@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

मंगलवार, 16 दिसंबर 2008

कहाँ है अब्दुल करीम तेलगी? उसे बुलाओ !

आज अब्दुल करीम तेलगी याद आ रहा है। काश वह पकड़ा न गया होता, उस का कारोबार बदस्तूर जारी होता और मुझे मिल जाता। मैं उस से छोटा सा सौदा करता कि वह मुझे जरूरत के स्टाम्प सप्लाई करता रहे।

कुछ दिन पहले एक दावा पेश किया था। मात्र ढाई लाख रुपए की वसूली का था। कोर्ट फीस अर्थात न्याय शुल्क के लिए स्टाम्प चाहिए थे, कुल रुपए 12, 115 रुपयों के। पाँच-पाँच हजार के दो स्टाम्प मिले और शेष 2515 के लिए 75 रुपए के 33 स्टाम्प और चालीस रुपए के चिपकाने वाले टिकट लगाकर 12, 115 रुपयों का सेट बनाया गया। कुल 35 स्टाम्प पेपर हुए। इन में से दावा टाइप हुआ केवल चार पेज पर शेष 31 पेपर पर लिखना पड़ा कि यह कोर्टफीस स्टाम्प फलाँ दावे के साथ संलग्न है।

एक स्टाम्प पेपर का कागज कम से कम एक रुपए का जरूर होगा। इस से अधिक का भी हो सकता है। उस पर उस की तकनीकी छपाई। वह भी कम से कम एक-दो रुपए की और होगी। इस तरह एक पेपर पर तीन रुपए का खर्च।  31 स्टाम्प बेकार हुए यानी 100 रुपए पानी में गए। 31 स्टाम्पों पर इबारत लिखने में श्रम हुआ वह अलग। इस से फाइल मोटी हो गई। उस के रख रखाव के लिए अदालत को अधिक जगह चाहिए। उठाने रखने में अधिक श्रम होगा वह अलग। फाइल की मोटाई देख कर जज डरेगा कि न जाने क्या होगा इस फाइल में ? तो अदालत में मुकदमों की इफरात के इस युग में फाइल की मोटाई दूर से देख कर ही जज रीडर को उस की तारीख बदलने को बोलेगा। मुकदमे के निपटारे में देरी लगेगी सो अलग। अगर हजार रुपए वाले और पाँच सौ रुपए के तो स्टाम्प होते केवल पाँच। 29 बेशकीमती कागज बचते। उन्हें बनाने के लिए काटे जाने वाला एक आध पेड़ बचता।

राजस्थान सरकार ने कोर्टफीस बढ़ा दी। पता लगा 4640 रुपए के कोर्टफीस स्टाम्प और लगाने होंगे। खरीदने गए तो पता लगा पाँच हजार से नीचे केवल पचास रूपए का स्टाम्प उपब्ध है। 4640 रुपयों के लिए गिनती में आएंगे कम से कम 93 स्टाम्प। इन सब पर लिखना पड़ेगा कि ये किस दावे के साथ संलग्न है। वरना दावा आगे नहीं बढ़ेगा। अब 93 बेशकीमती कागज और नत्थी होंगे। फाइल चार गुना मोटी हो जाएगी। क्या हाल होगा मुकदमे का? कितने पेड़ काटे जाएँगे?

चक्कर यह है कि स्टाम्प कहीं छपते हैं। फिर राज्य सरकार उन्हें खरीदती है। फिर जिला कोषागारों को भेजती है। जहाँ से स्टाम्प वेण्डर इन्हें खरीदते हैं। स्टाम्प वेंडर  क्या करें जिला कोषागार में ही स्टाम्प उपलब्ध नहीं है। तेलगी पता नहीं किस जेल में सश्रम कारावास काट रहा है? उस से स्टाम्प के छापाखाने और देश भर में वितरण का काम इस जेल श्रम के बदले करवाया लिया जाए तो सरकार और देश को घाटा नहीं होगा। कम से कम नौकरशाहों से तो अच्छा ही प्रबंधन वह कर सकता है। इन से घटिया तो वह शर्तिया ही नहीं होगा। जनता को भी राहत मिलेगी और जजों को भी।  फाइलें भारी नहीं होंगी और पेड़ भी कम काटे जाएंगे।

