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सोमवार, 9 मार्च 2020

समानता के लिए विशाल संघर्ष की ओर



तरह-तरह के दिवस मनाना भी अब एक रवायत हो चली है। हमारे सामने एक दिन का नामकरण करके डाल दिया जाता है और हम उसे मनाने लगते हैं। दिन निकल जाता है। कुछ दिन बाद कोई अन्य दिन, कोई दूसरा नाम लेकर हमारे सामने धकेल दिया जाता है। कल सारी दुनिया स्त्री-दिवस मना रही थी। इसी महिने की आखिरी तारीख 31 मार्च को ट्रांसजेंडर-डे मनाने वाली है। अभी चार महीने पहले 19 नवम्बर को पुरुष दिवस भी मना चुकी है।

इस तरह दुनिया ने इंसान को तीन खाँचों में बाँट लिया है। यह पुरुष, वह स्त्री और शेष ट्रांसजेंडर। यह सही है कि ये तीनों प्रकार प्रकृति की देन हैं। स्त्री-पुरुष प्रकृति में  मनुष्य जाति की जरूरतों के कारण पैदा हुए और तीसरा प्रकार प्रकृति या मनुष्य की खुद की खामियों से जन्मा। पर प्रकृति अपनी गति से आगे बढ़ती है। वह कभी एक सी नहीं बनी रहती। यह संपूर्ण यूनिवर्स, हमारी धरती एक क्षण में जैसे होते हैं, अगले ही क्षण वैसे नहीं रह जाते। यहाँ तक कि जीवन के सबसे छोटे सदस्य वायरस तक भी लगातार बदलते रहते हैं। अभी जिस 'नोवल कोरोना' वायरस ने दुनिया में कोहराम मचाया हुआ है। रिसर्च के दौरान उसकी भी दो किस्में सामने आ गयी हैं। एक 'एल टाइप' और दूसरा 'एस टाइप'। चीन के वुहान नगर में जहाँ सब से पहले इस वायरस ने अपना बम फोड़ा। उसी नगर में 70 प्रतिशत रोगी 'एल टाइप' वायरस से संक्रमित थे जो अधिक जानलेवा सिद्ध हुआ है। दूसरा 'एस टाइप' कम खतरनाक कहा जा रहा है। अब यह कहा जा रहा है कि यह 'उत्प्रेरण' (म्यूटेशन) के कारण हुआ है। यह भी कहा जा रहा है कि वायरसों में अक्सर 'उत्प्रेरण' होते रहते हैं। यह भी कि कमजोर वायरस 'सरवाइवल ऑफ दी फिटेस्ट' के विकासवादी नियम से नष्ट हो जाते हैं और केवल अपनी जान बचा सकने वाले शक्तिशाली ही बचे रहते हैं। यह भी कि जो टीका 'एल' टाइप वायरस से बचाव के लिए तैयार होगा वही उससे कमजोर टाइपों के लिए भी काम करता रहेगा।

यहाँ कोरोना वायरस का उल्लेख केवल जगत और जीव जगत में लगातार हो रहे परिवर्तनों और उसके सतत परिवर्तनशील होने के सबूत के रूप में घुस गया था। बात का आरंभ तो 'स्त्री-दिवस' से हुआ था और साथ ही मैंने 'ट्रांसजेंडर दिवस' और 'पुरुष दिवस' का उल्लेख भी किया था। हम मनुष्यों के भिन्न प्रकारों के आधार पर इस तरह के दिवस बना सकते हैं और उन्हें सैंकड़ों यहाँ तक कि हजारों प्रकारों में बाँट सकते हैं और हर दिन तीन-चार प्रकारों के दिवस मना सकते हैं।

जब भी इस तरह का कोई दिवस सामने आता है तो मैं सोचता हूँ इस पर अपने विचार लिखूँ। जैसे ही आगे सोचने लगता हूँ, धीरे-धीरे एक अवसाद मुझे घेर लेता है। कल भी यही हुआ। मैं ने दिन में तीन-चार बार फेसबुक पोस्ट लिख कर मिटा दी। एक बार तो पोस्ट प्रकाशित करके अगले कुछ सैकण्डों में ही उसे हटा भी दिया। बस एक ही तरफ सोच जाती रही कि हम कब तक इस तरह इंसान को इन खाँचों में बाँट कर देखते रहेंगे। जब गुलाब की बगिया में गुलाब खिलते हैं तो कोई दो गुलाब एक जैसे नहीं होते। ऊपर की टहनी पर खिलने वाला गुलाब ज्यादा सेहतमंद हो सकता है और नीचे कहीं धूप की पहुँच से दूर कोई गुलाब कम सेहतमंद। लेकिन माली उनमें कोई भेद नहीं करता। वह सभी की सुरक्षा करता है, सभी को सहेजता है और आखिर सभी को एक साथ तोड़ कर बाजार में उपयोग के लिए भेज देता है। बाजार में जा कर व्यापारी उसमें भेद करता है। बड़े फूल सजावट और उपहार के लिए निकाल दिए जाते हैं तो शेष को इत्र, गुलाब जल और गुलकंद आदि बनाने के लिए कारखानों में भेज देता है।

