@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: परंपरा और विद्रोह
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रविवार, 24 अक्तूबर 2010

"ऊर्जा और विस्फोट" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का अठारहवाँ और अंतिम सर्ग भाग-4

यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सत्रह सर्ग आप अनवरत के पिछले अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। प्रत्येक युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े होने से उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं था। अठारहवाँ सर्ग "ऊर्जा और विस्फोट" इस काव्य का अंतिम पड़ाव था। आज यहाँ इस का चतुर्थ और अंतिम भाग यहाँ प्रस्तुत है, यही इस काव्य का समापन अंश है ................ 


* यादवचंद्र *

अठारहवाँ सर्ग
ऊर्जा और विस्फोट
भाग चतुर्थ

और नगमा ?
उसे है फुर्सत कहाँ
जब तक न 
कारागार की
विधि-नीति-शिक्षा
राजसत्ता ध्वस्त होती
विश्व के 
हर गाँव से
वह दम न लेगी
जेल का
हर कायदा
कानून जब तक
मिट न जाए
विश्व के 
हर भाग से
वह दम न लेगी ।
जेलरों के शास्त्र
उस की कला-संस्कृति

सभ्यता
औ साख जब तक 
जल न जाए
ग्लोब से 
वह दम न लेगी ।


वो सुगबुगाती
रोशनी 
लिहाफ ओढ़े
तिमिर का,
जम्हुआइयाँ
लेने लगी
किरणें बजा कर
चुटकियाँ 
पर'
यह सवेरा
मुक्ति का
पहला चरण है,
कोटि कण्ठों 
में सवंरते
बोल का 
पहला परन है


यह सवेरा 
मुक्ति के 
शुभ यज्ञ की
प्रस्तावना है,
नृत्य निर्झर
ताल-लय की 
भावना है


यह सवेरा 
पात्र-परिचय
पूर्व का 
आर्केस्ट्रा है

बड़े झुल-फुल
घाट भरने 
चला यह
पहला घड़ा है
 
यह सवेरा
ज्ञान के
अभियान का 
आयाम पहला,
अन्तर्ग्रहों की
खोज में 
यह चंद्रमा-ज्यों
गाम पहला,

और नगमा ?
अभी नगमा
का सवँरना
खील भरना
अग्नि के 
भाँवर लगाना 
पीत-चूनर
ओढ़ माँ के
गले पड़ना
लिपट जाना 
               अभी बाकी। 

मेहंदी,
काजल रचाना
सिमट जाना
शर्म से
घूंघट हटाना
औ हजारों 
वर्ष का 
दुख भरा बचपन
भूल जाना
मुस्कुराना
        अभी बाकी - अभी बाकी 

नए पाहुन
का रुदन
भर जाय आंगन
नया जीवन
गोद ले
नगमा चले
बलमा छले
हर कली चटके
और भौंरे
गुनगुनाएँ
नये नगमे
       अभी बाकी--
अभी बाकी-अभी बाकी--अभी....
 

... इति ... आरंभ ... इति ... आरंभ ... इति ... आरंभ ...

 

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

"ऊर्जा और विस्फोट" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का अठारहवाँ और अंतिम सर्ग भाग-3

यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सत्रह सर्ग आप अनवरत के पिछले अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। अठारहवाँ सर्ग "ऊर्जा और विस्फोट" इस काव्य का अंतिम पड़ाव है। इस का तीसरा भाग यहाँ प्रस्तुत है................ 
* यादवचंद्र *

अठारहवाँ सर्ग
ऊर्जा और विस्फोट
भाग तृतीय


मगर यह 
चार अरबों की धरा 
किस भाँति निर्भय हो ?
.......................................

अमर बलिदान की 
प्रतिमूर्तियों !
खुशियाँ मनाओ
शपथ खाओ--
अफ्रिकी
लातिन अमरिकी
कैदखानों 
दुर्ग पर
मोर्टार से
गोले गिराओ,
अनगिनत बलिदान की
तुम मूर्तियाँ
गढ़ते चलो
गढ़ते चलो--
बढ़ते चलो--

एरावदी
ब्रह्मपुत्र-गंगा
सिंधु-दजला
नीलघाटी
की धरा की 
मुक्ति बाकी
सुगबुगाते
हैं किनारे
रात की
खामोशियों में,
घुटन-कुंठा
त्रास में हैं
बुदबुदाते
जा रहे कुछ लोग
दाबे पाँव चुपके
इधर से 
उस ओर,
जेलर चौंकता है
नींद से-
पहरा घरों में
कोट में 
सिर को छुपाए
चीखता है पहरुआ-
हो S ओ S S S S
जागते रहो S S S S
फिर खामोश 
सन्नाटा ... ...
... ... ... ...

