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शुक्रवार, 18 मई 2012

डर के जो हाँ भर रहा, वह भी घोंघा बसन्त

घोंघा एक विशेष प्रकार का जंतु है जो अपने जीवन को एक कड़े खोल में बिता देता है। इस के शरीर का अधिकांश हिस्सा सदैव ही खोल में बंद रहता है। जब इसे आहार आदि कार्यों के लिए विचरण करना होता है तो यह शरीर का निचला हिस्सा ही बाहर निकालता है जिस में इस के पाद (पैर) होते हैं और जिन की सहायता से यह चलता है। जैसे ही किसी आसन्न खतरे का आभास होता है यह अपने शरीर को पूरी तरह से खोल में छिपा लेता है। खतरे के पल्ले केवल कड़ा खोल पड़ता है। खतरे की संभावना मात्र से खोल में छिपने की इस की प्रवृत्ति पर अनेक लेखकों ने अपनी कलम चलाई है। इसे आधार बना कर सब से खूबसूरत कहानी महान रूसी कथाकार अंतोन चेखोव की ‘दी मेन इन दी केस’ है जिस के हिन्दी अनुवाद का शीर्षक ही ‘घोंघा’ है। इस कहानी को पढ़ कर मनुष्य की घोंघा प्रवृत्ति का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

तरे से बचने के लिए कड़े खोल का निर्माण करने और खतरे की आशंका मात्र से खोल में छुप जाने की इस घोंघा प्रवृत्ति को व्यंग्य की धार बनाने का उपयोग साहित्य में अनेक लोगों ने किया, लेकिन घोंघे की चाल की विशिष्ठता का उपयोग बिरले ही देखा गया है। विभिन्न प्रजाति के स्थलीय घोंघों की चाल नापे जाने पर प्राप्त परिणामों के अनुसार उन की न्यूनतम चाल 0.0028 मील प्रतिसैकंड और अधिकतम चाल 0.013 मील प्रति सैंकंड है। इस अधिकतम चाल से कोई भी घोंघा एक घंटे में 21 मीटर से अधिक दूरी नहीं चल सकता। पिछली सदी के महान भारतीय व्यंग्य चित्रकार केशव शंकर पिल्लई ने घोंघे की चाल का अपने व्यंग्य चित्र में जिस तरह से उपयोग किया उस का कोई सानी नहीं है। इस व्यंग्य चित्र में भारतीय राजनीति की दो महान हस्तियाँ सम्मिलित थीं। इस व्यंग्य चित्र को सामाजिक विज्ञान की पाठ्य पुस्तक में सम्मिलित किए जाने को कुछ लोगों ने प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और उसे पुस्तक से हटाने की मांग को ले कर संसद में हंगामा खड़ा किया। सरकार इस विवाद के सामने बेदम नजर आई। विभागीय मंत्री जी को खेद व्यक्त करते हुए उस व्यंग्य चित्र को पाठ्यपुस्तक से हटाने की घोषणा करनी पड़ी।


केशव शंकर पिल्लई द्वारा रचित व्यंग्य चित्र
भारतीय संसद नित नए प्रहसनों के लिए पहले ही कम ख्यात नहीं है। इस नए प्रहसन ने संसद की छवि में चार चांद और लगा दिए। इस व्यंग्य चित्र में घोंघे को निर्मित होते हुए संविधान के रूप में दिखाया गया है। संविधान के इस घोंघे पर संविधान सभा के सभापति डा. भीमराव अम्बेडकर सवार हैं और चाबुक चला रहे हैं, जिस से घोंघा दौड़ने लगे और शीघ्रता से अपनी मंजिल तय कर सके। घोंघे की इस चाल से तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी प्रसन्न नहीं हैं और वे भी चाबुक ले कर घोंघे पर पिले पड़े हैं। सारे भारत की जनता इन दोनों महान नेताओं की इस चाबुकमार पर हँस रही है। इस व्यंग्य चित्र से प्रदर्शित हो रहा है कि दोनों महान नेताओं को संविधान का निर्माण संपन्न होने की इतनी व्यग्रता है कि वे यह भी विस्मृत कर गए कि यह जल्दी का काम नहीं अपितु तसल्ली और गंभीरता से करने का काम है, जिस के महत्व से देश की पढ़-अपढ़ जनता तक परिचित है।  इसीलिए संविधान को इस व्यंग्य-चित्र में घोंघे के रूप में दिखाया गया है। चाहे कितने ही चाबुक बरसाए जाएँ घोंघा तो अपनी चाल से ही चलेगा, उसे दौड़ाया नहीं जा सकता। ऐसे में घोंघे को चाबुक मार कर दौड़ाने का प्रयत्न तो एक मूर्खतापूर्ण कृत्य ही कहा जा सकता है। वास्तव में कोई ऐसा करे और उसे देखने वाला उस पर हँसे न तो क्या करे? इस व्यंग्य चित्र में दोनों महान नेताओं के इस कृत्य पर जनता का हँसना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में सामने आया है।

स व्यंग्य चित्र से न तो डाक्टर भीमराव अंबेडकर की प्रतिष्ठा को कोई आँच पहुँचती है और न ही नेहरू के सम्मान पर। हाँ उन की स्वाभाविक व्यग्रता जनता के सामने हँसी का कारण अवश्य बनती है। यह व्यंग्य चित्र दोनों नेताओं की व्यग्रता को जनता के प्रति उन की प्रतिबद्धता और कर्तव्यनिष्ठता के रूप में प्रदर्शित करता है। मुझे तो लगता है कि यदि किसी पाठ्य पुस्तक में व्यंग्य चित्रों के माध्यम से तत्कालीन राजनीति को समझाने की कोशिश की जाए तो इस व्यंग्य चित्र को अवश्य ही उस में शामिल होना चाहिए। पाठ्यपुस्तक निर्माताओं ने भी यही किया भी था। गाँव का एक अत्यन्त साधारण व्यक्ति और किसी महान देश का राष्ट्रपति यदि कर्तव्यबोध से ग्रस्त हो कर अनजाने में कोई मूर्खता कर बैठे। तो पता लगने पर वह उस पर स्वयं भी ठठा कर हँस सकता है। प्रसिद्ध लेखक और कम्युनिस्ट नेता ई.एम.एस. नम्बूद्रीपाद जो बोलने में हकलाते थे से एक दिन जवाहरलाल नेहरू ने पूछा था -क्या आप हमेशा हकलाते हैं। तब नम्बूद्रीपाद ने उत्तर दिया था -नहीं केवल बोलते समय हकलाता हूँ। जवाहरलाल नेहरू अपने मूर्खतापूर्ण प्रश्न पर स्वयं ही ठहाका लगा कर हँसे थे। 
व्यंग्य चित्र प्रसिद्ध व्यंग्यकार 'इरफान' के सौजन्य से
संसद में जब यह प्रश्न उठा तो सरकार को उस का सामना करना चाहिए था और उस मुद्दे पर हंगामा नहीं बहस होनी चाहिए थी। सदन में उपस्थित विद्वान सांसदों को इस मामले की विवेचना को सदन के समक्ष रखना चाहिए था। यदि फिर भी संतुष्टि नहीं होती तो इस मामले को साहित्य और कला के मर्मज्ञों की एक समिति बना कर उस के हवाले करना चाहिए था और उस की समालोचना की प्रतीक्षा करनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। डा. भीमराव अम्बेडकर को भगवान का दर्जा दे कर अपनी राजनीति भाँजने वाले लोगों का खुद डा. अम्बेडकर से क्या लेना देना? उन का मकसद तो संसद में हंगामे की तलवारें भांज कर वीर कहाना मात्र था। सरकारी पक्ष ने बाँकों के इस प्रहसन को एक गंभीर चुनौती के रूप में स्वीकार करने के स्थान पर उसे अपनी गलती के रूप में स्वीकार करते हुए सीधे सीधे आत्मसमर्पण कर दिया। जैसे जूता मंदिर में प्रवेश नहीं पा सकता, वैसे ही व्यंग्य चित्र का पाठ्य पुस्तक में क्या काम? मंदिर में जूते के प्रवेश नही पा सकने से उस का महत्व कम नहीं हो जाता। अपितु जो व्यक्ति जूते को बाहर छोड़ कर जाता है उसका ध्यान भगवान की प्रार्थना में कम और जूते में अधिक रहता है।

