मुंशी जी के जन्मदिन 31 जुलाई को मैं ने अफसोस जाहिर किया था कि मैं उस दिन उन का एक महत्वपूर्ण आलेख "महाजनी सभ्यता" को जो अंतर्जाल पर उपलब्ध नहीं है, अनवरत पर लाना चाहता था। लेकिन पुस्तक नहीं मिल सकने के कारण ऐसा नहीं कर सका। मैं प्रेमचन्द जयन्ती नहीं मना सका था। लेकिन कल अपना कार्यालय पुनर्व्यवस्थित करने के दौरान पुस्तक मुझे मिल गयी और मैं उसे अंतर्जाल पर ले आने में सफल हो गया हूँ। इस आलेख के दो भाग हैं। मैं इन्हें एक-एक कर प्रस्तुत कर रहा हूँ। कल आप ने प्रथम भाग पढ़ा आज दूसरा और अंतिम भाग प्रस्तुत है।
- मुंशी प्रेमचन्द
इस सभ्यता का दूसरा सिद्धांत है - 'Business is business' अर्थात व्यवसाय व्यवसाय है। उस में भावुकता के लिए गुंजाइश नहीं है। पुराने जीवन सिद्धान्त में वह लट्ठमार साफगोई नहीं है, जो निर्लज्जता कही जा सकती है और जो इस नवीन सिद्धान्त की आत्मा है। जहाँ लेन देन का सवाल है, रुपये पैसे का मामला है, वहाँ न दोस्ती का गुजर है, न मुरौवत का, न इन्सानियत का, बिजनेस में दोस्ती कैसी, जहाँ किसी ने इस सिद्धान्त की आड़ ली और आप लाजवाब हुए, फिर आप की जबान नहीं खुल सकती। एक सज्जन जरूरत से लाचार हो कर अपने किसी महाजन मित्र के पास जाते हैं और चाहते हैं कि वह कुछ मदद करे। यह भी आशा रखते हैं कि शायद दर में वह कुछ रियायत कर दे, पर जब देखते हैं कि यह सहानुभूति मेरे साथ भी वही कारोबारी बर्ताव कर रहे हैं, तो कुछ रियायत की प्रार्थना करते हैं, मित्रता और घनिष्ठता के आधार पर आँखों में आँसू भर कर बड़े करुण स्वर में कहते हैं- महाराज, मैं इस समय बड़ा परेशान हूँ, नहीं तो आप को कष्ट नहीं देता, ईश्वर के लिए मेर हाल पर रहम कीजिये। समझ लीजिए कि एक पुराने दोस्त ..... वहीं बात काट कर आज्ञा के स्वर में फरमाया जाता है लेकिन जनाब, आप 'बिजनेस इज बिजनेस' भूल जाते हैं। उस दिन कातर प्रार्थी पर मानों बम का गोला गिरा। अब उस के पास कोई तर्क नहीं, कोई दलील नहीं। चुपके से उठ कर वह अपनी राह लेता है या फिर अपने व्यवसाय सिद्धान्त के भक्त मित्र की सारी शर्तें कबूल कर लेता है।
महाजनी सभ्यता ने दुनिया में जो नयी रीति नीतियाँ चलाई हैं, उस में सब से अधिक और रक्त पिपासु यही व्यवसाय वाला सिद्धान्त है। मियाँ-बीबी में बिजनेस; बाप-बेटे में बिजनेस; गुरू-शिष्य में बिजनेस। सारे मानवी, आध्यात्मिक और सामाजिक नेह-नाते समाप्त, आदमी-आदमी के बीच बस कोई लगाव है, तो बिजनेस का। लानत है इस बिजनेस पर ! लड़की अगर दुर्भाग्यवश क्वाँरी रह गयी और अपनी जीविका का कोई उपाय न निकाल सकी तो बाप के घर में ही लोंडी बन जाना पड़ता है। यों लड़के-लड़कियाँ सभी घरों में काम-काज करते ही हैं, पर उन्हें कोई टहलुआ नहीं समझता, पर इस महाजनी सभ्यता में लड़की एक खास उम्र के बाद लोंडी और अपने भाइयों की मजदूरनी हो जाती है। पूज्य पिताजी भी अपने पितृभक्त बेटे के टहलुए बन जाते हैं और माँ अपने सपूत की टहलुई, स्वजन-सम्बन्धी तो किसी गिनती में ही नहीं। भाई भी भाई के घर आए तो मेहमान है। अक्सर तो उसे उस मेहमानी का बिल भी चुकाना पड़ता है। इस सभ्यता की आत्मा है व्यक्तिवाद, आपस्वार्थी बनें, सब कुछ अपने लिए करें।
