@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

‘एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ, बाज से तंग आ गई होगी’

ज सुबह 7.07 बजे सावन का महिना आरंभ हो गया। सुबह सुबह इतनी उमस थी कि जैसे ही कूलर की हवा छोड़ी कि पसीने में नहा गए। लगा आज तो बारिश हो कर रहेगी। इंटरनेट पर मौसम का हाल जाना तो पता लगा 11 बजे बाद कभी भी बारिश हो सकती है। तभी बाहर बूंदाबांदी आरंभ हो गई। धीरे-धीरे बढ़ती गई। फिर कुछ देर बंद हुई तो मैं तैयार हो कर अदालत पहुँचा। बरसात एक अदालत से दूसरी में जाने में बाधा बन रही थी। लेकिन बहुत लंबी प्रतीक्षा के बाद आई इस बरसात में भीगने से किसे परहेज था। भीगते हुए ही मैं चला अपने ठिकाने से अदालत को। चमड़े के नए जूतों के भीगने की परवाह किए बिना पानी को किसी तरह लांघते गंतव्य पर पहुँचा। आज अधिकतर काम एक ही अदालत में थे। दोपहर के अवकाश तक लगभग सभी कामों से निवृत्त हो लिया। हर कोई सारी पीड़ाएँ भूल खुश था कि बरसात हुई। गर्मी कुछ तो कम होगी। कूलरों से मुक्ति मिलेगी। चाय-पीने को बैठे तो बरसात तेज हो गई। पुलिस अधीक्षक के दफ्तर के बाहर पानी भर गया। हमने एक तस्वीर ले ली।   
ज पहली बरसात हुई है। कल गुरु-पूर्णिमा पर परंपरागत रीति से वायु परीक्षण किया गया। नतीजा अखबारों में था कि अगले चार माह बरसात होती रहेगी। बरसात के चार माह बहुत होते हैं। इस पूर्वानुमान के सही निकलने पर हो सकता था कि बहुतों को बहुत हानि हो सकती थी। पर फिर भी हर कोई यह चाह रहा था कि यह सही निकले। कम से कम पानी की कमी तो पूरी हो। प्यासे की जब तक प्यास नहीं बुझती, वह पानी के भयावह परिणामों को नहीं देखता।  शाम को बरसात रुकी, लोग बाहर निकले। यह सुखद था, लेकिन लोग इस सुख को नहीं चाहते थे। उन का मन तो अभी भी सूखा था। इस बार शायद जब तक उस से आजिज न आ जाएँ तब तक उसे भीगना भी नहीं है। मैं ने अभी शाम को फिर मौसम की तस्वीर देखी। बादल अभी आस पास हैं। यदि उत्तर पश्चिम की हवा चल निकली तो रात को या सुबह तक फिर घनी बरसात हो सकती है। चित्र में गुलाबी रंग के बादल सब से घने, सुर्ख उस से कम, पीले उस से कम और नीले उस से भी कम घने हैं। उस से कम वाला सलेटी रंग तो दिखाई नहीं पड़ रहा है। मैं भी चाहता हूँ कि कम से कम यह सप्ताह जो बरसात से आरंभ हुआ है। बरसातमय ही रहे।
ल महेन्द्र नेह के चूरू में हुए कार्यक्रम की रिपोर्ट में जर्मनी में रह रहे राज भाटिया जी की टिप्पणी थी .....

महेन्द्र नेह जी से एक बार मिलने का दिल है, बहुत कवितायें पढी आप के जरिये, और आज का लेख और जानकारी पढ कर बहुत अच्छा लगा, कभी समय मिले तो यह गजल जरुर अपने किसी लेख में लिखॆ....
‘एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ, बाज से तंग आ गई होगी’ जिस गजल की पहली लाईन इतनी सुंदर है वो गजल कैसी होगी!!!
धन्यवाद आप का ओर महेंद्र जी का.....

तो भाटिया जी, इंतजार किस बात का? महेन्द्र जी ने आप की फरमाइश पर यह ग़ज़ल मुझे फोन पर ही सुना डाली। वैसे यह ग़ज़ल का पहला नहीं आखिरी शेर था। आप भी इसे पढ़िए ......

एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ
  • महेन्द्र 'नेह' 

जान मुश्किल में आ गई होगी
एक दहशत सी छा गई होगी

भेड़ियों की जमात जंगल से
घुस के बस्ती में आ गई होगी

सुर्ख फूलों को रोंदने की खबर
कोई तितली सुना गई होगी

उन की आँखों से टपकती नफरत
हम को भी कुछ सिखा गई होगी

एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ
बाज से तंग आ गई होगी
राज भाटिया जी! 
अगली भारत यात्रा में कोटा आने का तय कर लीजिए। महेन्द्र नेह के साथ-साथ शिवराम, पुरुषोत्तम 'यकीन' और भी न जाने कितने नगीनों से आप की भेंट करवाएंगे।

सोमवार, 26 जुलाई 2010

जहर सुकरात पी गए होंगे, हमसे यूं आचमन नहीं होता...