रविवार, 14 दिसंबर 2008

कभी नहीं भूलेगा, स्कूल में हुई धुनाई का दिन

शास्त्री जी ने अध्यापकों से सजा-पिटाई के किस्से अध्यापक या जल्लाद ?  और अध्यापकों ने दिया धोखा ! उन के ब्लाग सारथी पर लिखे हैं। पढ़ कर मुझे स्कूल में हुई अपनी धुनाई का किस्सा याद आ गया। ये उन दिनों की बात है जब सब से अधिक मारपीट करने वाले अध्यापक को सब से श्रेष्ठ अध्यापक समझा जाता था। ऐसे अध्यापक के जिम्मे छोड़ कर माता पिता अपने हाथों से बच्चों को मारने पीटने की जिम्मेदारी का एक हिस्सा अध्यापकों को हस्तांतरित कर देते थे। यह दूसरी बात है कि कुछ जिम्मेदारी वे हमेशा अपने पास रखते थे।


हर साल मध्य मई से दिवाली तक हम दादा जी के साथ रहते थे और दिवाली से मध्य मई में गर्मी की छुट्टियाँ होने तक हम पिता जी के साथ रहते। पिता जी हर साप्ताहिक अवकाश में दादा जी और दादी को संभालने आते थे। फिर पिता जी को बी.एड़. करने का अवकाश मिला तो वे साल भर बाहर रहे। हमें पूरे साल दादा जी के साथ रहना पड़ा था। उसी साल छोटी बहिन ने जन्म लिया, तब मैं पांचवीं क्लास  में था। पिता जी बी.एड. कर के आए तो हमें जुलाई में ही अपने साथ सांगोद ले गए। वे कस्बे के सब से ऊंची शिक्षा के विद्यालय, सैकण्डरी स्कूल के सब से सख्त अध्यापक थे। हालांकि वे बच्चों की मारपीट के सख्त खिलाफ थे। लेकिन अनुशासन टूटने पर दंड देना भी जरूरी समझते थे। स्कूल का लगभग हर काम उन के जिम्मे था। स्कूल का पूरा स्टाफ उन्हें बैद्जी कहता था, वे आयुर्वेदाचार्य थे और मुफ्त चिकित्सा भी करते थे। बस वे नाम के हेड मास्टर नहीं थे। हेड मास्टर जी को इस से बड़ा आराम था। वे या तो दिन भर  में एक-आध क्लास लेने के लिए अपने ऑफिस से बाहर निकलते थे या फिर किसी फंक्शन में या कोई अफसर या गणमान्य व्यक्ति के स्कूल में आ जाने पर। सब अध्यापकों का मुझे भरपूर स्नेह मिलता।

उस दिन ड्राइंग की क्लास छूटी ही थी कि पता नहीं किस मामले पर एक सहपाठी से कुछ कहा सुनी हो गई थी। मुझे हल्की से हल्की गाली भी देनी नहीं आती थी। ऐसा लगता था जैसे मेरी जुबान जल जाएगी। एक बार पिता जी के सामने बोलते समय एक सहपाठी ने चूतिया शब्द का प्रयोग कर दिया था, तो मुझे ऐसा लगा था जैसे मेरे कानों में गर्म सीसा उड़ेल दिया गया हो। उस सहपाठी से मैं ने बोलना छोड़ दिया था, हमेशा के लिए। ड्राइंग क्लास के बाद जब उस सहपाठी से झगड़ा हुआ तो उस ने मुझे माँ की गाली दे दी। मेरे तो तनबदन में आग लग गई। मैं ने उस का हाथ पकड़ा और ऐंठता चला गया। इतना कि वह दोहरा हो कर चिल्लाने लगा। दूसरे सहपाठियों ने उसे छुड़ाया।