पहले भी कम नहीं थे, घर में घोंघा बसन्त।
फिर फिर चुने जाते हैं, घर में घोंघा बसन्त।।
चाबुक जिस के हाथ है, वह भी घोंघा बसन्त।  

डर के जो हाँ भर रहा, वह भी घोंघा बसन्त।।

गुरुवार, 10 मई 2012

न्याय की भ्रूण हत्या

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने आमिर खान का टीवी शो ‘सत्यमेव जयते’ पहले ही एपीसोड से हिट हो जाने के बाद आमिर से मिलने की आतुरता प्रदर्शित की। आमिर इसी शो में पहले ही कह चुके थे कि वे राजस्थान सरकार को चिट्ठी लिखेंगे कि कन्या भ्रूण हत्या के अपराधिक मामलों की सुनवाई के लिए राजस्थान में एक विशेष न्यायालय स्थापित करें, जिस से उन का निर्णय शीघ्र हो सके और गवाहों को अधिक परेशानी न हो। राजस्थान सरकार के एक अधिकारी ने यह भी कहा कि सरकार ने इस तरह के मामलों के लिए विशेष न्यायालय की स्थापना के लिए विचार किया है और जल्दी ही यह अदालत आरंभ की जा सकती है। कल शाम अभिनेता आमिर खान अशोक गहलोत से मिलने जयपुर पहुँचे और बाद में संयुक्त रूप से प्रेस से मिले गहलोत ने कहा कि वे ‘भ्रूण हत्या’ के मामलों के लिए विशेष न्यायालय खोलने की व्यवस्था कर रहे हैं इस के लिए उन्हों ने उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को लिखा है।



निस्सन्देह राजस्थान सरकार ने इस मामले में त्वरित गति से अपनी रुचि दिखा कर अच्छा काम किया है। जब एक टीवी शो देश की हिन्दी भाषी जनता को पहली ही प्रस्तुति में भा गया हो तब उस से मिली प्रशंसा को भुनाना राजनीतिक चतुराई का अव्वल नमूना ही होगा। वैसे भी इस विशेष न्यायालय की स्थापना से व्यवस्था के किसी अंग को कोई चोट नहीं पहुँचने वाली है। बस कुछ चिकित्सकों की आसान कमाई रुक जाएगी, हो सकता है कुछ चिकित्सकों और उन के सहायकों को दंडित किया जा सके तथा पुरुष संतान चाहने वाले कुछ लोग कुछ परेशान हों जाएँ। लेकिन इस से किसी बड़े थैलीशाह के मुनाफे या राजनीतिज्ञ के राजनीति पर कोई असर नहीं होने वाला है। गहलोत सरकार को इस कदम से वाहवाही ही मिलनी है। स्वयं को राजस्थान का गांधी कहाने वाले इस राजनेता की न्यायप्रियता का डंका भी पीटा जा सकता है।  

लेकिन क्या गहलोत वास्तव में इतने ही न्याय प्रिय हैं? क्या उन के राजस्थान में जरूरत के माफिक अदालतें हैं? और क्या वे ठीक से काम कर रही हैं? राजस्थान में 2001 में जब गहलोत मुख्यमंत्री थे तब उन की सरकार ने राजस्थान किराया नियंत्रण अधिनियम 2001 पारित कराया था। उन के इस कदम को एक प्रगतिशील कदम कहा गया था। इस के द्वारा पुराने किराया नियंत्रण कानून को समाप्त कर दिया गया था जिस के अंतर्गत कोई भी राहत प्राप्त करने के लिए दीवानी दावा करना पड़ता था। इस अधिनियम के द्वारा किराया अधिकरण और अपील किराया अधिकरणों की स्थापना की व्यवस्था की गयी थी। जब इस अधिनियम को लागू करने और इन अधिकरणों को की स्थापना करने की स्थिति आई तो राजस्थान उच्च न्यायालय ने उस के लिए भवन, साधन और पदों के सृजन की आवश्यकता बताई। जिस पर राजस्थान सरकार ने तुरंत असमर्थता व्यक्त की और राजस्थान सरकार के इस वायदे पर कि वह शीघ्र ही इन अधिकरणों के लिए भवनों, साधनों और पदों की व्यवस्था करेगी, लेकिन अभी तात्कालिक आवश्यकता के अधीन उस का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाए। राजस्थान उच्च न्यायालय ने सरकार की बात मानते हुए कुछ वरिष्ठ खंड के अपर सिविल न्यायाधीश एवं अपर मुख्य न्यायाधीशों के न्यायालयों को जो कि पहले से अपराधिक और दीवानी मुकदमों की सुनवाई भी कर रहे थे किराया अधिकरणों की तथा जिला न्यायाधीशों को अपील किराया अधिकरणों की शक्तियाँ प्रदान कर दीं। इस उहापोह में किराया नियंत्रण कानून-2001 को 1 अप्रेल 2003 को ही लागू किया जा सका। उस के बाद आज नौ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं राजस्थान में किराया नियंत्रण अधिनियम के अंतर्गत स्वतंत्र रूप से एक भी अधिकरण या अपील अधिकरण स्थापित नहीं किया जा सका है।
राजस्थान में परिवार न्यायालय स्थापित हैं, लेकिन कुछ ही जिलों में। वहाँ भी मुकदमों की इतनी भरमार है कि एक वैवाहिक विवाद के निपटारे में चार-पाँच वर्ष लगना स्वाभाविक है वह भी तब जब कि इन न्यायालयों में वकीलों द्वारा पैरवी पर पाबंदी है। न्यायाधीश अपने हिसाब से न्यायालय चलाते हैं। अपने हिसाब से गवाहियाँ दर्ज करते हैं। न्यायार्थी गवाहों की प्रतिपरीक्षा करने में असमर्थ रहता है तो जज खुद दो चार प्रश्न पूछ कर इति श्री कर देते हैं। सचाई सामने खुल कर नहीं आती और इसी तरह के बनावटी सबूतों के आधार पर निर्णय पारित होते हैं। इन मुकदमों के निपटारे में लगने वाली देरी से अनेक दंपतियों की गृहस्थियाँ सदैव के लिए कुरबान हो जाती हैं। अनेक लोग जो शीघ्र तलाक मिलने पर अपनी नई गृहस्थी बसा सकते थे। मुकदमों के निर्णय होने की प्रतीक्षा में बूढ़े हो जाते हैं। इस का एक नतीजा यह भी हो रहा है कि वैवाहिक विवादों से ग्रस्त अनेक पुरुष चोरी छिपे इस तरह के विवाह कर लेते हैं जो अपराध हैं लेकिन जिन्हे साबित नहीं किया जा सकता। इस तरह पारिवारिक न्यायालयों की कमी एक ओर तो वैवाहिक अपराधों के लिए प्रेरणा बन रही है, दूसरी ओर परित्यक्ता स्त्रियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है।  