ठीक यही बात मैं इंसानों के लिए भी कहना चाहता हूँ कि मनुष्य में जो भेद करने वाले लोग हैं वे असल में इन्सान नहीं रह गए हैं और व्यापारी हो गए हैं। वे उपयोग के हिसाब से मनुष्य और उनके प्रकारों के साथ व्यवहार करने लगते हैं। जिनके “खून में ही व्यापार है”  मनुष्य उनके लिए वस्तु मात्र रह जाता है।  समय के साथ और भी अनेक प्रकारों में हमने मनुष्य को बाँटा है। जैसे कुछ लोग स्वामी थे तो कुछ लोग दास, कुछ लोग जमींदार हो गए तो कुछ लोग जमीन से बांध कर किसान बना दिए गए। फिर कुछ लोग पूंजीपति हो गए और बहुत सारे मजदूर हो गए। हमने उन्हें काम के हिसाब से जातियों में बाँट दिया। कुछ उच्च जातियाँ हो गयी तो कुछ निम्न जातियाँ। इन भेदों के हिसाब भी हमने दिन बना रखे हैं। लेकिन दिवस सिर्फ कमजोरों के लिए बनाए गए। ताकि उन्हें एक दिन दे दिया जाए जिससे वे एक कमतर जिन्दगी से पैदा अवसाद को कुछ वक्त के लिए भुला सकें। दुनिया में एक मजदूर दिवस है लेकिन पूंजीपति दिवस नहीं है। लुटेरों को दिवस मनाने की क्या जरूरत? उनके लिए तो हर दिन ही लूट का दिवस है। इसी तरह कुछ वक्त पहले तक पुरुष दिवस का कोई अस्तित्व नहीं था। लेकिन जब से स्त्री के प्रति भेदभाव को समाप्त करने वाले कानून अस्तित्व में आए और उसने लड़ना आरंभ किया तब से एक स्त्री-दिवस अस्तित्व में आ गया। मेरे अवसाद का कारण भी यही है।

मजदूर दिवस केवल मजदूरों के अवसाद को दूर नहीं करता बल्कि उन्हें उस लड़ाई के लिए भी प्रेरित करता है जिस से वे दुनिया के तमाम दूसरे मनुष्यों के समान व्यवहार प्राप्त कर सकें। उसी तरह स्त्री-दिवस भी उस लड़ाई के लिए प्रेरित करता है जिस से स्त्रियाँ दुनिया में पुरुषों के समान व्यवहार प्राप्त कर सकें। हर मनाए जाने वाले 'दिवस' और हर 'उचित और सच्चे संघर्ष' के पीछे मुझे मनुष्य और मनुष्य के बीच समानता के व्यवहार की का संघर्ष दिखाई देता है। इन संघर्षों को हमने 'मनुष्य-मनुष्य'  के बीच असमान व्यवहार को जन्म देने और उसे बनाए रखने वाले शैतानों द्वारा किए गए 'शैतानी वर्गीकरण' वाले नाम ही दे दिए हैं। इस तरह हमारी समानता के लिए चल रही लड़ाई अनेक रूपों में बँट गयी है। जिसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि हम अपने लक्ष्यों से भटक कर लड़ रहे हैं और ज्यादातर आपस में ही लड़ रहे हैं और अपनी शक्ति को व्यर्थ करने में लगे हैं। आज हमारे देश में हमें तुरन्त बेरोजगारी से मुक्ति, हर एक को समान शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा के लिए लड़ना चाहिए। लेकिन शैतानों ने उस लड़ाई को कानून पास करके हिन्दू-मुसलमान की लड़ाई में बदल दिया है। हम उस लड़ाई के मोहरे बना दिए गए हैं।

आज जरूरत यही है कि इन छोटी-बड़ी लड़ाइयों को उसी तरह आपस में मिला दिया जाए, जैसे आसपास की सब नदियाँ एक बड़ी नदी में मिल जाती हैं और पानी सागर की ओर बढ़ता रहता है। हमें भी अपनी समानता की लड़ाई को इसी तरह आपस में जोड़ कर बड़ी बनाना चाहिए। जिस से मनुष्य और मनुष्य के बीच असमान व्यवहार से मुक्त बेहतर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकें।

मंगलवार, 5 सितंबर 2017

कुटाई वाले गुरूजी

पिताजी अध्यापक थे, और तगड़ी कुटाई वाले थे। स्कूल में अक्सर उन के हाथ मे डेढ़ फुट लंबा काले रंग का डंडा हुआ करता था। पर वो डराने के लिए होता था, मैंने कभी उस का प्रयोग किसी पर मारने के लिए करते उन्हें नहीं देखा। हाँ हाथों और लातों का वे जम कर प्रयोग करते थे। उन की ये कुटाई आसानी से शुरू नहीं होती थी। पर जब हो जाती थी तो दूसरे ही उन्हें रोकते थे उन का खुद का रुकना तो लगभग असंभव था। मैं एक बार स्कूल में उस कुटाई का शिकार हुआ था। उस का किस्सा फिर कभी शेयर करूंगा। पर घर पर तो साल में दो-एक बार अपनी पूजा हो ही जाती थी। वैसे उन में एक बात बहुत अच्छी थी कि वे ठहाके लगाने में कम न थे। यदि वे बाहर होते तो उन के लौटने की सूचना बाहर कहीं उन के ठहाके की आवाज से हो जाती थी। इधर घर में दादाजी और दादी जी के सिवा सब सतर्क हो जाते थे।