24 जुलाई को राजस्थान साहित्य अकादमी व प्रयास संस्थान के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित ‘लेखक से मिलिए’ कार्यक्रम में चूरू राजस्थान के श्रोताओं का साक्षात्कार हुआ कोटा के जन कवि महेंद्र नेह से। उन्हों ने इस कार्यक्रम में एक से बढकर एक कविता, गीत और गजलों के जरिए वर्तमान व्यवस्था और समय की विद्रूपताओं पर करारा प्रहार करते हुए श्रोताओं का मन मोह लिया। अपनी पहली कविता ‘कल भिनसारे में उठकर चिड़ियाओं की चहचहाट सुनूंगा’ से उन्हों ने वर्तमान में भौतिकवाद की दौड़ में अंधे मनुष्य की अधूरी स्वप्निल आंकाक्षाओं को स्वर दिए तो ‘क्या सचमुच तुम्हारे पास सुनाने के लिए कोई अच्छी खबर नहीं’ से इलेक्ट्रॉनिक चैनलों और मीडिया की सनसनीधर्मिता पर करारा प्रहार किया। नेह ने ‘चिनगी-चिनगी बीनती फिर भी नहीं हताश, वह कूड़े के ढेर में जीवन रही तलाश’ जैसे अपने दोहों पर भी श्रोताओं की खूब दाद पाई। उन की ‘जान मुश्किल में आ गई होगी’, ‘अंधी श्रद्धा में प्रण नहीं होता’, ‘सच के ठाठ निराले होंगे’ और ‘हम दिले नादान को समझा रहे हैं दोस्तों’ जैसी गजलों को श्रोताओं ने मुक्तकंठ से सराहा। ‘एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ, बाज से तंग आ गई होगी’ और ‘जहर सुकरात पी गए होंगे, हमसे यूं आचमन नहीं होता’ जैसे शेरों पर श्रोता मंत्र मुग्ध हुए और उन के मुहँ से निकलने वाली 'वाह-वाह’ की ध्वनियाँ थमते ही न बनी। नेह जी ने नई भाव-भूमि और जनवादी पृष्ठभूमि पर रचे गए अपने गीतों ‘हम सर्जक हैं समय सत्य के’, ‘सड़क हुई चौड़ी मारे गए बबुआ’, ‘थाम लो साथी मशालें’, ‘महाविपत्ति के रंगमंच में’ से वर्तमान समाज और राजनीति की विसंगतियों पर चोट करते हुए ‘क्षार-क्षार होंगे सिंहासन, बिखरेंगे सत्ता के जाले’ के जरिए क्रांति का आह्वान कर सभागार में मौजूद हर एक को सोचने पर मजबूर कर दिया।
स मौके पर महेंद्र नेह ने कहा कि सृजन कभी अंधानुकरण नहीं हो सकता। हमें चीजों को एकांगी रूप में नहीं, बल्कि व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए और उनमें अंतर्निहित सच्चाइयों की तह में जाना चाहिए। किसी भी व्यवस्था में सब कुछ अच्छा या सब कुछ बुरा नहीं होता। लेकिन एक साहित्यधर्मी को गलत के खिलाफ हमेशा डटे रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि जिन बातों और चीजों के असर से हम मर मिटने को तैयार हो जाते हैं, वे ही हमारे जीवन की सबसे अनमोल चीजें होती हैं। सत्ता और व्यवस्था के दमन चक्र ने हमेशा स्वाभिमानी साहित्यधर्मियों को ठुकराया है लेकिन सृजनधर्मियों को इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए। हमें यह मानते हुए कि परंपरा में सब कुछ अनुकरणीय और श्रेष्ठ नहीं है, तर्कसंगत ज्ञान का अवधारण करना ही होगा। वर्गों में बंटे समाज में हमें फैसला करना ही होगा कि हम वास्तव में किसकी तरफ हैं। समाज में प्रत्येक चीज का निर्माण श्रमजीवी करता है लेकिन दो वक्त की रोटी तक को मोहताज रहता है। महेन्द्र नेह ने इस बात पर जोर दिया कि रचनाकारों के लिए कलात्मकता जरूरी है, लेकिन अपनी स्पष्ट विचारधारा और उसके प्रति आग्रह उससे भी अधिक जरूरी है।
मारोह के मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार भंवर सिंह सामौर ने कहा कि महेंद्र 'नेह' की कविता और जिंदगी एक दूसरे में रमे हुए हैं। उन्होंने कहा कि नेह ने आम आदमी की व्यथा को बखूबी व्यक्त किया हैं और उनके शब्दों में गजब की सामर्थ्य है। विशिष्ट अतिथि शिक्षाविद सोहनसिंह दुलार ने कहा कि नेह ने अपनी रचनाओं में वर्तमान की विद्रूपताओं पर कड़ा प्रहार किया है और उनके रचना संसार में आने वाले समय को लेकर उम्मीदें गहराती हैं। अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवि प्रदीप शर्मा ने कहा कि नेह समय के सत्य के कवि हैं जिन्होंने अपनी लेखनी से व्यवस्था पर सटीक व्यंग्य और करारी चोट की है। समीक्षक सुरेंद्र सोनी, वरिष्ठ पत्रकार माधव शर्मा, दूलदान चारण, बाबूलाल शर्मा, अरविंद चूरूवी आदि ने नेह के रचना-संसार पर प्रतिक्रिया करते हुए उन्हें आम आदमी का प्रतिनिधित्व करने वाला सृजनधर्मी बताया।
मारोह में साफा बांधकर तथा शॉल व श्रीफल भेंट कर महेंद्र नेह का सम्मान किया गया। आरंभ में प्रयास संस्थान के संरक्षक वयोवृद्ध बैजनाथ पंवार ने स्वागत भाषण दिया। सहायक जनसंपर्क अधिकारी एवं साहित्यकार कुमार अजय ने सम्मानित साहित्यकार का परिचय दिया। प्रयास संस्थान के अध्यक्ष दुलाराम सहारण, रामगोपाल बहड़, शेरसिंह बीदावत, ओम सारस्वत, उम्मेद गोठवाल अतिथियो ंका माल्यार्पण कर स्वागत किया। संचालन साहित्यकार कमल शर्मा ने किया। साहित्यकार दुलाराम सहारण ने आभार जताया। इस मौके पर नगरश्री के श्यामसुंदर शर्मा, हिंदी साहित्य संसद के शिवकुमार मधुप, कादंबिनी क्लब के राजेंद्र शर्मा, शोभाराम बणीरोत, सुरेंद्र पारीक रोहित, रामावतार साथी, शंकर झकनाड़िया सहित बड़ी संख्या में शहर के प्रबुद्ध साहित्यप्रेमी मौजूद थे। 
......... रिपोर्ट और चित्र श्री दूला राम सहारण, चूरू (राजस्थान) के सौजन्य से 