राजस्थान के प्रत्येक जिले में जिला उपभोक्ता अदालतें स्थापित है, जिन में एक न्यायाधीश के साथ दो सदस्य बैठते हैं। अक्सर इन दो सदस्यों की नियुक्ति राजनैतिक आधार पर की जाती है। न्यायाधीश के पद पर अक्सर किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को पाँच वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता है। लेकिन न्यायपालिका के अपने कार्यकाल में थके हुए ये न्यायाधीश उपभोक्ता न्यायालय के अपने कार्यकाल में सुस्त पड़ जाते हैं और इस पद को अपना विशेषाधिकार समझ कर केवल अधिकारों का उपभोग करते हैं। अनेक स्थानों पर न्यायाधीश नियुक्त ही नहीं हैं वहाँ सदस्य और न्यायालय के कर्मचारी बिना कोई काम किए वेतन उठाते रहते हैं। यदि किसी न्यायालय में सदस्यों की नियुक्ति नहीं हो पाती है जो कि राजनैतिक कारणों से विलम्बित होती रहती है तो जज सहित न्यायालय के सभी कर्मचारी सरकारी वेतन पर पिकनिक मनाते रहते हैं और अदालत मुकदमों से लबालब हो जाती है। इन न्यायालयों में सेवा निवृत्त न्यायाधीशों के स्थान पर जिला न्यायालयों के वरिष्ठ वकीलों को भी नियुक्त किया जा सकता है और न्यायालय को सुचारु रूप से चलाया जा सकता है, लेकिन राजनीति उस में अड़चन बनी हुई है।

राजस्थान के हर जिले में कर्मचारी क्षतिपूर्ति आयुक्त, वेतन भुगतान अधिनियम, न्यूनतम वेतन अधिनियम, ग्रेच्युटी अधिनियम आदि के अंतर्गत एक एक न्यायालय स्थापित है जिस में राजस्थान के श्रम विभाग के श्रम कल्याण अधिकारियों या उस से उच्च पद के अधिकारियों को पीठासीन अधिकारी नियुक्त किया जाता है। लेकिन सरकार के पास इतने सक्षम श्रम कल्याण अधिकारी ही नहीं है कि आधे न्यायालयों में भी उन की नियुक्ति की जा सके। जिस के कारण एक एक अधिकारी को दो या तीन न्यायालयों और कार्यालयों का काम देखना पड़ता है। वे एक जिला मुख्यालय से दूसरे जिला मुख्यालय तक सप्ताह में दो-तीन बार सफर करते हैं और अपना यात्रा भत्ता बनाते हैं। न्यायालय और कार्यालय सप्ताह में एक या दो दिन खुलते हैं बाकी दिन उन में ताले लटके नजर आते हैं क्यों कि कई कार्यालयों में लिपिक और चपरासी भी नहीं हैं जो कार्यालयों को नित्य खोल सकें। जो हैं, उन्हें भी अपने अधिकारी की तरह ही इधर से उधर की यात्रा करनी पड़ती है।

राजस्थान के श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों का हाल इस से भी बुरा है। पुराने स्थापित श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों मे जो कर्मचारी नियुक्त किए गए थे वे रिटायर होते गए। नई नियुक्तियों के लिए वित्त विभाग स्वीकृति प्रदान नहीं करता। इस से सब न्यायालयों में स्टाफ की कमी होती गई। अनेक न्यायालयों में आधे भी कर्मचारी नहीं हैं। कंप्यूटरों और ऑनलाइन न्यायालयों के इस युग में राजस्थान के अनेक श्रम न्यायालयों में अभी भी तीस तीस साल पुराने टाइपराइटरों  को बार बार दुरुस्त करवा कर काम चलाया जा रहा है हालाँकि उन के मैकेनिक तक मिलना कठिन हो चला है। कुछ जिला और संभाग मुख्यालयों में नए श्रम न्यायालय और औद्योगिक न्यायाधिकरण स्थापित किए गए हैं वहाँ तीन-चार सौ मुकदमे निपटाने के लिए एक न्यायाधीश और पूरा स्टाफ नियुक्त है तो पुराने न्यायालयों में पाँच-पाँच हजार मुकदमे लंबित हैं और स्टाफ जरूरत का आधा भी नहीं है।  श्रमिकों के मुकदमों के निपटारे में बीस से तीस साल तक लग रहे हैं जिस से मुकदमे का निर्णय होने के पहले ही अधिकांश श्रमिकों की मृत्यु हो जाती है। कुछ स्थानों पर एक के स्थान पर तीन तीन न्यायालयों की आवश्यकता है लेकिन उस ओर ध्यान नहीं दिया जाता है और जहाँ जरूरत नहीं है वहाँ राजनैतिक तुष्टिकरण के आधार पर न्यायालय स्थापित कर दिये गए हैं। इन न्यायालयों में जहाँ समझदार जजों की नियुक्ति की आवश्यकता है वहाँ अक्षम और श्रम कानून से अनभिज्ञ न्यायाधीशों की नियुक्ति की जा रही है जिस का परिणाम यह हो रहा है कि हर मामले में निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में रिट की जा रही है जिस से उच्च् न्यायालय का बोझ भी लगातार बढ़ रहा है। इस मामले में मामूली प्रबंधन की आवश्यकता है। लेकिन राजस्थान सरकार के लिए शायद कर्मचारियों के मामले उद्योगपतियों और सरकारी विभागों से अधिक महत्ता नहीं रखते। जनता समझती भी है कि श्रम विभाग और श्रम न्यायालयों को राजस्थान सरकार कचरे का डब्बा समझती है। शायद अशोक गहलोत भूल गए हैं कि राजस्थान के कर्मचारी ही एक बार उन्हें कचरे के डब्बे की यात्रा करवा चुके हैं।


