@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: जंगल
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बुधवार, 9 अक्टूबर 2013

ज़ाजरू से फ्लश शौचालय तक


पुरखे जरूर गांव के थे, लेकिन मैं एक छोटे शहर में पैदा हुआ। वहां कोई जंगल-वंगल नहीं था, जहां लोग जाते। शहर से लगी हुई एक और उस से आधा किलोमीटर दूर दूसरी नदी थी। बहुत से लोग वहां जाते और तटों पर हाज़त खारिज कर के गंदगी फैलाते। हालांकि ख़ास इसी वजह से अल्लाह के भेजे गए प्राणी के वंशज ताक लगाए नथनों से तेजी से सांसें लेते रहते, जिन के नथुनों से आती जाती हवा की आवाजें हाज़त खारिज करने वाले की सांसे रोक देते। जैसे ही वह उठता, वे तेजी से ऐसे टूटते कि उठने वाला जरा सुस्ती दिखाता तो उस की शामत ही आ जाती।

ई लोग इस तरह की दुर्घटना के शिकार हो भी जाते और हफ़्तों तक हाथ या पैर में प्लास्टर चढ़ाए रहते। बच्चे, बूढ़े और औरतें तो नदियों के किनारों तक जा नहीं सकती थीं, इसलिए घरों में ज़ाजरुएं थीं और मुंसिपैल्टी ने भी बम्पुलिस बना रखे थे। ये सब मिला कर भी अपर्याप्त थे। चार-पांच बरस तक के बच्चे जो ज़ाजरू का इस्तेमाल करने के लायक न होते और जिन के ज़ाजरू में गिर कर घायल होने का खतरा रहता, उन्हे चड्डियां उतार कर नालियों पर बैठा दिया जाता, उन की छोड़ी हुई गंदगी को साफ करने के लिए सुअर गलियों में चक्कर लगाते रहते।

ज़ाजरुएं ऐसी थीं कि उन से मैला उठाने के लिए सुबह आठ बजे के करीब सफाई वाले आते, जाजरू के गली या सड़क की तऱफ खुलने वाली खिड़की के पल्ले को हटा कर टोकरी भर कर ले जाते। इस खिड़की का पल्ला अक्सर टूटा होता था जिन से सुअर अपने थूथन अंदर घुसा कर सफाईकर्मी की मेहनत को हल्का करते थे। सफाई के बाद इन में कोई हाजत खारिज करता और जाजरू का पल्ला टूटा न होता तो ज़ाजरु अगले दिन सुबह तक गंध फैलाती रहती। ज़ाजरुओं की खिड़की का पल्ला सफाई कर्मी तोड़ता था या वे सुअरों की कुश्ती का नतीजा होते थे या फिर खुद जाजरू के मालिक उन्हें तोड़ कर रखते थे, यह मेरे लिए आज तक एक रहस्य है।

टूटा हुआ ही सही लेकिन पल्ले का होना इसलिए जरूरी था कि कहीं मुंसिपैल्टी जुर्माना न कर दे। बूढ़ों और बीमारों को जाजरुओं तक पहुंचाने का काम परिवार में किसी को करना पड़ता और जब तक वे सही सलामत बाहर न निकल आते तब तक उसे इस बात की निगरानी रखनी पड़ती कि कोई दुर्घटना न हो जाए या उन्हें किसी मदद की जरूरत न पड़ जाए।

फ्लश जैसा शौचालय पहली बार बड़े शहर में देखने को मिला था। जो पहली मंजिल पर था। लेकिन उस का मल नीचे भूतल पर गिरता था, जिसे उठा कर ले जाने के लिए सफाईकर्मी की जरूरत होती थी। फिर पहला फ्लश वाला शौचालय पिताजी की पोस्टिंग वाले गांव के रेलवे स्टेशन पर देखने को मिला था। चैन खींचते ही ढेर सा पानी ऊपर लटके डिब्बे से निकल पड़ता और सीट एक दम साफ हो जाती। उस का इस्तेमाल कर के बहुत आनन्द हुआ था। रेलवे स्टेशन की बाउंड्री से लगे हुए घर में ही हम रहते थे। स्टेशन पर दिन भर में पांच-छह गाड़ियां रुकतीं, तभी वहां चहल-पहल रहती। बाकी समय प्लेटफॉर्म खाली पड़ा रहता।

स्कूल सुबह जल्दी जाना पड़ता जिस से दोपहर को शौच जाने की जरूरत पड़ती। मैं उस वक्त स्टेशन की बाउंड्री लांघ कर प्लेटफॉर्म पर पहुंच जाता और फ्लश शौचालय का इस्तेमाल कर लेता। स्टेशन कर्मचारी भले थे। उन्हों ने मुझे शौचालय का बेजा इस्तेमाल करने से कभी न रोका।

दादाजी मंदिर के पुजारी थे और मंदिर में ही रहते थे। मंदिर के पिछवाड़े में बनी ज़ाजरू का इस्तेमाल करते। हम भी मंदिर पर होते तो उसी का इस्तेमाल करते। फिर मंदिर के पास का घर पिताजी ने खरीद लिया, लेकिन उस में ज़ाजरू न थी। इसलिए पूरा परिवार मंदिर वाले ज़ाजरू का इस्तेमाल करता। हालांकि इस के लिए पानी भरा डिब्बा या लौटा हाथ में लटका कर घर के दरवाजे से निकल कर पास ही मंदिर परिसर के पिछवाड़े वाले दरवाजे में प्रवेश करना पड़ता था, जो बहुत अज़ीब लगता था। कुछ साल बाद जब फ्लश वाले शौचालय शहर में बनने शुरू हुए तो पिताजी ने एक मिस्त्री से बात कर के घर पर ही दो शौचालय बनवा लिए। तब जा कर मंदिर वाले ज़ाजरू से पीछा छूटा।

बाजी अब पलट गई थी। अब तो मंदिर में रहने वाले परिजन मंदिर वाली ज़ाजरू के बजाए घर आ कर फ्लश वाले शौचालय का इस्तेमाल करने लगे।

हां बड़े शहर में आने के बाद जिन जिन घरों में मैं रहा उन सब में फ्लश वाले शौचालय थे लेकिन बिना कमोड वाले। पच्चीस बरस पहले जब मैं ने अपना खुद का मकान बनाया तो एक कमोड वाला और एक इंडियन स्टाइल वाली सीटें लगवाईं। दो बरस पहले जब उस मकान को छोड़ कर हम वर्तमान मकान में आए तो इस में कमोड नहीं था। साल भर पहले घुटने के लिगामेंट में चोट लगी तो उस की जरूरत पड़ी और एक स्नानघर में कमोड लगवाना पड़ा। अब तो इंडियन स्टाइल का शौचालय उपयोग करना पड़े तो पहले से डर लगने लगता है।