वह सहपाठी सीधा बाहर निकला। मैदान में हेडमास्टर जी और पिताजी खड़े आपस में कोई मशविरा कर रहे थे। वह सीधा उन के पास पहुंचा। मैं डरता न था तो पीछे पीछे मैं भी पहुँच गया मेरे पीछे क्लास के कुछ और छात्र भी थे। उस ने सीधे ही हेडमास्टर जी से शिकायत की कि उसे दिनेश ने मारा है। हेडमास्टर जी ने पूछा कौन है दिनेश? उस ने मेरी और इशारा किया ही था कि मुकदमे में दंड का निर्णय सुना दिया गया की मैं दस दंड बैठक लगाऊँ। यूँ दण्ड बैठक लगाने में मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। उस से सेहत भी बनती थी। पर मुझे बुरा लगा कि मुझे सुना ही नहीं गया। मैं ने कहा मेरी बात तो सुनिए। यह स्पष्ट रूप से राजाज्ञा का उल्लंघन था। यह राज्य के मुख्य अनुशासन अधिकारी, यानी पिता जी से कैसे सहन होता। उन्हों ने धुनाई शुरू कर दी। उम्र का केवल आठवाँ बरस पूरा होने को था। रुलाई आ गई। रोते रोते ही कहा -पहले उसने मेरी माँ को गाली दी थी।

  माँ का नाम ज़ुबान पर आते ही धुनाई मशीन रुकी। तब तक मेरी तो सुजाई हो चुकी थी। पिताजी एक दम शिकायतकर्ता सहपाठी की और मुड़े और उस से कहा -क्य़ो? उस के प्राण एकदम सूख गए। वह डर के मारे पीछे हटा। शायद यह उस की स्वीकारोक्ति थी। वह तेजी पीछे हटता चला गया। पीछे बरांडे का खंबा था जिस में सिर की ऊँचाई पर पत्थर के कंगूरे निकले हुए थे। एक कंगूरे के कोने से उस का सिर टकराया और सिर में छेद हो गया। सिर से तेजी से खून निकलने लगा। पिताजी ने आव देखा न ताव, उसे दोनों हाथों में उठाया और अपनी भूगोल की प्रयोगशाला में घुस गए। कोई अंदर नहीं गया। वहाँ उन का प्राथमिक चिकित्सा केंद्र भी था। जब दोनों बाहर निकले। तब शिकायकर्ता के सिर पर अस्पताल वाली पट्टी बंधी थी और पिताजी ने उसे कुछ गोलियाँ खाने को दे दी थीं। अगली क्लास शुरू हो गई थी। मास्टर जी कह रहे थे। आज तो बैद्जी ने बच्चे को बहुत मारा। मेरे क्लास टीचर के अलावा पूरे स्टाफ को पहली बार पता लगा था कि जिस लड़के को वै्दयजी ने मारा वह उन की खुद की संतान था।

शिकायत कर्ता लड़के ने ही नहीं मेरी क्लास के किसी भी लड़के ने मेरे सामने किसी को गाली नहीं दी। वे मेरे सामने भी वैसे ही रहते, जैसे वे मेरे पिताजी के सामने रहते थे। शिकायत करने वाले लड़के से मेरी दोस्ती हो गई और तब तक रही जब तक हम लोग सांगोद कस्बे में रहे।

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

हो जाती जय सिया राम

  आप सभी ने महेन्द्र 'नेह' की कवितओं और गीतों का रसास्वादन किया है। आज पढ़िए उन का एक सुरीला व्यंग्य लेख ......
'व्यंग्य - लेख' 
हो जाती जय सिया राम                * महेद्र नेह


कहते हैं जिसका सारथी यानी ड्राइवर अच्छा हो, आधा युद्ध तो वह पहले ही जीत जाता है। लेकिन अपने भाई साब जी की राय इस मामले में बिलकुल भिन्न है। ये डिराइवर नाम का जीव उन्हें बिलकुल पसंद नहीं। चूँकि इस मृत्युलोक में डिराइवर के बिना काम चल ही नहीं सकता, अत: यह उनकी मजबूरी है। दरअसल वे छाछ के जले हुए हैं, अत: दूध को भी फूँक-फूँक कर पीते हैं।


अपनी आधी सदी की जिंदगी में भाई साब जी को डिराइवरों को लेकर कई खट्टे- मीठे अनुभवों से गुजरना पड़ा है। डिराइवरों के बारे में अपने अनुभव सुनाते हुए वे कहते हैं- भर्ती होकर आयेंगे तो मानों साक्षात राम भक्त हनुमान धरती पर उतर आये हों। सारी जिम्मेदारियाँ और मुसीबतें अपने सर ले लेंगे। अरे भाई, तुम्हारा काम है- कार चलाना। स्टीरिंग को ढंग से सम्भालो और कार को झमाझम रखो। बाकी चीजों से तुम्हें क्या लेना देना। मगर नहीं। भाई साब जी जूता पहनने बढ़े तो जूते, मफलर पहनना हो तो मफलर, टोपी तो टोपी। गले से मालाएँ उतारनी हों तो उसमें भी सबसे आगे। कोई जरा जोर से बोले तो बाँहें चढ़ाने लग जायेंगे।