चमक कर 
जेल की 
दीवार पर
फिर सो गई रोशनी-ई-S S S
गड़ S ड़ S ड़ S-धड़ाम !
 ... ... ... ... 
निकलो कैदियों
दीवार टूटी
पूर्व से
भागो--
स्वचलित
कातिलों की गनें
बेबस चीखती हैं
आग की 
सौ सौ लकीरें
वक्र-वृत्ताकार-सीधी
काटती-कटती-परस्पर
भागती हैं
सीटियाँ
शैतान की 
टर्रा रही हैं.........
...  ...  ...  ...
सुबह के 
पहले पहर में
शोर-गुल
सब शान्त हो कर 
बैरकों में 
सिमट जाता है
कफन को 
ओढ़ कर
लॉ एण्ड ऑर्डर
दुबक जाता है

मगर,
कुछ कैदी
तुम्हारी मौत के सामान,
तो भग ही गए
जो बुन रहे हैं
नये ताने
नये बाने
घेर कर भूगोल
(न्यूजीलेंड से
अलास्का तक)


उभरी शिराएँ
बाहु मांसल 
आबनूसी रंग
ज्यों कोई पिरामिड
नापता हो
डगों से
जलता सहारा
इधर से
उस छोर तक,
उठता धुआँ
आकाश छूता
राह को 
रोके अड़ा है
ग्वाटमाला
औ पनामा
हंडुरस
ब्राजील वगैरह
आज-कल में
फैसला
इस नीच जैलर का
करेंगे औ सुनेंगे

ग्लोब के
इस पूर्व-उत्तर
भाग  का
यह लाल परचम
जो अभी
दो अरब जन का 
झूमता
सौभाग्य बन
द्रुत उड़ेगा
शेष भू पर ।
मुक्त श्रम 
जो रच रहा है
अर्ध जन गण
का शुभोदय,
द्रुत भरेगा
शेष भू का 
रिक्त हृदय

........ अठारहवें सर्ग 'ऊर्जा और विस्फोट' के अठारहवें सर्ग का तृतीय भाग समाप्त...

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

"ऊर्जा और विस्फोट" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का अठारहवाँ और अंतिम सर्ग भाग-2

यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सत्रह सर्ग आप अनवरत के पिछले अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। अठारहवाँ सर्ग "ऊर्जा और विस्फोट" इस काव्य का अंतिम पड़ाव है। इस का दूसरा भाग यहाँ प्रस्तुत है................ 
ऊर्जा और विस्फोट
* यादवचंद्र *

सत्रहवाँ सर्ग

भाग द्वितीय

लाल सूरज
का मनोहर
देश ---
हँसते 
झूमते हैं  खेत,
श्रम है मुक्त
हल की 
नोक करती  
रूढ़ियों का  
मूल छेदन  
उड़ रहे   
वो -- लाल परचम  
लाल अभिवादन हनोई 
लाल अभिवादन ! 

मौत के टुकड़ो  
शपथ मेकांग की -- 
तुम, अमरिकी  
समराजियों के 
कैदखानों, 
तार वेष्टित 
नगर गाँवों, 
मौत के 
सौदागरों के  
घृणित अड्डों 
पर--करो हमले  
कि नापाम के   
नापाक कीड़े  
झुलस जाएँ  
और हो दानांग 
या खेसान 
या सैगोन  
--की हर इन्च धरती   
जेलरों की 
कब्र बन जाए  
सधे 
मोर्टार के गोले  
उड़ा दें  
टंकियाँ पेट्रोल की,
औ गगनचुम्बी 
आग की लपटें 
जला दें 
जेलरों के  
जंगली कानून,  
लिख दें 
मुक्ति के  
इतिहास में   
ऐसा नया मजमून  
अपने खून से   
रक्ताभ पट पर   
पूर्व के--  
जैसा न अब तक 
लिख सका कोई  
हजारों वर्षों में
हर गाँव   
बन कर व्यूह  
घेरे दुश्मनों को,   
पोर्ट के   
मजदूर मारें  
रात को छापे   
चलाएँ 
गोलियाँ   
फौजी केम्प के,   
सैगोन की   
सड़कें-गली  
हो लाल दमके,   
शहर के जो बीच से 
उट्ठी हुई है आग   
--धधके  
--और चमके   ---और धधके 
--और ..........