हुआ ये कि हम बाराँ में दादा दादी के साथ रहते थे, पिताजी मोड़क स्टेशन पर मिडिल स्कूल के हेड मास्टर थे और महीने में एक दो बार ही घर आ पाते थे। मुझे पेचिश हो गयी थी, जो कभी कभी कम हो जाती थी, पर मिटती नहीं थी। वैद्य मामाजी की सब दवाइयाँ असफल हो गयी थीं। पेचिश के कारण मुझ पर खाने पीने की इतनी पाबंदियाँ थीं कि मै तंग आ गया था। आखिर दादा जी ने पिताजी को डाँटा कि छोरे को चार माह से पेचिश हो रही है, खून आने लगा है, और तुझे कोई परवाह ही नहीं है। किसी डाक्टर को दिखा के, बैज्जी की दवाई बहुत हो गयी। छोरे के हाड ही नजर आने लगे हैं। आखिर पिताजी डाक्टर के यहाँ ले जाने को तैयार हुए।

उन दिनों दो डाक्टर पिताजी के शिष्य थे और बाराँ सरकारी अस्पताल में ही तैनात थे। घरों पर भी मरीज देखते थे। उन में एक डाक्टर बी.एल चौरसिया थे। उन के पास ले गए। डाक्टर चौरसिया अक्सर हाड़ौती में ही बोलते थे। पिताजी मुझे ले कर उन के पास पहुँचे। मेरी तकलीफ डाक्टर को बताई। तो डाक्टर बोला -बस गुरूजी अतनी सीक बात छे, टट्टी बन्द न होरी नै। अब्बाणू कराँ छा बन्द। (बस गुरूजी, इतनी सी बात है, टट्टी बन्द नही हो रही है। अभी कर देते हैं।)
.
डाक्टर ने अपने पास वाली अलमारी खोली और सैंपल की दवा निकाली। चार गोली थी। कहा -देखो या गोळी एक अबाणू दे द्यो। एक रात में सोती बखत दे दीज्यो। जे खाल टट्टी बंद हो ज्या तो मत दीजो। अर न होव तो खाल रात मैं एक दे दीजो। बस काम खतम। (देखो ये गोली अभी दे दो, एक रात में सोते समय दे देना। जो कल टट्टी कल बंद  हो जाएँ तो ठीक नहीं तो एक कल रात को सोते समय दे देना। बस काम हो जाएगा।)

पिताजी ने डाक्टर को फीस देने के लिए जेब से रुपए निकाले।डाक्टर बोला- रैबादो गुरूजी, फीस तो अतनी दे दी कै दस जनम ताईं भी पूरी न होव। म्हूँ डाक्टर ही बणग्यो। थानँ अतनो मार्यो छे कै हाल ताइँ भी मोर का पापड़ा दूखे छे। पण एक बात छे थाँ ने म्हाँई आदमी बणा द्या। नै तो गनखड़ा की नाई गर्याळान मैं ई भैराता फरता। (रहने दो गुरूजी फीस तो आप इतनी दे चुके कि दस जनम तक भी समाप्त नहीं होगी। मुझे डाक्टर ही बना दिया। आपने इतना मारा है कि अभी तक पीठ की पेशियाँ दुखती हैं। पर एक बात है कि हमें आदमी बना दिया वर्ना कुत्तों की तरह गलियों में ही चक्कर लगाते रहते)

इतना कह कर डाक्टर चौरसिया ने जो कर ठहाका लगाया तो पिताजी ने उस का भरपूर साथ दिया। मैं तो उन दोनों को अचरज से देखता रह गया।

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

‘मेड इन इण्डिया’

‘मेड इन इण्डिया’  
  • दिनेशराय द्विवेदी
आइए हुजूर
मेहरबान, कद्रदान
आइए हमारे याँ
डॉलर की जरूरत नहीं,
बस कौड़ियाँ ले आइए
हमारी जमीन, जंगल, नदियाँ
मजदूर हाजिर हैं, सब
आप की सेवा में तत्पर, सावधान¡

हमें और कुछ नहीं चाहिए
बस मजदूरों को दे दीजिए काम
उन्हें मजूरी न भी दें, तो कुछ नहीं
हमारे यहाँ मजदूर मजूरी वसूले
ऐसी उस की औकात कहाँ?
चाहें तो खूब बेगार कराइए

कानून?
वे तो हैं ही नहीं
कुछ हैं भी तो हमारे इन्सपेक्टर,
सब हम ने बधिया कर दिए हैं
कुछ सींग-वींग मारते हैं,
तो क्या?
उन को सैंडविच का टुकड़ा डालना
आप बेहतर जानते हैं।