आप अपने भाई-बन्दों से, बाल-बच्चों से, धर्म पत्नी से, यहाँ तक कि पी.ए. से भी बहुत सी चीजें छुपा सकते हैं, मगर डिराइवर से तो कुछ भी छुपाना मुश्किल है। अपनी सीट पर बैठा-बैठा सब कुछ गुटकता रहेगा। अन्दर की, बाहर की, उपर की, नीचे की सारी बातें हजम कर जायेगा। कान और आंखें एकदम ऑडियो-वीडियो की तरह काम करती है। ढोल में कुछ पोल बचती ही नहीं है।


और ढोल की ये पोल, अगर पब्लिक को मालूम पड़ जाये तो समझ लो हो गया बेड़ा गरक। भाई साब जी ने कितने जतन से ये कार-बँगले-खेत-प्लाट-पेट्रोल पम्प-होटल और कारखाने खड़े किये हैं। साथ ही कितनी होशियारी से अपनी जन सेवक की इमेज भी कायम रखी है। यदि इसकी कलई खुल जाय, तो बंटाढार ही समझो। सारा शहर जानता है, भाई साब जी के घर की स्थिति शरणार्थियों से भी गई बीती थी। मगर चौदह साल में तो घूरे के दिन भी फिर जाते हैं। उनके दिन फिर गये तो न जाने क्यों लोग-बाग अन्दर ही अन्दर जलते-सुलगते रहते हैं?

अरे भाई, यदि धन-दौलत आयेगी तो उसका उपभोग भी होगा। जब आज के जमाने के सन्त-महात्मा ही पुराने जमाने के साधु-सन्तों जैसे नहीं रहे तो आखिर वे तो गृहस्थ ठहरे। इस आधुनिक युग में सब कुछ होते हुए भी, कोई माई का लाल चौबीसों घन्टे खद्दर के कपड़े पहन के तो दिखा दे। अरे, उस दिन साध्वी जी के अनुरोध पर उन्होंने स्वीमिंग सूट पहन लिया और उनके साथ स्वीमिंग-पूल के निर्मल जल में दो चार गोते लगा भी लिये तो कौन सा बड़ा भारी अनर्थ हो गया? बड़े मंत्री जी तो नित्य ही बिना नागा बोतल पर बोतल साफ कर देते हैं। उन्होंने उस दिन दो-चार पैग चढ़ा लिये तो कौन सी किसी की भैंस मार दी?

उस सुसरे छदम्मी लाल डिराइवर की हिम्मत तो देखो। पहले तो बिना पूछे स्वीमिंग-पूल के अन्दर घुसा क्यों? और फिर अगर घुस भी गया तो उसे दुधमुँहे बच्चे की तरह अपने दीदों को चौड़ाने की क्या जरूरत थी? पत्रकार जी आये थे हमारा इंटरव्यू लेने के लिए, महाराजाधिराज जी खुद ही उसे इंटरव्यू देने लग गये- ""भाई साब जी ये कर रहे थे, भाई साब जी वो कर रहे थे...'' बच्चू को यह नहीं मालूम कि पत्रकार जी तो रहे हमारे पुराने लंगोटिया और हमारी संस्कारवान पार्टी के खास कार्यकर्ता। हाँ, उनकी जगह उस दिन कोई और होता तो समझ लो उसी दिन हो जाती अपनी जय सिया राम...।

गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

नागनाथ, साँपनाथ या अजगरनाथ : 'कोउ नृप होय हमें का हानि'

एक टिप्पणी चर्चा

राजस्थान चुनाव के नतीजे और मेरी संक्षिप्त टिप्पणी पर बहुमूल्य विचार प्रकट हुए। ताऊ रामपुरिया तीसरे विकल्प के बारे में निराश दिखाई दिए  उन्हें जनतंत्र के ही किसी कलपुर्जे में खोट दिखाई दिया-

"अब चाहे कांग्रेस (नागनाथ) हो या भाजपा ( सांपनाथ ) हों ! क्या फर्क पड़ना है ? आप बात कर रहे हैं तीसरे विकल्प की तो आप देख लेना की तीसरा विकल्प भी अजगर नाथ ही निकलेगा ! उत्तर-प्रदेश में तीसरे विकल्प का भी हाल देख चुके हैं ! मुझे ऐसा लगता है की ये तो प्रजातंत्र की शायद कोई बेसिक कमी है जिसका इलाज अभी किसी को नही दिखाई दे रहा है !"