शनिवार, 24 जुलाई 2010

"श्रम का निर्वासन"यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का द्वादश सर्ग


यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के ग्यारह सर्ग पढ़ आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं। इस तरह उन के इस काव्य के प्रथम खंड का समापन हो चुका है। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है।  इसे  आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का द्वादश सर्ग "श्रम का निर्वासन" प्रस्तुत है ................ 
* यादवचंद्र *

द्वादश सर्ग

श्रम का निर्वासन

इतिहास नया वे गढ़ते हैं
भूगोल नया वे पढ़ते हैं
पहने जो सदा लंगोटी हैं
छीनते सिन्धु से मोती हैं
पड़ जाते उन के जहाँ कदम
बन जाते हैं   जै रू से ल म 

काफिला न दम वह लेता है
सागर को चीरे देता है
युग भी रुकते थर्राता है
पथ छोड़ आल्प्स हट जाता है
विस्तृत दुनिया का हर कोना
उन चरणों का जादू - टोना

यूरप के निर्जन सुप्त भाग
दर्शन कर उन के रहे जाग
अफ्रीका बलाएँ लेता है
अमरिका सलामी देता है
न्यूजी का फाटक खुलता है 
वेरिंग का चामर डुलता है
रूढ़ियाँ खड़ी अकुलाती हैं
सीमाएँ सिकुड़ी जाती हैं

कडि़याँ खुल रही दिशाओं की
द्वीपों - देशों - दरियाओं की
सागर - उपकुल - गुफाओं की 
पश्चिम की हवा, बहावों की
शापित बेड़े लहराते हैं
आगे जो बढ़ते जाते हैं
ज्वारों में अलख जगाते हैं
झंझा से आँखें लड़ाते हैं
प्लावन उन को नहलाते हैं
सूरज आरती सजाते हैं
चांदनी पावड़े बिछाती है
जल परियाँ गीत सुनाती हैं
युग-परिवर्तन भीषण यह है
चौपड़ का एक नया सह है
पर अन्तिम बात न भूलूंगा
तेरा सच तुझ से कह दूंगा



?
जब मातृ भूमि लंजिका बनी
मुझ पर युग की तलवार तनी
तब भूमि विदेशी अपनी बन
पय पिला किया मेरा पोषण
कहता जो धरा विभाजित है
वह माँ-घाती है, नास्तिक है


जो राष्ट्र !राष्ट्र ! चिल्लाता है
वह अपना स्वार्थ जुगाता है
मानव की कोख लजाता है
हिंसा को ठोक जगाता है
भू के सम्पूर्ण कलषु कुत्सित
इस राष्ट्र प्रेम में हैं संचित
यह सब बनिकों की माया है
शोषक की छलना, छाया है
यह प्रकृति-सनातन धर्म नहीं 
यह मनुज-सहज-कृत कर्म नहीं
यह राष्ट्र-व्यष्टि का पाप सघन
सबलों की पूजा, स्तुति वंदन
निर्बल का पी कर खून पला
यह राष्ट्र-घिनौना कोढ़ गला



मानवता मूढ़. अपंग बनी
जब कभी युद्ध की आग जली
फासिस्तवाद हूँकार उठा
जब राष्ट्र खींच, तलवार उठा
बलि चढ़ने लगी जवानों की 
बूढ़ों-बच्चों-नादानों की 
गाँवों-खेतों-खलिहानों की
आँचल में बँधे फसानों की
सबलों का वर्ग बढ़ा आगे
निर्बल घर छोड़ सदा भागे
संस्कृति-सभ्यता-कला-चिन्तन
सिर पर रख तृण मांगे जीवन