अदालत?
वे हम ने खोली हैं
पर अफसर हम लगाते नहीं
वे खाली पड़ी रहती हैं।
अफसर कभी लगाते भी हैं
तो वह कुछ करे
उस के पहले उसे हम
हटा देते हैं

वहाँ तक मजूर जाता नहीं
चला जाए तो कई साल
कुछ पाता नहीं
मजूर अनुभवी है, जानता है
काम छोड़, कुछ दिन-महिनों की
मजूरी के लिए
बरसों चक्कर काटना फिजूल है
न्याय से उस का नहीं
केवल सेठों का नाता है

आप आइए तो हुजूर
मेहरबान, कद्रदान
आपके लिए तैयार हैं
सभी सामान
यहीं का माल, यहीं का मजूर
खूब बनाइए
जो भी बिक जाए
दुनिया के बाजारों में
हमें कुछ नहीं चाहिए
बस केवल
‘मेड इन इण्डिया’
की मोहर लगाइए


मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

कभी दर्द सहने के बजाए, दर्द निवारक ले लेना चाहिए

तवार की सुबह नींद टूटी तो गर्दन ने हिलने से इन्कार कर दिया। मैं धीरे-धीरे बिस्तर पर बैठा हुआ। मैं ने उसे बाईं तरफ घुमाया तो कोई विशेष तकलीफ नहीं हुई, लेकिन जब दायीं ओर घुमाया तो तकरीबन पाँच डिग्री घूमने के बाद ही तेज दर्द हुआ और गर्दन आगे घुमाई नहीं गई। मुझे छह साल पहले की याद हो आई। जब इस ने मुझे बहुत परेशान किया था। तब मुझे हड्डी डाक्टर की शरण लेनी पड़ी थी। उस ने कुछ दर्द निवारक औषधियाँ दी थीं और फीजियोथेरेपिस्ट के पास रवाना कर दिया था। फीजियोथेरेपिस्ट ने मुझे देखा, और एक जिम जैसे कमरे में भेज दिया। वहाँ एक दीवार में छत के पास एक बड़ी सी घिरनी लगी थी जिस से एक रस्सी लटकी हुई थी जिस के एक सिरे पर वजन लटकाने की सुविधा थी। दूसरे सिरे पर गर्दन को फँसाने के इंतजाम के रूप में एक चमड़े का बना हुआ लूप था। गनीमत यह थी कि यह लूप छोटा नहीं हो सकता था। वरना यहाँ मुझे ठीक उस घिरनी के नीचे एक स्टूल पर बैठा दिया गया गरदन को उस लूप में फँसा कर रस्सी के दूसरे सिरे पर कोई वजन लटका दिया गया। मुझे लग रहा था कि फाँसी पर चढ़ाए जाने वाले अपराधी में और मुझ में कुछ ही अंतर शेष रहा होगा। इस क्रिया को ट्रेक्शन कहा गया था। मैं समझ गया कि मेरी गर्दन को आहिस्ता-आहिस्ता खींचा जा रहा है। अनुमान भी हुआ कि गर्दन की छल्ले जैसी हड्डियों के बीच कोई तंत्रिका वैसे ही फँस गई है जैसे मोगरी (मूली की फली) की सब्जी खाने पर उस के तंतु दाँतों के बीच फँस जाते हैं और अनेक प्रयास करने पर ही बाहर आते हैं।
खैर, गर्दन खींचो कार्यक्रम लगभग एक सप्ताह चलता रहा। इस बीच मुझे आराम होने लगा। सप्ताह भर बाद फीजियोथेरेपिस्ट ने मुझे गर्दन की कुछ कसरतें बताई और मैं वे करने लगा। उन कसरतों का नतीजा यह रहा कि पिछले छह साल से गर्दन के छल्लों के बीच किसी तंत्रिका के फँसने की नौबत नहीं आई। लेकिन अब यह क्या हुआ? निश्चित ही यह पिछले दो माह से किसी तरह की कसरत न करने और बेहूदा तरीके से सोने का असर है। मैं अपनी इस अकर्मण्यता पर केवल शर्मिंदा हो सकता था। जो मैं खूब हो लिया। अपनी शर्म को छिपाने के लिए मैं अपने दर्द को छुपा गया। मैं ने किसी को न बताया कि मेरी गर्दन का क्या हाल है। रोज की तरह व्यवहार किया। जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया गर्दन के दर्द में कमी आती गई। लेकिन शाम होते ही जैसे ही सर्दी का असर बढ़ा गर्दन का दर्द फिर से उभरने लगा। मैं ने रात्रि को दफ्तर में बैठ कर काम करना चाहा लेकिन न कर सका। बीच बीच में गर्दन गति अवरोधक का काम करती रही। सोमवार की सुबह जब नींद खुली तो उस का वैसा ही आलम था जैसा कि इतवार को था। इस दिन सुविधा यह थी कि मैं अदालत जा सकता था। सोमवार को भी दिन चढने के साथ दर्द कम हुआ लेकिन शाम पड़ते ही हालत वैसी ही हो गई। मैं फीजियोथेरेपिस्ट की बताई कसरतें भी कर चुका था लेकिन गर्दन थी की मानती न थी। रात को दफ्तर में बैठ कर कुछ काम भी करना पड़ा। आधी रात को बिस्तर पर पहुँचा तो जैसे तैसे निद्रा आ गई। 
मंगलवार की सुबह फिर वैसी ही रही। यह दिन बहुत बुरा गुजरा। एक तो एक बहुत जरूरी काम था  जिसे मैं दो दिन से टाले जा रहा था। उसे कैसे भी पूरा करना था। लेकिन पहले दो दिनों की तरह दिन चढ़ने के साथ दर्द में कोई कमी नहीं आ रही थी, वह जैसे का तैसा बना हुआ था। बस दो दिनों से दर्द सहने की बन गई आदत ने बहुत साथ दिया। जैसे-तैसे दिन तो अदालत में गुजर गया। लेकिन शाम बहुत बैचेनी हो गई। मुझे लगा कि गर्दन के इस तिरछेपन में सर्दी की भी भूमिका है। मैं ने शाम पड़ते ही गरदन को मफलर में लपेट कर सर्दी से पूरी तरह बचाने की कोशिश की। लेकिन मेरी इस हरकत ने मेरी पोल खोल दी। पत्नी जी ने पकड़ लिया। तुरंत सवालों की झड़ी लग गई। .... जरूर पेट खराब रहा होगा, गैस बनी होगी, आज कल कसरतें बिलकुल बंद कर दी हैं, वजन कितना बढ़ गया है.... आदि आदि। मेरे पास एक भी सवाल का जवाब नहीं था। होता भी तो क्या था? हर जवाब को बहाना ही समझा जाता। आखिर नौ बजते-बजते तो हालत खराब हो गई। दर्द असहनीय हो गया। पत्नी जी ने सुझाया कि अब परेशान होने के बजाय अलमारी में से नौवाल्जिन की गोली निकालो और खा लो। मेरे पास इस प्रस्ताव को टालने का कोई मार्ग नहीं था। मैं ने निर्देश पर तुरंत अमल किया। ये क्या? पन्द्रह मिनट भी नहीं बीते हैं कि मैं बिस्तर से निकल कर दफ्तर में आ बैठा हूँ, दर्द कम होता जा रहा है और इस पोस्ट को लिखते-लिखते इतना कम हो चुका है कि अब मैं दो घंटे और बैठ कर अपना काम पूरा कर सकता हूँ। जिस से मुझे कल अपने मुवक्किलों के सामने शर्मिंदा न होना पड़े।
भी-अभी एक बात और सीखी कि कभी दर्द सहने के बजाए दर्द निवारक का प्रयोग भी कर लेना चाहिए। जिस से आप की दैनिक गतिविधियाँ मंद न पडें और मस्तिष्क को भी आराम मिले। गर्दन के छल्लों में फँसी तंत्रिका भी दो चार दिन में अपने मुकाम को पा कर स्वस्थ हो ही लेगी। फिर तसल्ली की बात यह भी है कि सर्दी के दिन अब कितने रह गए हैं। आज का दिन, कल के दिन से दो सैकंड छोटा था आज की रात साल की सब से लंबी रात होगी, और कल का दिन साल का सब से छोटा दिन, वह आज से एक सैकंड छोटा होगा। फिर परसों का दिन 23 दिसंबर, वह कल के दिन से एक सैकंड बड़ा होगा। फिर उस के बाद दिन शनैः शनैः बड़े होते जाएँगे और सर्दी कम। आप चाहें तो नीचे बनी सारणी में देख सकते हैं.......
 