डा. अमर कुमार ने कहा क्या फर्क पड़ता है?

"दद्दू, औकात बतायी हो या ना बतायी हो..
हम तो उसी विचारधारा के हैं..
'होईहें कोऊ नृप हमें का हानि.. "

सुरेश चिपलूनकर  ने जातिवाद को अंतिम सत्य मानते हुए शिक्षा को उस के मुकाबले कमजोर अस्त्र माना-

    "ताऊ, प्रजातंत्र में बेसिक कमी नहीं है, बेसिक कमी तो लोगों में ही है, यदि वसुन्धरा गुर्जरों-मीणाओं के दो पाटन के बीच न फ़ँसी होती तो तस्वीर कुछ और भी हो सकती थी, लेकिन भारत में "जातिवाद" हमेशा सभी बातों पर भारी पड़ता रहा है, चाहे हम कितने ही शिक्षित हो जायें…"

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, ने ताऊ की टिप्पणी पर सहमति प्रकट करते हुए अपनी सांख्यिकी से उन के प्रमेय को सिद्ध करने का प्रयत्न किया-

    "अब चाहे कांग्रेस (नागनाथ) हो या भाजपा (सांपनाथ) हों ! क्या फर्क पड़ना है ? आप बात कर रहे हैं तीसरे विकल्प की तो आप देख लेना की तीसरा विकल्प भी अजगर नाथ ही निकलेगा ! उत्तर-प्रदेश में तीसरे विकल्प का भी हाल देख चुके हैं ! मुझे ऐसा लगता है की ये तो प्रजातंत्र की शायद कोई बेसिक कमी है जिसका इलाज अभी किसी को नही दिखाई दे रहा है ! ताऊजी की उक्त टिप्पणी से सहमत। सौ लोगों में से १२ लोगों का समर्थन (वोट) पाने वाला कुर्सी पा जाता है क्यों कि शेष ८८ में से ५० लोग वोट डालने गये ही नहीं, ५-६ के वोट दूसरों ने डाल दिए, और बाकी ३०-३२ के वोट दूसरे दर्जन भर उम्मीदवारों ने अपनी जाति, धर्म, लिंग, क्षेत्र बताकर या दारू पिलाकर बाँट लिए। यही हमारे देसी प्रजातन्त्र का हाल है।"

विष्णु बैरागी ने पते की बात की कि नागरिक की जिम्मेदारी केवल मतदान तक सीमित नहीं उन्हें चौबीसों घण्‍टे जागरूक, सतर्क और सचेत रहने को चेताया-

    . "वह सत्‍ता ही क्‍या जो पदान्‍ध-मदान्‍ध न करे ? सो, कुर्सी में धंसते ही सबसे पहले तो कांग्रेसी अपनी पुरानी गलतियां भूलेंगे । वे तो यह मानकर चल रहे होंगे कि नागरिकों ने प्रायश्चित किया है और वे (कांग्रेसी) सरकार में बैठकर नागरिकों पर उपकार कर रहे हैं । वस्‍तुत: 'लोक' को चौबीसों घण्‍टे जागरूक, सतर्क और सचेत रहना होगा, अपने नेताओं को नियन्त्रित किए रखना होगा और नेताओं को याद दिलाते रहना होगा कि वे 'लोक-सेवक' हैं 'शासक' नहीं । वे 'लोक' के लिए हैं, 'लोक' उनके लिए नहीं । लोकतन्‍त्र की जिम्‍मेदारी मतदान के तत्‍काल बाद समाप्‍त नहीं होती । वह तो 'अनवरत' निभानी पडती है । ऐसा न करने का दुष्‍परिणाम हम भोग ही रहे हैं - हमारे नेताओं का उच्‍छृंखल व्‍यवहार हमारी उदासीनता का ही परिणाम है।"

