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रविवार, 28 अप्रैल 2013

ये आग नहीं बुझेगी

ल सुबह टंकी पर चढ़े सेमटेल-सेमकोर पिक्चर ट्यूब कारखानों के श्रमिक प्रशासन से बातचीत और आश्वासनों के बाद शाम को टंकी से नीचे उतर गए। पर प्रश्न है कि क्या प्रशासन उन्हें उन का बकाया वेतन दिलवा सकेगा? कारखाने 7 नवम्बर 2012 को बंद हुए थे। अक्टूबर 2012 के पूरे महिने श्रमिकों ने पूरी मेहनत से काम किया था और क्षमता से अधिक उत्पादन किया था। उस माह का वेतन भी आज तक बकाया है। इस वेतन को वसूल करने के लिए एक मुकदमा श्रमिकों की ओर से वेतन भुगतान प्राधिकारी के यहाँ पेश किया गया। जिस में निर्णय हुए आज चार माह हो चुके हैं। लेकिन न तो राज्य सरकार मालिक से वेतन की वसूली कर सकी है और न ही वसूल करने के लिए कंपनियों की संपत्ति पर कुर्की का कोई आदेश जारी कर सकी है। उलटे मालिक ने कारखाने बंद करने की जो अनुमति सरकार से मांगी थी उस आवेदन का 60 दिन में निर्णय कर के मालिक को सूचित न करने के कारण मालिक को स्वतः ही अनुमति मिल गई है। 

 
स से स्पष्ट है कि राजस्थान सरकार मालिकों के साथ है। मजदूरों के लिए उस के पास कुछ नहीं है। लगता है सरकार में बैठे मंत्रियों कि निगाहें इस कारखानों की बेशकीमती जमीन को हथिया कर उसे  बिल्डरों को बेच कर करोड़ों के वारे न्यारे करने की योजना की तरफ हैं। मजदूरों का क्या वे छह माह से हकों की लड़ाई लड़ रहे हैं कितने दिन लड़ेंगे। जब खाने को नहीं बचेगा और किरानी और मकान मालिक अपने पैसों के लिए दबाव डालेंगे तो वे अपने आप मैदान छोड़ कर भाग जाएंगे।  आज देश में जो सरकारें हैं वे इसी तरह काम कर रही हैं। उन्हें काम करने वालों से बस इतना मतलब है कि काम करने के वक्त वे काम करते रहें। उन्हें उन की मजदूरी और उन के हक मिलें न मिलें इस की उन्हें कोई परवाह नहीं।

लेकिन जो आग मजदूरों में, उन के परिवारों के सदस्यों में, स्कूल जाने वाले बच्चों में पैदा हुई है वह नहीं बुझेगी। सरकार और पूंजीपति समझ रहे हैं कि उस पर राख पड़ जाएगी। पर आग तो आग है, वह राख के नीचे भी सुलगती रहेगी। फिर यह आग पेट की भूख से पैदा हुई है जो कभी नहीं बुझती।  इन मजदूरों के परिवार कुछ महिनों में अपने अपने गाँव चले जाएंगे या फिर रोजगार की तलाश में देश के विभिन्न हिस्सों में चले जाएंगे। सरकार, नौकरशाह और पूंजीपति समझेंगे काम खत्म। लेकिन ये लोग देश के जिस भी हिस्से में जाएंगे आग को साथ ले जाएंगे।  

रकार, नौकरशाह और पूंजीपति जान लें कि उन्हों ने हनुमान नाम के बंदर की पूंछ में आग लगा दी है। उस की पूंछ की यह आग तभी बुझेगी जब लंका के तमाम सोने के महल आग की भेंट न चढ़ जाएंगे।

बुधवार, 9 मार्च 2011

महिलाओं का समान अधिकार प्राप्त करने का संकल्प धर्म की सत्ता की समाप्ति की उद्घोषणा है

