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शनिवार, 18 दिसंबर 2010

चिड़ियाघर : एक लघुकथा

स बार मैं 5 दिसंबर से 13 दिसंबर तक यात्रा पर रहा। इस यात्रा में जयपुर, मेरी ससुराल जो राजस्थान के झालावाड़ जिले के अकलेरा कस्बे में है, सीहोर (म.प्र.) और भोपाल जाना हुआ। जयपुर यात्रा तो रूटीन की कामकाजी यात्रा थी। लेकिन ससुराल और सीहोर मेरी साली के बेटे की शादी थी। इस बीच बहुत लोगों से मिलना हुआ। कुछ ब्लागर साथियों से भी मुलाकात हुई। उन सब के बारे में लिखना भी चाहता हूँ। लेकिन अभी कुछ तारतम्य ही नहीं बन पा रहा है। चलिए उन के बारे में फिर कभी। यात्रा से वापस लौटने के तीसरे दिन 15 दिसंबर को ही हमारी कोटा की अभिभाषक परिषद के चुनाव थे। उस के एक दिन पहले सिम्पोजियम हुआ, जिस में सभी उम्मीदवारों ने अपना-अपना घोषणा पत्र घोषित किया। सिम्पोजियम में भाग लेने के लिए उम्मीदवारों से अच्छा खासा शुल्क लिया जाता है। इस तरह एकत्र राशि से शाम को वकीलों का भोज आयोजित किया जाता है। इस बार 1300 के लगभग मतदाता थे। तो कोटा की परंपरागत कत्त-बाफला के स्थान पर बफे-डिनर आयोजित किया गया।  जैसा कि सब का विश्वास था, डिनर में सब से पहले एक मिठाई समाप्त हो गई, फिर दूसरी और धीरे-धीरे अंत में केवल चपाती, पूरी और दाल ही शेष रह गई। देरी से आने वालों को इन से ही संतुष्ट होना पड़ा। जब डिनर का अंतिम दौर चल रहा था तो मौज-मस्ती आरंभ हो गई और नौजवान लोग संगीत पर नृत्य करने लगे। इस बीच मुझे एक कहानी सूझ पड़ी, जिसे मैं ने भोज के दौरान और दूसरे दिन जब मतदान हो रहा था तो चार-पाँच लोगों के तकरीबन पच्चीस से तीस समूहों को सुनाया। हर बार कहानी में कुछ कुछ सुधार (improvisation) होता रहा। आज वही लघु-कथा आप के सन्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ .....