मेरी बात
लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती है। बकौल बैरागी जी बात आगे चलती है। भले ही मतदान कर कुछ लोगों ने कर्तव्य की इति श्री कर ली हो और परिणामों का विश्लेषण करने में जुट गए हों। बहुत लोग हैं जो बिना किसी राजनीतिबाजी के अभी से कमर कस लिए हैं कि नई सरकारों को उन के कर्तव्य स्मंरण कराते रहना है। ये वे लोग हैं जो शायद इस चुनाव अभियान में कहीं नजर नहीं आए हों। लेकिन वे लगातार जनता के बीच काम भी कर रहे थे, उन में चेतना जगाने के लिए। भले ही ताऊ और त्रिपाठी जनतंत्र के नतीजों के प्रति आश्वस्त हों कि उन से नागनाथ और सांपनाथ के स्थान पर कुछ और निकला तो वह अजगरनाथ ही निकलेगा।  सुरेश चिपलूनकर जी ने लाइलाज जातिवाद को उस का प्रमुख कारण बताया। डॉक्टर अमर कुमार कहते हैं 'कोई नृप होय हमें का हानि', हम तो बकरे हैं ईद के पन्द्रह दिन पहले हम मंडी में बिके, खरीददार ने हमें सजाया संवारा और ईद आते ही ज़िबह कर दिया। यहाँ वे हानि के स्थान पर लाभ लिखते तो भी उतना ही सटीक होता जितना मानस में है।

तीसरे विकल्प के प्रति नैराश्य अवश्य ही राजनीतिकअवसाद का प्राकट्य है। यदि इस तंत्र से नागनाथ, सांपनाथ और अजगरनाथ के अलावा कुछ भी नहीं उपजना है तो इस तंत्र को ठीक करने या विस्थापित करने की तरफ आगे बढ़ने का विचार आना चाहिए नैराश्य नहीं। मनुष्य एक जमाने में वनोपज का संग्राहक ही था।  वहाँ से वह कुछ वर्षों की आवश्यकता के खाद्य संग्रहण की अवस्था तक पहुँचा है। उस ने धरती के संपूर्ण व्यास को नापा है। और अपने कदम चाँद पर धरे हैं। अपनी निगाहों को लंबा कर मंगल की सतह पर और सौर मंड़ल के आखरी छोर तक पहुँचाया है। मानव में असंख्य संभावनाएँ हैं इस लिए नैराश्य का तो उस के जीवन में कोई स्थान होना ही नहीं चाहिए।

यह सही है कि तीसरा विकल्प वोट की मशीन से नहीं आएगा। इन वोट लेने और वोटर को भूल जाने वाले दलों की रेसीपियों से भी नहीं निकलेगा। उसे निकालने के लिए तो जनता को कुछ करना होगा। वोटर जब तक अकेला बना रहेगा कुछ न होगा, वह अकेली लकडी़ की तरह तोड़ा जा कर भट्टी में झोंका जाता रहेगा। वोटर को लकड़ियों का गट्ठर बनना होगा। हमें तंत्र के तिलिस्म को तोड़ना होगा। तंत्र ने वोटरों के कोटर बनाए हैं। आप ने वोटर लिस्टें देखी होंगी। वे न भी देखी हों तो किसी उम्मीदवार की पर्चियाँ आप के घर जरूर आयी होंगी। उन्हें एक बार निहार लें। उन पर भाग संख्या लिखा होता है। हर मतदान केन्द्र में लगभग दो हजार लोगों की लिस्ट होती है वही एक भाग कहलाता है। आप जिस भाग में रहते हैं उस को पहचान लीजिए। कोशिश कीजिए कि इस भाग के मतदाताओं से पहचान कर लें। उन सभी मतदाताओं से स्थानीय समस्याओं के प्रति जागरूक होने बात करिए। यदि हम एक भाग के मतदाताओं की एक जुटता बनाने में सफल हो जाएँ और अपने क्षेत्र के जनप्रतिनिधि ( एमपी, एमएलए, पार्षद, पंच) के सामने उसे दिखा सकें तो आप समझ लें कि आप जनतंत्र को आगे बढ़ाने में सफल हो सकते हैं। आप चाहे कुछ भी कहें। जनप्रतिनिधि एक-एक वोटर की परवाह नहीं करते लेकिन वे वोटरों के गट्ठरों से अवश्य ही भय खाते हैं।