कोटा, राजस्थान में सूर्योदय और सूर्यास्त के समय

दिनांक
सूर्योदय
सूर्यास्त
दिनमान
समयांतर


21 दिसंबर 2010
07:07
17:42
10h 34m 21s
− 02s

22 दिसंबर 2010
07:08
17:42
10h 34m 21s
< 1s

23 दिसंबर 2010
07:08
17:43
10h 34m 23s
+ 01s

24 दिसंबर 2010
07:09
17:43
10h 34m 26s
+ 03s

25 दिसंबर 2010
07:09
17:44
10h 34m 32s
+ 05s

26 दिसंबर 2010
07:10
17:44
10h 34m 40s
+ 07s

27 दिसंबर 2010
07:10
17:45
10h 34m 50s
+ 10s




सोमवार, 21 जून 2010

गरमी की भीषणता के बीच एक रात और दिन

र्मी का भीषण प्रकोप चल रहा है। सोचा था इस बार बरसात जल्दी आ जाएगी। पर मौसम का अनुमान है कि अभी एक सप्ताह और लगेगा। पारा फिर से 48 के नजदीक पहुँच रहा है। कल रात सोने के भी लाले पड़ गए। कूलर बिलकुल असफल हो चुका था। एक बजे तक फुटबॉल मैच देखता रहा। आँखें बन्द होने लगीं, तो टीवी बंद कर सोने की कोशिश की, लेकिन गर्मी सोने दे तब न। पन्द्रह मिनट इंतजार कर फिर से टीवी चला दिया। पूरा मैच देख कर सोने गया। फिर कब नींद आई पता नहीं। कोई पच्चीस-तीस बरस पहले कोटा इतना गरम न हुआ करता था। लेकिन जब से थर्मल पॉवर प्लांट शहर की छाती पर खड़ा हुआ है तब से गर्मी बढ़ती गई। अभी सात यूनिटें चल रही हैं। दो से तीन ट्रेन कोयला रोज फुँक जाता है। बैराज में बॉयलर का पानी आता है, तो बैराज का पानी भी चालीस डिग्री सैल्सियस से कम नहीं रहता। कोई तैरता हुआ दस फुट अंदर चला जाए तो ताप से रक्तचाप बढ़े और चक्कर खा कर वहीं डूब ले। इस भय से लोगों ने बैराज में नहाना भी बंद कर दिया। विशाल जलराशि सिर्फ देखने भर को रह गई।

 शायद ऐसे ही मिल जाए कुछ राहत
सुबह अदालत निकलने के पहले नाश्ता करने बैठा तो पूरा नहीं कर पाया। कुछ अंदर जा ही नहीं रहा था। मैं अपनी प्लेट या थाली में कभी कुछ नहीं छोड़ता, पर आज छोड़ना पड़ा। अन्न का निरादर करने का अफसोस तो बहुत हुआ। पर अब इन चीजों की परवाह कौन करता है? एक जमाना था, तब शास्त्री जी के आव्हान पर कम से कम आधे देश ने सोमवार को एक समय भोजन करने का नियम बना लिया था। अब वैसी जरूरत तो नहीं है। लेकिन फिर भी लाखों टन खाद्य प्रतिदिन देश में इसी तरह बरबाद कर दिया जाता है। हम होटलों में जा कर देखें, या फिर शादी विवाह की पार्टियों में जहाँ के कचरा-डब्बे इस बेकार हुई खाद्य सामग्री से भरे पड़े रहते हैं। यदि इस बेकार होने वाली खाद्य सामग्री को बचा लिया जाए तो भी बहुत हद तक हम खाद्य सामग्री की मांग को घटा सकते हैं जो निश्चित ही उस की कीमतों में कमी भी लाएगी। 

सूरज ही क्या कम था, जलाने को
स साल कूलरों के पैड नहीं बदले गए थे। शायद एक कारण यह भी था कि कूलर अपनी पूरी क्षमता से काम नहीं कर रहे हैं। मैं अपने मिस्त्री से कह चुका हूँ लेकिन उसे फुरसत नहीं मिली शायद। बिटिया दो दिन का अवकाश ले कर आई है। सप्ताहांत के दो दिन मिला कर कुल चार दिन के लिए। कल रात की गर्मी की तड़पन से आज मिस्त्री को बुला लाने की बात हुई, लेकिन उस के बरामद होने में आज भी शंका हुई, तो कहने लगी, मैं बदल दूंगी। और सच में एक कूलर के पैड घर में पड़े थे वे बदल दिए। मैं शंका करता ही रह गया कि वह कर पाएगी या नहीं। कहने लगी, मैं सब कुछ कर लेती हूँ। वह पिछले छह वर्ष से घऱ से बाहर रह रही है। तीन वर्ष छात्रावसों में निकले फिर डेढ़ वर्ष अपनी सहकर्मियों के साथ रही, डेढ़ वर्ष से अकेली रहती है। सुबह उठ कर नाश्ता और दोपहर का टिफिन बनाना, तैयार हो कर अपने काम पर जाना, शाम को वापस लौट कर अपना खाना बनाना। इस के अतिरिक्त अपने आवास की सफाई, कपड़ों की धुलाई वगैरा सारे घर के काम वह स्वयं कर रही है। कितनी ऊर्जा होती है लड़कियों में कि वे घर और दफ्तर को पूरी कुशलता के साथ संभाल लेती हैं। कोई कमी रहती है तो शायद समय की जो इन सब कामों के लिए कम पड़ जाता है। इन सब के बाद, लगातार अपनी प्रोफेशनल योग्यता का विकास करते हुए नया ज्ञान और कुशलता अर्जित करते जाना। सच में उन्हें 'देवी' कहा जाना कदापि मिथ्या नहीं। आखिर मुझे बाजार जा कर दूसरे कूलर के लिए भी पैड लाने पड़े। अब वे बदले जा रहे हैं।