यह राष्ट्र मनुज का भक्षक है
यह इंद्रपुरी का तक्षक है
यतह गोरखधंधा, त्राटक है
यह एक घिनौना नाटक है
साम्राजी अघ की टट्टी है
कमजोर ईंट की भट्टी है
यूरप में बढ़ी तिजारत जो 
उस से उठ गई इमारत जो
उस में पुतलियाँ झमकती  जो
रेशम की डोर चमकती जो
सुन लो, क्या कह चिल्लाती है
किस की वह टेर बुलाती है
'उत्पादन तेज करो, दौड़ो
मारो औ मरो-बढ़ो, दौड़ो
उत्कर्ष चतुर्दिक होता है'
कुनबे में कर्मकर रोता है
बनियों का दशादर्श जगा
घर छोड़ श्रमिक परदेश भगा


X  X  X  X  X  X  X  X  

परदेशी का कोई 
राष्ट्र नहीं होता है प्यारे 
श्रम उन्नायक सारी 
धरती का नेता है प्यारे
वह जो छू दे माटी
सोना बन जाती है प्यारे
उस की एक फूँक से 
अलका घबड़ाती है प्यारे
विजन अमरिका कल ही
नन्दन बन जाएगा
बात दूसरी, उस को
वह भोग नहीं पाएगा

किन्तु उसे क्या गम है
चिनगारी जहाँ उड़े
जले फ्रांस और जर्मन
जारों से लपक भिड़े
सन सत्तावन की लौ
भभके औ भभक पड़े
गिरे चीन पर बिजली
कुमितांगो शीश जड़े
जान बचा कर अपनी 
हटे पूर्व-पश्चिम से
मिहनतकश का दुश्मन
उत्तर से दक्षिण से

श्रमिक वर्ग का एका
जिन्दाबाद रहेगा
बँटे धरा पर वह तो
ध्रुव अविभाज्य रहेगा
राष्ट्रवाद का घेरा धरा-गगन क्या बांधे
क्षुद्र स्वार्थ का साधक महा साध्य क्या साधे