हो सकता है स्वयं को राजस्थान का गांधी कहलाने वाले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की घोषणा के अनुरूप भ्रूण हत्या के अपराधिक मामलों के लिए विशेष अदालत कुछ सप्ताह में काम करना आरंभ कर दे और न्याय प्रिय कहलाए जाएँ लगें। लेकिन जहाँ रोज न्याय की भ्रूण हत्या हो रही हो वहाँ राजस्थान की जनता के लिए यह महज एक और चुटकुला होगा यदि वे राज्य सरकार द्वारा संचालित दूसरे न्यायालयों की दशा सुधारने के लिए कुछ नहीं करते।

शनिवार, 5 मई 2012

बोलने की हदें?


नतंत्र है तो वाक स्वातंत्र्य भी। सब को अपनी बात कहने का अधिकार भी है। अब सरकार अभिनेत्री रेखा और क्रिकेटर सचिन को राज्यसभा के लिए मनोनीत करने की सिफारिश राष्ट्रपति से करे, सिफारिश मानने को बाध्य राष्ट्रपति उस पर मुहर लगा दें, अधिसूचना भी जारी कर दी जाए और देश उसे चुपचाप स्वीकार कर ले तो सिद्ध हो जाएगा कि देश मे जनतंत्र नहीं है। जनतंत्र का होना सिद्ध होता रहे इसलिए यह जरूरी है कि सरकार के हर कदम की आलोचना की जाए, सरकारी पार्टी की आलोचना की जाए और मनोनीत व्यक्तियों की आलोचना की जाए।

यूँ तो देश में जनतंत्र होना सिद्ध करने की जिम्मेदारी विपक्षी पार्टियों की है। सरकारी पार्टी की पिछली पारी में मैदान के बाहर से समर्थन देने वाली सब से बड़ी वामपंथी पार्टी ने इस काम की आलोचना नहीं की सिर्फ इतना भर कहा कि सचिन के पहले गांगुली को यह सम्मान मिलना चाहिए था, इस तरह उन्हों ने साबित किया कि  फिलहाल अखिल भारतीय पार्टी बनने का सपना देखना उन के ऐजेंडे पर नहीं है, वे अभी अपने दक्षिणपंथी विचलन को त्यागने पर भी कोई विचार नहीं कर रहे हैं, अभी उन का इरादा केवल और केवल अपनी क्षेत्रीय पार्टी की इमेज की रक्षा करने में जुटे रहना है। अभी-अभी रुस्तम-ए-लखनऊ का खिताब जीतने वाली पार्टी ने भी इस की आलोचना करने के बजाए प्रशंसा करना बेहतर समझा और सिद्ध किया कि वह अपनी नवअर्जित छवि को केंद्रीय सत्ता में हिस्सेदारी हासिल करने के लिए भुनाना चाहती है। पूर्व रुस्तम-ए-लखनऊ की कुर्सी छिन जाने और अभी अभी राज्य सभा में कुर्सी कबाड़ लेने वाली बहन जी ने जनतंत्र की रक्षा करने के स्थान पर सस्पेंस खड़ा करने की कोशिश करते हुए बयान किया कि वे जानती हैं कि इन लोगों को राज्य सभा में लाने के पीछे सरकारी पार्टी की मंशा क्या है।

राठा सरदार की पार्टी ने सरकार के इस कदम की आलोचना की तो लगा कि कोई तो जनतंत्र को बचाने के लिए सामने आया। पर वे भी इतना ही कह कर रह गए कि सरकारी पार्टी ध्यान बांटने का काम कर रही है, उस का मन कभी पवित्र नहीं रहा, वह हमेशा कोई न कोई लाभ उठाने के चक्कर में रहती है। इस बार वह सचिन की लोकप्रियता को भुनाना चाहती है। इस बयान से भी जनतंत्र को कोई लाभ नहीं हुआ उन्हें जनतंत्र बचाने से अधिक इस बात का अफसोस था कि एक महाराष्ट्रियन का लाभ कांग्रेस कैसे उठा ले जा रही है।  सबसे बड़ा आश्चर्य तो तब हुआ जब जनतंत्र साबित करने की जिम्मेदारी केवल अपने कंधों पर उठाने का दावा करने वाली सब से बड़ी विपक्षी पार्टी ने भी आलोचना करने के स्थान पर सरकार के इस कदम की प्रशंसा कर दी। करती भी क्या। उस के पूर्व अध्यक्ष पर चल रहे रिश्वत लेने के मुकदमे का फैसला आने वाला था और वह इस मामले में इतनी सी रियायत चाहती थी कि सरकारी पार्टी उस की आलोचना न करे।  

ब सब ओर से जनतंत्र खतरे में दिखाई दिया तो ऐसे दुष्काल में विदेश से कालाधन वापस लाने की जिद पर अड़े बाबा काम आए, उन्हों ने जम कर सरकार की आलोचना की।  सरकारी पार्टी डूबता जहाज है, वह जहाज को डूबने से बचाने के लिए सचिन-रेखा का इस्तेमाल करना चाहता है। लेकिन यह प्रयोग भी उसे नहीं बचा पाएगा। बल्कि डूबते जहाज में बिठा कर वह इन दोनों की साख को भी डुबा देगा। महत्वपूर्ण प्रश्न तो यह है कि ये दोनों जब राज्यसभा में जाएंगे तो वहाँ काले धन के मामले पर क्या बोलेंगे।

बाबा ने जनतंत्र की प्राण रक्षा की।  लेकिन उन की खुद की सुरक्षा इस से खतरे में पड़ गई है। पिछले कुछ बरसों से उनका झंडा उठाए उठाए घूमने वाली सब से बड़ी विपक्षी पार्टी बाबा से घोर नाराज हो गई। उस ने चेतावनी दे डाली कि बाबा को उन की हद में रहना चाहिए। जनतंत्र सोच में पड़ गया है कि आखिर बाबा की हदें कब, कहाँ, क्यों और कैसे तय की गई थीं? और तय की गई थीं तो अब तक मीडिया वालों को उन की हदों का पता क्यों नहीं लगा? यदि किसी को लग भी गया था तो जनता को क्यों नहीं बताया गया?

