@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: ब्ब्लॉगर
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सोमवार, 29 नवंबर 2010

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

पिछली 29 अक्टूबर की पोस्ट में मैं ने ब्लागीरी में पिछले दिनों हुई अपनी अनियमितता का उल्लेख करते हुए दीपावली तक नियमित होने की आशा व्यक्त की थी। मैं ने अपने प्रयत्न में कोई कमी नहीं रखी। उसी पोस्ट पर ठीक एक माह बाद भाई सतीश सक्सेना जी की टिप्पणी ने मुझे स्मरण कराया कि मुझे अपने काम का पुनरावलोकन करना चाहिए, कम से कम नियमितता के मामले में अवश्य ही। तो अनवरत पर मेरी अब तक 15 पोस्टें हो चुकी हैं और यह सोलहवीं है। इस तरह मैं ने अनवरत पर हर दूसरे दिन एक पोस्ट लिखी है। तीसरा खंबा पर इस एक माह में 18 पोस्टें हुई हैं। मुझे लगता है कि इन दिनों जब कि कुछ व्यक्तिगत कामों में व्यस्तता बढ़ गई है, यह गति ठीक है। हालांकि इस बीच हर उस दिन जब कि मैं ने कोई पोस्ट इस ब्लाग पर नहीं की यह लगता रहा कि आज मुझे यह बात लिखनी थी, लेकिन समय की कमी से मैं ऐसा नहीं कर पा रहा हूँ। लगता है कि ब्लागीरी मेरे लिए एक ऐसा कर्म हो गई है, जिस के बिना दिन ढल जाना क्षय तिथि की तरह लगने लगा है जो सूर्योदय होने के पहले ही समाप्त हो जाती है। 
ल से ही अचानक व्यस्तता बढ़ गई। शोभा की बहिन कृष्णा जोशी के पुत्र का विवाह है, और उस के पिता को वहाँ भात (माहेरा) ले जाना है। शोभा उसी की तैयारियों के लिए मायके गई थी, कल सुबह लौटी। चार दिन में घर लौटी तो, सब से पहले उस ने घर को ठीक किया। मुझे भी चार दिन में अपने घर का भोजन नसीब हुआ। वह कल शाम फिर से अपनी बहिन के यहाँ के लिए चल देगी और फिर विवाह के संपन्न हो जाने पर ही लौटेगी। इन दो दिनों में उसे बहुत काम थे। उसे घर को तैयार करना था जिस से उस में मैं कम से कम एक सप्ताह ठीक से रह सकूँ। उसे ये सब काम करने थे। इन में कुछ काम ऐसे थे जो मुझ से करवाए जाने थे। मैं भी उन्हीं में व्यस्त रहा। आज मुझे अदालत जाना था और वहाँ से वापस लौटते ही शोभा के साथ बाजार खरीददारी के लिए जाना था। शाम अदालत से रवाना हुआ ही था कि संदेश आ गया कि अपने भूखंड पर पहुँचना है वहाँ बोरिंग के लिए मशीन पहुँच गई है। मुझे उधर जाना पड़ा। वहाँ से लौटने में देरी हो गई। वहाँ से आते ही बाजार जाना पड़ा। जहाँ से लौट कर भोजन किया है। अभी अपनी वकालत का कल का काम देखना शेष है। फिर भी चलते-चलते एक व्यसनी की तरह यह पोस्ट लिखने बैठ गया हूँ।
ल फिर व्यस्त दिन रहेगा। आज जो नलकूप तैयार हुआ है उसे देखने अपने भूखंड पर जाना पड़ेगा, कल शायद नींव खोदने के लिए रेखाएँ भी बनाई जाएंगी। वहाँ से लौट कर अदालत भी जाना है और शोभा को भी बाजार का काम निपटाने में मदद करनी है। कल उस की एक बहिन और आ जाएगी, एक यहां कोटा ही है। कल रात ही इन्हें ट्रेन में भी बिठाना है। कल भी समय की अत्यंत कमी रहेगी। इस के बाद पाँच दिसम्बर सुबह से ही मैं भी यात्रा पर चल दूंगा। उस दिन जयपुर जाना है, शाम को लौटूंगा और अगले दिन सुबह फिर यात्रा पर निकल पड़ूंगा। इस बार यात्रा में मेरी अपनी ससुराल झालावाड़ जिले में अकलेरा, फिर सीहोर (म.प्र.) और भोपाल रहेंगे। विवाह के सिलसिले में सीहोर तो मुझे तीन दिन रुकना है। एक या दो दिन भोपाल रुकना होगा। मेरा प्रयत्न होगा कि यात्रा के दौरान अधिक से अधिक ब्लागीरों से भेंट हो सके। 
ब आप समझ ही गए होंगे कि मैं 12 दिसम्बर तक व्यस्त हो गया हूँ। दोनों ही ब्लागों पर भी 4 दिसंबर के बाद अगली पोस्ट शायद 13 दिसम्बर को ही हो सकेगी। इस बीच मुझे अंतर्जाल पर आप से अलग रहना और अपनी बात आप तक नहीं पहुँचाने का मलाल रहेगा। लेकिन क्या किया जा सकता है? 
फ़ैज साहब ने क्या बहुत खूब कहा है ....
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजै
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजै
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