पिछले सप्ताह जब से मीडिया में मंदिर और शौचालय की प्रतियोगिता आरंभ हुई सवाल ज़ेहन में उमड़ रहे थे कि हमारे छोटे शहर वाले घर में अभी कमोड लगा होगा या नहीं? मंदिर में अभी भी ज़ाजरू विद्यमान है या नहीं? आखिर भाई को फोन कर के मैंने अपनी जिज्ञासा शान्त कर ही ली। सन्तोष की बात ये है कि अम्मा को घुटनों की तकलीफ के कारण दो बरस पहले ही भाई ने एक शौचालय में कमोड लगवा ली है और मंदिर वाला ज़ाजरू भी अब नहीं है। उसकी जगह फ्लश शौचालय बनवा दिया गया है, हालांकि अभी वहां कमोड लगाने की किसी को नहीं सूझी है।

रविवार, 14 अगस्त 2011

सैडल डेम और पाड़ाझर झरना

कोटा से रावतभाटा जाते समय आधी दूरी तक चढ़ाई है जो बोराबास पहुँच कर चढ़ाई समाप्त हो जाती है। यह गूजरों का गाँव है। चारों और निगाह दौड़ाएंगे तो गायों और भैंसों के बाड़े दिखाई देंगे और बीच बीच में घर दिखाई देंगे। कोटा को मिलने वाले दूध में से लगभग एक चौथाई बोराबास और आस पास के गाँवों से ही जाता है।  यहीं से पश्चिम की ओर एक मार्ग जाता है जो लगभग पाँच किलोमीटर चलने पर कोटा डेम अर्थात् जवाहर सागर बांध पहुँचा देता है। बोराबास से निकलते ही  लंबी घाटी आरंभ हो जाती है जो कोलीपुरा गाँव में जा कर समाप्त होती है। यह सुरम्य घाटी 'दरा वन्यजीव अभयारण्य का एक भाग है।'  पूरी घाटी में हरियाली छाई हुई थी। स्थान स्थान पर जलधाराएँ बह रही थीं। पिछले वर्षों में इतनी हरियाली पहली बार दिखाई दे रही थी। देती भी क्यों न, कई वर्षों बाद इस क्षेत्र में होने वाली औसत बरसात तो जुलाई के तीसरे सप्ताह तक हो चुकी थी। अब जो भी बरसात हो रही थी वह सब बोनस थी। बरसात भी इस कायदे से हुई कि उस से नुकसान कम हुआ। बाढ़ें नहीं आई थीं। घाटी से निकलने के बाद ही बायीं ओर चम्बल दिखाई देने लगी। जवाहर सागर बांध के कारण यहाँ चम्बल विस्तार पा गई है। विशाल जलराशि और उस के दोनों ओर जंगल अद्भुत दृश्य उत्पन्न कर रहे थे। मनोरम दृश्यों को निहारते हुए बस रावतभाटा के नजदीक पहुँच रही थी। सड़क के किनारे ही बायीं और बाडोली के प्राचीन शिव मंदिर दिखाई दिए।  मन किया यहीं उतर पड़ूँ। यदि मैं अपने वाहन में होता तो मुझे कम से कम आधा घंटा यहाँ अवश्य लगता। जिन हाथों ने इन मंदिरों के निर्माण के लिए पत्थरों को आकार दिया होगा वे अपनी कला में कितने निपुण होंगे, यह अनुमान करके ही आनन्द की अनुभूति होती है। 

बाडोली के शिव मंदिर
रावतभाटा कस्बे से गुजरते हुए चंबल पुल पार कर के बस ने भैंसरोड़गढ़ वन्यजीव अभयारण्य में प्रवेश किया। इस क्षेत्र को राज्य सरकार ने इसी वर्ष अभयारण्य घोषित किया है। जिस के कारण प्रवेश शुल्क के बिना यहाँ प्रवेश संभव नहीं रह गया है। वन-चौकी पर बसें कुछ देर रुकीं। फिर चढ़ाई आरंभ हो गई। कोई दस मिनट में ही हम सेडल डेम के गेस्ट हाउस के बाहर थे। बरसात जारी थी। हम बसों से उतर कर तेजी से गेस्ट हाउस की तरफ दौड़े, जिस से कम से कम भीगे। मैं बरांडे की ओर से गेस्ट हाउस में घुसा। टीन शेड के नीचे हलवाई खाद्य सामग्री निर्माण में जुटे थे। बहुत सी जलेबियाँ निकाली जा चुकी थीं, पकौड़ियाँ तली जा रही थीं और आलू के मसाले के गोले बेसन के घोल में डूब कर गर्म तेल की कढ़ाई में जाने को तैयार थे। हमें पहुँचते देख। हलवाई ने कोफ्ते बनाने का काम आरंभ कर दिया। बारह बज चुके थे। सभी को भूख लगी थी। भोजन सामग्री बनते देख और खिल गई थी। दस मिनट में तीनों खाद्य पदार्थ चटनियों  और सॉस की बोतलों के साथ हॉल की मेज पर थे। इस के बाद क्या हुआ होगा? यह आप कल्पना कर सकते हैं। मैं प्लेट में नाश्ता ले कर बाहर आ गया। गेस्ट हाउस के बाहर के गार्डन के कोने पर तख्ती लगी थी, जिस पर लिखा था "फूल तोड़ना मना है"। लेकिन वहाँ फूल एक भी नहीं था। पूरे गार्डन में एक भी फूल खिला नहीं था। पहले सोचा मौसम ही फूल खिलने का नहीं है। लेकिन फिर ठीक से देखा तो पता लगा कि गेस्ट हाउस का रख रखाव भी कमजोर हुआ है। मैं समझ गया कि यह सब पिछले कई वर्षों से राजस्थान सरकारों में विभागों द्वारा मस्टर रोल पर कर्मचारी न रखने की जो नीति बनाई गई है यह उस का परिणाम है। अब विभागों के पास इन के रख रखाव के लिए कर्मचारी ही नहीं हैं तो फूल कहाँ से खिलेंगे? मैं ने फिर से तख्ती को देखा तो तख्ती के ठीक आस-पास बहुत ही छोटे आकार के तीन-चार जंगली फूल खिले थे। जैसे कह रहे हों कि हम तख्ती के ठीक पास इसलिए खिले हैं कि कम से कम यहाँ तो सुरक्षित रहेंगे।