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस था। हिन्दी ब्लाग जगत की 90% पोस्टों पर महिलाएँ काबिज थीं। उन की खुद की पोस्टें तो थीं ही, पुरुषों की पोस्टों पर भी वे ही काबिज थीं। महिला दिवस के बहाने धार्मिक प्रचार की पोस्टों की भरमार थीं। कोई उन्हें देवियाँ घोषित कर रहा था तो कोई उन्हें केवल अपने धर्म में ही सुरक्षित समझ रहा था। मैं शनिवार-रविवार यात्रा पर था। आज मध्यान्ह बाद तक वकालत ने फुरसत न दी। अदालत से निकलने के पहले कुछ साथियों के साथ चाय पर बैठे तो मैं ने अनायास ही सवाल पूछ डाला कि क्या कोई धर्म ऐसा है जो महिलाओं को पुरुषों से अधिक या उन के बराबर अधिकार देता हो। जवाब नकारात्मक था। दुनिया में कोई धर्म ऐसा नहीं जो महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार देता हो। कोई उन्हें देवियाँ बता कर भ्रम पैदा करता है तो कोई उन्हें केवल पुरुष संरक्षण में ही सुरक्षित पाता है मानो वह जीती जागती मनुष्य न हो कर केवल पुरुष की संपत्ति मात्र हों। मैं ने ही प्रश्न उछाला था, लेकिन चर्चा ने मन खराब कर दिया। 
चाय के बाद तुरंत घर पहुँचा तो श्रीमती जी  टीवी पर आ रही एक प्रसिद्ध कथावाचक की लाइव श्रीमद्भागवतपुराण कथा देख-सुन रही थीं। साथ के साथ साड़ी पर फॉल टांकने का काम भी चल रहा था। फिर प्रश्न उपस्थित हुआ कि क्यों महिलाएँ धर्म की ओर इतनी आकर्षित होती हैं?  जो चीज उन्हें पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त करने से रोक रही हैं, उसी ओर क्यों प्रवृत्त होती हैं। लाइव कथा में स्त्रियों की संख्या पुरुषों से दुगनी से भी अधिक थी। वास्तव में उन में से अधिक महिलाएँ तो वे थीं जो स्वतंत्रता पूर्वक केवल ऐसे ही आयोजनों में जा सकती थीं। लेकिन इन आयोजनों को करने में पुरुषों और व्यवस्था की ही भूमिका प्रमुख है। शायद इस लिए कि पुरुष चाहते हैं कि महिलाओं को इस तरह के आयोजनों में ही फँसा कर रखा जाए। इन के माध्यम से लगातार उन के जेहन में यह बात ठूँस-ठूँस कर भरी जाए कि पुरुष के आधीन रहने में ही उन की भलाई है।
न सब तथ्यों ने मुझे इस निष्कर्ष तक पहुँचाया कि महिलाओं की पुरुषों के समान अधिकार और समाज में बराबरी का स्थान प्राप्त करने का उन का संघर्ष तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि वे धर्म से मुक्ति प्राप्त नहीं कर लेती। महिलाओं का समान अधिकार प्राप्त करने का संकल्प धर्म की सत्ता की समाप्ति की उद्घोषणा है। इस बात से महिलाओं को समान अधिकार प्रदान करने के विरोधी धर्म-प्रेमी बहुत चिंतित हैं।  आजकल ब्लाग जगत में  इस तरह के लेखों की बाढ़ आई हुई है और वे स्त्रियों को धर्म की सीमाओं में बांधे रखने के लिए न केवल हर तीसरी पोस्ट में पुरानी बातों को दोहराते हैं, अपितु एक ही पोस्ट को एक ही दिन कई कई ब्लागों पर चढ़ाते रहते हैं। मुझे तो ये हरकतें बुझते हुए दीपक की तेज रोशनी की तरह प्रतीत होती हैं।

