यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के सत्रह सर्ग आप अनवरत के पिछले अंकों में पढ़ चुके हैं। प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम तीन सर्ग वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। अठारहवाँ सर्ग "ऊर्जा और विस्फोट" इस काव्य का अंतिम पड़ाव है। इस का पहला भाग यहाँ प्रस्तुत है................
ऊर्जा और विस्फोट
* यादवचंद्र *
सत्रहवाँ सर्ग
ऊर्जा और विस्फोट
भाग प्रथम
चीन की धरती
उगलने लगी शोले
सामराजी पौंड डॉलर
हाँफते, ज्यों
प्यास से
बैचेन कुत्ता
रेत में
या ताड़ की
दुर्बल
अस्थिर छाँव में
राष्ट्रीयता की
आड़ झूठी
फट गई,
संसार के
सामराजियों के
साथ बैठे च्वांग-
क्या राष्ट्रीयता है ?
विश्व के
जल्लाद सारे
साथ मिल कर
कहर
बरसाएँ श्रमिक पर;
पौंड-डॉलर,
फौज के बल
राष्ट्र नायक
(काठ का
उल्लू) खड़ा कर
जुल्म ढाएँ-
और हम प्रतिशोध में
मजदूर सारे विश्व के
मिलने न पाएँ,
मिलें तो हम
जेल जाएँ
मौत की हम
सजा पाएँ
क्या यही राष्ट्रीयता है ?
कैदियों की
एकता है जुर्म
औ क्या
कातिलों की
एकता कानून है ?
क्या यही राष्ट्रीयता है ?
नीच, पामर
च्यांग के सर
कलम कर दी
एक मुट्ठी
कातिलों के
घरों में
बारूद भर दी,
औ पलीतों
मे सलाई
मार दो-
प्रतिक्रान्ति के प्रति
ज्वार, हाहाकार दो
हो मुक्त श्रम
निर्ब्याज साधन
फसल झूमे
देश गाए,
मुक्त जन की
भावना की
आरती
घर-घर सजे
औ कला का
आलोक सौ गुण
निखर जाए,
एशिया की
मुक्ति के
अगुओ, फहरुओ, साथियो
लो,
विश्व देता है सलामी
मुक्तिकामी
अग्रसोची
एशिया के
अग्रगामी
चीन की जय !
व्याल के
फण पर लहरते
औ घहरते
बीन की जय !
कोरिया वालो,
तुम्हारी जीत
धरती को मुबारक !
अमरिका के
शेर झूठे
नीच जेलर
थू तुम्हारे नाम पर-
झूठी अकड़ पर-
शान पर-
तुम जानते हो
हैं हजारों वर्ष का
इतिहास अपना,
पीठ पर
कोड़े तुम्हारे
जो पड़े हैं
घाव उन के
आज भी आबाद हैं
हाँ, फर्क थोड़ा है
कि उन पर
अब तुम्हारे लिए
ढोनी पड़ रही बंदूक--
और नगमा
वियतनामी गाँव में
तेरे ठिकानों पर
मुक्त, प्रिय मंगोल !
तेरी ईद में
नगमा न आई
अमरिकी
पेट्रोल की
टंकी उड़ाने की
उसे ड्यूटी मिली थी
माफ करना
और उस का
लाल अभिवादन
सखे, स्वीकार करना
वियतनामी
साथियो !
सामराजियों की
मौत के हस्ताक्षरों !
अरुणाभ सूरज
दे रहा दस्तक
सुनो--
आज दिन-विन फू नहा कर
खून में लाल हो गया
अमरिका के लिए हो-ची-
मिन्ह दुर्धर काल हो गया
...... अठारहवें सर्ग 'ऊर्जा और विस्फोट' के अठारहवें सर्ग का प्रथम भाग समाप्त...
7 टिप्पणियां:
द्विवेदी जी
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का ये अंश पढ़ कर लगा की कितनी आग है पाण्डेय जी के अन्दर.
आपका प्रयास सराहनीय है
- विजय तिवारी " किसलय " हिन्दी साहित्य संगम जबलपुर
युद्ध, सदा अवरुद्ध,
हुई कब मन की राहें शुद्ध।
विगत दिन यहाँ अनियमित हने से व्यतिक्रम हुआ ,यह एक बड़ी साहित्यिक विरासत है कवि की
द्विवेदी जी, इस शानदार काव्य रचना से परिचित कराने का शुक्रिया।
बस पढ़ रहा हूं !
विद्रोही कविता लग रही है ।
कविता से सहमत हे जी
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