 नाश्ते के दौरान ही दिनेश रावल ने नयी उम्र के वकीलों को उकसाना आरंभ कर दिया था। यार! पाड़ाझर नहीं चलेंगे क्या? कोटा तो कह रहे थे कि बसें पाड़ाझर जाएंगी, अब कोई बात ही नहीं कर रहा है। बरसात बंद हो चुकी थी और मैं सैड़ल डेम के ऊपर बनी सड़क से बांध के पानी, आस पास की पहाडियों पर बिखरे प्रकृति के सौंदर्य का नजारा देखने के लिए निकल पड़ा था। आधे घंटे बाद वापस लौटा तो बरामदे में ही रावल मिल गए। कहने लगे -तुम कहाँ चले गए थे उस्ताद? बसें पाड़ाझर जाने वाली हैं, चलो बैठो। मैं ने उन्हें बताया कि मैं जरा डेम पर चला गया था। वे कहने लगे -इस बीच बसें चल देतीं तो तुम यहीं रह जाते। हम गेस्ट हाउस के बाहर निकले तो वहाँ सेक्रेट्री सब से कह रहे थे -पाड़ाझर जाने वाले बसों में बैठ जाएँ। लोग तेजी से बसों की ओर जाने लगे। बसों तक जाने का दूसरा मार्ग भी था जो खाली था। मैं उस ओर से गया और सब से पीछे खड़ी बस में बैठ गया। मुझे कुछ लोगों ने कहा -बस तो आगे वाली जा रही है, सब तो उस में बैठ रहे हैं। मैं ने मना किया कि जाएगी तो सब से पहले यही बस जाएगी। मैं अकेला बस में चढ़ गया। कुछ देर बाद ही शेष लोग भी उसी बस में चढ़ने लगे। जब बस भर गई तो एक नया वकील कहने लगा कि -आप ने सही कहा था यही बस पहले जा रही है। दूसरा कहने लगा ये तो अनुभव की बात है।  मैं ने कहा यह अनुभव की नहीं अक्ल की बात है। तुम बसों की स्थिति ठीक से देखते तो तुम्हें भी पता लग जाता कि जब तक यह बस अपने स्थान से हटेगी नहीं दूसरी बस निकलेगी नहीं। ऐसी स्थिति में इसी बस को सब से पहले जाना था। ड्राइवर ने बस को आगे पीछे कर के बस का मुहँ घुमाया और बस पाड़ाझर के लिए चल दी।
प सभी यह सोच रहे होंगे कि यह पाड़ाझर क्या है? सैडल डेम से कोई छह किलोमीटर दूर जंगल के बीच एक झरना है, जो लगभग वर्ष भर बहता है लेकिन बरसात में तो उस का नजारा कुछ और ही होता है। कोई सौ मीटर ऊपर से झरना गिरता है, नीचे झरने के गिरने से कुंड बन गया है। झरने के ऊपर पहुँच कर नीचे कुंड तक जाने के लिए सीढ़ियाँ हैं। बीच में एक गुफा भी है जहाँ शंकर का मंदिर बना हुआ है। तैरने वाले लोग नीचे कुंड में उतर जाते हैं और तैरते हुए झरने के नीचे जा कर झरने से गिरते पानी के नीचे स्नान का आनन्द लेते हैं। सैडल डेम से पाड़ाझर तक की सड़क की हालत बहुत बुरी थी। कहा जा सकता था कि कभी वहाँ डामर भी रहा होगा। अब तो डामर के अलावा वहाँ सब कुछ था जिस में गड्ढे भी थे। बस को छह किलोमीटर की दूरी पार करने में आधा घंटा लगा। आप समझ सकते हैं कि सड़क की हालत क्या रही होगी? बस झरने से आधा किलोमीटर दूर ही रुक गई। आगे बस के जाने का मार्ग नहीं था। वहाँ से हमें पैदल चल पड़े। ठीक झरने के ऊपर पहुँचे तो देखा वहाँ दो बसें और खड़ी थीं। वे किसी दूसरे मार्ग से आई थीं। पहली बार पता लगा कि झरने पर पहुँचने का दूसरा मार्ग भी है।
(जारी)

जीन ऊँट की सवारी में सहायक है
पिछली चिट्ठी पर चंदन कुमार मिश्र की टिप्पणी थी कि सैडल के लिंक से संबंध समझ नहीं आया। मैं समझता था कि कुछ लोगों को यह जिज्ञासा अवश्य होगी कि ये सैडल डेम क्या है और उसे समझने के लिए मैं ने वह लिंक दिया था। वास्तव में सैडल घोड़े, ऊँट आदि पर सवारी करने के लिए उस पर कसी जाने वाली जीन को कहते हैं। इस जीन के अभाव में इन पर ठीक से सवारी की जा सकती है, विशेष रूप से ऊँट पर। उसी तरह यदि किसी बांध की भराव क्षमता अधिक रखने पर किसी स्थान से पानी के निकल जाने की संभावना हो तो वहाँ जो बांध बनाया जाता है उस के बिना मुख्य बांध की क्षमता को बढ़ाया नहीं जा सकता। इस सहायक बांध से मूल बांध की भराव क्षमता बढ़ जाती है। क्षमता में सहायक होने के इस गुण की समानता के कारण ऐसे सहायक बांधों को सैडल डेम कहा जाता है।

पिकनिक पर

र्षा ऋतु में अभिभाषक परिषद, कोटा अपने सदस्यों के लिए एक पिकनिक का आयोजन करती है। अपने सहकर्मी अभिभाषकों के साथ अदालत परिसर के अलावा किसी मनोरम स्थान पर एक दिन बिताना अपने आप में अच्छा सुअवसर है। विगत चार-पाँच वर्षों से मैं इस अवसर से वंचित रहा। इस बार जुलाई के अंतिम सप्ताह में जब यह घोषणा की गई कि 7 अगस्त को अभिभाषक परिषद सैडल डेम पर पिकनिक आयोजित कर रही है तो मैं ने उसी समय तय कर लिया कि कितनी भी बाधाएँ क्यों न हों इस पिकनिक को मैं नहीं छोड़ूंगा। मेरा प्रयास यह भी था कि मेरे सभी सहयोगी भी इस में भाग लें। लेकिन यह संभव नहीं हो सका। उन में से कोई भी विभिन्न कारणों से जाने की स्थिति में नहीं था।

