@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: वर्षा
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सोमवार, 27 जून 2011

वर्षा से हरियाई हाड़ौती

मेरा अपना हाड़ौती अंचल मनोरम है। बरसात में तो इस की छटा निराली होती है। कुछ दिन पूर्व एक समारोह में हाड़ौती के वरिष्ठ कवि, गीतकार रघुराज सिंह हाड़ा से भेंट हुई, मुझे उन्हें बस तक पहुँचाने का सुअवसर मिला। मार्ग में वार्तालाप के दौरान वे कहने लगे हाड़ौती शब्द हाड़ा राजपूतों के जन्म से पुराना है। वे वास्तव में चौहानवंशी हैं। हाड़ौती में बसी उन के वंशज हाड़ा कहलाए। इस तरह हाड़ा शब्द राष्ट्रीयता सूचक है। वे बताने लगे कि हाड़ौती शब्द की उत्पत्ति सरस्वती से हुई। स का उच्चारण ह होने पर सरस्वती हरह्वती हो जाती है। जो बोलने के लिहाज से हरवती और बाद में हरौती और फिर हाड़ौती हो जाता है। आर्य वंशज जब उत्तरी हमलों के दबाव से पंजाब से दक्षिण में खिसकने लगे तो मार्ग में राजस्थान का रेगिस्तान पड़ा और उस के बाद यह हाडौती अंचल। यहाँ उन्हें पारियात्र पर्वत से निकली चर्मणवती, सिंध, परवन, पारवती (देवी) और उन की सहायक नदियाँ दिखाई दीं, पर्वत और मैदान दोनों का समिश्रण देखने को मिला और उन्हों ने इसे सरस्वती का अंचल मान कर इसे उसी के नाम पर हाडौ़ती नाम दिया। हाडौती शब्द की उत्पत्ति का यह स्वरूप कितना सही है, मैं नहीं जानता, किन्तु तर्क संगत प्रतीत होता है। इस संबंध में शब्दों के यात्री अजित वडनेरकर या अन्य विद्वान अधिक प्रकाश डाल सकते हैं। 

पिछले सोमवार से वर्षा ने इस हाडौ़ती अंचल में प्रवेश किया। बुध से शुक्र तक खूब मेघ खूब बरसे। अनेक वर्षों बाद आषाढ़ मास के पूर्वार्ध में इतनी वर्षा हुई कि सभी नदियाँ किनारों से ऊपर बहने लगीं। सारे प्रकृति हरिया गई। फिर वर्षा ने कुछ अवकाश लिया, पर मौसम अभी शीतल और नम बना हुआ है। मेघों ने सूर्य को ढका हुआ है। मंद मंद शीतल पवन बहती रहती है। आज सुबह मैं अदालत के लिए निकला तो मार्ग में दोनो और के सारे वृक्ष हरिया गए थे। पिछले सोमवार से पहले दिखाई देने वाला पीला रंग कनेर के पुष्पों और अमलतास के बचे खुचे पुष्पगुच्छों तक सीमित हो चुका था। प्रथम वर्षा कितनी जीवनदायिनी हो सकती है हरियाई प्रकृति से पता लगता है। लोग शनि-रवि को लोग नगर त्याग कर आस-पास बह निकली जलधाराओं के किनारे जा पहुँचे। वहीं उन्हों ने भोजन बना कर आमोद के साथ इस प्रकृति उत्सव का आरंभ कर डाला। यह प्रकृति उत्सव अभी दो माह भादौं के उत्तरार्ध तक चलना है। इस बीच कुछ वृद्ध वृक्ष धराशाई हो गए, आषाढ़ के उत्तरार्ध से वर्षारंभ मानने से चल रहे विवाह समारोहों में बाधा पड़ी, बस पुलिया से नाले में खिसक गई और एक नई दुलहिन को नदी पार कराने को जो व्यवस्था करनी पड़ी आप इन चित्रों में देख सकते हैं -

अचानक तेज वर्षा में यातायात

वर्षा के थपेड़े से गिरा एक बुजुर्ग वृक्ष
चालक ध्यान नहीं रख पाया बस का पहिया पुलिया से नीचे चला गया, बचे 60 यात्री

हवा भरी ट्यूब, उस पर चारपाई, चारपाई पर नई ब्याही दुलहिन और उस के कपड़ों की गठरी को पार कराई गई नदी
 