डूबते  
समराज की  
ये भागती  
औ दौड़ती  
बैचेन शक्लें !  
बच निकलने   
के लिए 
ये लड़खड़ाती  
क्षीण टांगें !  
आग से 
चम-चम चमकते 
जेल की  
दीवार पर  
बनती-बिगड़ती  
खड़ी-आड़ी  
झुकी-तिरछी  
दर्जनों   

बेडौल सूरत !  पेट के बल  
रेंगती   
अधमरी लाशें !  
डालरों पर 
पल रहे 
अखबार की 
औ राज्य की  
संदिग्ध खबरें !  
रेडियो पर 
चल रही है
उर्ध्व, उखड़ी साँस   
पेन्टागौन की 
समराजियों के 
अहम् की   
छल-छद्म की 
धोखाधड़ी की 
लो,
धड़ाकों पर धड़ाके !
सुनो, छापामार चिल्लाया
कि कारा तोड़ कर सूरज 
निकल आया !  निकल आया ! 
फरहरा
मुक्ति का फहरा 
गगन ने 
फूल बरसाये  
सुबह की 
लाल किरणों के 
हवा बारूद में लिपटी 
निखरने लग गई

औ गंध माटी की 
बिखरने लग गई 
औ मुक्ति के पंछी 
चहकने लग गए  
औ सौख्य के बच्चे  
बिदक कर जग गए 
संसार के 
नर पुंगवों 
जय हो !


मगर यह 
चार अरबों की धरा 
किस भाँति निर्भय हो ?

...... अठारहवें सर्ग 'ऊर्जा और विस्फोट' के अठारहवें सर्ग का द्वितीय भाग समाप्त...

सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

"ऊर्जा और विस्फोट" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का अठारहवाँ और अंतिम सर्ग भाग-1



यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सत्रह सर्ग आप अनवरत के पिछले अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। अठारहवाँ सर्ग "ऊर्जा और विस्फोट" इस काव्य का अंतिम पड़ाव है। इस का पहला भाग यहाँ प्रस्तुत है................ 
ऊर्जा और विस्फोट 
* यादवचंद्र *

सत्रहवाँ सर्ग


ऊर्जा और विस्फोट
भाग प्रथम
चीन की धरती
उगलने लगी शोले
सामराजी पौंड डॉलर
हाँफते, ज्यों
प्यास से 
बैचेन कुत्ता
रेत में 
या ताड़ की
दुर्बल
अस्थिर छाँव में

राष्ट्रीयता की
आड़ झूठी
फट गई,
संसार के 
सामराजियों के
साथ बैठे च्वांग-
क्या राष्ट्रीयता है ?
विश्व के 
जल्लाद सारे 
साथ मिल कर
कहर 
बरसाएँ श्रमिक पर;
पौंड-डॉलर,
फौज के बल 
राष्ट्र नायक 
(काठ का 
उल्लू) खड़ा कर
जुल्म ढाएँ-
क्या यही राष्ट्रीयता है ?

और हम प्रतिशोध में
मजदूर सारे विश्व  के
मिलने न पाएँ,
मिलें तो हम
जेल जाएँ
मौत की हम 
सजा पाएँ
क्या यही राष्ट्रीयता है ?
कैदियों की 
एकता है जुर्म
औ क्या 
कातिलों की 
एकता कानून है ?
क्या यही राष्ट्रीयता है ?

नीच, पामर
च्यांग के सर
कलम कर दी
एक मुट्ठी
कातिलों के 
घरों में 
बारूद भर दी,
औ पलीतों
मे सलाई 
मार दो-
प्रतिक्रान्ति के प्रति
ज्वार, हाहाकार दो
हो मुक्त श्रम
निर्ब्याज साधन
फसल झूमे
देश गाए,
मुक्त जन की
भावना की 
आरती
घर-घर सजे
औ कला का 
आलोक सौ गुण
निखर जाए,
एशिया की 
मुक्ति के
अगुओ, फहरुओ, साथियो
लो,
लाल परचम को तुम्हारे
विश्व देता है सलामी
मुक्तिकामी
अग्रसोची
एशिया के 
अग्रगामी 
चीन की जय !
व्याल के 
फण पर लहरते
औ घहरते
बीन की जय !
कोरिया वालो,
तुम्हारी जीत 
धरती को मुबारक !
अमरिका के 
शेर झूठे
नीच जेलर
थू तुम्हारे नाम पर-
झूठी अकड़ पर-
शान पर-
तुम जानते हो
हम न भूले
हैं हजारों वर्ष का
इतिहास अपना,
पीठ पर
कोड़े तुम्हारे
जो पड़े हैं
घाव उन के
आज भी आबाद हैं
हाँ, फर्क थोड़ा है
कि उन पर 
अब तुम्हारे लिए 
ढोनी पड़ रही बंदूक--
और नगमा
वियतनामी गाँव में
तेरे ठिकानों पर
बिछाती है सुरंगें
मुक्त, प्रिय मंगोल !
तेरी ईद में 
नगमा न आई
अमरिकी 
पेट्रोल की 
टंकी उड़ाने की 
उसे ड्यूटी मिली थी 
माफ करना 
और उस का 
लाल अभिवादन
सखे, स्वीकार करना
वियतनामी 
साथियो !
सामराजियों की
मौत के हस्ताक्षरों !
अरुणाभ सूरज
दे रहा दस्तक
सुनो--
आज दिन-विन फू नहा कर
खून में लाल हो गया
अमरिका के लिए हो-ची-
मिन्ह दुर्धर काल हो गया
...... अठारहवें सर्ग 'ऊर्जा और विस्फोट' के अठारहवें सर्ग का प्रथम भाग समाप्त...


गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

"मुक्ति पर्व" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का सत्रहवाँ सर्ग भाग-5

यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सोलह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। सत्रहवें सर्ग "मुक्ति पर्व" का पाँचवाँ और अंतिम भाग यहाँ प्रस्तुत है,  मुक्ति पर्व में आ कर काव्य मुक्त छंद का रूप धारण कर रहा है ................
* यादवचंद्र *

सत्रहवाँ सर्ग


मुक्ति पर्व
भाग पंचम
पिछले अंक में भाग चतुर्थ में आप ने पढ़ा था.....

..................................
तो उन के भी
इतिहास से
हमारा दम घुटने लगता है
हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं
और हमारी मानवता
शर्म से 
जमीं में गड़ जाती है
हमारा शोषण
उन के विधि 
विधान
और शासन का कर्म है
तो फिर 
उन से मुक्त होना
हमारा भी धर्म है।
अब पिछले अंक से आगे भाग पंचम में पढिए ...... 

दादा !
आओ, बैठो,
चार हजार वर्षों बाद
आज हम 
अपने परिवार के 
साथ बैठें
और अपना
मुक्ति-विधान रचें
आओ,
हम रणनीति तय करें
एक कार्यक्रम बनाएँ
हम गीत गाएँ-
अपनी मुक्ति
अपने भाग्य
औ चार अरब की 
तनी-कसी
संकल्पवती मुट्ठियों के 
आओ,
        हम बन्दूक उठाएँ-
        कसमें खाएँ 
                   आगे बढ़ें
मजदूरों की लाल फौज को संबोधित करते लेनिन
दुश्मन पर
हथगोले फेंक कर
विद्रोह की घोषणा करें ----

आओ हम श्रमिक
अपना झंडा 
औ राज-चिन्ह 
हवा में उछालें
हँसिया और हथौड़े संभालें
नये-नये नारे निकालें
मार्क्सवाद जिन्दाबाद !
श्रमिक एकता जिन्दाबाद !
अपनी सत्ता कायम करो
महिलाओं की लाल फौज
साव-धान !कामरेड फिदियेव !
हर टुकड़ी पर 
निगरानी रखना
दुश्मन फौज
गिरजाघरों में
छुपी बैठी है
घोड़े 
हिनहिनाने न पावें,
कदम-ब-कदम
पिटस् बर्ग
औ तिफलिस की आग
पूरे रूस में बिखेर दो
जेल के फाटक 
जल्द तोड़ दो,
उस की जलती दीवारें
नीचे गिरा दो
नहीं तो ये
बेमौके गिर कर
हमारी मौत का 
कारण बनेंगी
सोवियत सेना नायक

दुश्मन के प्रतिरोध में
अपनी फौज-लाल फौज !
दुश्मन के प्रतिरोध में
अपना कमाण्डर-कामरेड लेनिन !
घेरे से निकल कर
शत्र को घेरने के लिए
अपना घेरा-
सर्वहारा अधिनायकवाद
जारशाही के लिए
एक शब्द 
सिर्फ एक शब्द -
               मुर्दाबाद ! 
नीत्से

आओ,
सोवियत के वीर पूतों
बढ़ो,
फासिस्तों के दुर्ग पर
धमाके करो,
फ्यूचिक
औ फ्यूबिक के
कोटि-कोटि
मुक्तिकामी साथियों !
श्रमिकों की
आँखों के तारे
प्यारे स्तालिन से 
हाथ मिलाओ
अपने बन्धन के
नियम शास्त्र
औ शस्त्रों के 
मैगजीन में
आग लगाओ
रक्त-चाप-पीड़ित
नीत्से
और गोयबल्स की नसें
फट गईं,
बर्लिन की गलियाँ
लाशों से पट गईं,
मास्को घेरते 
हिटलर पगले
हिटलर

बर्फ जैसे पड़ गए,
लाल झंडों के तूफान में
पीले पात 
खड़-खड़ा झर गए


आओ, 
यूरप के आजाद पूतों
अपनी मुक्ति के
जशन मनाओ-,
स्टालिन

कामरेड स्तालिन,
जिन्दाबाद !
चलो,
आगे बढ़ो !
-और आगे !
-और आगे ! 
- औ.....र......

सत्रहवाँ सर्ग यहाँ समाप्त हुआ। 

इस प्रबंध काव्य का अठारहवाँ सर्ग शेष है। इसे भी पाँच-छह कडियों में प्रस्तुत किया जा सकेगा।