******************************* 
यादवचंद्र पाण्डेय

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

बरसात की संभावना हर दिन आगे खिसक जाती है

यूँ तो इधर कोटा में एकाध बरसात मई में भी हो लेती है, फिर एकाध जून को उत्तरार्ध में भी हो ही जाती है। 15 से 20 जून के बीच तो बरसात बाकायदे आ धमकती है और जुलाई के महिने में तो अपना अड्डा जमा चुकी होती है। मुझे पता है कि मेरे एक चचेरे भाई का ब्याह 29 जून का था भोपाल बारात जानी थी। एक दिन पहले ही बरसात हुई थी। बारात के रास्ते में सारी नदियाँ या तो पुल पर चढ़ चुकी थीं या चढ़ने को तैयार थीं। शादी के दिन दिन भर बरसात होती रही। बारात के दुल्हन के घर तक जाने वाला जलूस भी बरसते पानी में ही निकाला जा सका था। वापसी में भी हम बरसात का सुहाना नजारा देखते हुए ही लौटे थे। उस बात को अठारह-बीस बरस हो चुके हैं। उस के बाद तो मैं बाकायदा जून में मध्यप्रदेश की ओर भागने की फिराक में रहता। जिस से बरसात का आनंद कुछ जल्दी लिया जा  सके। ऐसा शायद ही किसी साल हुआ हो कि जुलाई का महिना पूरा निकलने वाला हो और नदियों में नया पानी न आया हो और पूरी तरह सूख चुकी नदियाँ बहने न लगी हों। खेत सूखे पड़े हों और उन के आसपास के गड्ढे अभी प्यासे हों। आधे से अधिक खेतों में बुआई न हुई हो। आधे खेतों में बुआई हुई भी है तो उन की आवश्यक सिंचाई के चलते भू-गर्भिक जल का स्तर तेजी से गिर रहा हो। जिन दिनों में सब मर्सिबल मोटरों को ऊपर उठाया जाता हो उन दिनों उन्हें नीचे उतारना पड़ रहा हो।
स साल ऐसा ही है। कोटा नगर में अभी तक ऐसी कोई घटना नहीं हुई है जिसे हम बरसात की संज्ञा दे सकें। न गड्ढे भरे, न नालों में मटमैला बरसाती पानी बहता दिखाई दिया। अभी तक वही बदबूदार काले रंग का नगर का मैला ले जाने वाला पानी ही उन में बह रहा है। अभी तक ठेकेदार प्रसन्न हैं कि उन की बनाई सड़कों की पोल खुलने लायक कुछ भी नहीं हुआ है। कोटा नगर ही नहीं कोटा से पचास-पचास किलोमीटर तक ऐसा ही है। मेरे एक सहायक वकील नन्दलाल जी पुश्तैनी किसान भी हैं। अपनी जमीन के दस बीघे में इस साल वे धान करना चाह रहे थे। उस के लिए नर्सरी में पौध भी तैयार कर चुके थे। लेकिन धान केवल भूगर्भिक जल के भरोसे तो नहीं की जा सकती है। उन्हों ने धान का रकबा कम कर के आधा कर दिया। आधी जमीन में तिल्ली फैंक दी। तिल्ली सूखे की फसल है। पानी के बिना भी उग आती है। खर्चा भी कुछ नहीं है। कम से कम नुकसान से तो बचेंगे। आधा रकबा जो धान के लिए छोड़ दिया गया है। सप्ताह भर यही हाल रहा तो वे इस में भी धान नहीं कर पाएँगे। आधी जमीनें बिना बोई छूट गई हैं। आधी में जो फसलें हैं उन से किसी तरह की कोई आशा नहीं है।
गाँव-गाँव में घास भैरूजी घसीटे जा रहे हैं। समस्या ये आ रही है कि वे लकड़ी की बनी तिपाई पर घसीटे जाते हैं। जहाँ अटक गए वहीं उन्हें खींचने के लिए नए बैलों की जोड़ियाँ जोड़ी जाती थीं। लेकिन गाँव तो बैलों की जोड़ियों से हीन हो चुके हैं। ट्रेक्टर हैं जिन की शक्ति के सामने भैरूजी क्या चीज हैं। फट्ट से घसीट कर पहुँचा दिए जा रहे हैं थान तक। अब समस्या ये भी है कि न तो माताजी पर भाव आ रहा है और न भैरूजी पर जो बताते थे कि पानी का क्या होगा और किसानी का साल कैसा रहेगा? भोली जनता के हाथों से मैंढ़की के ब्याह जैसे अंधविश्वास और टोटके छिन गए हैं।  बरसात के अभाव में मैंढ़की टर्रा भी नहीं रही है। उसे कैसे हासिल करें? किस का करें ब्याह। जनता नए टोटके ईजाद कर रही है। गाँव की औरतों ने खेत जोतने जा रहे ट्रेक्टर चालक से ट्रेक्टर छीन लिया, चालक को हटा कर उस के हाथ पैर बांध कर एक ओर पटक दिया और खुद ट्रेक्टर चला कर खेत में ले गई और खेत जा हाँका। इस से यह अहसास तो उन्हों ने जरूर करा दिया कि कभी खेती का आरंभ करने वाली वे ही थीं। लेकिन इस से बरसात कराने वाले सिस्टम पर जरा भी असर नहीं हुआ। पानी नहीं बरस रहा है तो नहीं ही बरस रहा है। 
क दिन जोरों की घटा छाई अंधेरा होने लगा। लेकिन तभी हवा चली और बादल उड़ चले। पता लगा कि बरसात कोई बीस किलोमीटर दूर हुई। नालों में पानी बहा जरूर पर रात भर में ही नाले फिर से सूख गए। तीस किलोमीटर दूर स्थित एक कस्बे में दो घंटों में दो इंच बरसात हो गई। लेकिन बाकी इलाका सूखा पड़ा है। कुल मिला कर जुलाई के महिना भी बरसात के लिए तरसते बीत रहा है। लोग कहते हैं यह पाप  बहुत बढ़ जाने का नतीजा है। लेकिन पापी हैं कि फिर भी पाप छोड़ने को तैयार नहीं हैं। अकाल की छाया चक्कर काटने लगी है। जन-जन उस की आशंका से भयभीत है। व्यापारी और जमाखोर अपने कर्तव्य निष्पादन में प्राण-प्रण से जुटे हैं। किसी भी तरह माल भर लें जिस से वक्त पर मनमाने दाम वसूल किए जा सकें। कमोबेश पूरे राजस्थान के ऐसे ही हालात हैं। लेकिन अभी तक राजस्थान की सरकार इस आशा में है कि पानी बेवक्त ही सही बरस ही जाएगा। अकाल से निपटने की कोई तैयारी नजर नहीं आती। अभी तक तो मुख्य मंत्री तो क्या किसी प्यादे ने भी यह नहीं कहा है कि अकाल पड़ा तो जनता को घबराने की जरूरत नहीं है।  
नता में यह चर्चा बड़े जोरों पर है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ही अपशकुनी हैं। जब-जब भी मुख्य मंत्री बनते हैं, बरसात रूठ जाती है। यह चर्चा किसी राजनीति से प्रेरित नहीं है लेकिन संयोग ऐसा है कि चर्चित हो रही है। अब तो कांग्रेस के पास इस जन चर्चा से बचने का एक ही रास्ता है कि मुख्यमंत्री बदल दे। अब अल्पमत विपक्षी भाजपा तो इस चर्चा से तत्काल लाभ का सपना देख नहीं सकती। लेकिन अशोक गहलोत के प्रतिद्वंदी कांग्रेसियों के चेहरे पर यही जनचर्चा सुर्खी ला देती है। कहीं सोनिया तक यह चर्चा पहुँचे तो उन का ही भला हो। गहलोत हटें तो उन का चाँस लगे। ज्योतिषियों के बरासात के सारे पूर्वानुमान गलत सिद्ध हो चुके हैं, इतने कि इन दिनों नगर का कोई भी ज्योतिषी भविष्यवाणी करने का खतरा मोल लेने को तैयार नहीं है।  मैं हूँ कि दिन में तीन चार बार वेदर अंडरग्राउंड की साइट पर जा कर मौसम का पूर्वानुमान देख लेता हूँ। वहाँ पानी से भरपूर गुलाबी बादल दिखाई तो पड़ते हैं, लेकिन कहाँ जाते हैं यह पता नहीं लगता। पूर्वानुमान हर रोज बदल जाता है। बरसात होने की संभावना हर दिन आगे खिसक जाती है।