अजित वडनेरकर के साथ चार घंटे

शब्दों के सफर वाले अजित वडनेरकर जी कोटा रह चुके हैं, और कोटा की कचौड़ियों के स्वाद से भली तरह परिचित हैं।  मैं ने जब उन से भिलाई जाने का उल्लेख किया तो उन्हें तुरंत ही कचौड़ियाँ याद आ गईं। हमारी योजना सुबह बस से चल कर शाम को भोपाल से छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस पकड़ने की थी।  लेकिन अजित जी ने कहा कि बस के भोपाल पहुँचने और छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस पकड़ने में दो ही घंटों का अंतराल है जो बहुत कम है।  हमने योजना बदली और 27 जनवरी को सुबह निकलने के बजाय 26 की रात को ट्रेन से निकलने का मन बनाया और आरक्षण करवा लिया।  अब हमारे पास भोपाल में आठ घंटे थे।  अजित जी को बताया गया कि कचौड़ियाँ भोपाल पहुंचने की व्यवस्था हो गयी है,  पर वहाँ आप तक कैसे पहुंचेगी? बोले,  ट्रेन से उतर कर मेरे घर आ जाइए।

भोपाल में इतने कम अंतराल में अजित जी के घर जाने का अर्थ था किसी अन्य से न मिल पाना।  वैसे भी हमारे पास चार बैग होने से कहीं आना जाना दूभर था।  पर पल्लवी त्रिवेदी से मिलने की इच्छा थी, भोपाल जंक्शन के आस पास ही उन का ऑफिस होने से उन से मिल पाना संभव प्रतीत हो रहा था।  पर पता लगा कि वे राजस्थान यात्रा पर हैं और उसी दिन भोपाल पहुंचेंगी।  रवि रतलामी जी से मिल सकता था।  पर वे भी दूर थे।  अन्य के बारे में तो इस अल्प अंतराल में मिल पाने की सोचना भी संभव नहीं था।  मैं ने किसी को बताया भी नहीं।  मेरे साढ़ू भाई हॉकी रिकार्डों के संग्रहण के लिए विश्व प्रसिद्ध हॉकी स्क्राइब बी.जी. जोशी इस अंतराल में सीहोर उन के घर आने का निमंत्रण दे रहे थे।  पर उन से माफी मांग ली गई, अजित जी के यहाँ जाना तय हो गया।

26 को यात्रा से निकलने के पहले अजित जी की कचौड़ियों के साथ साथ भिलाई तक ले जाने के लिए दौ पैकेट लोंग के सेव भी लाए गए।  पता किया तो ट्रेन 22.30 के बजाय 23.30 पर आने वाली थी।  हम 23.10 पर ही स्टेशन पहुँच गए।  ट्रेन लेट होती गई और 27 जनवरी को 00.30 बजे उस ने प्लेटफार्म प्रवेश किया और एक बजे ही रवाना हो सकी।  ट्रेन चलते ही हम सो लिए।  आँख खुली तो सुबह हो चुकी थी और ट्रेन अशोक नगर स्टेशन पर खड़ी थी।  कॉफी की याद आई, लेकिन पैसेन्जर ट्रेन में कहाँ कॉफी?  बीना पहुँची तो सामने ही स्टाल पर कॉफी थी।  उतर कर स्टॉल वाले से कॉफी देने को कहा तो बोला 10 मिनट बाद बिजली आने पर।  मैं ने पूछा यहाँ पावर कट है?  बताया गया कि बिजली 10 बजे आएगी।  यानी भोपाल पहुंचने का समय हो चुका था।  ट्रेन भोपाल पहुंचने तक वडनेरकर जी का दो बार फोन आ गया।  स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही पल्लवी जी का खयाल आया।  लेकिन घड़ी ने सब खयाल निकाल दिए।  ऑटोरिक्षा की मदद से वडनेरकर जी के घर पहुंचे तो दो बज चुके थे।  वापसी में मात्र चार घंटों का समय था।

