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शुक्रवार, 20 अगस्त 2021

स्त्री-पुरुष संवाद अगस्त 2021

- आखिर, यह नियम किसने बनाया कि स्त्री एक से अधिक पुरुषों से यौन सम्बन्ध नहीं बना सकती, जबकि पुरुष एक से अधिक स्त्रियों से एक ही काल खंड में यौन संबंध बना कर रख सकता है?
- निश्चित रूप से, समाज ने.
- तो उस समाज में स्त्रियाँ नागरिक नहीं रही होंगी. उन्हें नागरिकों के कुछ अधिकार रहे हो सकते हैं, लेकिन वे पुरुष समान नहीं थे. रहे होते तो समाज में यह नियम चल नहीं सकता था.
- लेकिन अब तो सभ्य समाजों में दोनों के लिए यही नरम है.
- है, लेकिन वहीं, जहाँ पुरुष कमजोर है और नियमों को मानना उसकी विवशता है. यह विवशता हटते ही वह अपनी मनमानी करने लगता है.
- हां, ऐसा तो है.
- तो सबको मनमानी क्यों न करने दिया जाए, जब तक कि किसीज्ञके साथ जबर्दस्ती न की जाए? पुरुषों के लादे गए इस नियम को क्यों न ध्वस्त कर दिया जाए?
- उससे तो समाज में अराजकता फैल जाएगी. पुरुष को यह पता ही नहीं चलेगा कि कौन उसकी सन्तान है, और कौन नहीं? सन्तान की पहचान ही मिट जाएगी. शब्दकोश से पिता शब्द ही मिट जाएगा.
- केवल स्त्री संतान की पहचान क्यों नहीं हो सकती? जैसे सदियों से पुरुष चला आ रहा है.
- जरूर हो सकती है. लेकिन पुरुष भी उसकी पहचान बना रहे तो क्या आपत्ति हो सकती है?
- मुझे कोई आपत्ति नहीं. लेकिन देखा जाता है कि स्त्री पुरुष के बीच संबन्ध समाप्त हो जाने पर पुरुष सन्तान को स्त्री से छीनने की कोशिश करता है और अक्सर कामयाब भी हो जाता है.
- हाँ, यह तो है. पर समाज में स्त्री-पुरुष समानता स्थापित हो जाने पर ऐसा नहीं हो सकेगा.
- हा हा हा, अब आई नाव में गाड़ी. स्त्री-पुरुष समानता स्थापित हो जाने पर तो स्त्री-पुरुष के लिए समाज के नियम बराबर हो जाएंगे. फिर या तो यौन संबंधों के मामले में स्त्रियों को आजादी देनी होगी. या यह नियम बनाना होगा कि साथ रहने के काल खंड में दोनों किसी दूसरे के साथ यौन संबंध न बनाए.
- हां, यह तो करना पड़ेगा. पर फिर भी, गर्भकाल और संतान की परवरिश के आरंभिक काल में स्त्री कोई उत्पादक काम नहीं कर पाएगी. तब उत्पादक काम पुरुष को ही करने होंगे.
- तुम शायद भूल रहे हो कि मानव विकास के आरंभिक काल में जब मनुष्य केवल फल संग्राहक या शिकारी था तब तक एक मात्र उत्पादक कार्य संतानोत्पत्ति था और मनुष्य समाज का सबसे महत्वपूर्ण काम भी.
- हाँ, तब तो समाज में स्त्रियों की ही प्रधानता थी. वे ही सबसे महत्वपूर्ण थीं. वे ही समाज को नया सदस्य देती थीं. समाज के लिए एक सदस्य को खो देना आसान था, नए को जन्म देना और वयस्क और खुद मुख्तार होने तक पालन पोषण करना बहुत ही दुष्कर.
- और एक लंबे समय तक तो पुरुषों को यह भी पता नहीं था कि संतानोत्पत्ति में उनका भी कोई योगदान था. स्त्री ने खिलखिलाते हुए कहा.
- वही तो, तब पुरुषों की स्थिति अत्यंत दयनीय रही होगी. तभी उन्होंने पितृसत्ता स्थापित कर बदला लिया. पुरुष भी इतना कह कर खिलखिलाया.
- बहुत हुआ, तुम्हारा यह बदला-सिद्धान्त नहीं चलने का. सदियों पुरुष ने स्त्रियों को हलकान रखा है, अब ऐसा नहीं चलेगा. स्त्रियां तेजी से समझदार हो रही हैं. देख नहीं रहे. अभी तालिबान को काबुल पहुंचे हफ्ता भी नहीं हुआ कि वहाँ स्त्रियाँ दमन के विरुद्ध आवाज उठाने लगी हैं.
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सोमवार, 9 मार्च 2020