सोमवार, 24 मई 2010

देश के सब से गर्म शहर का एक दिन


पाठकों और मित्रों!
आज न तो तीसरा खंबा पर कोई पोस्ट हुई और न ही अनवरत पर। आज गर्मी का यह आलम रहा कि दिन में जो काम होने थे उन में से अनेक छूट गए। सुबह साढ़े पाँच बजे उठा और बाहर निकल कर देखा तो तेज गर्म हवा चल रही थी। सुबह सुबह लू को चलते देख मैं स्तंभित रह गया। सुबह तैयार हो कर अदालत के लिए निकला तो नौ बजे थे। बाहर तेज हवा चल रही थी धूल के साथ। इसे आँधी की छोटी बहिन कहा जा सकता था। धूल दिन भर हवा के साथ उड़ती रही। पाँच मिनट पान की दुकान पर रुका तो लोग कल के तापमान का उल्लेख कर रहे थे। यह भी कह रहे थे कि ये तापमान बताने वाले कम बताते हैं। कल शहर का तापमान किसी सूरत में 50.0 से कम न रहा होगा और बताया 47.2 है। मैं ने कहा -कोटा शहर कचौड़ियों के लिए जाना जाता है। एक बार में कड़ाह से कम से कम तीन सौ कचौड़ियाँ एक साथ निकलती हैं, कम से कम 15 लीटर तेल कड़ाह में एक साथ उतरता है। डीजल भट्टी पर चढ़े उस गर्म कड़ाह के सामने जो हलवाई दिन भर कचौड़ियाँ तलता है उस के सामने का तापमान क्या रहता होगा? हम हैं कि 47-50 पर सुबह-सुबह बौरा रहे हैं। खैर मैं पान ले कर चल दिया। अदालत में मेरी बैठक का पंखा सुबह-सुबह गर्म हवा दे रहा था। दिन कैसा निकला होगा? आप अनुमान कर सकते हैं। अभी रात साढ़े दस बजे भी लू चल रही है। शाम एनडीटीवी बता रहा था कि कोटा आज देश का सब से गर्म नगर रहा। जिस का अधिकतम तापमान 48.2 डिग्री सैल्शियस रिकॉर्ड किया गया। आज दिन में कुछ चित्र मैं ने अपने मोबाइल के साधारण 352 X 288 पिक्सल वाले  कैमरे लिए हैं। 


सुबह-सुबह आँधी-1    प्रातः   8.52 बजे
सुबह-सुबह आँधी-2   प्रातः   8.53 बजे
धूप से बचती ट्रेफिक सिपाहिन   सुबह 8.59 बजे
उपले संभालती गूजरी    शाम 4.12 बजे
उपले ले जाती गूजरी   शाम 4.16 बजे
दूध ले कर आती एक उपभोक्ता   शाम  4.32 बजे