बुधवार, 21 जुलाई 2010

बहुत हो लिया पूर्व सैनिकों का कल्याण , अब ठेकेदारों के कल्याण का युग है

जरा नवभारत टाइम्स की ये खबर देखें....
स खबर में कहा गया है कि, "वर्तमान भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएएआई) द्वारा अधिकृत टोल प्लाजा पर काम कर रहे 25,000 पूर्व सैनिक  हैं, टोल प्लाजा पर साजो-सामान के साथ ही रणनीतिक सहयोग देने वाले ऐसे ही 10,000 पूर्व सैनिकों को अब इस काम पर से हटा कर बेरोजगार कर दिया जाएगा। अब इस काम को ठेके पर दे दिया जाएगा। एनएचएआई ने बीते 22 जून को इस फैसले के संबंध में एक आदेश पारित किया था। इस आदेश को लागू किए जाने के पहले चरण में देश भर के 50 टोल प्लाजा के लिए सरकारी टेंडर भी जारी कर दिए गए हैं। वर्ष 2004 से इन टोल प्लाजा पर पूर्व सैनिक काम कर रहे हैं। इन्हें नियोजित करने के बाद से टोल संग्रह की दर 15 फीसदी से बढ़कर 80 फीसदी तक हो गई है। देशभर की विभिन्न टोल प्लाजा से सरकार को 1700 करोड़ रुपये का रेवेन्यू मिलता है। इसके चलते पूर्व सैनिकों को एक सम्मानजनक रोजगार मिल रहा है। उन्हें वेतन के अतिरिक्त राजस्व का 10 फीसदी कमिशन भी मिलता है।
ब इस काम को ठेके पर दिया जाएगा।बहुराष्ट्रीय या उसी स्तर की कोई कंपनी यह काम करेगी। तब टोल टैक्स के काम को करने के लिए तमाम  असामाजिक तत्व भरती किए जाएँगे जिन्हें न्यूनतम वेतन भी दिया जाएगा या नहीं इस की कोई गारंटी नहीं है। लेकिन उन्हें पूरी छूट होगी कि वे निर्धारित लक्ष्य को पूरा करने के लिए उन लोगों से भी टोल लें जिन पर यह नहीं लगता है। जनता को परेशान करें। उन्हें अपनी आय बढ़ाने के भी अवसर होंगे। फिर जो लाभ आज पूर्व सैनिकों को मिल रहा है वह मुनाफे के रूप में कंपनी के पास जाए या फिर कमीशन के माध्यम से नेताओं, अफसरों की जेब में जाए। हो सकता है राजनैतिक पार्टियों को चुनाव लड़ने का चंदा भी इसी मुनाफे से मिले वर्तमान शासक दल को इस लिए कि उन्होंने ठेके की यह व्यवस्था लागू की और दूसरों को इस लिए कि वे सत्ता में आ जाएँ तो इस व्यवस्था को चालू रखें। बेरोजगार पूर्व सैनिकों के परिवार भूखे मरें तो मरें, उस से क्या? आखिर हमारा भारतीय राज्य एक कल्याणकारी है, बहुत हो लिया पूर्व सैनिकों का कल्याण, अब ठेकेदारों के कल्याण का युग है।

हालाँकि एनएचएआई के इस फैसले का पूर्व सैनिक विरोध कर रहे हैं। पिछले दिनों रिटायर्ड कर्नल एच. एस. चौधरी के नेतृत्व में पूर्व सैनिकों के एक प्रतिनिधिमंडल ने रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी से मुलाकात की थी और इस पर रोक लगाने की मांग की थी। एंटनी ने उन्हें आश्वासन दिया था कि वह सड़क व परिवहन मंत्री कमलनाथ से इस संबंध में चर्चा करेंगे। इन सैनिकों ने कमलनाथ से भी भेंट की और उनसे आग्रह किया कि पूर्व सैनिकों के परिवार के दो लाख सदस्यों को मुसीबत में डालने वाले अपने फैसले की वह फिर से समीक्षा करें।  पर ए.के. एंटनी और कमलनाथ क्या कर पाएंगे? यदि कुछ कर सके तो फिर नेताओँ अफसरों की जेबें कैसे भरेंगी?  अगला चुनाव लड़ने के लिए पार्टियों को चंदा कहाँ से मिलेगा? विपक्ष भी इस मामले में चुप है। आखिर उसे भी तो अगला चुनाव लड़ने के लिए चंदा चाहिए।

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

तदर्थवाद देश को एक बड़े कूड़ेदान में तब्दील कर रहा है

र में बच्चों में झगड़ा हुआ, छोटा बड़े की पीठ पर चढ़ गया और कंधे पर काट लिया। बड़े का कंधा घायल हुआ, उसे अस्पताल ले जाना पड़ा। जब घर के मुखिया से पूछा कि ये कैसे हुआ? तो वह कहने लगा -हमारे बच्चे तो ऐसे नहीं हैं। लगता है किसी ने षड़यंत्र किया है। 
रेल पर रेल चढ़ गई तकरीबन 70 लोगों की जानें गईं। कितने ही घायल हो कर अपंग हो गए, एक रेल इंजन और कितने ही डब्बे नष्ट हो गए। कितने ही अपने परिजनों की मृत्यु से बेसहारा हो गए।  लेकिन ममता दी भी यही कह रही हैं, षड़यंत्र औऱ तोड़-फोड़ की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। चार दशक पहले ऐसे ही सुनने को मिलता था कि यह सीआईए का षड़यंत्र है या केजीबी ने ऐसा किया है। हालाँकि इस हादसे के वक्त रेल मंत्री का यह बयान पूरी तरह बचकाना है।