रविवार, 29 अप्रैल 2012

शामियाना सुधार अभियान

वित्त मंत्री वाशिंगटन गए। वहाँ जा कर बताया कि प्रधानमंत्री बहुत मजबूत हैं। वे आर्थिक सुधार करने के लिए कटिबद्ध हैं (चाहे कुछ भी क्यों न हो)। उन्हों ने यह भी कहा कि फिलहाल अगले चुनाव में एक पार्टी की सरकार बनने की कोई संभावना नहीं है, फिर भी आर्थिक सुधारों की नैया को केवल अकेले प्रधानमंत्री के भरोसे छोड़ा जा सकता है। वित्त मंत्री के बयान का मतलब इधर दिल्ली में निकाला गया कि सरकार के स्तर पर सब कुछ बेहतरीन है, इस मोर्चे पर किसी और की कोई जरूरत नहीं, गाहे बगाहे हलचल हो भी तो टेका लगाने को वित्त मंत्री मौजूद हैं। कोई संकट है तो पार्टी में। उसे खुद की बे-बैसाखीदार सरकार बनानी है। उस के लिए सेनानियों की जरूरत होगी। अब सब से महत्वपूर्ण काम यही है कि पार्टी को मजबूत करो। यह भी महत्वपूर्ण है कि ऐसा दिखाया जाए कि इस दिशा में काम किया जा रहा है। खबर है कि तत्काल अग्रिम पंक्ति के सेनानियों ने पार्टी प्रधान को पत्र लिख कर सूचना दे दी कि वे पार्टी के लिए सरकार में अपने पद की बलि देने को तैयार हैं। बलि के बकरे देवी के मंदिर खुद ही पहुँचने लगे जैसे अगली सरकार में मंत्री पद के बीमे की किस्त जमा कराने आए हों।

प्रधानमंत्री जब भी या कहते या किसी और के श्रीमुख से कहलवाते हैं कि वे आर्थिक सुधारों के प्रति कटिबद्ध हैं, जनता की सांस उखड़ने लगती है। उधर कटिबद्धता का ऐलान होता है कि इधर डीजल मुक्त होने को छटपटाने लगता। जनता डिप्रेशन में आ जाती है। पेट्रोलियम मंत्री को तुरंत बयान देना पड़ता है कि रसोई गैस की सबसिडी वापस नहीं ली जाएगी। जनता को वेंटीलेटर मिल जाता है। वह गैस सिलेण्डर से साँस लेने लगती है। जान बची लाखों पाए। बची हुई जान सिलेण्डर में अटकी रहती है। अस्पताल में कोई वीवीआईपी भर्ती होने न आ जाए वरना सिलेंडर इधर से निकाल कर उधर लगा लगा दिया जाएगा। जान पर फिर बन आएगी।

... मैं सपना देख रहा हूँ। युद्ध स्तर पर पार्टी का शामियाना मजबूत करने के प्रयास चल पड़े हैं। जिस से वह आंधी या बवण्डर आने पर उस का मुकाबला कर पाए। सेनानी शामियाने का निरीक्षण कर रहे हैं। कई छेद दिखाई दे रहे हैं, छोटे-छोटे बड़े-बडे। उनमें पैबंद लगाने की जरूरत है। अनेक पैबंद पहले से लगे हैं, उन में से कई उधड़ गए हैं। बहस चल पड़ी है कि जो पैबंद पहले से उधड़े पड़े हैं उन्हें ठीक किया जाए या फिर नए छेदों में पैबंद लगाए जाएँ? बहस हो रही है। थर्मामीटर में पारा ऊपर की ओर चढ़ रहा है। सब लोग आपस में उलझने लगे हैं। कुछ सुनाई नहीं दे रहा है। इस बीच कुछ लोग बहस से अलग हो कर फुसफुसाते हैं –बहस से कुछ नहीं होगा, जल्दी से उधड़े हुए पैबंद सियो। पता नहीं कब आंधी चल पड़े। कुछ लोग सुई धागे ले कर उधड़े हुए पैबंद सीने को पिल पड़े हैं, कुछ लोग नये पैबंदों के लिए कपड़े का इन्तजाम करने दौड़ पड़े हैं। पैबंद सीने के लिए सुई घुसाई जाती है, दूसरी ओर से पकड़ कर खींची जाती है। खींचते ही शामियाने की तरफ से धागा कपड़े को चीर देता है। सुई धागे के साथ पैबंद हाथ में रह जाता है, शामियाना छूट जाता है। सीने वालों में से कोई कह रहा है पैबंद लगाना मुश्किल है। शामियाना सुई को तलवार समझ रहा है, शामियाना बदलना पड़ेगा। दूसरों ने तत्काल उस के मुहँ पर हाथ रख कर उसे बंद कर दिया। आवाज वहीं घुट कर रह गई। -शगुन के मौके पर अपशगुनी बात करता है। लोग उसका मुहँ दबाए उसे लाद कर मंच से बाहर ले जाते हैं और सीन से गायब हो जाते हैं।


ह गायब हो गया, पर उस के मुहँ से निकली हुई बात मंच पर रह गई। बात हवा में तैरते हुए हाईकमान के बंद कमरे के रोशनदान से अंदर प्रवेश कर गई। उसे सुन कर वहाँ मीटिंग करते लोग चौंक पड़े। ये खतरनाक बात कहाँ से आई? शामियाना किसी हालत में नहीं बदला जा सकता। सारी साख तो उसी में है। साख चली गई तो सब कुछ मटियामेट, कुछ नहीं बचेगा। नया शामियाना नहीं लगाया जा सकता। लोग उस में बैठने को आएंगे ही नहीं। तब फिर क्या किया जाए? कुछ बोले - पैबंद लगाने से काम चल जाएगा। कुछ ने कहा -कोई और उपाय करना पड़ेगा। एक सलाह आई -शामियाने का ऊपरी कपड़ा वही रहने दिया जाए, अंदर का अस्तर बदल दिया जाए। अस्तर बदलने से पैबंद भी टिकने लगेंगे। कोई कह रहा है -यह उपाय पुराना है, पहले भी कई बार आजमाया जा चुका है। लेकिन और कोई नया उपाय किसी को नहीं सूझ रहा है। सब एकमत हो गए हैं कि अंदर का अस्तर बदल दिया जाए, साथ ही बाहरी सतह पर अच्छी किस्म का लेमीनेशन करा लिया जाए। बात बहस करने वालों के भेजे में फौरन घुस गई, फैसला हुआ। लेमीनेशन कराया जाएगा। फिर नई बहस शुरू हो गई। लेमिनेशन किस से कराया जाए? राष्ट्रीय कंपनी को इस काम में लगाया जाए या फिर किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को इस का आर्डर दिया जाए? मामले में सहमति नहीं बन पा रही है। मुद्दे पर गंभीरता से विचार हो रहा है कि राष्ट्रीय कंपनी को इस काम में लगाने पर कहीं संदेश यह तो नहीं जाएगा कि पार्टी आर्थिक सुधारों से पीछे हट रही है? उधर यह तर्क भी दिया जा रहा है कि बहुराष्ट्रीय कंपनी को आर्डर दिया तो शामियाने की राष्ट्रीय छवि नष्ट हो जाएगी। विपक्षियों को दुष्प्रचार का मौका घर बैठे मिल जाएगा। ... मेरी नीन्द खुल गई। देखा बिजली चली गई है, पंखा कूलर बंद है, मैं पसीने में नहाया हुआ हूँ।