'लघुकथा'
चिड़ियाघर
  • दिनेशराय द्विवेदी
धर इंसानों की आबादी बढ़ती रही और जंगल कटते रहे। इंसानों ने नदियों पर बांध बना लिए, नतीजे के तौर पर नदियाँ बरसात के बाद विधवा की सूनी मांग होने लगीं। जंगल के पोखर भी जल्दी ही सूखने लगे। इस से सब से अधिक परेशानी जंगल के जानवरों को हुई। खाने को वनस्पति कम पड़ने लगी। शिकारी जानवरों को शिकार की कमी होने लगी। पीने को पानी तक नहीं मिलता। उस के लिए भी उन्हें मीलों भटकना पड़ता। जानवरों का जंगल में जीना मुहाल हो गया। एक दिन यह खबर जंगल में पहुँची कि निकटवर्ती कस्बे में एक चिड़ियाघर बनाया जा रहा है। अब ये चिड़ियाघर क्या होता है यह जंगल में कौन समझाता। पर तभी वहाँ चिड़ियाघर में अधिक हो जाने के कारण वापस जंगल में छोड़े गए एक रीछ ने उन की ये मुश्किल आसान कर दी। उस ने कुछ जानवरों को बताया कि यह एक छोटे जंगल जैसा ही बनाया जाता है। जिस में जानवरों को रखा जाता है। वहाँ गुफा बनाई जाती है। पीने और नहाने के लिए ताल बनाया जाता है। सब से बड़ी बात तो ये कि  वहाँ भोजन के लिए भटकना नहीं पड़ता। खुद इंसान उन के लिए भोजन का इंतजाम करते हैं। यहाँ तक कि जिस जानवर को जैसा भोजन माफिक पड़ता है वैसा ही दिया जाता है। बस एक ही कमी होती है वहाँ कि घूमने फिरने को स्थान कम पड़ता है। सुनने वालों को बहुत आश्चर्य हुआ कि जो इंसान उन का शिकार करता है या पकड़ कर ले जाता है वह इस तरह जंगल के प्राणियों के लिए चिड़ियाघर भी बनाता है। 
ल्दी ही यह आश्चर्यजनक समाचार जंगल के सभी प्राणियों तक पहुँच गया। अब सभी आपस में मिलते तो चिड़ियाघर की बातें करते। धीरे-धीरे यह मत प्रभावी होने लगा कि किसी तरह चिड़ियाघर में पहुँचने का जुगाड़ किया जाए। वहाँ जरूर जीवन बहुत आसान और मजेदार होता होगा। बस एक ही तो कमी है वहाँ कि घूमने फिरने को स्थान कम पड़ता है। इस कमी का क्या? यहाँ जंगल में ही कौन सा बहुत स्थान रह गया है। हर साल जंगल छोटा और छिछला होता जाता है। कैसे चिड़ियाघर में पहुँचा जा सकता है यही युक्ति हर कोई तलाशने लगा। फिर पता लगा कि जैसे ही चिड़ियाघर का निर्माण पूरा हो जाएगा खुद चिड़ियाघर के लोग यहाँ आएंगे और जानवरों को ले जाएंगे। तब यह बात चली की वे सब को थोड़े ही ले जाएँगे, उन्हें जितनी जरूरत होगी ले जाएंगे। अब यह मुश्किल हो गई कि कौन चिड़ियाघर जाएगा और कौन नहीं। जब भी बात चलती जानवर बात करते-करते आपस में झगड़ने लगते। कोई कहता मैं हुनरमंद हूँ, वहाँ जाने की योग्यता रखता हूँ लेकिन तुझ में तो कोई हुनर ही नहीं है तुझे कोई क्यों ले जाएगा, तुम जानते नहीं वहाँ हुनरमंद जानवरों की रखते हैं। इंसान कोई बेवकूफ नहीं हैं जो बेहुनरों को वहाँ ले जा कर रखेंगे। फिर कौन कितना हुनरमंद है इस की प्रतिस्पर्धा होने लगती। कभी कभी यह लड़ाई इस स्तर पर पहुँच जाती कि जानवर आपस में भिड़ कर लहूलुहान हो जाते। एक दिन तो जानवरों को दो गुटों में बाकायदे युद्ध ही हो गया। दोनों तरफ के चार-चार जानवर खेत रहे। 