पर यहाँ भी हम किसी को दोषी नहीं ठहरा सकते। वही मान प्रतिष्ठा, वही भविष्य की चिन्ता, वही अपने बाद बीवी-बच्चों के गुजर का सवाल, वही नुमाइश और दिखावे की आवश्यकता हर एक की गरदन पर सवार है, और वह हल नहीं सकता। वह इस सभ्यता के नीति-नियमों का पालन न करे तो उस का भविष्य अन्धकारमय है।
अब तक दुनिया के लिए इस सभ्यता की रीति-नीति का अनुसरण करने के सिवा और कोई उपाय न था, उसे झक मार कर उस के आदेशों के सामने सिर झुकाना पड़ता था। महाजन अपने जोम में फूला फिरता था। सारी दुनिया उस के चरणों पर नाक रगड़ रही थी, बादशाह उस का बन्दा वजीर उस के गुलाम, सन्धि-विग्रह की कुंजी उस के हाथ में, दुनिया उस की महत्वाकांक्षाओं के सामने सिर झुकाये हुए, हर मुलक में उस का बोल बाला।
परन्तु अब नई सभ्यता का सूर्य सुदूर पश्चिम से उदय हो रहा है, जिस ने इस नारकीय महाजनवाद या पूंजीवाद की जड़ खोद कर फैंक दी है, जिस का मूल सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक व्यक्ति, जो अपने शरीर या दिमाग से मेहनत कर के कुछ पैदा कर सकता है, राज्य और समाज का परम सम्मानित सदस्य हो सकता है और जो केवल दूसरों की मेहनत या बाप-दादों के जोड़े हुए धन पर रईस बना फिरता है, वह पतिततम प्राणी है। उसे राज्य प्रबन्ध में राय देने का कोई हक नहीं और वह नागरिकता के अधिकारों का भी पात्र नहीं, महाजन इस नई लहर से अति उद्विग्न हो कर बौखलाया हुआ फिर रहा है और सारी दुनिया के महाजनों की शमिल आवाज इस ई सभ्यता को कोस रही है, उसे शाप दे रही है, व्यक्ति स्वातंत्र्य, धर्म-विश्वास की स्वाधीनता, अपनी अन्तरात्मा के आदेश पर चलने की आजादी-वह इन सब की घातक, गला घोंट देने वाली बताई जा रही है। उन सभी साधनों से जो पैसे वालों के लिए सुलभ हैं, काम ले कर उस के विरुद्ध प्रचार किया जा रहा है; पर सचाई जो इस सारे अंधकार को चीर कर दुनिया में य़अपनी ज्योति का उजाला फैला रही है।
निस्सन्देह इस नई सभ्यता ने व्यक्ति स्वातंत्र्य के पंजे, नाखून और दांत तोड़ दिए हैं। उस के राज्य में एक पूंजीपति लाखों मजदूरों का खून पी कर मोटा नहीं हो सकता। उसे अब यह आजादी नहीं कि अपने नफे के लिए साधारण आवश्यकता की वस्तुओं के दाम चढ़ा सके, दूसरे अपने माल की खपत कराने के लिए युद्ध करा दे, गोला-बारूद और युद्ध सामग्री बना कर दुर्बल राष्ट्रों का दमन कराये। अगर इस की स्वाधीनता ही स्वाधीनता है तो निस्सन्देह नई सभ्यता में स्वाधीनता नहीं पर यदि स्वाधीनता का अर्थ यह है कि जनसाधारण को हवादार मकान, पुष्टिकर भोजन, साफ-सुथरे गाँव, मनोरंजन और व्यायाम सुविधाएँ, बिजली के पंखे और रोशनी, सस्ता और सद्य सुलभ न्याय की प्राप्ति हो तो इस समजा की व्यवस्था में जो स्वाधीनता और आजादी है, वह दुनिया की किसी सभ्यतम कहाने वाली जाति को भी सुलभ नहीं है। धर्म की स्वतंत्रता का अर्थ अगर पुरोहितों, पादरियों, मुल्लाओं की मुफ्तखोरी जमात के दंभमय उपदेशों और अन्ध विश्वास-जनित रूढ़ियों का अनुसरण है तो वहाँ निस्सन्देह वहाँ पर इस स्वातंत्र्य का अभाव है। पर धर्म स्वातंत्र्य का अर्थ यदि लोक सेवा, सहिष्णुता, समाज के लिए व्यक्ति का बलिदान, नेकनीयती, शरीर और मन की पवित्रता है तो इस सभ्यता में धर्माचरण की जो स्वाधीनता है, और देश को उस के दर्शन भी नहीं हो सकते।