बुधवार, 25 अप्रैल 2012

सैक्स-सीडी और जनता-इश्क

सेक्स (करना) सभी एकलिंगी जीवधारियों का स्वाभाविक कृत्य है और बच्चों की पैदाइश सेक्स का स्वाभाविक परिणाम। जब भी स्वाभाविक परिणाम को रोकने की कोशिश की जाती है तो अस्वाभाविक परिणाम सामने आने लगते हैं। बच्चों की पैदाइश रोकी जाती है तो सीडी पैदा हो जाती हैं। बच्चों को पैदा होते ही माँ की गोद मिलती है। लेकिन जब सीडी पैदा होती है तो उसे सीधे किसी अखबार या वेब पोर्टल का दफ्तर मिलता है। अदालत की शरण जा कर उसे रुकवाओ तो वह यू-ट्यूब पर नजर आने लगती है, वहाँ रोको तो फेसबुक पर और वहाँ भी रोको तो उस की टोरेंट फाइल बन जाती है। आराम से डाउनलोड हो कर सीधे कंप्यूटरों में उतर जाती है। रिसर्च का नतीजा ये निकला कि सेक्स के परिणाम को रोकने का कोई तरीका नहीं, वह अवश्यंभावी है। 

रिणाम जब अवश्यंभावी हो तो उसे रोकने की कोशिश करना बेकार है। उस से मुँह छुपाना तक बेकार है। एक सज्जन ने परिणाम रोकने की कोशिश नहीं की बच्चे को दुनिया में आने दिया। पर उस से मुहँ छुपा गए। बच्चा बालिग हुआ तो अपनी पहचान बनाने को अदालत जा पहुँचा। वहाँ भी सज्जन मुहँ छुपा गए तो अदालत ने डीएनए टेस्ट करने का आर्डर जारी कर दिया। उस के लिए मना किया तो अदालत ने फैसला दे दिया कि बच्चे की बात सही है। पुरानी पीढ़ी के इस अनुभव से नए लोगों को सीख लेनी चाहिए। वे बच्चे न चाहते हों तो कोई बात नहीं, पर उन्हें आने वाले परिणामों से बचने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। बचने के परिणाम गंभीर होते हैं।

रकार भले ही एकवचन हो पर इस का आचरण बहुवचनी होता है। वह एक साथ अनेक के साथ सेक्स कर सकती है। वह एक और तो वित्तीय सुधार करते हुए वर्ड बैंक, आईएमएफ और मल्टीनेशनल्स के साथ सेक्स कर सकती है, दूसरी ओर शहरी और ग्रामीण विकास योजनाएँ चला कर जनता के साथ इश्क फरमा सकती है। समस्या तो तब खड़ी होती है जब जनता के साथ इश्क फरमाने से वर्डबैंक, आईएमएफ और मल्टीनेशनल्स नाराज हो जाते हैं। उधर उन के साथ सेक्स करने की खबर से जनता नाराज हो जाती है।

 
 जब वर्ड बैंक वगैरा वगैरा नाराज होते हैं तो सरकार को उन्हें मनाने के लिए आर्थिक सलाहकार भेजना पड़ता है। वहाँ जा कर वह समझाता है कि जनता के साथ इश्क फरमाना सरकार की मजबूरी है, आम चुनाव सर पर हैं, जनता के साथ इश्क का नाटक न किया तो सरकार सरकार ही नहीं रहेगी, फिर आप किस के साथ सेक्स करेंगे? आप तो जानते ही हैं कि हम सब से कम बदबूदार सरकार हैं। कोई और सरकार हो गया तो बदबू के कारण उस के पास तक जाना दूभर होगा, सेक्स तो क्या खाक कर पाएंगे? आप सवाल न करें, हमारा साथ दें। इस बार बिना रिश्तेदारों की सरकार बनाने में हमारी मदद करें तो सेक्स में ज्यादा आनंद आएगा।

धर मान मनौवल चल ही रही थी कि सीडी बन कर देस पहुँच गई। सरकार को घेर लिया गया। आर्थिक विकास की गाड़ी गड्ढे में क्यों फँसी पड़ी है? क्या जनता के साथ सरकार का इश्क झूठा नहीं है? सरकार इश्क में धोखा कर रही है। इश्क जनता से, और सेक्स परदेसी से? इधर सरकार की भी सीडी बनने लगी। उधर सलाहकार देस लौटा। कहता है उस की परदेस में बनाई गई सीडी नकली है, फर्जी है। असली तो खुद उस के पास है, देख लो। सरकार के पैरों से सिर तक के अंग सफाई देने लगे। जनता के साथ उस का इश्क सच्चा है, वह किसी और के साथ सेक्स करती है तो वो भी जनता के फायदे के लिए। जनता सोच रही है कि ये सरकार इश्क के काबिल रही भी या नहीं? अब इस से नहीं तो इश्क किस से किया जाए?