स घटना से जंगल में सन्नाटा फैल गया। जंगल में जब तक किसी को अपना जीवन बचाने की जरूरत न हो कोई जानवर दूसरे को नुकसान नहीं पहुँचाता था। बातों ही बातों में युद्ध का यह पहला अवसर था। जंगल में जो दानिश जानवर थे वे चिंता में पड़ गये। आपस में विचार विमर्श करने लगे। रीछ जो चिड़ियाघर में रह कर आ चुका था उस ने कहा कि इंसानों में तो यह बातों के झगड़े बहुत होते हैं लेकिन वे आपस युद्ध नहीं करते। वे आपस में बैठ कर ही मसलों को निपटा देते हैं। जब भी कहीं रहने के लिए कुछ को छांटना होता है तो वे लोग मतदान कर के चुनाव करा लेते हैं। जिस के समर्थन में अधिक लोग होते हैं उन्हें ही रहने भेज दिया जाता है।
क दानिशमंद ने सवाल उठाया कि ये तो गलत पद्धति है, इस से तो ये होता है कि जो एक बार कहीं रहने चला गया वह हमेशा ही वहाँ रहता रहेगा, शेष लोग ताकते रह जाएंगे। तभी रीछ ने पलट कर जवाब दिया कि, नहीं ऐसा नहीं होता। ये लोग केवल कुछ साल के लिए चुने जाते हैं। अवधि समाप्त होते ही वापस लौट आते हैं। फिर से नए लोग चुने जाते हैं। नए चुने जाने वाले लोगों में पुराने भी हो सकते हैं। यह बात जानकर दानिशमंदों ने तय किया कि वे भी चिड़ियाघर जाने वाले जानवरों का चुनाव मतदान से कराएंगे और यह भी मुनादी करा दी गई कि यह चुनाव साल भर के लिए ही होगा। साल भर बाद अभी के चुने हुए जानवर वापस लौट आएंगे सालभर बाद फिर से चिड़ियाघर जाने वालों का चुनाव होगा। दानिशमंदों की इस मुनादी के जंगल में झगड़े रुक गए और जानवर अपना अपना समर्थन जुटाने में जुट गए। 
खिर चिड़ियाघर तैयार हो गया। चिड़ियाघर वाले जानवरों को ले जाने के लिए जाल, पिंजरे और ट्रेंकूलाइजर वगैरा ले कर आए। वे जानवरों को पकड़ने के लिए स्थान का चुनाव करने के लिए आपस में विचार विमर्श कर ही रहे थे कि क्या देखते हैं कि पूरे जंगल के जानवर उन्हें घेरे खड़े हैं। वे सब घबरा गए, अब क्या करें? उन के पसीने छूटने लगे।   तभी रीछ ने आगे बढ़ कर कहा - आप को घबराने की जरूरत नहीं है। हमें पता है कि आप लोग अपने चिड़ियाघर के लिए हम में से कुछ को लेने आए हैं। मैं खुद कभी चिड़ियाघर में रह चुका हूँ। मैं ने ही यहाँ सब जानवरों को चिड़ियाघर में रहने के लिए तैयार कर लिया है। यहाँ हर कोई चिड़ियाघर में जाने को उद्दत है। 
स पर चिड़ियाघर के अधिकारी ने घबराते हुए कहा कि आप लोग तो बहुत सारे हैं। हमें तो कुछ ही जानवरों की जरूरत है। तब रीछ ने जवाब दिया। आप तो संख्या बताइए आप को कितने-कितने और किस-किस किस्म के जानवर ले जाने हैं। हम खुद ही उन का हमारी मर्जी से चुनाव कर के आप को दे देंगे। बस एक ही शर्त है। 
रीछ की बात सुन कर चिडियाघर का अधिकारी सोच में पड़ गया कि अब रीछ न जाने क्या शर्त सामने रखेगा। -आप अपनी शर्त बताइए। रीछ ने तुरंत शर्त बताई -आप को ये जानवर साल भर बाद जंगल में वापस भेजने पड़ेंगे। साल भर बाद हम जंगल वाले उन्हीं किस्मों के उतने ही जानवर आप को नए चुन कर देंगे जिन को आप फिर साल भर चिडियाघर में रख सकेंगे। इस तरह हर साल आप को चिड़ियाघर के जानवर बदलते रहना होगा।