सोमवार, 15 मार्च 2010

उपभोक्ताओं को अपने अधिकारों के लिए संगठित हो कर खुद आगे आना होगा

ज अट्ठाइसवाँ विश्व उपभोक्ता दिवस था। 1983 में कंजूमर्स इंटरनेशनल नाम की संस्था ने इसे आरंभ किया था। यह संस्था इसी वर्ष अपने जन्म का पचासवाँ वर्ष भी मना रही है। दुनिया में पैदा हुआ मानव समाज का प्रत्येक सदस्य एक उपभोक्ता है। इस संस्था के गठन का मूल मकसद यही था कि दुनिया भर के सभी उपभोक्ता यह जानें कि बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए उनके क्या हक हैं। साथ ही सभी देशों की सरकारें उपभोक्ताओं के अधिकारों का ख्याल रखें। प्रतिवर्ष 15 मार्च को विश्व उपभोक्ता दिवस मनाया जाता है। प्रत्येक वर्ष उपभोक्ता दिवस एक नया नारा देती है। इस वर्ष का नारा है "हमारा धन हमारा अधिकार"। इस नारे के माध्यम से इस वर्ष वित्तीय सेवाओं के संदर्भ में उपभोक्ता अधिकारों पर ध्यान केन्द्रित किया जाएगा।
पभोक्ता आंदोलन के प्रभाव ने भारत सरकार को उपभोक्ता संरक्षण के लिए कानून बनाने के लिए बाध्य किया। इस तरह भारत में उपभोक्ता संरक्षण अधनियम 1986 अस्तित्व में आया और उपभोक्ताओं के संरक्षण के लिए जिला स्तर पर उपभोक्ता प्रतितोष मंच, राज्य स्तर पर राज्य उपभोक्ता प्रतितोष आयोग और राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय उपभोक्ता प्रतितोष आयोग अस्तित्व में आए। तब से अब तक देशभर के जिला उपभोक्ता मंचों में दर्ज 28 लाख मामलों में से 25 लाख से अधिक मुकदमों का निपटारा किया जा चुका है। राजस्थान दूसरे स्थान पर है जहां 2 लाख 20 हजार से अधिक मामलें निपटाये जा चुके है।
राजस्थान राज्य उपभोक्ता प्रतितोष आयोग ने महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और कर्नाटक को पीछे छोड़ते हुए ने 40 हजार से अधिक मामलों का निस्तारण करके देश में प्रथम स्थान हासिल किया है। देश के विभिन्न राज्य आयोगों द्वारा अब तक करीब चार लाख मामलों का निस्तारण किया गया है और इनमें हर दस में से एक प्रकरण राजस्थान में निपटाया गया है। महाराष्ट्र द्वितीय, मध्यप्रदेश तृतीय और कर्नाटक चतुर्थ स्थान पर है यहां के राज्य आयोगों ने अब तक 30 से 32 हजार मुकदमों का निपटारा किया है। 31 जनवरी तक राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग में दर्ज 62972 मामलों में 55192 का निपटाया किया जा चुका है। इसी तरह देशभर के राज्य आयोगों में प्राप्त सूचनाओं के अनुसार 496378 मामलें दायर किये गये जिनमें से 387974 का निपटारा किया जा चुका है। इस अवधि में उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक और लक्षद्वीप में सबसे कम मामलें दर्ज किए गए।
ये तो वे तथ्य हैं जो आंकड़ों के माध्यम से सामने आए हैं। लेकिन ग्राउंड लेवल पर क्या हाल हैं? यह केवल उपभोक्ता प्रतितोष मंच या आयोगों के कार्यस्थलों पर जा कर ही पता किया जा सकता है। कोटा में पिछले दो वर्षों तक जिला उपभोक्ता प्रतितोष मंच किसी न किसी कारण से कार्य करने में अक्षम रहा है। काम को गति देने के लिए अब झालावाड़ जिले के उपभोक्ता प्रतितोष मंच को इस की सहायता के लिए लगाया गया है जो माह में दो सप्ताह कोटा में रह कर काम करता है। फिर भी उपभोक्ता विवादों में निर्णय की गति संतोषजनक नहीं बन सकी है।
ज मैं उपभोक्ता प्रतितोष मंच गया तो वहाँ सदा की तरह मध्यान्ह अवकाश के पूर्व केवल कार्यालय का ही काम होता है। मैं उपभोक्ता प्रतितोष मंच के अध्यक्ष से मिलना चाहता था। लेकिन वे मध्यान्ह अवकाश तक मंच के कार्यालय में उपलब्ध नहीं थे। कार्यालय के कर्मचारियों को पता नहीं था कि आज विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस है। मंच के एक सदस्य अवश्य वहाँ मिले उन्हों ने बताया कि आज मंच की ओर से कोई विशेष कार्यक्रम आयोजित नहीं किया गया है और न ही मंच की किसी कार्यक्रम में भागीदारी है। वहाँ यह जानकारी मिली कि इस संबंध में जो भी कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं वे रसद विभाग द्वारा आयोजित किए जाते हैं। जिला रसद अधिकारी अपने कार्यालय में कंप्यूटर पर व्यस्त मिले। उन्हों ने बताया कि उन्हें तो बिलकुल फुरसत नहीं है। वे तो विधानसभा से आई प्रश्नावलियों के उत्तर तैयार करने के सब से मुश्किल कर्तव्य में उलझे पड़े हैं।
मैं ने जब उन्हें बताया कि आज विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस पर कुछ तो उपभोक्ता अधिकारों की जानकारी जनता तक पहुँचाने के लिए होना चाहिए था। उन्हों ने कहा कि एक स्कूल में इस विषय पर निबंध प्रतियोगिता आयोजित की गई है और रैली भी निकाली जाएगी। अब तक ये काम हो चुके होंगे। वे हों न हों पर कल अवश्य ही इन दोनों कामों के संपन्न हो जाने की खबरें स्थानीय अखबारों में अवश्य ही होंगी।
कुल मिला कर देश मे उपभोक्ता आंदोलन बहुत कमजोर है। यह तब तक आगे नहीं बढ़ सकता जब तक कि स्वैच्छिक उपभोक्ता संगठन मजबूत हो कर आगे नहीं आते। लोगों को खुद अपने अधिकारों के लिए आगे आना होगा। अपने अधिकारों के लिए लगातार आवाज उठाना होगी। आप टिकट की लाइन में लगे हैं या बिल भरने की बारी, जैसे ही आई कांच व जाली के पीछे बैठे शख्स ने गुटखा चबाते हुए कह दिया थोड़ी देर बाद आना और आप बगैर किसी प्रतिरोध के लाइन में ही खड़े रह गए तो आपके हित में कौन बोलेगा। न व्यक्तिगत स्तर पर प्रतिरोध होता है, न संगठित विरोध। हालांकि ठगे गए उपभोक्ता को न्याय दिलाने के लिए उपभोक्ता प्रतितोष मंचों की व्यवस्था है और अनुभव बताता है, जो भी वहां जाता है न्याय जरूर पाता है, लेकिन वहां तक जाने की जहमत तो उपभोक्ता को उठाना ही पड़ेगी। खाद्य पदार्थो में मिलावट जैसे संगीन मामले भी उपभोक्ता संरक्षण के दायरे में आते हैं। हाल ही में एक ब्रांडेड अचार में मरा चूहा निकलने पर जुर्माने का फैसला हुआ, लेकिन क्या उसके बाद भी उपभोक्ता जागे? क्या उस ब्रांड को लेकर विरोध के स्वर उभरे? यहाँ तक कि यहाँ ब्लाग जगत में भी उपभोक्ता हितों के बारे में आज भी सब से कम ही लिखा गया है।