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

किरपा का धंधा और आत्मविश्वास

र से अदालत तक के नौ किलोमीटर के मार्ग के ठीक बीच में है बाबूलाल की पान की दुकान। मैं  जाते समय रोज वहाँ रुकता हूँ, पान लेने के लिए। जब तक पान बनता है तब तक एक-दो ग्राहक वहाँ ‘विमल’ गुटखा खरीदने आते हैं। उन में अधिकतर बाजार में काम करने वाले मजदूर, दफ्तरों के चपरासी और बाबू आदि हैं। मैं उन में से अनेक से पूछ चुका हूँ –यह ‘विमल’ बनता काहे से है? उन में से हर कोई यह समझता है कि मैं गुटखा के निर्माण की कच्ची सामग्री के बारे में पूछ रहा हूँ। हर कोई थोड़ा सोचता है और फिर बताता है –भाई साहब यह तो पता नहीं कि यह बनता किस से है। मैं उन्हें कुछ और सोचने के लिए कहता हूँ लेकिन फिर भी उन का उत्तर यही रहता है। तब मैं उन्हें कहता हूँ –चलो मैं ही बता देता हूँ कि यह किस से बनता है। वास्तव में ‘विमल’ बनता है ‘मल’ से।

मेरा उत्तर सुनते ही बाबूलाल हर बार एक ठहाका लगा देता है और विमल खरीदने वाला सिटपिटा जाता है। मेरा आशय हर बार ‘विमल’ शब्द से होता है। मैं हर बार उन से कहता हूँ कि विमल की यह व्युत्पत्ति पसंद नहीं आई हो तो इसे छोड़ दो। लाभ ही होगा। कम से कम तंबाकू और उस में मिले हानिकारक रसायनों से अपने शरीर को तो बचा ही लोगे।

ल अदालत जाते हुए मैं बाबूलाल की दुकान पर रुका। तभी एक ग्राहक ने उस से विमल गुटखा का पाउच मांगा। बाबूलाल ने उसे पाउच दिया और वह तुरंत ले कर चल दिया।  उस के जाते ही बाबूलाल ने मुझ से पूछा –भाई साहब¡ आप कहते हैं कि ‘विमल’ मल से बनता है। हाँ कहता हूँ-मैं ने जवाब दिया।
-तब तो ‘निर्मल’ भी मल से ही बनता होगा? बाबूलाल ने तपाक से पूछा।
-हाँ, निर्मल’ भी मल से ही बनता है। मैं ने उत्तर दिया। मैं विचार में पड़ गया कि आखिर बाबूलाल को आज अचानक निर्मल की कैसे याद आई। मैं ने उस से पूछा तो उस ने बताया कि चार-पाँच रोज से निर्मल बाबा की बहुत चर्चा है, तो मुझे लगा कि “जैसे यह विमल मल से बनता है वैसे ही निर्मल भी मल से ही बनता होगा। उस के जवाब से ठहाका लगाने की बारी मेरी थी। मैं ने लगाया भी। लेकिन तुरंत ही बाबूलाल मुझसे एक सवाल और पूछ बैठा।
-भाई साहब¡ जरा इस “कृपा” शब्द की जन्मपत्री भी बता दीजिए। निर्मल बाबा ने जिस की फैक्ट्री खोली हुई है।
अब मैं क्या कहता? फिर भी अपनी समझ से कहना शुरू किया।
भाई मेरे हिसाब से तो कृपा, दया, मेहरबानी वगैरा वगैरा जितने शब्द हैं, उन का वास्तव में कोई अर्थ नहीं होता। हम किसी से पूछते हैं कि क्या हाल हैं? वह तत्काल कहता है। -आप की दया है, या बस आप की कृपा है, या फिर कहता है बस आप की मेहरबानी है। अब न तो हम किसी पर दया करते हैं और न ही कृपा या मेहरबानी। लेकिन फिर भी लोग कहते रहते हैं, सामने वाले का मन रखने को। जिस से लगता है कि वह आप को सम्मान दे रहा है।
-लोग जो आम बोलचाल में इस तरह की बात करते हैं वो तो अलग बात है। पर ये निर्मल बाबा तो अपना दरबार लगाता है, किसी शक्ति की बात करता है,  यह भी कहता है कि उस के पास शक्ति है जो अपनी कृपा बरसाती है। और लोग भी हजारों रुपया दे कर उस के दरबार में जाते हैं। कहते हैं उस के पास एक दिन में करोड़ से अधिक रुपया जमा हो जाता है। ये निर्मल बाबा जिस शक्ति की बात करता है और जिस कृपा की बात करता है वो क्या हैं?
ब तक बाबूलाल की दुकान पर तीन चार ग्राहक और इकट्ठा हो गए थे और इस चर्चा का आनन्द लेने लगे थे। इस बार बाबूलाल ने मुझ से कठिन सवाल कर लिया था और मुझे लगने लगा कि वह मेरा इंटरव्यू कर रहा है। मैं समझ रहा था कि मैं ने उस के सवालों का संतोषजनक उत्तर न दिया तो वह मुझे जरूर फेल कर देगा। चर्चा लंबी होती दिख रही थी और मैं अदालत पहुँचने में लेट हो रहा था। फिर भी कोई न कोई जवाब दे कर चर्चा को विराम तो देना ही था। मैं ने कहना शुरू किया।
भाई, बाबूलाल जी, ये बाबा की शक्ति और कृपा दोनों ही फर्जी हैं। बहुत लोग हैं दुनिया में जिन्हें प्रयत्न करते हुए भी नहीं मिलती और वे हताश और निराश हो जाते हैं, उन्हें प्रयत्न करना निरर्थक लगने लगता है। वे प्रयत्न करना छोड़ देते हैं। लेकिन आखिर सफलता तो प्रयत्न से ही मिलती है। प्रयत्न करना छोड़ देने से तो कुछ नहीं होता। ऐसे समय में आवश्यकता इस बात की होती है कि उन की निराशा और हताशा को दूर कर के उन्हें फिर प्रयत्नशील बना दिया जाए। बस यही बाबा करता है। लोग उस के पास जाते हैं ये यकीन कर के कि बाबा के पास शक्ति है उस की कृपा हो जाए तो उन का काम बन जाएगा।  बाबा उन से कुछ भी करने को कह देता है। जैसे काला पर्स जेब में रखना या फिर किसी धर्मस्थल की यात्रा करना या फिर कोई अन्य ऊटपटांग उपाय बताता है। लोगों को बाबा की बात का विश्वास तो है ही वे वैसा ही करते हैं जैसा बाबा कहता है। इस से उन में आत्मविश्वास पैदा होता है कि अब की बार वह प्रयत्न करेगा तो अवश्य ही उस का काम सफल होगा। वह आत्मविश्वास के साथ पूरी शक्ति लगा कर प्रयत्न करता है। पूरे  आत्मविश्वास के साथ और अपनी पूरी शक्ति के साथ जब कोई काम किया जाता है तो उस का सफल होना स्वाभाविक है। इस तरह शक्ति भी व्यक्ति की स्वयं की होती है और आत्मविश्वास भी उस का खुद का ही होता है। लेकिन व्यक्ति समझता है कि यह सब बाबा की शक्ति कर रही है। उसे वे बाबा की शक्ति की कृपा मान बैठते हैं। जिस दिन लोग यह समझने लगेंगे कि शक्ति उन में स्वयं में है उन्हें आत्मविश्वास भी पैदा होगा और उस दिन कोई ऐसे बाबाओं, ज्योतिषियों, नजूमियों को कोई नहीं पूछेगा।
मेरी बात समाप्त होते ही एक ग्राहक बोल उठा -बात तो सही है। ये लोग हमारी हताशा का लाभ उठाते हैं। तभी मेरे मोबाइल की घंटी बजने लगी। मैं ने कहा –बाबूलाल जी, आज का प्रवचन समाप्त। अब चलते हैं। अदालत से मुवक्किलों की घंटियाँ आने लगी हैं। कोई बात छूट गई हो तो कल फिर इसी वक्त दरबार लगा लेंगे।   