सैकण्ड फ्लोर पर दो छोटे फ्लेट्स को मिला कर बनाया हुआ घर।  एक दम साफ सुथरा और सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया हुआ।  बरबस ही  आत्मीयता प्रदर्शित करते छोटे-छोटे कमरे।  कमरों में फर्श से केवल छह इंच ऊंचा फर्नीचर।  मैं ने फोन पर ही उन्हें बता दिया था कि हम दोनों बाप-बेटे मंगलवारिया हैं सो नाश्ते वगैरह की औपचारिकता न हो।  जवाब मिला था, कैसा नाश्ता? भोजन तैयार है।  जाते ही अजित और मैं बातों में मशगूल। भाभी हमारे लिए कॉफी ले आईं।  हमें प्रातःकालीन कर्मों से भी निवृत्त होना था।  कॉफी सुड़क कर जैसे ही मैं स्नानघर में घुसने लगा अजित जी को कचौड़ियाँ याद आ गई। बोले, मेरी कचौड़ियाँ? भाई एक तो निकाल कर दे ही दो। वैभव कचौड़ियों के पैकेट के लिए बैग संभालने लगा।  मैं ने पूछा- आप को तो पांच बजे नौकरी पर जाना होगा? तो बताया कि उन्हों ने सिर्फ मेरी खातिर आज अवकाश ले लिया है।

दोनों पिता पुत्र प्रातःकालीय कर्मों से निवृत्त हुए तो भोजन तैयार था।  हम दोनों और अजित बैठ गए।  दाल, सब्जियाँ, चपाती और देश में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ बासमती चावल, साथ में नमकीन और अचार। भूख चरम पर पहुंच गई।  हम भोजन के साथ बातें करते रहे।  अजित बता रहे थे कुछ दिनों पहले यात्रा के बीच ही अफलातून जी उन के मेहमान रह चुके हैं। उन के साथ बिताए समय के बारे में बताते रहे।  ब्लागरी और ब्लागरों के बारे में, कुछ भोपाल, कोटा और राजगढ़ जहाँ अजित का बचपन गुजरा के बारे में बातें हुई।  इस बीच हम जरूरत से अधिक ही भोजन कर गए।  तभी भाभी जी ने ध्यान दिलाया कि उन का पुत्र किस तरह पढ़ते पढ़ते सो गया है।  अजित देखने गए तो उसका चित्र कैमरे में कैद कर लाए।  भोजन के उपरांत भी हम बातें ही करते रहे। पता लगा भाभीजी अध्यापिका हैं और रोज 40 किलोमीटर दूर एक कस्बे में अध्यापन के लिए जाती हैं।  पूरी तरह एक श्रमजीवी परिवार।  इस बीच अजित जी ने हमारे अनेक चित्र ले डाले। बातों में कब पाँच बज गए पता न चला। भाभी जी ने फिर गरम गरम कॉफी परोस दी।

अब चलने का समय हो चला था।  अजित के माता पिता सैकण्ड फ्लोर पर चढ़ने उतरने की परेशानी के चलते निकट ही ग्राउंड फ्लोर पर अपने घर पर निवास करते हैं। हम अपने सामानों की पैकिंग करने लगे, कोई जरूरी वस्तु छूट न जाए।  अजित वैभव को साथ ले कर पिता जी के घर खड़ी कार निकालने चल दिए। वे कार ले कर लौटे तो मैं ने अपने बैग उठाए। शेष सामान अजित का पुत्र उठाने लगा तो लगा वह घायल है। भाभी ने बताया कि वह दो दिन पहले ही वह बाइक पर टक्कर खा चुका है।  उस के पूरे शरीर पर चोटें थीं।  चोटें टीस रही थीं, जिस तरह वह चल रहा था लगा बहुत तकलीफ में है।  फिर भी वह सामान उठाने को तत्पर था।  मेरे पूछने पर भाभी ने बताया कि क्या क्या चिकित्सा कराई गई है।

जब भी मैं किसी को बीमार या चोटग्रस्त देखता हूँ और चिकित्सा के बारे में पता करता हूँ तो खुद बहुत तकलीफ में आ जाता हूँ।  मैं ने अपने घर आयुर्वेदिक चिकित्सा देखी और सीखी, बाद में होमियोपैथी सीखी, और उसे अपनाया तो घर में ही दवाखाना बन गया।  धीरे धीरे यह काम कब पत्नी शोभा ने हथिया लिया पता ही नहीं लगा। होमियोपैथी की बदौलत दोनों बच्चे बड़े हो गए कभी बिरले ही किसी डाक्टर या अस्पताल जाने का काम पड़ा। 

मैं ने भाभी को होमियोपैथिक दवा लिख कर दे दी।   कार आ चुकी थी, हम सामान सहित कार में लद लिए अजित, भाभी और उन का पुत्र साथ थे।  हम स्टेशन पहुंचे तो ट्रेन आने में मात्र दस मिनट थे।  अजित के पुत्र को चलने में तकलीफ थी।  मैं ने अजित जी को प्लेटफार्म  तक पहुँचाने की औपचारिकता करने से मना किया।  वे राजी हो गए। जाते जाते उन्हें यह जरूर कहा कि वे होमियोपैथी दवा आज ले कर बेटे को जरूर दें। उन्हों ने आश्वस्त किया कि वे जरूर देंगे।  अजित जी को विदा कर हम अपना सामान उठाए अपने प्लेटफार्म की ओर चले।  ऐसा लग रहा था जैसे हम अभी अभी अपना घर और परिजन छोड़ कर आ रहे हैं।