जहाँ धन की कमी-बेशी के आधार पर असमानता है वहाँ ईर्ष्या, जोर-जबरदस्ती, बेईमानी, झूठ, मिथ्या अभियोग-आरोप, वेश्यावृत्ति, व्यभिचार और सारी दुनिया की बुराइयाँ अनिवार्य रूप से मौजूद हैं। जहाँ धन का आधिक्य नहीं, अधिकांश मनुष्य एक जैसी स्थिति में हैं, वहाँ जलन क्यों हो और जब्र क्यों हो और सतीत्व-विक्रय क्यों हो, झूठे मुकदमे क्यों चलें, और चोरी डाके की वारदातें क्यों हों। यह सारी बुराइयाँ तो दौलत की देन हैं, पैसे के प्रसाद हैं, महाजनी सभ्यता ने इन की सृष्टि की है। वही इन को पालती है और वही यह भी चाहती है कि जो दलित, पीड़ित और विजित हैं, वे इसे ईश्वरीय विधान समझ कर अपनी स्थिति से सन्तुष्ट रहें। उन की ओर से तनिक भी विरोध-विद्रोह का भाव दिखाया गया, तो उन के सिर कुचलने के लिए पुलिस है, अदालत है, कालापानी है। आप शराब पी कर उस के नशे से बच नहीं सकते। आग लगा कर चाहें लपट न उठे, असम्भव है। पैसा अपने साथ यह सारी चीजें लाता है, जिन्हों ने दुनिया को नर्क बना दिया है। इस पैसा-पूजा को मिटा दीजिए, सारी बुराइयाँ अपने आप मिट जायेंगी, जड़ खोद कर केवल फुनगी की पत्तियाँ तोड़ना बेकार है। यह नयी सभ्यता धनाड्यता को हेय, लज्जाजनक तथा घातक विष समझती है। वहाँ कोई आदमी अमीरी ढंग से रहे तो लोगों की ईर्ष्या का पात्र नहीं होता, बल्कि तुच्छ और हेय समझा जाता है, गहनों से लदकर कोई स्त्री सुंदर नहीं बनती, घृणा का पात्र बनती है। साधारण जनसमाज से ऊँचा रहन-सहन रखना वहाँ बेहूदगी समझी जाती है। शराब पी कर वहाँ बहका नहीं जा सकता, अधिक मद्यपान वहाँ दोष समझा जाता है, धार्मिक दृष्टि से नहीं, किन्तु शुद्ध सामाजिक दृष्टि से, क्यों कि शराबखोरी से आदमी में धैर्य और कष्ट-सहन, अध्यवसाय और श्रमशीलता का अंत हो जाता है।
हाँ, इस समाज-व्यवस्था ने व्यक्ति को यह स्वाधीनता नहीं दी है कि वह जनसाधारण को अपनी महत्वाकांक्षाओं की तृप्ति का साधन बनाए और तरह-तरह के बहानों से उन की मेहनत का फायदा उठाए या सरकारी पद प्राप्त कर के मोटी-मोटी रकमें उड़ाये और मूँछों पर ताव देता फिरे। वहाँ ऊँचे से उँचे अधिकारी की तनख्वाह भी उतनी ही है, जितनी एक कुशल कारीगर की, वह गगन-चुम्बी प्रासादों में नहीं रहता, तीन-चार कमरों में ही उसे गुजर-बसर करना पड़ता है। उस की श्रीमती जी रानी साहिबा या बेगम बनी हुई स्कूलों में ईनाम बाँटती नहीं फिरतीं, बल्कि अक्सर मेहनत-मजदूरी या किसी अखबार के दफ्तर में काम करती हैं। सरकारी पद पा कर वह अपने को लाटसाहब नहीं बल्कि जनता का सेवक समझता है। महाजनी सभ्यता का प्रेमी इस समाज व्यवस्था को क्यों पसन्द करने लगा जिस से उसे दूसरों पर हुकूमत जताने के लिए सोने-चांदी के ढेर लगाने की सुविधाएँ नहीं है ? पूंजीपति और जमींदार तो इस सभ्यता की कल्पना से ही काँप उठते हैं। उन की जूड़ी का कारण हम समझ सकते हैं पर जब वह लोग भी उस की खिल्ली उड़ाने और उस पर फब्तियाँ कसने लगते हैं तो अनजान में महाजनी सभ्यता का उल्लू सीधा कर रहे हैं, तो