लो मान भी लिया जाए कि यह षड़यंत्र है, तो क्या रेल प्रबंधकों की यह जिम्मेदारी नहीं कि वे ऐसे किसी भी तरह के षड़यंत्र से बचने की व्यवस्था रखें। लेकिन इस हादसे को षड़यंत्र का नाम देना पूरी तरह से अपनी जिम्मेदारी से तौबा करना है। बाद में इसे मानवीय भूल कहा जा सकता है, या फिर तकनीकी त्रुटि। तकनीकी त्रुटि भी अंततः मानवीय भूल ही होती है। क्यों कि वह भी मानवीय भूल या लापरवाही का नतीजा होती है। 
वास्तव में पिछले तीस वर्षों से देश जिस रास्ते पर चल रहा है उस के अंतर्गत हर स्थान पर मनुष्य को विस्थापित कर तकनीक को स्थान दिया गया है। जब कि यह देश जहाँ जनसंख्या दुनिया में सर्वाधिक घनी है और दुनिया की सर्वाधिक जनसंख्या वाला भूखंड होने जा रहा है। जहाँ दुनिया के सर्वाधिक बेरोजगार लोग निवास करते हैं जिन की संख्या लाखों  में  नहीं करोड़ों में है वहाँ तकनीक का विस्तार इस रीति से होना चाहिए था कि लोग बेरोजगार न हों, अपितु नए रोजगारों का सृजन हो। लेकिन हो इस का उलटा रहा है। 
कनीक पर अरबों रुपयों का खर्च हो रहा है और नतीजे के रूप में रोजगार पर लगे लोग बेरोजगार कर दिए जाते हैं। इस अनुसंधान पर करोड़ों रुपयों का खर्च हो रहा है कि कैसे कम से कम लोगों के नियोजन से उद्यम चलाए जा सकते हैं? जो उद्यम बिना मानवीय हाथों के नहीं चल सकते वहाँ और बुरी स्थिति है। सरकारें कंगाल हैं। उस का उदाहरण है, सरकारी विभागों में लाखों पद रिक्त पड़े हैं। रिक्त पदों के कारण जरूरी काम लंबित पड़े रहते हैं। नगरपालिकाओं में सफाई कर्मचारी नहीं हैं, सारा देश गंदगी से अटा पड़ा है, भौतिक और मानसिक दोनों तरह की। सरकार के पास विभागों में कर्मचारी कम हैं। बिजली कंपनियों में कर्मचारियों की कमी है। और रेल में वहाँ तो स्थिति और भी भयानक है। पिछले तीस बरसों में रेलों का लगातार विस्तार हुआ है। लगभग दुगनी से भी अधिक माल और सवारियाँ ढोई जा रही हैं लेकिन वहाँ नियोजित कर्मचारियों की संख्या आधी से भी कम रह गई है। 
सा लगता है कि दो या तीन खेमों वाली राजनैतिक प्रणाली में राजनेता जानता है कि पाँच साल बाद उसे फिर से सड़क पर आने है। वह सिर्फ तदर्थ रुप से काम करता है। यह तदर्थवाद देश को एक बड़े कूड़ेदान में तब्दील कर रहा है। वह देश को सिर्फ पाँच वर्ष के लिए चलाता है। आरंभिक वर्षों में जैसे चले चलाओ। अगले चुनाव के वक्त बताने लायक काम दिखाओ, जब चुनाव नजदीक आ जाएँ तो जनता के धन को वोट कबाड़ू योजनाओं में बरबाद करो। जब सरकार बदल कर नए दल या गठबंधन की आती है तो सब से पहले यही घोषणा करती है कि जाने वाली सरकार खजाना खाली छोड़ गई है।
मता दी के लिए रेल मत्रालय तदर्थ ही है, उन का पूरा ध्यान बंगाल पर है कैसे वहाँ तृणमूल दल का राज स्थापित हो। देश का तृणमूल भले ही सूखा और नष्ट होता रहे, किसी को उस की फिक्र नहीं। पर ऐसे में जब तृणमूल (Grass-root) का जीवन नष्ट होने की कगार पर चला जाए तो अपने जीवन की रक्षा के लिए उसे ही प्रयत्न करने होंगे। तमाम राजनैतिक दलों ने अब तक निराश किया है। अब जनता की एक बड़ी ताकत की आवश्यकता है जो इस देश को बदल सके, इस देश की जनता के जीवन और भविष्य के लिए। हम छोटे छोटे लोगों को ही उस ताकत को बनाना होगा। इस का उपाय यही है कि छोटे से छोटे स्तर पर जहाँ भी जितनी भी संख्या में हम संगठित हो सकते हों हों, अपने जीवन की रक्षा और उस की अक्षुणता के लिए। ये छोटे-छोटे संगठन ही किसी दिन बड़े और विशाल देशव्यापी संगठन का रूप धारण कर लेंगे।