राणाप्रताप सागर बांध
सैडल डेम चित्तौड़ जिले में रावतभाटा में चम्बल नदी पर निर्मित राणाप्रताप सागर बांध का सहयोगी बांध है। राणाप्रताप सागर बांध के निर्माण से चम्बल का जल जिस ऊँचाई तक संग्रहीत किया जाना था उस ऊँचाई तक जल संग्रहण असंभव था। क्यों कि मूल बांध से कोई एक किलोमीटर दूर पहाड़ों के बीच एक दर्रा मौजूद था जिस से जल निकल कर दूसरा रास्ता पकड़ कर वापस चंबल में जा मिलता। इस दर्रे पर भी जल को रोकने के लिए एक बांध बनाया जाना आवश्यक था। दर्रा अधिक चौड़ा न था, इसलिए उस पर भी बांध बनाया गया जिस का एक मात्र उद्देश्य राणाप्रताप सागर बांध की ऊँचाई बढ़ाना था। आम तौर पर जहाँ मूल बांध बनाया जाता है वह कोई मनोरम स्थान नहीं होता और जिस तरह का भारी निर्माण कार्य वहाँ होता है उस से उस की मनोरम छवि और समाप्त हो जाती है। बांध के ऊपर के बहुत से मनोरम स्थान तो रोके गए पानी में हमेशा के लिए डूब जाते हैं। लेकिन यह सैडल डेम जहाँ बना है वहाँ दोनों ओर हरी भरी पहाड़ियाँ मौजूद हैं तो  नीचे घाटी है। बीच में बांध की झील  में भरा हुआ जल। इसी बांध के निकट राजस्थान सरकार के सिंचाई विभाग ने एक गेस्टहाउस बनाया हुआ है। पिकनिक के लिए यह एक आदर्श स्थल है। यदि वर्षा होती रहे तब भी चार-पाँच सौ व्यक्तियों का भोजन बनाया जा सकता है और खिलाया जा सकता है। 

सैडल डेम
भिभाषक परिषद के सदस्यों की संख्या 1700 से अधिक है, लेकिन नियमित रूप से न्यायालय में अभ्यासरत वकीलों की संख्या इस की आधी ही है। लेकिन पिकनिक पर जाने वालों की संख्या दो सौ से कुछ ही ऊपर थी। इस के लिए तीन बसों की व्यवस्था की गई थी। तीनों बसों को जिला न्यायालय परिसर से रवाना हो कर नगर में चार-पाँच स्थानों पर रुक कर अभिभाषकों को लेते हुए जाना था। सुबह दस बजे तक बसों को कोटा नगर छोड़ देना था। शेष लोग वे थे जो अपने अपने साधनों से पिकनिक स्थल पहुँचना था। जहाँ से मुझे बैठना था वहाँ से बस को दस बजे रवाना होना था। लेकिन सुबह सुबह ही बरसात आरंभ हो गई। इस कारण बसें रवाना होने में देरी हुई। रावतभाटा के नाम से मुझे दो नाम ध्यान आए, उन में एक रविकुमार हैं। मैं ने बस की प्रतीक्षा करते हुए उन्हें फोन किया कि मैं आज उन के क्षेत्र में रहूँगा। यदि मिलना संभव हुआ तो उन्हें फिर फोन करूंगा।

दिनेश रावल
सुबह ग्यारह बजे बसें कोटा से छूट गई थीं। कोटा नगरीय क्षेत्र से निकलते ही जंगल आरंभ हो गया। दोनों ओर देखने पर हरियाली ही हरियाली दिखाई पड़ती थी। जिस के बीच बीच में वर्षा के कारण जंगल से निकल कर आती हुई जल धाराएँ दिखाई पडती थी। ऐसा लगता था जैसे जंगल ने नवयौवना का रूप धारण कर वर्षा के जल में स्नान कर रहा हो। वर्षा स्नान के समय बूंद बूंद मिल कर जलधाराओं का निर्माण कर रही हों। बस की खिड़की से बाहर एक बार जो देख लेता,  उस की निगाहें वहीं ठहरी रह जातीं, बस की गति के साथ ही वन प्रान्तर का दृश्य लगातार परिवर्तित होता हुआ नए नए रूप दिखा रहा था। मेरे पास खिड़की के समीप बैठे सहयात्री अभिभाषक दिनेश रावल इन दृश्यों में इतने डूब गए कि मैं ने  उन की तस्वीर ले कर उन्हें दिखाई तो कहने लगे, इस में तो मैं कोई विचारक जैसा लग रहा हूँ। 

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

चिड़ियाघर : एक लघुकथा

स बार मैं 5 दिसंबर से 13 दिसंबर तक यात्रा पर रहा। इस यात्रा में जयपुर, मेरी ससुराल जो राजस्थान के झालावाड़ जिले के अकलेरा कस्बे में है, सीहोर (म.प्र.) और भोपाल जाना हुआ। जयपुर यात्रा तो रूटीन की कामकाजी यात्रा थी। लेकिन ससुराल और सीहोर मेरी साली के बेटे की शादी थी। इस बीच बहुत लोगों से मिलना हुआ। कुछ ब्लागर साथियों से भी मुलाकात हुई। उन सब के बारे में लिखना भी चाहता हूँ। लेकिन अभी कुछ तारतम्य ही नहीं बन पा रहा है। चलिए उन के बारे में फिर कभी। यात्रा से वापस लौटने के तीसरे दिन 15 दिसंबर को ही हमारी कोटा की अभिभाषक परिषद के चुनाव थे। उस के एक दिन पहले सिम्पोजियम हुआ, जिस में सभी उम्मीदवारों ने अपना-अपना घोषणा पत्र घोषित किया। सिम्पोजियम में भाग लेने के लिए उम्मीदवारों से अच्छा खासा शुल्क लिया जाता है। इस तरह एकत्र राशि से शाम को वकीलों का भोज आयोजित किया जाता है। इस बार 1300 के लगभग मतदाता थे। तो कोटा की परंपरागत कत्त-बाफला के स्थान पर बफे-डिनर आयोजित किया गया।  जैसा कि सब का विश्वास था, डिनर में सब से पहले एक मिठाई समाप्त हो गई, फिर दूसरी और धीरे-धीरे अंत में केवल चपाती, पूरी और दाल ही शेष रह गई। देरी से आने वालों को इन से ही संतुष्ट होना पड़ा। जब डिनर का अंतिम दौर चल रहा था तो मौज-मस्ती आरंभ हो गई और नौजवान लोग संगीत पर नृत्य करने लगे। इस बीच मुझे एक कहानी सूझ पड़ी, जिसे मैं ने भोज के दौरान और दूसरे दिन जब मतदान हो रहा था तो चार-पाँच लोगों के तकरीबन पच्चीस से तीस समूहों को सुनाया। हर बार कहानी में कुछ कुछ सुधार (improvisation) होता रहा। आज वही लघु-कथा आप के सन्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ .....