सोमवार, 8 दिसंबर 2008

राजस्थान चुनाव के सभी नतीजे, जनता ने सबको उन की औकात बताई,

 आखिर विधानसभा के चुनाव हो लिए। मैं राजस्थान के नतीजों से बहुत खुश हूँ। हमें महारानी के राज से मुक्ति मिली। अहंकार हमेशा डूबता है। यह भी अच्छा हुआ कि कांग्रेस को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। कम से कम पिछली बार जैसी काम करने की अकड़ तो पैदा नहीं होगी।

पिछली बार राजस्थान में काँग्रेस के हारने की सिर्फ एक वजह रही थी कि उस सरकार ने राज्य कर्मचारियों को कुछ ज्यादा ही रगड़ दिया था। जिस का असर उन के परिवारों पर था। उन्हों ने काँग्रेस को रगड़ दिया। इस बार दोनों को ही उन की औकात जनता ने बता दी।

इन चुनाव नतीजों ने बता दिया है कि दोनों ही दल उन्हें कोई खास पंसद नहीं। दोनों में कोई खास अंतर भी नहीं। यदि उन के पास विकल्प होता तो जरूर वे तीसरे को चुनते। जहाँ उन्हें विकल्प मिला उन्हों ने उसे चुना भी। इस चुनाव में पार्टियाँ गौण हो गय़ीं और चुनाव अच्छे और बुरे, या बुरे और कम बुरे उम्मीदवारों के बीच हुआ। जवानों को अधिक तरजीह प्राप्त हुई।

राजस्थान में ये नतीजे  दोनों प्रमुख दलों के लिए भविष्य की चेतावनी हैं। ये नतीजे विकल्प बनने वाले दलों के लिए भी चेतावनी हैं। यदि वे जनता के बीच काम करेंगे और उस के साथ चलेंगे तो उन्हें तरजीह मिलेगी अन्यथा उन के लिए कोई स्थान नहीं है।

राजस्थान के प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र के नतीजे इस प्रकार रहे .....

 
 
 
  
 

शनिवार, 6 दिसंबर 2008

ऐसे विकसित होगा देश का नया और सही नेतृत्व

आप  में से अधिकांश कलर्स चैनल का हिन्दी सीरियल  "बालिका वधू" अवश्य देखते होंगे। बालिका वधू आनंदी के ससुराल में आयी नयी किशोर वधू "गहना" को भी आप ने देखा होगा। "गहना" के पिता ने अपना कर्ज उतारने के लिए धन ले कर अपनी बेटी का ब्याह उस से कई वर्ष बड़े आनंदी के विदुर ताऊ ससुर के साथ कर दिया है। यह किशोरी इस बे-मेल विवाह को स्वीकार नहीं करती, टकराव की स्थिति में कहने पर भी अपने मायके जाने से इन्कार कर देती है और हर अन्याय का प्रतिकार करना तय करती है।

"गहना" का प्रतिकार देख कर सभी दंग रह जाते हैं। कुछ सीमा तक वह अपनी एकाधिकारवादी सास को झुकने को  विवश कर देती है। लेकिन उस का प्रतिकार जारी रहता है। वह परिवार के अन्य मामलों में भी अब दखल देने लगी है। उस की सास अपने पोते जगदीश्या को जब सच बोलने पर पहले बोले गए झूठ की सजा देने को होती है  और जगदीश्या की पत्नी आनंदी, माँ और बहन के जगदीश्या को सजा से बचाने के प्रयास विफल हो जाते हैं तो वह अपनी सास का हाथ पकड़ लेती है उस से तर्क करती है। फिर भी जब सास सजा को उद्दत रहती है तो "गहना"फिर से उस का हाथ पकड़ लेती है और सजा न देने का आग्रह करती है और जगदीश्या को बचाने में सफल हो जाती है।

"बालिका वधू"के इस सामंती परिवार में "गहना" अब तक अन्याय को सहन कर रहे सभी लोगों की आकांक्षाओं का वह प्रतीक बन जाती है। सब इस परिवार का सामंती किला तोड़ना चाहते हैं। लेकिन उस की पहल कोई नहीं कर रहा है। लेकिन यह नयी किशोर बहू वह पहल कर देती है। जिस तरह से घटनाएँ मोड़ ले रही हैं। किशोर "गहना" परिवार की सामंती व्यवस्था को तोड़ने और नए मूल्यों की स्थापना के लिए चल रहे संघर्ष का नेतृत्व हासिल करने लगती है।