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

दोराहा, निश्चय और समंजस


कोई पैंतीस बरस हुए, बुआ की पुत्री के विवाह में जाते हुए रास्ते में दुर्घटना हुई और पिताजी के दाहिने हाथ की कोहनी में गंभीर चोट लगी। रेडियस अस्थि का हेड अलग हो गया। हड्डी की किरचें मांस में घुस गईं। जिन्हें निकालने के लिए कुछ ही दिनों के अन्तराल से कुछ आपरेशन्स कराने पड़े। हमें जोधपुर में रुकना पड़ा। वहां विवाह में आए हुए अनेक परिजन थे जो विवाह के उपरान्त भी रुके थे। दिन भर क्या करते तो शाम को कहीं न कहीं घूमने निकल पड़ते। एक दिन भूतनाथ जाने की योजना बनी। तीसरे पहर जब सब लोग जाने के लिए घर से बाहर निकले उसी समय मुझे हाजत हुई और मैं यह कह कर फिर से घर में घुस गया। मुझे कहा गया कि वे भी रुकते हैं। लेकिन मैंने उन्हें कहा कि मैं पहुंच जाउंगा, मार्ग किसी न किसी से पूछ लूंगा। कोई दस मिनट बाद मैं घर से बाहर निकला बाजार में गंतव्य की दूरी और मार्ग पूछा तो पता लगा गंतव्य कम से कम चार-पांच किलोमीटर से कम नहीं है। सभी लोग कोई वाहन भाड़े पर लेकर गए हैं। मैंने भी एक साइकिल किराए पर ली और चल पड़ा।

रास्ता पूछते पूछते मैं शहर के बाहर आ गया। वहां पूछा तो किसी ने बताया कि यह जो रास्ता जा रहा है उसी पर चले जाओ भूतनाथ पहुंच जाओगे। मैं उसी पर चल पड़ा। कोई डेढ़ किलोमीटर चलने के बाद रास्ता एक दोराहे में बदल गया। एक रास्ता ऊपर पहाड़ी की ओर जाता था, दूसरा सीधा जाता हुआ नीचे जाता था। मैंने आस पास नजरें दौड़ाईं लेकिन कोई भी न दिखाई दिया जिससे रास्ता पूछा जा सकता। अब मुझे ही निर्णय करना था कि किस मार्ग पर जाना है। भूतनाथ में झील है यह मैंने सुना था। मैंने विचार किया कि झील पहाड़ के ऊपर तो हो नहीं सकती। निश्चय ही नीचे जाने वाला मार्ग ही भूतनाथ जाता होगा। मैंने अपनी साइकिल उसी मार्ग पर बढ़ा दी।

कोई एक किलोमीटर चलने पर डामर की सड़क नीचे की ओर जाने लगी। अचानक सड़क के बीचों बीच जहां डामर हटा हुआ था, मैंने देखा कि वहां करीब आठ फुट का एक झाड़ उगा हुआ था। निश्चय ही वह कम से कम दो वर्ष से तो वहां अवश्य ही रहा होगा। मैं गलत रास्ते पर आ चुका था। वह एक पुराना बंद मार्ग था। बंद न होता तो वहां झाड़ न उगा होता। लेकिन अब वापस दोराहे तक लौटना और फिर दूसरे मार्ग पर जाना मुझे रुचिकर नहीं लग रहा था। मैंने विचार किया कि भले ही वह मार्ग कुछ वर्षों से बंद रहा हो, लेकिन डामर की सड़क है तो कहीं तो जाती होगी। मैं उसी मार्ग पर चलता रहा। कोई एक फर्लांग बाद ही सामने रेलवे लाइन दिखाई दी। मैं समझ गया कि रेलवे लाइन पर पहले यहां फाटक रहा होगा। फाटक बंद हो जाने से ही वह मार्ग बंद हो गया होगा। रेलवे लाइन के ठीक बाद ही उस के समानान्तर एक उच्च मार्ग जा रहा था। मैंने साइकिल को हाथों में उठा कर रेलवे लाइन पार की और उच्च मार्ग पर आ गया। पास ही उच्च मार्ग से एक सड़क निकल रही थी। वहीं एक बोर्ड लगा था- “कायलाना झील- एक कि.मी.”। मैं भूतनाथ नहीं जा सका था लेकिन कायलाना के नजदीक  था। मैं वहीं गया। झील देख कर मन प्रसन्न हो गया। बहुत दिनों से तैरा न था। कपड़े खोल कर मैं झील के शीतल और पारदर्शी जल में उतर गया और बहुत देर तक तैरता रहा। सारी गर्मी और थकान गायब हो गयी। घर पहुंचने पर मुझ से पूछा गया कि मैं कहां रह गया था? भूतनाथ क्यों न पहुंचा? मैं उन्हें सुनाने लगा कि मैं कायलाना झील में तैर कर आ रहा हूं।

मैं दो स्थानों पर असमंजस में था। पहली बार जब दोराहा पड़ा और दूसरी बार तब जब सड़क के बीच झाड़ को उगा पाया। दोनों बार मैंने निश्चय किया कि मुझे क्या करना है। दोनों बार मेरे निश्चय के उपरान्त जो स्थिति उत्पन्न हुई उसे समञ्जस की स्थिति कहा जा सकता है। हमारे जीवन में अनेक बार ऐसे दोराहे आते हैं, असमंजस की स्थिति उत्पन्न होती है। लेकिन वहीं हमें निर्णय करना होता है कि हम क्या करें? वापस लौट चलें या आगे बढ़ें? किसी भी एक मार्ग पर आगे बढ़ने का निर्णय ही समञ्जस उत्पन्न करता है।  ऐसे में हम जहां भी पहुंचें हम स्वयं को आगे बढ़ा हुआ ही पाएंगे, पीछे हटा हुआ नहीं।


संस्कृत में समञ्जस के अर्थ -उचित, तर्कसंगत, ठीक, योग्य, सही, सच, यथार्थ, स्पष्ट, बोधगम्य।