'लघुकथा'
चिड़ियाघर
  • दिनेशराय द्विवेदी
धर इंसानों की आबादी बढ़ती रही और जंगल कटते रहे। इंसानों ने नदियों पर बांध बना लिए, नतीजे के तौर पर नदियाँ बरसात के बाद विधवा की सूनी मांग होने लगीं। जंगल के पोखर भी जल्दी ही सूखने लगे। इस से सब से अधिक परेशानी जंगल के जानवरों को हुई। खाने को वनस्पति कम पड़ने लगी। शिकारी जानवरों को शिकार की कमी होने लगी। पीने को पानी तक नहीं मिलता। उस के लिए भी उन्हें मीलों भटकना पड़ता। जानवरों का जंगल में जीना मुहाल हो गया। एक दिन यह खबर जंगल में पहुँची कि निकटवर्ती कस्बे में एक चिड़ियाघर बनाया जा रहा है। अब ये चिड़ियाघर क्या होता है यह जंगल में कौन समझाता। पर तभी वहाँ चिड़ियाघर में अधिक हो जाने के कारण वापस जंगल में छोड़े गए एक रीछ ने उन की ये मुश्किल आसान कर दी। उस ने कुछ जानवरों को बताया कि यह एक छोटे जंगल जैसा ही बनाया जाता है। जिस में जानवरों को रखा जाता है। वहाँ गुफा बनाई जाती है। पीने और नहाने के लिए ताल बनाया जाता है। सब से बड़ी बात तो ये कि  वहाँ भोजन के लिए भटकना नहीं पड़ता। खुद इंसान उन के लिए भोजन का इंतजाम करते हैं। यहाँ तक कि जिस जानवर को जैसा भोजन माफिक पड़ता है वैसा ही दिया जाता है। बस एक ही कमी होती है वहाँ कि घूमने फिरने को स्थान कम पड़ता है। सुनने वालों को बहुत आश्चर्य हुआ कि जो इंसान उन का शिकार करता है या पकड़ कर ले जाता है वह इस तरह जंगल के प्राणियों के लिए चिड़ियाघर भी बनाता है। 
ल्दी ही यह आश्चर्यजनक समाचार जंगल के सभी प्राणियों तक पहुँच गया। अब सभी आपस में मिलते तो चिड़ियाघर की बातें करते। धीरे-धीरे यह मत प्रभावी होने लगा कि किसी तरह चिड़ियाघर में पहुँचने का जुगाड़ किया जाए। वहाँ जरूर जीवन बहुत आसान और मजेदार होता होगा। बस एक ही तो कमी है वहाँ कि घूमने फिरने को स्थान कम पड़ता है। इस कमी का क्या? यहाँ जंगल में ही कौन सा बहुत स्थान रह गया है। हर साल जंगल छोटा और छिछला होता जाता है। कैसे चिड़ियाघर में पहुँचा जा सकता है यही युक्ति हर कोई तलाशने लगा। फिर पता लगा कि जैसे ही चिड़ियाघर का निर्माण पूरा हो जाएगा खुद चिड़ियाघर के लोग यहाँ आएंगे और जानवरों को ले जाएंगे। तब यह बात चली की वे सब को थोड़े ही ले जाएँगे, उन्हें जितनी जरूरत होगी ले जाएंगे। अब यह मुश्किल हो गई कि कौन चिड़ियाघर जाएगा और कौन नहीं। जब भी बात चलती जानवर बात करते-करते आपस में झगड़ने लगते। कोई कहता मैं हुनरमंद हूँ, वहाँ जाने की योग्यता रखता हूँ लेकिन तुझ में तो कोई हुनर ही नहीं है तुझे कोई क्यों ले जाएगा, तुम जानते नहीं वहाँ हुनरमंद जानवरों की रखते हैं। इंसान कोई बेवकूफ नहीं हैं जो बेहुनरों को वहाँ ले जा कर रखेंगे। फिर कौन कितना हुनरमंद है इस की प्रतिस्पर्धा होने लगती। कभी कभी यह लड़ाई इस स्तर पर पहुँच जाती कि जानवर आपस में भिड़ कर लहूलुहान हो जाते। एक दिन तो जानवरों को दो गुटों में बाकायदे युद्ध ही हो गया। दोनों तरफ के चार-चार जानवर खेत रहे। 
स घटना से जंगल में सन्नाटा फैल गया। जंगल में जब तक किसी को अपना जीवन बचाने की जरूरत न हो कोई जानवर दूसरे को नुकसान नहीं पहुँचाता था। बातों ही बातों में युद्ध का यह पहला अवसर था। जंगल में जो दानिश जानवर थे वे चिंता में पड़ गये। आपस में विचार विमर्श करने लगे। रीछ जो चिड़ियाघर में रह कर आ चुका था उस ने कहा कि इंसानों में तो यह बातों के झगड़े बहुत होते हैं लेकिन वे आपस युद्ध नहीं करते। वे आपस में बैठ कर ही मसलों को निपटा देते हैं। जब भी कहीं रहने के लिए कुछ को छांटना होता है तो वे लोग मतदान कर के चुनाव करा लेते हैं। जिस के समर्थन में अधिक लोग होते हैं उन्हें ही रहने भेज दिया जाता है।
क दानिशमंद ने सवाल उठाया कि ये तो गलत पद्धति है, इस से तो ये होता है कि जो एक बार कहीं रहने चला गया वह हमेशा ही वहाँ रहता रहेगा, शेष लोग ताकते रह जाएंगे। तभी रीछ ने पलट कर जवाब दिया कि, नहीं ऐसा नहीं होता। ये लोग केवल कुछ साल के लिए चुने जाते हैं। अवधि समाप्त होते ही वापस लौट आते हैं। फिर से नए लोग चुने जाते हैं। नए चुने जाने वाले लोगों में पुराने भी हो सकते हैं। यह बात जानकर दानिशमंदों ने तय किया कि वे भी चिड़ियाघर जाने वाले जानवरों का चुनाव मतदान से कराएंगे और यह भी मुनादी करा दी गई कि यह चुनाव साल भर के लिए ही होगा। साल भर बाद अभी के चुने हुए जानवर वापस लौट आएंगे सालभर बाद फिर से चिड़ियाघर जाने वालों का चुनाव होगा। दानिशमंदों की इस मुनादी के जंगल में झगड़े रुक गए और जानवर अपना अपना समर्थन जुटाने में जुट गए। 
खिर चिड़ियाघर तैयार हो गया। चिड़ियाघर वाले जानवरों को ले जाने के लिए जाल, पिंजरे और ट्रेंकूलाइजर वगैरा ले कर आए। वे जानवरों को पकड़ने के लिए स्थान का चुनाव करने के लिए आपस में विचार विमर्श कर ही रहे थे कि क्या देखते हैं कि पूरे जंगल के जानवर उन्हें घेरे खड़े हैं। वे सब घबरा गए, अब क्या करें? उन के पसीने छूटने लगे।   तभी रीछ ने आगे बढ़ कर कहा - आप को घबराने की जरूरत नहीं है। हमें पता है कि आप लोग अपने चिड़ियाघर के लिए हम में से कुछ को लेने आए हैं। मैं खुद कभी चिड़ियाघर में रह चुका हूँ। मैं ने ही यहाँ सब जानवरों को चिड़ियाघर में रहने के लिए तैयार कर लिया है। यहाँ हर कोई चिड़ियाघर में जाने को उद्दत है। 
स पर चिड़ियाघर के अधिकारी ने घबराते हुए कहा कि आप लोग तो बहुत सारे हैं। हमें तो कुछ ही जानवरों की जरूरत है। तब रीछ ने जवाब दिया। आप तो संख्या बताइए आप को कितने-कितने और किस-किस किस्म के जानवर ले जाने हैं। हम खुद ही उन का हमारी मर्जी से चुनाव कर के आप को दे देंगे। बस एक ही शर्त है। 
रीछ की बात सुन कर चिडियाघर का अधिकारी सोच में पड़ गया कि अब रीछ न जाने क्या शर्त सामने रखेगा। -आप अपनी शर्त बताइए। रीछ ने तुरंत शर्त बताई -आप को ये जानवर साल भर बाद जंगल में वापस भेजने पड़ेंगे। साल भर बाद हम जंगल वाले उन्हीं किस्मों के उतने ही जानवर आप को नए चुन कर देंगे जिन को आप फिर साल भर चिडियाघर में रख सकेंगे। इस तरह हर साल आप को चिड़ियाघर के जानवर बदलते रहना होगा।