समानता के लिए विशाल संघर्ष की ओर



तरह-तरह के दिवस मनाना भी अब एक रवायत हो चली है। हमारे सामने एक दिन का नामकरण करके डाल दिया जाता है और हम उसे मनाने लगते हैं। दिन निकल जाता है। कुछ दिन बाद कोई अन्य दिन, कोई दूसरा नाम लेकर हमारे सामने धकेल दिया जाता है। कल सारी दुनिया स्त्री-दिवस मना रही थी। इसी महिने की आखिरी तारीख 31 मार्च को ट्रांसजेंडर-डे मनाने वाली है। अभी चार महीने पहले 19 नवम्बर को पुरुष दिवस भी मना चुकी है।

इस तरह दुनिया ने इंसान को तीन खाँचों में बाँट लिया है। यह पुरुष, वह स्त्री और शेष ट्रांसजेंडर। यह सही है कि ये तीनों प्रकार प्रकृति की देन हैं। स्त्री-पुरुष प्रकृति में  मनुष्य जाति की जरूरतों के कारण पैदा हुए और तीसरा प्रकार प्रकृति या मनुष्य की खुद की खामियों से जन्मा। पर प्रकृति अपनी गति से आगे बढ़ती है। वह कभी एक सी नहीं बनी रहती। यह संपूर्ण यूनिवर्स, हमारी धरती एक क्षण में जैसे होते हैं, अगले ही क्षण वैसे नहीं रह जाते। यहाँ तक कि जीवन के सबसे छोटे सदस्य वायरस तक भी लगातार बदलते रहते हैं। अभी जिस 'नोवल कोरोना' वायरस ने दुनिया में कोहराम मचाया हुआ है। रिसर्च के दौरान उसकी भी दो किस्में सामने आ गयी हैं। एक 'एल टाइप' और दूसरा 'एस टाइप'। चीन के वुहान नगर में जहाँ सब से पहले इस वायरस ने अपना बम फोड़ा। उसी नगर में 70 प्रतिशत रोगी 'एल टाइप' वायरस से संक्रमित थे जो अधिक जानलेवा सिद्ध हुआ है। दूसरा 'एस टाइप' कम खतरनाक कहा जा रहा है। अब यह कहा जा रहा है कि यह 'उत्प्रेरण' (म्यूटेशन) के कारण हुआ है। यह भी कहा जा रहा है कि वायरसों में अक्सर 'उत्प्रेरण' होते रहते हैं। यह भी कि कमजोर वायरस 'सरवाइवल ऑफ दी फिटेस्ट' के विकासवादी नियम से नष्ट हो जाते हैं और केवल अपनी जान बचा सकने वाले शक्तिशाली ही बचे रहते हैं। यह भी कि जो टीका 'एल' टाइप वायरस से बचाव के लिए तैयार होगा वही उससे कमजोर टाइपों के लिए भी काम करता रहेगा।

यहाँ कोरोना वायरस का उल्लेख केवल जगत और जीव जगत में लगातार हो रहे परिवर्तनों और उसके सतत परिवर्तनशील होने के सबूत के रूप में घुस गया था। बात का आरंभ तो 'स्त्री-दिवस' से हुआ था और साथ ही मैंने 'ट्रांसजेंडर दिवस' और 'पुरुष दिवस' का उल्लेख भी किया था। हम मनुष्यों के भिन्न प्रकारों के आधार पर इस तरह के दिवस बना सकते हैं और उन्हें सैंकड़ों यहाँ तक कि हजारों प्रकारों में बाँट सकते हैं और हर दिन तीन-चार प्रकारों के दिवस मना सकते हैं।