सोमवार, 19 जुलाई 2010

नागरिक और मानवाधिकार हनन का प्रतिरोध करने को समूह बनाएँ

विगत आलेख  पुलिस को कहाँ इत्ती फुरसत कि ..............?   पर अब तक अंतिम  टिप्पणी श्री Bhavesh (भावेश ) की है कि 'रक्षक के रूप में भक्षक और इंसानियत के नाम पर कलंक इस देश की पुलिस से जितना दूर रहे उतना ही ठीक है.'  मुझे भावेश की ये टिप्पणी न जाने क्यों अंदर तक भेद गई। मुझे लगा कि यह रवैया समस्या से दूर भागने का है, जो आजकल आम दिखाई पड़ता है। 
दालत पुलिस को सिर्फ जाँच के लिए मामला भेजती है जिस में पुलिस को केवल मात्र गवाहों के बयानों और दस्तावेज आदि के आधार पर अपनी रिपोर्ट देनी है कि मामला क्या है। इस रिपोर्ट से कोई अपराध होना पाया जाता है या नहीं पाया जाता है इस बात का निर्णय अदालत को करना है। अपराध पाया जाने पर क्या कार्यवाही करनी है यह भी अदालत को तय करना है ऐसे में पुलिस एक व्यक्ति को जिस ने कोई अपराध नहीं किया है। यह कहती है कि तुम बीस हजार रुपए दे दो और आधा प्लाट अपने भाई को दे दो तो हम मामला यहीं रफा-दफा कर देते हैं, अन्यथा तुम्हें मुकदमे में घसीट देंगे। ऐसी हालत में पुलिस जो पूरी तरह से गैर कानूनी काम कर रही है उस का प्रतिरोध होना ही चाहिए। 
ब से पहला प्रतिरोध तो उस के इन अवैधानिक निर्देशों की अवहेलना कर के होना चाहिए। संबंधित पुलिस अफसर के तमाम बड़े अफसरों को इस की खबर की जानी चाहिए और अदालत को भी इस मामले में सूचना दी जानी चाहिए। यह सीधा-सीधा मानवाधिकारों का हनन है। यदि इस का प्रतिरोध नहीं किया जाता है तो सारे नागरिक अधिकार और मानवाधिकार एक दिन पूरी तरह ताक पर रख दिए जाएंगे।  कुछ तो पहले ही रख दिए गए हैं। वास्तव में जब भी किसी देश के नागरिक अपने नागरिक अधिकारों के हनन को सहन करने लगते हैं तो यह आगे बढ़ता है। 
ब भी एक अकेला व्यक्ति ऐसा प्रतिरोध करता है तो यह बहुत संभव है कि पुलिस उसे तंग करे। उस के विरुद्ध फर्जी मुकदमे बनाने के प्रयत्न करे। लेकिन जब यही प्रतिरोध एक समुदाय की और से सामने आता है तो पुलिस की घिघ्घी बंध जाती है। क्यों कि वह जानती है समुदाय में ताकत होती है, जिस से वह लड़ नहीं सकती। समुदाय की जायज मांगों पर देर सबेर कार्यवाही अवश्य हो सकती है। फिर पुलिस एक मुहँ तो बंद कर सकती है लेकिन जब मुहँ पचास हों तो यह उस के लिए भी संभव नहीं है। जब समुदाय बोलने लगता है तो राजनैताओं को भी उस पर ध्यान देना जरूरी हो जाता है, शायद इस भय से ही सही कि अगले चुनाव में जनता के बीच कैसे जाया जा सकता है। इस तरह की घटनाएँ समुदाय के मुहँ पर आ जाने के बाद अखबारों और मीडिया को भी बोलना आवश्यक प्रतीत होने लगता है।
म में से कोई भी ऐसा नहीं जो किसी न किसी समुदाय का सदस्य न हो। वह काम करने के स्थान का समुदाय हो सकता है। वह मुहल्ले को लोग हो सकते हैं। वे किसी अन्य जनसंगठन के लोग भी हो सकते हैं। निश्चित रूप से हमें इस तरह की घटनाओं की सूचना सब से पहले समुदाय को दे कर उसे सक्रिय करना चाहिए। एक बाद और कि हमें समुदाय को संगठित करने की ओर भी ध्यान देना चाहिए। हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि जहाँ हम रहते हैं वहाँ के निवासियों की एक सोसायटी तो कम से कम बना ही लें और उस का पंजीयन सोसायटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के अंतर्गत करा लें। इस से उस क्षेत्र के बाशिंदों को एक सामाजिक और कानूनी पहचान मिलती है। इस के लिए कुछ भागदौड़ तो करनी पड़ सकती है। लेकिन यह सोसायटी है बड़े काम की चीज और ऐसे ही आड़े वक्त काम आती है। एक बात और कि सोसायटी बनने पर चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार भी सोसायटी को पूछने लगते हैं। निश्चित रूप से एक-एक वोट के स्थान पर समूहबद्ध वोटों का अधिक महत्व है। लोगों का संगठनीकरण आवश्यक है।