सोमवार, 19 जुलाई 2010

नागरिक और मानवाधिकार हनन का प्रतिरोध करने को समूह बनाएँ

विगत आलेख  पुलिस को कहाँ इत्ती फुरसत कि ..............?   पर अब तक अंतिम  टिप्पणी श्री Bhavesh (भावेश ) की है कि 'रक्षक के रूप में भक्षक और इंसानियत के नाम पर कलंक इस देश की पुलिस से जितना दूर रहे उतना ही ठीक है.'  मुझे भावेश की ये टिप्पणी न जाने क्यों अंदर तक भेद गई। मुझे लगा कि यह रवैया समस्या से दूर भागने का है, जो आजकल आम दिखाई पड़ता है। 
दालत पुलिस को सिर्फ जाँच के लिए मामला भेजती है जिस में पुलिस को केवल मात्र गवाहों के बयानों और दस्तावेज आदि के आधार पर अपनी रिपोर्ट देनी है कि मामला क्या है। इस रिपोर्ट से कोई अपराध होना पाया जाता है या नहीं पाया जाता है इस बात का निर्णय अदालत को करना है। अपराध पाया जाने पर क्या कार्यवाही करनी है यह भी अदालत को तय करना है ऐसे में पुलिस एक व्यक्ति को जिस ने कोई अपराध नहीं किया है। यह कहती है कि तुम बीस हजार रुपए दे दो और आधा प्लाट अपने भाई को दे दो तो हम मामला यहीं रफा-दफा कर देते हैं, अन्यथा तुम्हें मुकदमे में घसीट देंगे। ऐसी हालत में पुलिस जो पूरी तरह से गैर कानूनी काम कर रही है उस का प्रतिरोध होना ही चाहिए। 
ब से पहला प्रतिरोध तो उस के इन अवैधानिक निर्देशों की अवहेलना कर के होना चाहिए। संबंधित पुलिस अफसर के तमाम बड़े अफसरों को इस की खबर की जानी चाहिए और अदालत को भी इस मामले में सूचना दी जानी चाहिए। यह सीधा-सीधा मानवाधिकारों का हनन है। यदि इस का प्रतिरोध नहीं किया जाता है तो सारे नागरिक अधिकार और मानवाधिकार एक दिन पूरी तरह ताक पर रख दिए जाएंगे।  कुछ तो पहले ही रख दिए गए हैं। वास्तव में जब भी किसी देश के नागरिक अपने नागरिक अधिकारों के हनन को सहन करने लगते हैं तो यह आगे बढ़ता है। 
ब भी एक अकेला व्यक्ति ऐसा प्रतिरोध करता है तो यह बहुत संभव है कि पुलिस उसे तंग करे। उस के विरुद्ध फर्जी मुकदमे बनाने के प्रयत्न करे। लेकिन जब यही प्रतिरोध एक समुदाय की और से सामने आता है तो पुलिस की घिघ्घी बंध जाती है। क्यों कि वह जानती है समुदाय में ताकत होती है, जिस से वह लड़ नहीं सकती। समुदाय की जायज मांगों पर देर सबेर कार्यवाही अवश्य हो सकती है। फिर पुलिस एक मुहँ तो बंद कर सकती है लेकिन जब मुहँ पचास हों तो यह उस के लिए भी संभव नहीं है। जब समुदाय बोलने लगता है तो राजनैताओं को भी उस पर ध्यान देना जरूरी हो जाता है, शायद इस भय से ही सही कि अगले चुनाव में जनता के बीच कैसे जाया जा सकता है। इस तरह की घटनाएँ समुदाय के मुहँ पर आ जाने के बाद अखबारों और मीडिया को भी बोलना आवश्यक प्रतीत होने लगता है।
म में से कोई भी ऐसा नहीं जो किसी न किसी समुदाय का सदस्य न हो। वह काम करने के स्थान का समुदाय हो सकता है। वह मुहल्ले को लोग हो सकते हैं। वे किसी अन्य जनसंगठन के लोग भी हो सकते हैं। निश्चित रूप से हमें इस तरह की घटनाओं की सूचना सब से पहले समुदाय को दे कर उसे सक्रिय करना चाहिए। एक बाद और कि हमें समुदाय को संगठित करने की ओर भी ध्यान देना चाहिए। हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि जहाँ हम रहते हैं वहाँ के निवासियों की एक सोसायटी तो कम से कम बना ही लें और उस का पंजीयन सोसायटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के अंतर्गत करा लें। इस से उस क्षेत्र के बाशिंदों को एक सामाजिक और कानूनी पहचान मिलती है। इस के लिए कुछ भागदौड़ तो करनी पड़ सकती है। लेकिन यह सोसायटी है बड़े काम की चीज और ऐसे ही आड़े वक्त काम आती है। एक बात और कि सोसायटी बनने पर चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार भी सोसायटी को पूछने लगते हैं। निश्चित रूप से एक-एक वोट के स्थान पर समूहबद्ध वोटों का अधिक महत्व है। लोगों का संगठनीकरण आवश्यक है।