जब भी इस तरह का कोई दिवस सामने आता है तो मैं सोचता हूँ इस पर अपने विचार लिखूँ। जैसे ही आगे सोचने लगता हूँ, धीरे-धीरे एक अवसाद मुझे घेर लेता है। कल भी यही हुआ। मैं ने दिन में तीन-चार बार फेसबुक पोस्ट लिख कर मिटा दी। एक बार तो पोस्ट प्रकाशित करके अगले कुछ सैकण्डों में ही उसे हटा भी दिया। बस एक ही तरफ सोच जाती रही कि हम कब तक इस तरह इंसान को इन खाँचों में बाँट कर देखते रहेंगे। जब गुलाब की बगिया में गुलाब खिलते हैं तो कोई दो गुलाब एक जैसे नहीं होते। ऊपर की टहनी पर खिलने वाला गुलाब ज्यादा सेहतमंद हो सकता है और नीचे कहीं धूप की पहुँच से दूर कोई गुलाब कम सेहतमंद। लेकिन माली उनमें कोई भेद नहीं करता। वह सभी की सुरक्षा करता है, सभी को सहेजता है और आखिर सभी को एक साथ तोड़ कर बाजार में उपयोग के लिए भेज देता है। बाजार में जा कर व्यापारी उसमें भेद करता है। बड़े फूल सजावट और उपहार के लिए निकाल दिए जाते हैं तो शेष को इत्र, गुलाब जल और गुलकंद आदि बनाने के लिए कारखानों में भेज देता है।

ठीक यही बात मैं इंसानों के लिए भी कहना चाहता हूँ कि मनुष्य में जो भेद करने वाले लोग हैं वे असल में इन्सान नहीं रह गए हैं और व्यापारी हो गए हैं। वे उपयोग के हिसाब से मनुष्य और उनके प्रकारों के साथ व्यवहार करने लगते हैं। जिनके “खून में ही व्यापार है”  मनुष्य उनके लिए वस्तु मात्र रह जाता है।  समय के साथ और भी अनेक प्रकारों में हमने मनुष्य को बाँटा है। जैसे कुछ लोग स्वामी थे तो कुछ लोग दास, कुछ लोग जमींदार हो गए तो कुछ लोग जमीन से बांध कर किसान बना दिए गए। फिर कुछ लोग पूंजीपति हो गए और बहुत सारे मजदूर हो गए। हमने उन्हें काम के हिसाब से जातियों में बाँट दिया। कुछ उच्च जातियाँ हो गयी तो कुछ निम्न जातियाँ। इन भेदों के हिसाब भी हमने दिन बना रखे हैं। लेकिन दिवस सिर्फ कमजोरों के लिए बनाए गए। ताकि उन्हें एक दिन दे दिया जाए जिससे वे एक कमतर जिन्दगी से पैदा अवसाद को कुछ वक्त के लिए भुला सकें। दुनिया में एक मजदूर दिवस है लेकिन पूंजीपति दिवस नहीं है। लुटेरों को दिवस मनाने की क्या जरूरत? उनके लिए तो हर दिन ही लूट का दिवस है। इसी तरह कुछ वक्त पहले तक पुरुष दिवस का कोई अस्तित्व नहीं था। लेकिन जब से स्त्री के प्रति भेदभाव को समाप्त करने वाले कानून अस्तित्व में आए और उसने लड़ना आरंभ किया तब से एक स्त्री-दिवस अस्तित्व में आ गया। मेरे अवसाद का कारण भी यही है।

मजदूर दिवस केवल मजदूरों के अवसाद को दूर नहीं करता बल्कि उन्हें उस लड़ाई के लिए भी प्रेरित करता है जिस से वे दुनिया के तमाम दूसरे मनुष्यों के समान व्यवहार प्राप्त कर सकें। उसी तरह स्त्री-दिवस भी उस लड़ाई के लिए प्रेरित करता है जिस से स्त्रियाँ दुनिया में पुरुषों के समान व्यवहार प्राप्त कर सकें। हर मनाए जाने वाले 'दिवस' और हर 'उचित और सच्चे संघर्ष' के पीछे मुझे मनुष्य और मनुष्य के बीच समानता के व्यवहार की का संघर्ष दिखाई देता है। इन संघर्षों को हमने 'मनुष्य-मनुष्य'  के बीच असमान व्यवहार को जन्म देने और उसे बनाए रखने वाले शैतानों द्वारा किए गए 'शैतानी वर्गीकरण' वाले नाम ही दे दिए हैं। इस तरह हमारी समानता के लिए चल रही लड़ाई अनेक रूपों में बँट गयी है। जिसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि हम अपने लक्ष्यों से भटक कर लड़ रहे हैं और ज्यादातर आपस में ही लड़ रहे हैं और अपनी शक्ति को व्यर्थ करने में लगे हैं। आज हमारे देश में हमें तुरन्त बेरोजगारी से मुक्ति, हर एक को समान शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा के लिए लड़ना चाहिए। लेकिन शैतानों ने उस लड़ाई को कानून पास करके हिन्दू-मुसलमान की लड़ाई में बदल दिया है। हम उस लड़ाई के मोहरे बना दिए गए हैं।

