यादवचंद्र पाण्डेय |
* यादवचंद्र *
सत्रहवाँ सर्ग
मुक्ति पर्व
भाग चतुर्थ
हाँ,
तुम ठीक कहते हो दादा,
कि ये शब्द
जेलर ने
अपने लोगों के लिए नहीं,
कभी नहीं लिखे,
ये शब्द
हमीं कैदियों के लिए
जब हमें
कत्ल करना होता है,
इस्तेमाल किए जाते रहे
बड़ा कस्साई है दादा !
करघे पर बैठे
उस कैदी को देख रहे हो ?
कबीर नाम है --
पत्थर से बांध कर
उसे नदी में फैंक दिया था
और वह सघन मूँछों वाला
भूखी नगमा को
किस्सा सुनाने के जुर्म में
संगीनधारी जल्लाद
सूअर की तरह
उसे देश विदेश
खेदते रहे
मायकोवस्की
नजरूल-फैज-
राहुल-फ्रॉस्ट वगैरह
सब पर ऐसे ही इलजाम हैं
हम अपना दुख-दर्द
खोल नहीं सकते
हम लिख नहीं सकते
हम बोल नहीं सकते
इस जेलर का इंसाफ
बड़ा खौफनाक है,
यह हमेशा
हमें ही
दोषी ठहराता है
हमारे
और उन के सम्बन्ध में
हमारी जीत नहीं हुई
उन की हार नहीं हुई
राजतन्त्र से --
प्रजातंत्र तक.
दादा;
हम सब चार अरब
उन्हें कत्तई मंजूर नहीं
तो फिर, अब सुन लो--
हमारी सुविधा
उन्हें स्वीकार नहीं
तो उन की सुविधा भी
हमें अङ्गीकार नहीं।
हमारे धर्म
उन के हित
अहितकर हैं
तो उनके धर्म भी
हमारे पैरों में
पैकर हैं।
हमारी दास्ताँ से
उन्हें उबकाई आती है,
उन का संसार
उन की मानवता
बदनाम हो जाती है
तो उन के भी
इतिहास से
हमारा दम घुटने लगता है
हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं
और हमारी मानवता
शर्म से
जमीं में गड़ जाती है
उन के विधि
विधान
और शासन का कर्म है
तो फिर
उन से मुक्त होना
हमारा भी धर्म है।
...............................कविता अगले अंक में जारी रहेगी
5 टिप्पणियां:
दिनेश जी आप की रचना बहुत अच्छी लगी, लेकिन कुछ गडबड लग रही हे आप की पोस्ट के संग क्योकि टिपण्णी देने के लिये बहुत बहुत नीचे ढुढना पडता हे जो काफ़ी णिचे हो गया हे, कृप्या ध्यान दे
रचना अच्छी है,
अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा.
-विजय
हिन्दी साहित्य संगम जबलपुर
ओजस्विता और दर्शन का संमिश्रण।
प्रवीण जी से सहमत !
बहुत बढ़िया द्विवेदी जी इसे पढ़ रहे हैं । आप ने पुन: वही लय प्राप्त कर ली यह अच्छा लग रहा है ।
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