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मंगलवार, 5 सितंबर 2017

कुटाई वाले गुरूजी

पिताजी अध्यापक थे, और तगड़ी कुटाई वाले थे। स्कूल में अक्सर उन के हाथ मे डेढ़ फुट लंबा काले रंग का डंडा हुआ करता था। पर वो डराने के लिए होता था, मैंने कभी उस का प्रयोग किसी पर मारने के लिए करते उन्हें नहीं देखा। हाँ हाथों और लातों का वे जम कर प्रयोग करते थे। उन की ये कुटाई आसानी से शुरू नहीं होती थी। पर जब हो जाती थी तो दूसरे ही उन्हें रोकते थे उन का खुद का रुकना तो लगभग असंभव था। मैं एक बार स्कूल में उस कुटाई का शिकार हुआ था। उस का किस्सा फिर कभी शेयर करूंगा। पर घर पर तो साल में दो-एक बार अपनी पूजा हो ही जाती थी। वैसे उन में एक बात बहुत अच्छी थी कि वे ठहाके लगाने में कम न थे। यदि वे बाहर होते तो उन के लौटने की सूचना बाहर कहीं उन के ठहाके की आवाज से हो जाती थी। इधर घर में दादाजी और दादी जी के सिवा सब सतर्क हो जाते थे।

हुआ ये कि हम बाराँ में दादा दादी के साथ रहते थे, पिताजी मोड़क स्टेशन पर मिडिल स्कूल के हेड मास्टर थे और महीने में एक दो बार ही घर आ पाते थे। मुझे पेचिश हो गयी थी, जो कभी कभी कम हो जाती थी, पर मिटती नहीं थी। वैद्य मामाजी की सब दवाइयाँ असफल हो गयी थीं। पेचिश के कारण मुझ पर खाने पीने की इतनी पाबंदियाँ थीं कि मै तंग आ गया था। आखिर दादा जी ने पिताजी को डाँटा कि छोरे को चार माह से पेचिश हो रही है, खून आने लगा है, और तुझे कोई परवाह ही नहीं है। किसी डाक्टर को दिखा के, बैज्जी की दवाई बहुत हो गयी। छोरे के हाड ही नजर आने लगे हैं। आखिर पिताजी डाक्टर के यहाँ ले जाने को तैयार हुए।

उन दिनों दो डाक्टर पिताजी के शिष्य थे और बाराँ सरकारी अस्पताल में ही तैनात थे। घरों पर भी मरीज देखते थे। उन में एक डाक्टर बी.एल चौरसिया थे। उन के पास ले गए। डाक्टर चौरसिया अक्सर हाड़ौती में ही बोलते थे। पिताजी मुझे ले कर उन के पास पहुँचे। मेरी तकलीफ डाक्टर को बताई। तो डाक्टर बोला -बस गुरूजी अतनी सीक बात छे, टट्टी बन्द न होरी नै। अब्बाणू कराँ छा बन्द। (बस गुरूजी, इतनी सी बात है, टट्टी बन्द नही हो रही है। अभी कर देते हैं।)
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डाक्टर ने अपने पास वाली अलमारी खोली और सैंपल की दवा निकाली। चार गोली थी। कहा -देखो या गोळी एक अबाणू दे द्यो। एक रात में सोती बखत दे दीज्यो। जे खाल टट्टी बंद हो ज्या तो मत दीजो। अर न होव तो खाल रात मैं एक दे दीजो। बस काम खतम। (देखो ये गोली अभी दे दो, एक रात में सोते समय दे देना। जो कल टट्टी कल बंद  हो जाएँ तो ठीक नहीं तो एक कल रात को सोते समय दे देना। बस काम हो जाएगा।)