सुनने वालों ने इस कहानी को खूब पसंद किया। दोस्तों, आप की क्या राय है?

बुधवार, 18 अगस्त 2010

वे संघर्षो से हथियार बंद बलों के माध्यम से निपटने के आदी हो चुके हैं

ल मैं ने नगरों के विकास में पूंजी के अनियोजित निवेश से अवरुद्ध विकास की बात की थी। आज इसी विकास का एक और पक्ष जिस की आग में उत्तर प्रदेश जल रहा है। इस से पहले सिंगूर, नंदीग्राम औऱ दादरी में इस आग के दर्शन हम कर चुके हैं। वहीं लाल पट्टी जहाँ नक्सली-माओवादी सक्रिय हैं में भी यही विषय प्रमुख बना हुआ है। औद्योगिक और नगरीय विकास के लिए खेती की जमीनों का अधिग्रहण और जंगलों की वानस्पतिक और खनिज उपज को उद्योगपतियों के हवाले कर देना इस आग का मूल कारण है। 
म सभी जानते हैं कि औद्योगिकीकरण और नगरीयकरण विकास के लिए आवश्यक हैं। दुनिया की आबादी को इस विकास के बिना जीवित भी नहीं रखा जा सकता। भारत में आज भी औद्योगिकी करण बहुत पिछड़ा हुआ है और आधी से अधिक आबादी आज भी खेती पर निर्भर है। भारत जैसे देश को यदि विकास की दौड़ में बनाए रखना है तो उस का औद्योगिकीकरण आवश्यक है। औद्योगिकीकरण के बिना देश की आबादी को जरूरत की चीजें मुहैया करा पाना संभव भी नहीं है। यही तर्क आज सरकारों और शासक वर्गों की ओर से दिया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि किसान और माओवादियों के साथ खड़े आदिवासी इन जरूरतों और तर्कों को नहीं समझते हों। वे जानते हैं कि ये जरूरी है लेकिन फिर भी उस के लिए वे लड़ते हैं और सशस्त्र संघर्ष में उतर आते हैं। 
स लड़ाई की मूल वजह फिर वही है,  अनियंत्रित और अनियोजित विकास। विकास का अर्थ यह तो नहीं कि खेती पर निर्भर किसानों और जंगलों को अपना जीवन मानने वाले आदिवासियों की कीमत पर यह सब किया जाए। यह पहले से निश्चित है कि ओद्योगिक और नगरीय विकास तथा जांगल उपजों पर उद्योगों के अधिकार के साथ किसान और आदिवासी विस्थापित होंगे और बरबाद होंगे। कुछ रुपयों के पीछे उन्हें लगातार रोजगार देने वाली भूमि सदा के लिए नष्ट हो जाएगी। जंगल अब आदिवासियों के लिए पराया हो जाएगा। उद्योगों के उत्पादों के विपणन में जब खुला बाजार पद्धति को लागू कर दिया गया है उद्योगपति जब अपने माल को मनचाही कीमत पर बेच सकता है और उस के लिए मोल-भाव कर सकता है तो किसान अपनी जमीन के लिए क्यों नहीं कर सकता। उसे अपनी जमीन मनचाही कीमत पर बेचने का अधिकार क्यों नहीं दिया जा सकता? 
किसान की जमीन  की कीमत बढ़ा कर जमीन  के मालिकों के लिए तो हल निकल आएगा। लेकिन सिंगूर, नंदीग्राम, दादरी में और अब उत्तरप्रदेश में जो आंदोलन हुए हैं उन की ताकत यह जमीनों का मालिक किसान नहीं है। उस के पीछे की असली ताकत वे लोग हैं जो इन खेती की जमीनों पर काम करते हैं। भूमिधर किसानों को तो उन की जमीन की कीमत मिल जाएगी। लेकिन उन्हें क्या मिलेगा जो उन जमीनों पर अपना पसीना बहाते हैं। उन का रोजगार तो नष्ट हो रहा है। उन्हें तो उसी भीड़ में आ कर खड़ा होना पड़ेगा जो नगरों के चौराहों पर रोज सुबह काम की तलाश में खड़ी दिखाई पड़ती है और जिस में से बहुतों को दिन भर बिना काम के ही गुजारा चलाना पड़ता है। निश्चित रूप से विकास गति को बनाए रखने वाली सरकारों को सोचना होगा कि खेती की जमीनों और जंगलों से बेकार हो रहे इन मनुष्यों के लिए क्या किया जाए। जमीनों के अधिग्रहण और जंगलों की उपज पर अधिकार जमाने के पहले इनम मनुष्यों के लिए व्यवस्था बनाई जाये तो ये आंदोलन, खून खऱाबा और सशस्त्र संघर्ष दिखाई ही नहीं पड़ेंगे। पर मौजूदा आर्थिक व्यवस्था को जनता की जरूरतों से अधिक मतलब पूंजीपतियों के मुनाफों की होती है। वे संघर्षो से हथियार बंद बलों के माध्यम से निपटने के आदी हो चुके हैं। विकास होना चाहिए पूंजी दिन दुगनी रात चौगुनी बढ़नी चाहिए। इंसान मरे तो मरे उस की उन्हें क्यों फिक्र होने लगी?

शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

अनिल पुसदकर जी, संजीत त्रिपाठी और पाबला जी के साथ दोपहर का भोजन

 त्रयम्बक जी के जाने के पहले ही एक फोन पुसदकर जी के पास आया।  फोन पर उत्तर देते हुए पुसदकर जी ने  कहा कि वे किसी मेहमान के साथ प्रेस क्लब में व्यस्त हैं, अभी नहीं आ सकते हाँ मिलना हो तो वे खुद प्रेस क्लब आ जाएँ।  खुद पुसदकर जी ने बताया कि यह रायपुर के मेयर का फोन था।  मुझे बुला रहा था, मैं ने उसे यहाँ आने के लिए कह दिया है।  कुछ देर में ही रायपुर के नौजवान मेयर सुनील सोनी अपने एक सहायक के साथ वहाँ विद्यमान थे।  पुसदकर जी ने मेरा व पाबला जी का मेयर से परिचय कराया और फिर मेयर को कहने लगे कि वे प्रेस क्लब और पत्रकारों के लिए उतना नहीं कर रहे हैं जितना उन्हें करना चाहिए।  उसी समय उन्हों ने संजीत त्रिपाठी को कुछ लाने के लिए कहा।  संजीत जो ले कर आए वह एक खूबसूरत मोमेण्टो था।  उन्हों ने मेयर को कहा कि प्रेस क्लब द्विवेदी जी के आगमन पर उन्हें मोमेंटो देना चाहता था।  अब जब आप आ ही गए हैं तो यह आप के द्वारा ही दिया जाना चाहिए।  आखिर मेयर ने मुझे प्रेस क्लब की वह मीठी स्मृति मोमेंटो भेंट की।  कॉफी के बाद मेयर वहाँ से प्रयाण कर गए।

तब तक दो बजने को थे।  पुसदकर जी ने हमें दोपहर के भोजन के लिए चलने को कहा।  हम सभी नीचे उतर गए।  पुसदकर जी की कार में हम तीनों के अलावा केवल संजीत त्रिपाठी थे। पुसदकर जी  खुद वाहन ड्राइव कर रहे थे।  वे कहने लगे अगर समय हो तो भोजन के बाद त्रिवेणी संगम है वहाँ चलें, यहाँ से तीस किलोमीटर दूर है।  मैं ने और पाबला जी ने मना कर दिया इस में रात वहीं हो जाती।  मैं उस दिन रात का खाना अपने भाई अवनींद्र के घर खाना तय कर चुका था, यदि यह न करता तो उसे खास तौर पर उस की पत्नी को बहुत बुरा महसूस होता।  मैं पहले ही उसे नाराज होने का अवसर दे चुका था और अब और नहीं देना चाहता था। अगले दिन मेरा दुर्ग बार में जाना तय था और कोटा के लिए वापस लौटना भी।  रास्ते मे पुसदकर जी रायपुर के स्थानों को बताते रहे, यह भी बताया कि जिधर जा रहे हैं वह वही क्षेत्र है जहाँ छत्तीसगढ़ की नई राजधानी का विकास हो रहा है।  कुछ किलोमीटर की यात्रा के बाद हम एक गेस्ट हाऊस पहुंचे जो रायपुर के बाहर था जहाँ से एयरपोर्ट और उस से उड़ान भरने वाले जहाज दिखाई दे ते थे। बीच में हरे खेत और मैदान थे।  बहुत सुंदर दृश्य था।  संजीत ने बताया कि यह स्थान अभी रायपुर से बाहर है लेकिन जैसे ही राजधानी क्षेत्र का विकास होगा यह स्थान बीच में आ जाएगा।

किसी ने आ कर बताया कि भोजन तैयार है। बस चपातियाँ सेंकनी हैं।  हम हाथ धोकर अन्दर सजी डायनिंग टेबुल पर बैठ गए।  भोजन देख कर मन प्रसन्न हो गया। सादा सुपाच्य भोजन था, जैसा हम रोज के खाने में पसंद करते हैं।  सब्जियाँ, दाल, चावल और तवे की सिकी चपातियाँ।  पुसदकर जी कहने लगे भाई कुछ तो ऐसा भी होना चाहिए था जो छत्तीसगढ़ की स्मृति बन जाए, लाल भाजी ही बनवा देते।  पता लगा लाल भाजी भी थी।  इस तरह की नयी खाद्य सामग्री में हमेशा मेरी रुचि बनी रहती है।  मैं ने भाजी के पात्र में हरी सब्जी को पा कर पूछा यह लाल भाजी क्या नाम हुआ।  संजीत ने बताया कि यह लाल रंग छोड़ती है।  मैं ने अपनी प्लेट में सब से पहले उसे ही लिया।  उन का कहना सही था। सब्जी लाल रंग छोड़ रही थी।  उसे लाल के स्थान पर गहरा मेजेण्टा रंग कहना अधिक उचित होगा।  संजीत ने बताया कि यह केवल यहीं छत्तीसगढ़ में ही होती है, बाहर नहीं।  सब्जी का स्वाद बहुत कुछ हरी सब्जियों की ही तरह था। सब्जी अच्छी लगी।  उसे खाते हुए मुझे अपने यहाँ के विशेष कट पालक की याद आई जो पूरी सर्दियों हम खाते हैं। बहुत स्वादिष्ट, पाचक और लोह तत्वों से भरपूर होता है और जो हाड़ौती क्षेत्र में ही खास तौर पर होता है, बाहर नहीं। हम उसे देसी पालक कहते हैं। दूसरी चीज जिस की मुझे याद आई वह मेहंदी थी जो हरी होने के बाद भी लाल रंग छोड़ती है।