हमें उन की दास-मनोवृत्ति पर हँसी आती है। जिस में मनुष्यता, आध्यात्मिकता, उच्चता और सौंदर्यबोध है, वह कभी ऐसी समाज व्यवस्था की सराहना नहीं कर सकता, जिस की नींव लोभ-स्वार्थपरता और दुर्बल मनोवृत्ति पर खड़ी हो। ईश्वर ने तुम्हें विद्या और कला की सम्पत्ति दी है तो उस का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे जन समाज की सेवा में लगाओ, यह नहीं कि उश से जन समाज पर हुकूमत चलाओ, उस का खून चूसो और उसे उल्लू बनाओ।
धन्य है वह सभ्यता, जो मालदारी और व्यक्तिगत संपत्ति का अंत कर रही है और जल्दी ही या देर से दुनिया उस का, पदानुसरण अवश्य करेगी, यह सभ्यता अमुक देश की समाज रचना अथवा धर्म-मजहब से मेल नहीं खाती या उस वातावरण के अनुकूल नहीं है, यह तर्क नितांत असंगत है। ईसाई मजहब का पौधा यरूसलम में उगा और सारी दुनिया उस के सौरभ से बस गयी, बौद्ध धर्म ने उत्तर भारत में जन्म ग्रहण किया और आधी दुनिया ने उसे गुरूदक्षिणा दी। मानव समाज अखिल विश्व में एक ही है। छोटी-मोटी बातों में अन्तर हो सकता है, पर मूल स्वरूप की दृष्टि से मानवजाति में कोई भेद नहीं। जो शासन विधान और समाज व्यवस्था एक देश के लिए कल्याणकारी है, वह दूसरे देश के लिए भी हितकारी होगी। हाँ महाजनी सभ्यता और उस के गुर्गे अपनी शक्ति भर उस का विरोध करेंगे, उस के बारे में भ्रमजनक प्रचार करेंगे, जनसाधारण को बहकायेंगे, उस की आँखों में धूल झोंकेंगे, पर जो सत्य है, एक न एक दिन उस की विजय होगी और अवश्य होगी। (समाप्त)
हाँ, इस समाज-व्यवस्था ने व्यक्ति को यह स्वाधीनता नहीं दी है कि वह जनसाधारण को अपनी महत्वाकांक्षाओं की तृप्ति का साधन बनाए और तरह-तरह के बहानों से उन की मेहनत का फायदा उठाए या सरकारी पद प्राप्त कर के मोटी-मोटी रकमें उड़ाये और मूँछों पर ताव देता फिरे। वहाँ ऊँचे से उँचे अधिकारी की तनख्वाह भी उतनी ही है, जितनी एक कुशल कारीगर की, वह गगन-चुम्बी प्रासादों में नहीं रहता, तीन-चार कमरों में ही उसे गुजर-बसर करना पड़ता है। उस की श्रीमती जी रानी साहिबा या बेगम बनी हुई स्कूलों में ईनाम बाँटती नहीं फिरतीं, बल्कि अक्सर मेहनत-मजदूरी या किसी अखबार के दफ्तर में काम करती हैं। सरकारी पद पा कर वह अपने को लाटसाहब नहीं बल्कि जनता का सेवक समझता है। महाजनी सभ्यता का प्रेमी इस समाज व्यवस्था को क्यों पसन्द करने लगा जिस से उसे दूसरों पर हुकूमत जताने के लिए सोने-चांदी के ढेर लगाने की सुविधाएँ नहीं है ? पूंजीपति और जमींदार तो इस सभ्यता की कल्पना से ही काँप उठते हैं। उन की जूड़ी का कारण हम समझ सकते हैं पर जब वह लोग भी उस की खिल्ली उड़ाने और उस पर फब्तियाँ कसने लगते हैं तो अनजान में महाजनी सभ्यता का उल्लू सीधा कर रहे हैं, तो हमें उन की दास-मनोवृत्ति पर हँसी आती है। जिस में मनुष्यता, आध्यात्मिकता, उच्चता और सौंदर्यबोध है, वह कभी ऐसी समाज व्यवस्था की सराहना नहीं कर सकता, जिस की नींव लोभ-स्वार्थपरता और दुर्बल मनोवृत्ति पर खड़ी हो। ईश्वर ने तुम्हें विद्या और कला की सम्पत्ति दी है तो उस का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे जन समाज की सेवा में लगाओ, यह नहीं कि उश से जन समाज पर हुकूमत चलाओ, उस का खून चूसो और उसे उल्लू बनाओ।