"गहना" संघर्ष में टिकेगी, केवल स्वयं के लिए नहीं अन्य के विरुद्ध हो रहे अन्याय के विरुद्ध भी खड़ी होगी तो सफल भी होगी। क्यों कि वह परिवार के बहुमत सदस्यों की आकांक्षाओं का वह प्रतिनिधित्व करने लगी है, उन का समर्थन उस के साथ है। इस परिवर्तन की वह अगुआ है और मुझे उस में भविष्य में उस परिवार का मुखिया बनने के सभी लक्षण दिखाई दे रहे हैं।

मैं ने अनवरत पर किसी सीरियल की कथा पर कुछ लिखा है और यह बेमकसद नहीं है। मैं दिखाना चाहता था कि कैसे एक व्यक्ति या समूह गलत चीजों का, व्यवस्था का प्रतिकार करने की पहल कर के लोगों की आकांक्षाओं का प्रतीक बन जाता है। जहाँ सब लोग खड़े हैं, उन से एक कदम आगे चल कर वह नेतृत्व करता है और धीरे धीरे संघर्ष के दौरान वह नेता बनता है और भविष्य में परिवार के मुखिया का स्थान ले कर पूरे परिवार का नेतृत्व करने की क्षमता उस में विकसित होती जाती है।

अनवरत के विगत आलेख देश को सही नेतृत्व की जरूरत है पर स्मार्ट इंडियन जी की टिप्पणी थी "सहमत हूँ - और वह सही नेतृत्व भी हम में से ही आयेगा!"।  मेरी समझ है कि हमारा नया सही नेतृत्व जनआकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए, व्यवस्था की जड़ता के प्रति प्रतिकार और नए समाज के लिए संघर्ष करने वाले लोगों से ही निर्मित होगा। आप की क्या राय है?

इस से सम्बन्धित बालिका वधू की कड़ी देखें यू-ट्यूब वीडियो पर 

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

देश को सही नेतृत्व की जरूरत है

आतंकवाद से युद्ध की बात चल रही है। इस का अर्थ यह कतई नहीं है कि शेष जीवन ठहर जाए और केवल युद्ध ही शेष रहे। वास्तव में जो लोग प्रोफेशनल तरीके से इस युद्ध में अपने कामों को अंजाम देते हैं उन के अलावा शेष लोगों की जिम्मेदारी ही यही है कि वे देश में जीवन को सामान्य बनाए रखें।

मेरे विचार में हमें करना सिर्फ इतना है कि हम अपने अपने कर्तव्यों को ईमानदारी से करते हुए सजग रहें कि जाने या अनजाने शत्रु को किसी प्रकार की सुविधा तो प्रदान नहीं कर रहे हैं।

इस के साथ हमें हमारे रोजमर्रा के कामों को आतंकवाद के साये से भी प्रभावित नहीं होने देना है। लोग अपने अपने कामों पर जाते रहें। समय से दफ्तर खुलें काम जारी ही नहीं रहें उन में तेजी आए। खेत में समय से हल चले बुआई हो, उसे खाद-पानी समय से मिले और फसल समय से पक कर खलिहान और बाजार पहुँचे। बाजार नियमित रूप से खुलें किसी को किसी वस्तु की कमी महसूस न हो। स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय अपना काम समय से करें। कारखानों में उत्पादन उसी तरह होता रहे। हमारी खदानें सामान्य रूप से काम करती रहें।
सभी सरकारी कार्यालय और अदालतें अपना काम पूरी मुस्तैदी से करें। पुलिस अमन बनाए रखने और अपराधों के नियंत्रण का काम भली भांति करे। ये सब काम हम सही तरीके से करें तो किसी आतंकवादी की हिम्मत नहीं जो देश में किसी तरह की हलचल उत्पन्न कर सके।

वास्तविकता तो यह है कि हम आतंकवाद से युद्ध को हमारे देश की प्रणाली को चुस्त-दुरुस्त बनाने के लिए उपयोग कर सकते हैं। बस कमी है तो देश को ऐसे नेतृत्व की जो देश को इस दिशा की ओर ले जा सके।