से बच्चों को मारने पीटने की जिम्मेदारी का एक हिस्सा अध्यापकों को हस्तांतरित कर देते थे। यह दूसरी बात है कि कुछ जिम्मेदारी वे हमेशा अपने पास रखते थे।


हर साल मध्य मई से दिवाली तक हम दादा जी के साथ रहते थे और दिवाली से मध्य मई में गर्मी की छुट्टियाँ होने तक हम पिता जी के साथ रहते। पिता जी हर साप्ताहिक अवकाश में दादा जी और दादी को संभालने आते थे। फिर पिता जी को बी.एड़. करने का अवकाश मिला तो वे साल भर बाहर रहे। हमें पूरे साल दादा जी के साथ रहना पड़ा था। उसी साल छोटी बहिन ने जन्म लिया, तब मैं पांचवीं क्लास  में था। पिता जी बी.एड. कर के आए तो हमें जुलाई में ही अपने साथ सांगोद ले गए। वे कस्बे के सब से ऊंची शिक्षा के विद्यालय, सैकण्डरी स्कूल के सब से सख्त अध्यापक थे। हालांकि वे बच्चों की मारपीट के सख्त खिलाफ थे। लेकिन अनुशासन टूटने पर दंड देना भी जरूरी समझते थे। स्कूल का लगभग हर काम उन के जिम्मे था। स्कूल का पूरा स्टाफ उन्हें बैद्जी कहता था, वे आयुर्वेदाचार्य थे और मुफ्त चिकित्सा भी करते थे। बस वे नाम के हेड मास्टर नहीं थे। हेड मास्टर जी को इस से बड़ा आराम था। वे या तो दिन भर  में एक-आध क्लास लेने के लिए अपने ऑफिस से बाहर निकलते थे या फिर किसी फंक्शन में या कोई अफसर या गणमान्य व्यक्ति के स्कूल में आ जाने पर। सब अध्यापकों का मुझे भरपूर स्नेह मिलता।

उस दिन ड्राइंग की क्लास छूटी ही थी कि पता नहीं किस मामले पर एक सहपाठी से कुछ कहा सुनी हो गई थी। मुझे हल्की से हल्की गाली भी देनी नहीं आती थी। ऐसा लगता था जैसे मेरी जुबान जल जाएगी। एक बार पिता जी के सामने बोलते समय एक सहपाठी ने चूतिया शब्द का प्रयोग कर दिया था, तो मुझे ऐसा लगा था जैसे मेरे कानों में गर्म सीसा उड़ेल दिया गया हो। उस सहपाठी से मैं ने बोलना छोड़ दिया था, हमेशा के लिए। ड्राइंग क्लास के बाद जब उस सहपाठी से झगड़ा हुआ तो उस ने मुझे माँ की गाली दे दी। मेरे तो तनबदन में आग लग गई। मैं ने उस का हाथ पकड़ा और ऐंठता चला गया। इतना कि वह दोहरा हो कर चिल्लाने लगा। दूसरे सहपाठियों ने उसे छुड़ाया।


वह सहपाठी सीधा बाहर निकला। मैदान में हेडमास्टर जी और पिताजी खड़े आपस में कोई मशविरा कर रहे थे। वह सीधा उन के पास पहुंचा। मैं डरता न था तो पीछे पीछे मैं भी पहुँच गया मेरे पीछे क्लास के कुछ और छात्र भी थे। उस ने सीधे ही हेडमास्टर जी से शिकायत की कि उसे दिनेश ने मारा है। हेडमास्टर जी ने पूछा कौन है दिनेश? उस ने मेरी और इशारा किया ही था कि मुकदमे में दंड का निर्णय सुना दिया गया की मैं दस दंड बैठक लगाऊँ। यूँ दण्ड बैठक लगाने में मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। उस से सेहत भी बनती थी। पर मुझे बुरा लगा कि मुझे सुना ही नहीं गया। मैं ने कहा मेरी बात तो सुनिए। यह स्पष्ट रूप से राजाज्ञा का उल्लंघन था। यह राज्य के मुख्य अनुशासन अधिकारी, यानी पिता जी से कैसे सहन होता। उन्हों ने धुनाई शुरू कर दी। उम्र का केवल आठवाँ बरस पूरा होने को था। रुलाई आ गई। रोते रोते ही कहा -पहले उसने मेरी माँ को गाली दी थी।

  माँ का नाम ज़ुबान पर आते ही धुनाई मशीन रुकी। तब तक मेरी तो सुजाई हो चुकी थी। पिताजी एक दम शिकायतकर्ता सहपाठी की और मुड़े और उस से कहा -क्य़ो? उस के प्राण एकदम सूख गए। वह डर के मारे पीछे हटा। शायद यह उस की स्वीकारोक्ति थी। वह तेजी पीछे हटता चला गया। पीछे बरांडे का खंबा था जिस में सिर की ऊँचाई पर पत्थर के कंगूरे निकले हुए थे। एक कंगूरे के कोने से उस का सिर टकराया और सिर में छेद हो गया। सिर से तेजी से खून निकलने लगा। पिताजी ने आव देखा न ताव, उसे दोनों हाथों में उठाया और अपनी भूगोल की प्रयोगशाला में घुस गए। कोई अंदर नहीं गया। वहाँ उन का प्राथमिक चिकित्सा केंद्र भी था। जब दोनों बाहर निकले। तब शिकायकर्ता के सिर पर अस्पताल वाली पट्टी बंधी थी और पिताजी ने उसे कुछ गोलियाँ खाने को दे दी थीं। अगली क्लास शुरू हो गई थी। मास्टर जी कह रहे थे। आज तो बैद्जी ने बच्चे को बहुत मारा। मेरे क्लास टीचर के अलावा पूरे स्टाफ को पहली बार पता लगा था कि जिस लड़के को वै्दयजी ने मारा वह उन की खुद की संतान था।

शिकायत कर्ता लड़के ने ही नहीं मेरी क्लास के किसी भी लड़के ने मेरे सामने किसी को गाली नहीं दी। वे मेरे सामने भी वैसे ही रहते, जैसे वे मेरे पिताजी के सामने रहते थे। शिकायत करने वाले लड़के से मेरी दोस्ती हो गई और तब तक रही जब तक हम लोग सांगोद कस्बे में रहे।