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

बरसात की संभावना हर दिन आगे खिसक जाती है

यूँ तो इधर कोटा में एकाध बरसात मई में भी हो लेती है, फिर एकाध जून को उत्तरार्ध में भी हो ही जाती है। 15 से 20 जून के बीच तो बरसात बाकायदे आ धमकती है और जुलाई के महिने में तो अपना अड्डा जमा चुकी होती है। मुझे पता है कि मेरे एक चचेरे भाई का ब्याह 29 जून का था भोपाल बारात जानी थी। एक दिन पहले ही बरसात हुई थी। बारात के रास्ते में सारी नदियाँ या तो पुल पर चढ़ चुकी थीं या चढ़ने को तैयार थीं। शादी के दिन दिन भर बरसात होती रही। बारात के दुल्हन के घर तक जाने वाला जलूस भी बरसते पानी में ही निकाला जा सका था। वापसी में भी हम बरसात का सुहाना नजारा देखते हुए ही लौटे थे। उस बात को अठारह-बीस बरस हो चुके हैं। उस के बाद तो मैं बाकायदा जून में मध्यप्रदेश की ओर भागने की फिराक में रहता। जिस से बरसात का आनंद कुछ जल्दी लिया जा  सके। ऐसा शायद ही किसी साल हुआ हो कि जुलाई का महिना पूरा निकलने वाला हो और नदियों में नया पानी न आया हो और पूरी तरह सूख चुकी नदियाँ बहने न लगी हों। खेत सूखे पड़े हों और उन के आसपास के गड्ढे अभी प्यासे हों। आधे से अधिक खेतों में बुआई न हुई हो। आधे खेतों में बुआई हुई भी है तो उन की आवश्यक सिंचाई के चलते भू-गर्भिक जल का स्तर तेजी से गिर रहा हो। जिन दिनों में सब मर्सिबल मोटरों को ऊपर उठाया जाता हो उन दिनों उन्हें नीचे उतारना पड़ रहा हो।
स साल ऐसा ही है। कोटा नगर में अभी तक ऐसी कोई घटना नहीं हुई है जिसे हम बरसात की संज्ञा दे सकें। न गड्ढे भरे, न नालों में मटमैला बरसाती पानी बहता दिखाई दिया। अभी तक वही बदबूदार काले रंग का नगर का मैला ले जाने वाला पानी ही उन में बह रहा है। अभी तक ठेकेदार प्रसन्न हैं कि उन की बनाई सड़कों की पोल खुलने लायक कुछ भी नहीं हुआ है। कोटा नगर ही नहीं कोटा से पचास-पचास किलोमीटर तक ऐसा ही है। मेरे एक सहायक वकील नन्दलाल जी पुश्तैनी किसान भी हैं। अपनी जमीन के दस बीघे में इस साल वे धान करना चाह रहे थे। उस के लिए नर्सरी में पौध भी तैयार कर चुके थे। लेकिन धान केवल भूगर्भिक जल के भरोसे तो नहीं की जा सकती है। उन्हों ने धान का रकबा कम कर के आधा कर दिया। आधी जमीन में तिल्ली फैंक दी। तिल्ली सूखे की फसल है। पानी के बिना भी उग आती है। खर्चा भी कुछ नहीं है। कम से कम नुकसान से तो बचेंगे। आधा रकबा जो धान के लिए छोड़ दिया गया है। सप्ताह भर यही हाल रहा तो वे इस में भी धान नहीं कर पाएँगे। आधी जमीनें बिना बोई छूट गई हैं। आधी में जो फसलें हैं उन से किसी तरह की कोई आशा नहीं है।
