यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के सोलह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं। प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम तीन सर्ग वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। सत्रहवें सर्ग "मुक्ति पर्व" का पाँचवाँ और अंतिम भाग यहाँ प्रस्तुत है, मुक्ति पर्व में आ कर काव्य मुक्त छंद का रूप धारण कर रहा है ................
* यादवचंद्र *
सत्रहवाँ सर्ग
मुक्ति पर्व
भाग पंचम
पिछले अंक में भाग चतुर्थ में आप ने पढ़ा था.....
..................................
तो उन के भी
इतिहास से
हमारा दम घुटने लगता है
हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं
और हमारी मानवता
शर्म से
जमीं में गड़ जाती है
उन के विधि
विधान
और शासन का कर्म है
तो फिर
उन से मुक्त होना
हमारा भी धर्म है।
अब पिछले अंक से आगे भाग पंचम में पढिए ...... दादा !
आओ, बैठो,
चार हजार वर्षों बाद
आज हम
अपने परिवार के
साथ बैठें
और अपना
मुक्ति-विधान रचें
आओ,
हम रणनीति तय करें
एक कार्यक्रम बनाएँ
हम गीत गाएँ-
अपनी मुक्ति
अपने भाग्य
औ चार अरब की
तनी-कसी
संकल्पवती मुट्ठियों के
आओ,
हम बन्दूक उठाएँ-
कसमें खाएँ
आगे बढ़ें
मजदूरों की लाल फौज को संबोधित करते लेनिन |
हथगोले फेंक कर
विद्रोह की घोषणा करें ----
आओ हम श्रमिक
अपना झंडा
औ राज-चिन्ह
हवा में उछालें
हँसिया और हथौड़े संभालें
नये-नये नारे निकालें
मार्क्सवाद जिन्दाबाद !
श्रमिक एकता जिन्दाबाद !
अपनी सत्ता कायम करो
महिलाओं की लाल फौज |
हर टुकड़ी पर
निगरानी रखना
दुश्मन फौज
गिरजाघरों में
छुपी बैठी है
घोड़े
हिनहिनाने न पावें,
कदम-ब-कदम
पिटस् बर्ग
औ तिफलिस की आग
पूरे रूस में बिखेर दो
जेल के फाटक
जल्द तोड़ दो,
उस की जलती दीवारें
नीचे गिरा दो
नहीं तो ये
बेमौके गिर कर
हमारी मौत का
कारण बनेंगी
सोवियत सेना नायक |
दुश्मन के प्रतिरोध में
अपनी फौज-लाल फौज !
दुश्मन के प्रतिरोध में
अपना कमाण्डर-कामरेड लेनिन !
घेरे से निकल कर
शत्र को घेरने के लिए
अपना घेरा-
सर्वहारा अधिनायकवाद
जारशाही के लिए
एक शब्द
सिर्फ एक शब्द -
मुर्दाबाद !
नीत्से |
आओ,
सोवियत के वीर पूतों
बढ़ो,
फासिस्तों के दुर्ग पर
धमाके करो,
फ्यूचिक
औ फ्यूबिक के
कोटि-कोटि
मुक्तिकामी साथियों !
श्रमिकों की
आँखों के तारे
प्यारे स्तालिन से
हाथ मिलाओ
अपने बन्धन के
नियम शास्त्र
औ शस्त्रों के
मैगजीन में
आग लगाओ
रक्त-चाप-पीड़ित
नीत्से
और गोयबल्स की नसें
फट गईं,
बर्लिन की गलियाँ
लाशों से पट गईं,
मास्को घेरते
हिटलर पगले
हिटलर |
बर्फ जैसे पड़ गए,
लाल झंडों के तूफान में
पीले पात
खड़-खड़ा झर गए
आओ,
यूरप के आजाद पूतों
अपनी मुक्ति के
जशन मनाओ-,
स्टालिन |
कामरेड स्तालिन,
जिन्दाबाद !
चलो,
आगे बढ़ो !
-और आगे !
-और आगे !
- औ.....र......
सत्रहवाँ सर्ग यहाँ समाप्त हुआ।
इस प्रबंध काव्य का अठारहवाँ सर्ग शेष है। इसे भी पाँच-छह कडियों में प्रस्तुत किया जा सकेगा।
5 टिप्पणियां:
बहुत अच्छी प्रस्तुति .
श्री दुर्गाष्टमी की बधाई !!!
आप ओर आप के परिवार को दुर्गाष्टमी की बधाई
हाज़िर हुआ था और पढा उन्हें !
मजदूरों के देवताओं का कवितामयी चित्रण।
बहुत सुंद्र चित्रण.
दुर्गा नवमी एवम दशहरा पर्व की हार्दिक बधाई एवम शुभकामनाएं.
रामराम.
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