आज जरूरत यही है कि इन छोटी-बड़ी लड़ाइयों को उसी तरह आपस में मिला दिया जाए, जैसे आसपास की सब नदियाँ एक बड़ी नदी में मिल जाती हैं और पानी सागर की ओर बढ़ता रहता है। हमें भी अपनी समानता की लड़ाई को इसी तरह आपस में जोड़ कर बड़ी बनाना चाहिए। जिस से मनुष्य और मनुष्य के बीच असमान व्यवहार से मुक्त बेहतर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकें।

बुधवार, 9 मार्च 2011

महिलाओं का समान अधिकार प्राप्त करने का संकल्प धर्म की सत्ता की समाप्ति की उद्घोषणा है

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस था। हिन्दी ब्लाग जगत की 90% पोस्टों पर महिलाएँ काबिज थीं। उन की खुद की पोस्टें तो थीं ही, पुरुषों की पोस्टों पर भी वे ही काबिज थीं। महिला दिवस के बहाने धार्मिक प्रचार की पोस्टों की भरमार थीं। कोई उन्हें देवियाँ घोषित कर रहा था तो कोई उन्हें केवल अपने धर्म में ही सुरक्षित समझ रहा था। मैं शनिवार-रविवार यात्रा पर था। आज मध्यान्ह बाद तक वकालत ने फुरसत न दी। अदालत से निकलने के पहले कुछ साथियों के साथ चाय पर बैठे तो मैं ने अनायास ही सवाल पूछ डाला कि क्या कोई धर्म ऐसा है जो महिलाओं को पुरुषों से अधिक या उन के बराबर अधिकार देता हो। जवाब नकारात्मक था। दुनिया में कोई धर्म ऐसा नहीं जो महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार देता हो। कोई उन्हें देवियाँ बता कर भ्रम पैदा करता है तो कोई उन्हें केवल पुरुष संरक्षण में ही सुरक्षित पाता है मानो वह जीती जागती मनुष्य न हो कर केवल पुरुष की संपत्ति मात्र हों। मैं ने ही प्रश्न उछाला था, लेकिन चर्चा ने मन खराब कर दिया। 
चाय के बाद तुरंत घर पहुँचा तो श्रीमती जी  टीवी पर आ रही एक प्रसिद्ध कथावाचक की लाइव श्रीमद्भागवतपुराण कथा देख-सुन रही थीं। साथ के साथ साड़ी पर फॉल टांकने का काम भी चल रहा था। फिर प्रश्न उपस्थित हुआ कि क्यों महिलाएँ धर्म की ओर इतनी आकर्षित होती हैं?  जो चीज उन्हें पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त करने से रोक रही हैं, उसी ओर क्यों प्रवृत्त होती हैं। लाइव कथा में स्त्रियों की संख्या पुरुषों से दुगनी से भी अधिक थी। वास्तव में उन में से अधिक महिलाएँ तो वे थीं जो स्वतंत्रता पूर्वक केवल ऐसे ही आयोजनों में जा सकती थीं। लेकिन इन आयोजनों को करने में पुरुषों और व्यवस्था की ही भूमिका प्रमुख है। शायद इस लिए कि पुरुष चाहते हैं कि महिलाओं को इस तरह के आयोजनों में ही फँसा कर रखा जाए। इन के माध्यम से लगातार उन के जेहन में यह बात ठूँस-ठूँस कर भरी जाए कि पुरुष के आधीन रहने में ही उन की भलाई है।
न सब तथ्यों ने मुझे इस निष्कर्ष तक पहुँचाया कि महिलाओं की पुरुषों के समान अधिकार और समाज में बराबरी का स्थान प्राप्त करने का उन का संघर्ष तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि वे धर्म से मुक्ति प्राप्त नहीं कर लेती। महिलाओं का समान अधिकार प्राप्त करने का संकल्प धर्म की सत्ता की समाप्ति की उद्घोषणा है। इस बात से महिलाओं को समान अधिकार प्रदान करने के विरोधी धर्म-प्रेमी बहुत चिंतित हैं।  आजकल ब्लाग जगत में  इस तरह के लेखों की बाढ़ आई हुई है और वे स्त्रियों को धर्म की सीमाओं में बांधे रखने के लिए न केवल हर तीसरी पोस्ट में पुरानी बातों को दोहराते हैं, अपितु एक ही पोस्ट को एक ही दिन कई कई ब्लागों पर चढ़ाते रहते हैं। मुझे तो ये हरकतें बुझते हुए दीपक की तेज रोशनी की तरह प्रतीत होती हैं।