पिताजी ने डाक्टर को फीस देने के लिए जेब से रुपए निकाले।डाक्टर बोला- रैबादो गुरूजी, फीस तो अतनी दे दी कै दस जनम ताईं भी पूरी न होव। म्हूँ डाक्टर ही बणग्यो। थानँ अतनो मार्यो छे कै हाल ताइँ भी मोर का पापड़ा दूखे छे। पण एक बात छे थाँ ने म्हाँई आदमी बणा द्या। नै तो गनखड़ा की नाई गर्याळान मैं ई भैराता फरता। (रहने दो गुरूजी फीस तो आप इतनी दे चुके कि दस जनम तक भी समाप्त नहीं होगी। मुझे डाक्टर ही बना दिया। आपने इतना मारा है कि अभी तक पीठ की पेशियाँ दुखती हैं। पर एक बात है कि हमें आदमी बना दिया वर्ना कुत्तों की तरह गलियों में ही चक्कर लगाते रहते)

इतना कह कर डाक्टर चौरसिया ने जो कर ठहाका लगाया तो पिताजी ने उस का भरपूर साथ दिया। मैं तो उन दोनों को अचरज से देखता रह गया।

शनिवार, 16 जून 2012

एक चिट्ठी सिम्पल अंकल के नाम


सिम्पल अंकल, 
                   सादर प्रणाम! 
खिर आप ने पहली बार भारतवर्ष के विद्यार्थियों का दर्द समझा है। हम तो कब से कहते थे कि हमारी शिक्षक बिरादरी उतनी पढ़ी लिखी नहीं, जितनी होनी चाहिए। अब तक कोई समझता ही नहीं था। हम कुछ कहते तो हमारी बात को तो बच्चों की बात समझ कर हवा कर दिया जाता। जब हम परेशान हो कर कुछ कर बैठते तो आप और आप के भाई-बंद हमें ही दोष देने लगते। कहते, नई पीढ़ी बिगड़ती जा रही है, वह अपने शिक्षकों का सम्मान करना तक भूलती जा रही है। अब नई पीढ़ी उन कम पढ़े लिखे शिक्षकों का सम्मान भी करे तो कैसे करे? वे हमें वे सब सिखाने की कोशिशें करते रहते हैं जिन की हमें बिलकुल जरूरत नहीं है। आखिर हम स्टूडेंटस् का टाइम कोई खोटी करने के लिए थोड़े ही होता है।

सिम्पल अंकल! वैसे आपने बात बिलकुल मैथेमेटिक्स के फारमूले की तरह कही है। जिसे रटा जा सकता है, लेकिन समझने में पसीने छूटने लगते हैं। ये आपने क्या किया? आप को सारी बात खुलासा करनी चाहिए थी। अब हम तो ये भी नहीं समझ पा रहे हैं कि इस बात को कहने के पीछे आप का इरादा क्या है? खैर¡ आप का इरादा भी पता लग ही जाएगा। अन्वेषण से हर बात पता की जा सकती है।  आप का इरादा कौन बड़ी चीज है?

शिक्षा प्रणाली ही तो ऐसी चीज है जिस के बारे में कोई भी, कभी भी, कहीं भी, कुछ भी कह देता है। जो मुहँ में आता है वही पेल देता है। जैसे हम बच्चे, बच्चे न हुए एक्सपेरिमेंट का सबजेक्ट हो गए। ये कोई आज की बात भी नहीं। कोई पौन सदी पहले कहानी उपन्यास लिखने वाले कोई मुंशी जी भी ऐसे ही पेल गए थे ‘‘संसार में इस समय जिस शिक्षा प्रणाली का व्यवहार हो रहा है, वह मनुष्य में ईर्ष्या, घृणा, स्वार्थ, अनुदारता और कायरता आदि दुर्गुणों को पुष्ट करती है और यह क्रिया शैशव अवस्था से ही शुरू जो जाती है। सम्पन्न माता-पिता अपने बालक को जरूरत से ज्यादा लाड़-प्यार करके और बड़े होने पर उसकी दूसरे लड़कों से अच्छी दशा में रखने की चेष्टा करके, उसे इतना निकम्मा बना देते हैं, और उसकी बुनियाद को इतना परिवर्तित कर देते हैं कि वह समाज का खून चूसने के सिवा और किसी काम का रह नहीं जाता।“