गाँव-गाँव में घास भैरूजी घसीटे जा रहे हैं। समस्या ये आ रही है कि वे लकड़ी की बनी तिपाई पर घसीटे जाते हैं। जहाँ अटक गए वहीं उन्हें खींचने के लिए नए बैलों की जोड़ियाँ जोड़ी जाती थीं। लेकिन गाँव तो बैलों की जोड़ियों से हीन हो चुके हैं। ट्रेक्टर हैं जिन की शक्ति के सामने भैरूजी क्या चीज हैं। फट्ट से घसीट कर पहुँचा दिए जा रहे हैं थान तक। अब समस्या ये भी है कि न तो माताजी पर भाव आ रहा है और न भैरूजी पर जो बताते थे कि पानी का क्या होगा और किसानी का साल कैसा रहेगा? भोली जनता के हाथों से मैंढ़की के ब्याह जैसे अंधविश्वास और टोटके छिन गए हैं।  बरसात के अभाव में मैंढ़की टर्रा भी नहीं रही है। उसे कैसे हासिल करें? किस का करें ब्याह। जनता नए टोटके ईजाद कर रही है। गाँव की औरतों ने खेत जोतने जा रहे ट्रेक्टर चालक से ट्रेक्टर छीन लिया, चालक को हटा कर उस के हाथ पैर बांध कर एक ओर पटक दिया और खुद ट्रेक्टर चला कर खेत में ले गई और खेत जा हाँका। इस से यह अहसास तो उन्हों ने जरूर करा दिया कि कभी खेती का आरंभ करने वाली वे ही थीं। लेकिन इस से बरसात कराने वाले सिस्टम पर जरा भी असर नहीं हुआ। पानी नहीं बरस रहा है तो नहीं ही बरस रहा है। 
क दिन जोरों की घटा छाई अंधेरा होने लगा। लेकिन तभी हवा चली और बादल उड़ चले। पता लगा कि बरसात कोई बीस किलोमीटर दूर हुई। नालों में पानी बहा जरूर पर रात भर में ही नाले फिर से सूख गए। तीस किलोमीटर दूर स्थित एक कस्बे में दो घंटों में दो इंच बरसात हो गई। लेकिन बाकी इलाका सूखा पड़ा है। कुल मिला कर जुलाई के महिना भी बरसात के लिए तरसते बीत रहा है। लोग कहते हैं यह पाप  बहुत बढ़ जाने का नतीजा है। लेकिन पापी हैं कि फिर भी पाप छोड़ने को तैयार नहीं हैं। अकाल की छाया चक्कर काटने लगी है। जन-जन उस की आशंका से भयभीत है। व्यापारी और जमाखोर अपने कर्तव्य निष्पादन में प्राण-प्रण से जुटे हैं। किसी भी तरह माल भर लें जिस से वक्त पर मनमाने दाम वसूल किए जा सकें। कमोबेश पूरे राजस्थान के ऐसे ही हालात हैं। लेकिन अभी तक राजस्थान की सरकार इस आशा में है कि पानी बेवक्त ही सही बरस ही जाएगा। अकाल से निपटने की कोई तैयारी नजर नहीं आती। अभी तक तो मुख्य मंत्री तो क्या किसी प्यादे ने भी यह नहीं कहा है कि अकाल पड़ा तो जनता को घबराने की जरूरत नहीं है।  
नता में यह चर्चा बड़े जोरों पर है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ही अपशकुनी हैं। जब-जब भी मुख्य मंत्री बनते हैं, बरसात रूठ जाती है। यह चर्चा किसी राजनीति से प्रेरित नहीं है लेकिन संयोग ऐसा है कि चर्चित हो रही है। अब तो कांग्रेस के पास इस जन चर्चा से बचने का एक ही रास्ता है कि मुख्यमंत्री बदल दे। अब अल्पमत विपक्षी भाजपा तो इस चर्चा से तत्काल लाभ का सपना देख नहीं सकती। लेकिन अशोक गहलोत के प्रतिद्वंदी कांग्रेसियों के चेहरे पर यही जनचर्चा सुर्खी ला देती है। कहीं सोनिया तक यह चर्चा पहुँचे तो उन का ही भला हो। गहलोत हटें तो उन का चाँस लगे। ज्योतिषियों के बरासात के सारे पूर्वानुमान गलत सिद्ध हो चुके हैं, इतने कि इन दिनों नगर का कोई भी ज्योतिषी भविष्यवाणी करने का खतरा मोल लेने को तैयार नहीं है।  मैं हूँ कि दिन में तीन चार बार वेदर अंडरग्राउंड की साइट पर जा कर मौसम का पूर्वानुमान देख लेता हूँ। वहाँ पानी से भरपूर गुलाबी बादल दिखाई तो पड़ते हैं, लेकिन कहाँ जाते हैं यह पता नहीं लगता। पूर्वानुमान हर रोज बदल जाता है। बरसात होने की संभावना हर दिन आगे खिसक जाती है।