भोजन के उपरांत हमने करीब दो घंटों का समय उसी गेस्ट हाउस में बिताया।  बहुत बातें होती रहीं।  छत्तीसगढ़ के बारे में, रायपुर, दुर्ग और भिलाई के बारे में, बस्तर और वहाँ के आदिवासियों के बारे में माओवादियों के बारे में और ब्लागिंग के बारे में, ब्लागिंग के बीच समय समय पर उठने वाले विवादों के बारे में।  माओवादियों के बारे में पुसदकर जी और संजीत जी की राय यह थी कि वास्तव में ये लोग किसी वाद के नहीं है, उन्हों ने केवल माओवाद और मार्क्सवाद की आड़ ली हुई है, ये पड़ौसी प्रान्तों के गेंगेस्टर हैं और यहाँ बस्तर के जंगलों का लाभ उठा कर अपने धन्धे चला रहे हैं।  इन का आदिवासियों से कोई लेना-देना नहीं है।  आदिवासी भी एक हद तक इन से परेशान हैं।  इन का आदिवासियों के जीवन और उत्थान से कोई लेना देना नहीं है।  पुसदकर जी कहने लगे कि कभी आप फुरसत निकालें तो आप को बस्तर की वास्तविकता खुद आँखों से दिखा कर लाएँ।  ब्लागिंग की बातों के बीच संजीत ने छत्तीसगढ़ में एक ब्लागर सम्मेलन की योजना भी बनाने को पुसदकर जी से कहा।  उन्हों  ने कोशिश करने को अपनी सहमति दी। 

चार बजे के बाद कॉफी आ गई जिसे पीते पीते हमें शाम के वादे याद आने लगे।  मैंने चलने को कहा।  हम वहाँ से प्रेस क्लब आए तब तक सांझ घिरने लगी थी।  हमने संजीत और पुसदकर जी से विदा ली। वे बार बार फुरसत निकाल कर आने को कहते रहे और मैं वादा देता रहा।  मुझे भी अफसोस हो रहा था कि मैं ने क्यों रायपुर के लिए सिर्फ आधे दिन का समय निकाला।  पर वह मेरी विवशता थी। मुझे शीघ्र वापस कोटा पहुँचना था।  दो फरवरी को बेटी पूर्वा के साथ बल्लभगढ़ (फरीदाबाद) जो जाना था।   हम संजीत और पुसदकर जी से विदा ले कर पाबला जी की वैन में वापस भिलाई के लिए लद लिए।

कल के आलेख पर आई टिप्पणियों में एक प्रश्न मेरे लिए भारी रहा कि मैं ने संजीत के लिए कुछ नहीं लिखा।  इस प्रश्न का उत्तर दे पाना मेरे लिए आज भी कठिन हो रहा है।  मुझे पाबला जी के सौजन्य से जो चित्र मिले हैं उन में संजीत एक स्थान पर भी नहीं हैं।  वे रायपुर में छाया की तरह हमारे साथ रहे।  वार्तालाप भी खूब हुआ। लेकिन? पूरे वार्तालाप में व्यक्तिगत कुछ भी नहीं था।  उन के बारे में व्यक्तिगत बस इतना जाना कि वे पत्रकार फिर से पत्रकारिता में लौट आए हैं और किसी दैनिक में काम कर रहे हैं जिस का प्रतिदिन एक ही संस्करण निकलता है।  वास्तव में उन के बारे में मेरी स्थिति वैसी ही थी जैसे किसी उस व्यक्ति की होती जो वनवास के समय राम, लक्ष्मण से मिल कर लौटने पर राम का बखान कर रहा होता और जिस से लक्ष्मण के बारे में पूछ लिया जाता।  मिलने वाले का सारा ध्यान तो राम पर ही लगा रहता लक्ष्मण को देखने, परखने का समय कब मिलता? और राम के सन्मुख लक्ष्मण की गतिविधि होती भी कितनी? मुझे लगता है संजीत को समझने के लिए तो छत्तीसगढ़ एक बार फिर जाना ही होगा।  हालांकि संजीत खुद अपने बारे में कहते हैं कि वे जब से जन्मे हैं रायपुर में ही टिके हुए हैं।  उन्हों ने अपना कैरियर पत्रकारिता को बनाया।  उस में बहुत ऊपर जा सकते थे।  लेकिन? केवल रायपुर न छोड़ने के लिए ही उन्हों ने पत्रकारिता को त्याग दिया और धंधा करने लगे।  मन फिर पत्रकारिता की ओर मुड़ा तो वे किसी छोटे लेकिन महत्वपूर्ण समाचार पत्र से जुड़ गए।  उन की विशेषता है कि वे स्वतंत्रता सेनानियों के वंशज हैं और आज भी उन्हीं मूल्यों से जुड़े हैं।  खुद खास होते हुए भी खुद को आम समझते हैं।  आप खुद समझ सकते हैं कि उन्हें समझने के लिए खुद कैसा होना होगा?

मंगलवार, 20 जनवरी 2009

होटल में बाघ या बाघ के घर इंसान

पत्रिका की खबर है,  राजस्थान के एक गांव शेरपुर के निकट के एक होटल में घुस आया। अफरा-तफरी मच गई।  वह रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान की दीवार फांदकर होटल परिसर में घुसा वहां उसने करीब पांच मिनट चहलकदमी की।  बाघ को देखने के लिए लोगों की भीड जमा हो गई। 

बाघ एक पखवाडे में तीसरी बार आबादी क्षेत्र में घुस आया था।  बाघ के पार्क से बाहर आने का मुख्य कारण सरसों के खेत हैं।  इन दिनों खेतों में उगी सरसों में नील गाय व जंगली सुअर रहते हैं और बाघ को यहाँ शिकार करने में आसानी रहती है। 

खबर कतई चौंकाने वाली है।  सुबह ज्ञान दत्त जी अपने आलेख मे इंसानों की बढ़ रही आबादी के थम जाने की सुखद कल्पना कर रहे थे।  मैं उस के विश्वसनीय होने की कामना कर रहा हूँ।  पर यह मनुष्य के सायास प्रयासों के बिना हो सकेगा ऐसा नहीं लगता है।

वह जंगल था,  बाघ के साम्राज्य का एक भाग।  हमने उस के साम्राज्य को सीमित कर दिया और बाकी जगह हथिया ली।  वहाँ खेत बना दिए।  होटल बना दिए ताकि उस विगत के सम्राट के दर्शनार्थियों की सुविधा दी जा सके, कायदे से उन की जेबें तराशी जा सकें। 

हकीकत यह है कि बाघ तो अपने ही साम्राज्य में है।  इंसान उस के साम्राज्य में कब का घुसा बैठा है।