सुनने वालों ने इस कहानी को खूब पसंद किया। दोस्तों, आप की क्या राय है?

गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009

डेज़ी तुम्हें आखिरी सलाम! तुम बहुत, बहुत याद आओगी!


पिछली जनवरी में मेरा भिलाई जाना हुआ था। दो रात और तीन दिन पाबला जी के घर रहना हुआ। वहीं उन की पालतू डेज़ी से भेंट हुई। वह उन के परिवार की अभिन्न सदस्या थी। दीवाली पर पटाखों से उत्पन्न धूंएँ और ध्वनि के प्रदूषण ने उसे बुरी तरह प्रभावित किया और वह बीमार हो गई। इतनी बीमार कि चिकित्सा की भरपूर सहायता भी उसे जीवन दान न दे सकी। आज दोपहर डेजी नहीं रही। उन तीन दिनों के प्रवास में डे़ज़ी ने जिस अपनत्व का व्यवहार मुझे दिया मैं उसे जीवन भर नहीं भुला सकता हूँ। मेरी भिलाई यात्रा के विवरण में डेज़ी का उल्लेख अनायास ही हुआ था। जिस के अंत में मैं ने लिखा था ....'कभी मैं दुबारा वहाँ आया तो वह तुरंत शिकायत करेगी कि बहुत दिनों में आ रहे हो'।
 लेकिन शिकायत करने वाली डेज़ी आज नहीं रही। जब से उस के प्राणत्याग की सूचना मिली है मैं उसे नहीं भुला पा रहा हूँ तो पाबला जी और उन के परिजनों की क्या स्थिति होगी? जिन के बीच वह चौबीसों घंटे रहती थी। मेरे बेटे वैभव ने शाम पाबला जी के पुत्र गुरुप्रीत से  फोन पर बात करनी चाही, लेकिन गुरुप्रीत बात नहीं कर सका उस का स्वर रुआँसा हो उठा।

अपनी भिलाई यात्रा के विवरण में से डेज़ी से सम्बंधित अंश यहाँ उस के प्रति श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत कर रहा हूँ ......

पाबला जी की वैन से हम उन के घर के लिए रवाना हुए वेबताते जा रहे थे, यहाँ दुर्ग समाप्त हुआ और भिलाई प्रारंभ हो गया। यहाँ यह है, वहाँ वह है।  मेरे लिए सब कुछ पहली बार था, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था।  मेरी आँखे तलाश रही थीं, उस मकान को जिस की बाउण्ड्रीवाल पर केसरिया फूलों की लताएँ झूल रही हों।  एक मोड़ पर मुड़ते ही वैसा घर नजर आया।  बेसाख्ता मेरे मुहँ से निकला 'पहुँच गए'।  पाबला जी पूछने लगे कैसे पता लगा पहुँच गए? मैं ने बताया केसरिया फूलों से। वैन खड़ी हुई, हम उतरे और अपना सामान उठाने को लपके।  इस के पहले मोनू (गुरूप्रीत सिंह) और वैभव ने उठा लिया। हमने भी एक-एक बैग उठाए।  पाबला जी ने हमें दरवाजे पर ही रोक दिया।  अन्दर जा कर अपनी ड़ॉगी को काबू किया। उन का इशारा पा कर वह शांत हो कर हमें देखने लगी।  उस का मन तो कर रहा था कि सब से पहले वही हम से पहचान कर ले।  उस ने एक बार मुड़ कर पाबला  की और शिकायत भरे लहजे में कुछ कुछ अभिनय किया। जैसे कह रही हो कि मुझे नहीं ले गए ना, स्टेशन मेहमान को लिवाने।  डॉगी बहुत ही प्यारी थी, पाबला जी ने बताया डेज़ी नाम है उस का।

.................आँख खुली तो डेज़ी चुपचाप मेरी गंध ले रही थी।  मन तो कर रहा था उसे सहला दूँ।  पर सोच कर कि यह चढ़ बैठेगी, चुप रहा। तभी पाबला जी ने कमरे में प्रवेश किया।  उन्हें देख कर वह तुरंत कमरे से निकल गई।  पाबला जी ने पूछा, परेशान तो नहीं किया?  -नहीं केवल पहचान कर रही थी।