सिम्पल अंकल! आप ने भी मुंशी जी को जरूर पढ़ा होगा। तभी तो आप को यह सब कहने की प्रेरणा मिली। आप उन्हें न पढ़ते तो कैसे जान पाते कि मुंशी जी के जमाने में अच्छे विद्यार्थी स्कूलों, कालेजों में किस तकनीक से ढाले जाते थे? देखिए तो उन्हों ने क्या कहा था -उस सांचे में ढलकर युवक आत्मसेवी, घोर स्वार्थी, मित्रता में भी स्वार्थ की रक्षा करने वाला, पक्का उपयोगितावादी और घमंडी होकर रह जाता है।’’  


म ने भी मुंशी जी को न पढ़ा होता तो समझ ही नहीं पाते कि आप का दर्द क्या है? और आप क्यों इतनी पीड़ा के साथ ये बात कह रहे हैं?  वो क्या है न, कि इन दिनों स्कूल कालेज से निकल कर बच्चे लोग आप की वाली पार्टी में नहीं जा रहे, वे पिम्पल अंकल पार्टी में भी नहीं जा रहे। वे स्कूल कालेज से निकलते हैं और सीधे अन्ना के आंदोलन में पहुँच जाते हैं। आप के इस दर्द को हम बच्चे न समझेंगे तो कौन समझेगा?

वैसे आप से पहले भी हम बच्चों के दर्द को बड़े लोग कभी कभी समझ लिया करते थे। कोई पच्चीस साल पहले राजीव अंकल ने हमारे दर्द को समझा था और अमरीका के हावर्ड विश्वविद्यालय में जा कर कहा था ‘‘मैं नहीं समझता कि साक्षरता लोकतंत्र की कुंजी है...हमने देखा है...और मैं सिर्फ भारत की ही बात नहीं कर रहा हूं...कि कभी-कभी साक्षरता दृष्टि को संकुचित बना देती है, उसे विस्तृत नहीं बनाती।’’

ब आप तो उन्हीं की पार्टी के हैं, आप को तो राजीव अंकल का पुख्ता लोकतंत्र का सपना भी पूरा करना है। नहीं करेंगे तो सोनिया आन्टी नाराज नहीं हो जाएंगी? उन्हों ने खोज निकाला था कि लोगों के दृष्टि संकुचन के लिए ये कम पढ़े लिखे शिक्षक ही जिम्मेदार हैं, जो बस उन्हें साक्षर कर छोड़ देते हैं। राजीव अंकल को अनहोनी ने हम से छीन लिया, वरना वे जरूर हमारे लिए कुछ करते। उन के बाद हमारे बारे में किसी ने सोचा ही नहीं। वो बीच में एक अटल अंकल आए थे, उन्हों ने तो हाथ ही खड़े कर दिए थे,  कहा था ‘‘सरकार के लिए सभी भारतीयों को शिक्षित करना सम्भव नहीं। अतः गैर सरकारी संस्थान आगे आए और देश को पूर्ण शिक्षित करें।’’  अब ये भी कोई बात हुई? बच्चों को इस तरह गैर सरकारी लोगों के भरोसे छोड़ दिया जाएगा तो यही तो होगा न कि वे आप की पार्टी में आना बंद कर देंगे।

सिम्पल अंकल¡ आप को ज्यादा परेशान नहीं होना चाहिए। ये समस्याएँ तो चलती रहती हैं। इन दिनों मन और प्रण अंकल भी कम परेशान नहीं हैं। मन अंकल की बेटी कुमारी अर्थव्यवस्था उन के काबू में नही आ रही है। प्रण अंकल भी उन की मदद नहीं कर पा रहे हैं, इस से मन  अंकल उन से खासे नाराज हैं। आप भी न ज्यादा परेशान न हों। बस डेढ़-दो बरस की बात और है उस के बाद तो आप को वैसे भी इन सब परेशानियों से पब्लिक मुक्ति देने वाली है। आप फिर से बिंदास हो कर वकालत कर सकेंगे। आप बेफालतू परेशान हो रहे हैं। आप को तो अपना दफ्तर और लायब्रेरी संभालनी चाहिए और उसे अपडेट करना चाहिए। 
- हम हैं आप के बच्चे!