@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: "मुक्ति पर्व" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का सत्रहवाँ सर्ग भाग-4

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

"मुक्ति पर्व" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का सत्रहवाँ सर्ग भाग-4

यादवचंद्र पाण्डेय
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सोलह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। सत्रहवें सर्ग "मुक्ति पर्व" का चतुर्थ भाग यहाँ प्रस्तुत है,  मुक्ति पर्व में आ कर काव्य मुक्त छंद का रूप धारण कर रहा है ................
* यादवचंद्र *

सत्रहवाँ सर्ग


मुक्ति पर्व
भाग चतुर्थ
पिछले अंक में भाग तृतीय में आप ने पढ़ा था.....
................................
उस ने क्या जवाब दिया ?
उस ने 
उस चुड़ैल के मुहँ पर 
थूक दिया
जिस के चलते
मुझे और उसे
बाहर के हाते से
हटा कर 
फिर सेल में 
डाल दिया गया
और जेलर ने
जेल पुस्तिका में 
लिख दिया--गद्दार ! 
बागी !
देश द्रोही !
सभ्यता का शत्रु !
अब पिछले अंक से आगे भाग चतुर्थ में पढिए ......

हाँ,
तुम ठीक कहते हो दादा,
कि ये शब्द 
जेलर ने
अपने लोगों के लिए नहीं,
कभी नहीं लिखे,
ये शब्द 
हमीं कैदियों के लिए 
जब हमें
कत्ल करना होता है,
इस्तेमाल किए जाते रहे
यह जेलर
बड़ा कस्साई है दादा !
करघे पर बैठे
उस कैदी को देख रहे हो ?
कबीर नाम है -- 
पत्थर से बांध कर 
उसे नदी में फैंक दिया था
और वह सघन मूँछों वाला
कैदी नम्बर--एक
गोर्की नाम है --
भूखी नगमा को 
किस्सा सुनाने के जुर्म में
संगीनधारी जल्लाद
सूअर की तरह 
उसे देश विदेश 
खेदते रहे
मायकोवस्की 
लू-सुन, प्रेमचन्द
नजरूल-फैज-
राहुल-फ्रॉस्ट वगैरह
सब पर ऐसे ही इलजाम हैं
हम अपना दुख-दर्द 
खोल नहीं सकते
हम लिख नहीं सकते
हम बोल नहीं सकते
इस जेलर का इंसाफ
बड़ा खौफनाक है,
यह हमेशा
हमें ही 
दोषी ठहराता है
एक  बार भी
हमारे 
और उन के सम्बन्ध में
हमारी जीत नहीं हुई
उन की हार नहीं हुई
राजतन्त्र से -- 
प्रजातंत्र तक.
दादा;
हम सब चार अरब
उन्हें कत्तई मंजूर नहीं
तो फिर, अब सुन लो--
हमारी सुविधा
उन्हें स्वीकार नहीं
तो उन की सुविधा भी 
हमें अङ्गीकार नहीं।
हमारे धर्म
उन के हित
अहितकर हैं
तो उनके धर्म भी
हमारे पैरों में 
पैकर हैं।
हमारी दास्ताँ से 
उन्हें उबकाई आती है,
उन का संसार
उन की मानवता
बदनाम हो जाती है
तो उन के भी
इतिहास से
हमारा दम घुटने लगता है
हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं
और हमारी मानवता
शर्म से 
जमीं में गड़ जाती है
हमारा शोषण
उन के विधि 
विधान
और शासन का कर्म है
तो फिर 
उन से मुक्त होना
हमारा भी धर्म है। 

...............................कविता अगले अंक में जारी रहेगी

5 टिप्‍पणियां:

राज भाटिय़ा ने कहा…

दिनेश जी आप की रचना बहुत अच्छी लगी, लेकिन कुछ गडबड लग रही हे आप की पोस्ट के संग क्योकि टिपण्णी देने के लिये बहुत बहुत नीचे ढुढना पडता हे जो काफ़ी णिचे हो गया हे, कृप्या ध्यान दे

विजय तिवारी " किसलय " ने कहा…

रचना अच्छी है,
अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा.
-विजय
हिन्दी साहित्य संगम जबलपुर

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

ओजस्विता और दर्शन का संमिश्रण।

उम्मतें ने कहा…

प्रवीण जी से सहमत !

शरद कोकास ने कहा…

बहुत बढ़िया द्विवेदी जी इसे पढ़ रहे हैं । आप ने पुन: वही लय प्राप्त कर ली यह अच्छा लग रहा है ।