धन्य है वह सभ्यता, जो मालदारी और व्यक्तिगत संपत्ति का अंत कर रही है और जल्दी ही या देर से दुनिया उस का, पदानुसरण अवश्य करेगी, यह सभ्यता अमुक देश की समाज रचना अथवा धर्म-मजहब से मेल नहीं खाती या उस वातावरण के अनुकूल नहीं है, यह तर्क नितांत असंगत है। ईसाई मजहब का पौधा यरूसलम में उगा और सारी दुनिया उस के सौरभ से बस गयी, बौद्ध धर्म ने उत्तर भारत में जन्म ग्रहण किया और आधी दुनिया ने उसे गुरूदक्षिणा दी। मानव समाज अखिल विश्व में एक ही है। छोटी-मोटी बातों में अन्तर हो सकता है, पर मूल स्वरूप की दृष्टि से मानवजाति में कोई भेद नहीं। जो शासन विधान और समाज व्यवस्था एक देश के लिए कल्याणकारी है, वह दूसरे देश के लिए भी हितकारी होगी। हाँ महाजनी सभ्यता और उस के गुर्गे अपनी शक्ति भर उस का विरोध करेंगे, उस के बारे में भ्रमजनक प्रचार करेंगे, जनसाधारण को बहकायेंगे, उस की आँखों में धूल झोंकेंगे, पर जो सत्य है, एक न एक दिन उस की विजय होगी और अवश्य होगी। (समाप्त)
6 टिप्पणियां:
आप के इस लेख को आराम से पढुंगा धन्यवाद.
विजयादशमी की बहुत बहुत बधाई
सच मे बहुत गुढ लिखा इस महाजनी सभ्यता के बारे, ओर आज तो हो भी बिलकुल ऎसा ही हे, धन्यवाद
"मानव समाज अखिल विश्व में एक ही है। छोटी-मोटी बातों में अन्तर हो सकता है, पर मूल स्वरूप की दृष्टि से मानवजाति में कोई भेद नहीं। जो शासन विधान और समाज व्यवस्था एक देश के लिए कल्याणकारी है, वह दूसरे देश के लिए भी हितकारी होगी"
कितने बरस हुए इस आलेख को लिखे गये तब से अब तक मानव समूहों मे आधे अधूरे से प्रयोग भी हुए ! इधर महाजनी विरोध तेज से तेजतर होता हुआ पर परिस्थितियां सत्य की विजय के अनुकूल कब होंगी बस हमें भी उस दिन का इंतज़ार है !
आज इस महाजनी सभ्यता की केवल शकल बदली है। पहले यह एक 'विचार' रहा होगा अब तो यह अन्तरराष्ट्रीय दादागिरि में बदल गई है।
बहरहाल, लेख निस्सन्देह विचारोत्तेजक है। संगहणीय तो है ही।
महाजनी सभ्यता को ऑनलाईन लाकर आप साहित्य प्रेमियों पर बहुत बडा उपकार किया है।
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..आप कितने बड़े सनकी ब्लॉगर हैं?
'महाजनी सभ्यता का प्रेमी इस समाज व्यवस्था को क्यों पसन्द करने लगा जिस से उसे दूसरों पर हुकूमत जताने के लिए सोने-चांदी के ढेर लगाने की सुविधाएँ नहीं है ? पूंजीपति और जमींदार तो इस सभ्यता की कल्पना से ही काँप उठते हैं।'…मुंशी जी भी आर्थिक कारणों को मूल समस्या मान चुके थे…समाजवाद की ओर इनकी यात्रा कैसे हुई, इसपर एक लेख है मेरे पास…देखता हूँ…लगाऊंगा उसे जल्द ही…पैसे की महत्ता पर उनके लिखे से हर दिन दो-चार होना पड़ता है…गुस्सा तब आता है जब इस महान और अत्यन्त ईमानदार लेखक पर डा धर्मवीर जैसे लोग जो दलितवाद का झंडा लेकर घूम रहे हैं, शोषक और सामंत कहते हैं और उनके साथ भी बहुत से लोग हैं…जबकि प्रेमचन्द जीवन भर आर्थिक समस्याओं से लड़ते-जूझते रहे…इस लेख में कुछ भी बहुत गम्भीर नहीं लेकिन गम्भीरता हर वाक्य में है…
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