यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के सत्रह सर्ग आप अनवरत के पिछले अंकों में पढ़ चुके हैं। प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। प्रत्येक युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम तीन सर्ग वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े होने से उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं था। अठारहवाँ सर्ग "ऊर्जा और विस्फोट" इस काव्य का अंतिम पड़ाव था। आज यहाँ इस का चतुर्थ और अंतिम भाग यहाँ प्रस्तुत है, यही इस काव्य का समापन अंश है ................
भाग चतुर्थ
और नगमा ?
उसे है फुर्सत कहाँ
जब तक न
कारागार की
विधि-नीति-शिक्षा
राजसत्ता ध्वस्त होती
विश्व के
हर गाँव से
वह दम न लेगी
जेल का
हर कायदा
कानून जब तक
मिट न जाए
विश्व के
हर भाग से
वह दम न लेगी ।
जेलरों के शास्त्र
उस की कला-संस्कृति
सभ्यता
औ साख जब तक
जल न जाए
ग्लोब से
वह दम न लेगी ।
वो सुगबुगाती
रोशनी
लिहाफ ओढ़े
तिमिर का,
जम्हुआइयाँ
लेने लगी
किरणें बजा कर
चुटकियाँ
पर'
यह सवेरा
मुक्ति का
पहला चरण है,
कोटि कण्ठों
में सवंरते
बोल का
पहला परन है
यह सवेरा
मुक्ति के
शुभ यज्ञ की
प्रस्तावना है,
नृत्य निर्झर
ताल-लय की
भावना है
यह सवेरा
पात्र-परिचय
पूर्व का
आर्केस्ट्रा है
बड़े झुल-फुल
घाट भरने
चला यह
पहला घड़ा है
यह सवेरा
ज्ञान के
अभियान का
आयाम पहला,
अन्तर्ग्रहों की
खोज में
यह चंद्रमा-ज्यों
गाम पहला,
और नगमा ?
अभी नगमा
का सवँरना
खील भरना
अग्नि के
भाँवर लगाना
पीत-चूनर
ओढ़ माँ के
गले पड़ना
लिपट जाना
अभी बाकी।
मेहंदी,
काजल रचाना
सिमट जाना
शर्म से
घूंघट हटाना
औ हजारों
वर्ष का
दुख भरा बचपन
भूल जाना
मुस्कुराना
अभी बाकी - अभी बाकी
नए पाहुन
का रुदन
भर जाय आंगन
नया जीवन
गोद ले
नगमा चले
बलमा छले
हर कली चटके
और भौंरे
गुनगुनाएँ
नये नगमे
अभी बाकी--
अभी बाकी-अभी बाकी--अभी....