......... तीसरे दिन सुबह गुरप्रीत ने सोने जाने के पहले कॉफी पिलाई।  नींद पूरी न हो पाने के कारण मैं फिर चादर ओढ़ कर सो लिया।  दुबारा उठा तो डेज़ी चुपचाप मुझे तंग किए बिना मेरे पैरों को सहला रही थी।  मुझे उठता देख तुरंत दूर हट कर बैठ गई और मुझे देखने लगी।  हमारे  पास भैंस के अतिरिक्त कभी कोई भी पालतू नहीं रहा।  उन की मुझे आदत भी नहीं।  पास आने पर और स्वैच्छापूर्वक छूने पर अजीब सा लगता है।  डेज़ी को मेरे भरपूर स्नेह के बावजूद लगा होगा कि मैं शायद उस का छूना पसंद नहीं करता इस लिए वह पहले दिन के अलावा मुझ से कुछ दूरी बनाए रखती थी।  उस दिन मुझे वह उदास भी दिखाई दी।  जैसे ही पाबला जी ने कमरे में प्रवेश किया वह बाहर चल दी।  लेकिन उस के बाद मैं ने महसूस किया कि वह मेरा पीछा कर रही है। मैं जहाँ भी जाता हूँ मेरे पीछे जाती है और मुझे देखती रहती है।  मैं उसे देखता हूँ तो वह भी मुझे उदास निगाहों से देखती है।  मुझे लगा कि मेरे हाव भाव से उसे महसूस हो गया है कि मैं जाने वाला हूँ।  उस का यह व्यवहार सिर्फ मेरे प्रति था, वैभव के प्रति नहीं। शायद उसे यह भी अहसास था कि वैभव नहीं जा रहा है, केवल मैं ही जा रहा हूँ।


हमें दो बजे तक दुर्ग बार ऐसोसिएशन पहुँचना था।  मैं धीरे-धीरे तैयार हो रहा था।  पाबला जी की बिटिया के कॉलेज जाने के पहले उस से बातें कीं।  फिर कुछ देर बैठ कर पाबला जी के माँ-पिताजी के साथ बात की।  हर जगह डेज़ी मेरे साथ थी।  मैं ने पाबला जी को बताया कि डेज़ी अजीब व्यवहार कर रही है, शायद वह भाँप गई है कि मैं आज जाने वाला हूँ।  ........

मैं सवा बजे पाबला जी के घर से निकलने को तैयार था।  मैं ने अपना सभी सामान चैक किया।  कुल मिला कर एक सूटकेस और एक एयर बैग साथ था। मैं ने पैर छूकर स्नेहमयी माँ और पिता जी से विदा ली।  मैं नहीं जानता था कि उन से दुबारा कब मिल सकूँगा? या कभी नहीं मिलूँगा।  लेकिन यह जरूर था कि मैं उन्हें शायद जीवन भर विस्मृत न कर सकूँ।

मैं सामान ले कर  दालान में आया तो देखा वे मुझे छोड़ने दरवाजे तक आ रहे हैं और डेजी उन के आगे है।  मैं डेजी को देख रुक गया तो वह दो पैरों पर खड़ी हो गई  बिलकुल मौन।  मैं ने उसे कहा बेटे रहने दो। तो वापस चार पैरों पर आ गई।  गुरप्रीत पहले ही बाहर वैन के पास खड़ा था। उस ने मेरा सामान वैन के पीछे रख दिया।  मैं पाबला जी और वैभव हम वैन में बैठे सब से विदाई ली।  डेजी चुप चाप वैन के चक्कर लगा रही थी। शायद अवसर देख रही थी कि पाबला जी का इशारा हो और वह भी वैन में बैठ जाए।  पाबला जी ने उसे अंदर जाने को कहा। वह घर के अंदर हो गई और वहाँ से निहारने लगी।  हमारी वैन दुर्ग की ओर चल दी।  मैं ने डेजी जैसी पालतू अपने जीवन में पहली बार देखी जो दो दिन रुके मेहमान के प्रति इतना अनुराग कर बैठी थी।  मैं जानता था कि कभी मैं दुबारा वहाँ आया तो वह तुरंत शिकायत करेगी कि बहुत दिनों में आ रहे हो।

इस पोस्ट का मकसद डेज़ी को स्मरण करना तो है ही साथ ही यह भी कि शायद हम अपने त्योहारों या अन्य किसी प्रकार की मौज-मस्ती के बीच उन्हें पहुँचाने वाले जानलेवा कष्टों को पहचान सकें और व्यवहार में कुछ सहिष्णु हो सकें। 

डेज़ी तुम्हें आखिरी सलाम! 
तुम बहुत, बहुत याद आओगी!