@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: किरपा का धंधा और आत्मविश्वास

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

किरपा का धंधा और आत्मविश्वास

र से अदालत तक के नौ किलोमीटर के मार्ग के ठीक बीच में है बाबूलाल की पान की दुकान। मैं  जाते समय रोज वहाँ रुकता हूँ, पान लेने के लिए। जब तक पान बनता है तब तक एक-दो ग्राहक वहाँ ‘विमल’ गुटखा खरीदने आते हैं। उन में अधिकतर बाजार में काम करने वाले मजदूर, दफ्तरों के चपरासी और बाबू आदि हैं। मैं उन में से अनेक से पूछ चुका हूँ –यह ‘विमल’ बनता काहे से है? उन में से हर कोई यह समझता है कि मैं गुटखा के निर्माण की कच्ची सामग्री के बारे में पूछ रहा हूँ। हर कोई थोड़ा सोचता है और फिर बताता है –भाई साहब यह तो पता नहीं कि यह बनता किस से है। मैं उन्हें कुछ और सोचने के लिए कहता हूँ लेकिन फिर भी उन का उत्तर यही रहता है। तब मैं उन्हें कहता हूँ –चलो मैं ही बता देता हूँ कि यह किस से बनता है। वास्तव में ‘विमल’ बनता है ‘मल’ से।

मेरा उत्तर सुनते ही बाबूलाल हर बार एक ठहाका लगा देता है और विमल खरीदने वाला सिटपिटा जाता है। मेरा आशय हर बार ‘विमल’ शब्द से होता है। मैं हर बार उन से कहता हूँ कि विमल की यह व्युत्पत्ति पसंद नहीं आई हो तो इसे छोड़ दो। लाभ ही होगा। कम से कम तंबाकू और उस में मिले हानिकारक रसायनों से अपने शरीर को तो बचा ही लोगे।

ल अदालत जाते हुए मैं बाबूलाल की दुकान पर रुका। तभी एक ग्राहक ने उस से विमल गुटखा का पाउच मांगा। बाबूलाल ने उसे पाउच दिया और वह तुरंत ले कर चल दिया।  उस के जाते ही बाबूलाल ने मुझ से पूछा –भाई साहब¡ आप कहते हैं कि ‘विमल’ मल से बनता है। हाँ कहता हूँ-मैं ने जवाब दिया।
-तब तो ‘निर्मल’ भी मल से ही बनता होगा? बाबूलाल ने तपाक से पूछा।
-हाँ, निर्मल’ भी मल से ही बनता है। मैं ने उत्तर दिया। मैं विचार में पड़ गया कि आखिर बाबूलाल को आज अचानक निर्मल की कैसे याद आई। मैं ने उस से पूछा तो उस ने बताया कि चार-पाँच रोज से निर्मल बाबा की बहुत चर्चा है, तो मुझे लगा कि “जैसे यह विमल मल से बनता है वैसे ही निर्मल भी मल से ही बनता होगा। उस के जवाब से ठहाका लगाने की बारी मेरी थी। मैं ने लगाया भी। लेकिन तुरंत ही बाबूलाल मुझसे एक सवाल और पूछ बैठा।
-भाई साहब¡ जरा इस “कृपा” शब्द की जन्मपत्री भी बता दीजिए। निर्मल बाबा ने जिस की फैक्ट्री खोली हुई है।
अब मैं क्या कहता? फिर भी अपनी समझ से कहना शुरू किया।
भाई मेरे हिसाब से तो कृपा, दया, मेहरबानी वगैरा वगैरा जितने शब्द हैं, उन का वास्तव में कोई अर्थ नहीं होता। हम किसी से पूछते हैं कि क्या हाल हैं? वह तत्काल कहता है। -आप की दया है, या बस आप की कृपा है, या फिर कहता है बस आप की मेहरबानी है। अब न तो हम किसी पर दया करते हैं और न ही कृपा या मेहरबानी। लेकिन फिर भी लोग कहते रहते हैं, सामने वाले का मन रखने को। जिस से लगता है कि वह आप को सम्मान दे रहा है।
-लोग जो आम बोलचाल में इस तरह की बात करते हैं वो तो अलग बात है। पर ये निर्मल बाबा तो अपना दरबार लगाता है, किसी शक्ति की बात करता है,  यह भी कहता है कि उस के पास शक्ति है जो अपनी कृपा बरसाती है। और लोग भी हजारों रुपया दे कर उस के दरबार में जाते हैं। कहते हैं उस के पास एक दिन में करोड़ से अधिक रुपया जमा हो जाता है। ये निर्मल बाबा जिस शक्ति की बात करता है और जिस कृपा की बात करता है वो क्या हैं?
ब तक बाबूलाल की दुकान पर तीन चार ग्राहक और इकट्ठा हो गए थे और इस चर्चा का आनन्द लेने लगे थे। इस बार बाबूलाल ने मुझ से कठिन सवाल कर लिया था और मुझे लगने लगा कि वह मेरा इंटरव्यू कर रहा है। मैं समझ रहा था कि मैं ने उस के सवालों का संतोषजनक उत्तर न दिया तो वह मुझे जरूर फेल कर देगा। चर्चा लंबी होती दिख रही थी और मैं अदालत पहुँचने में लेट हो रहा था। फिर भी कोई न कोई जवाब दे कर चर्चा को विराम तो देना ही था। मैं ने कहना शुरू किया।
भाई, बाबूलाल जी, ये बाबा की शक्ति और कृपा दोनों ही फर्जी हैं। बहुत लोग हैं दुनिया में जिन्हें प्रयत्न करते हुए भी नहीं मिलती और वे हताश और निराश हो जाते हैं, उन्हें प्रयत्न करना निरर्थक लगने लगता है। वे प्रयत्न करना छोड़ देते हैं। लेकिन आखिर सफलता तो प्रयत्न से ही मिलती है। प्रयत्न करना छोड़ देने से तो कुछ नहीं होता। ऐसे समय में आवश्यकता इस बात की होती है कि उन की निराशा और हताशा को दूर कर के उन्हें फिर प्रयत्नशील बना दिया जाए। बस यही बाबा करता है। लोग उस के पास जाते हैं ये यकीन कर के कि बाबा के पास शक्ति है उस की कृपा हो जाए तो उन का काम बन जाएगा।  बाबा उन से कुछ भी करने को कह देता है। जैसे काला पर्स जेब में रखना या फिर किसी धर्मस्थल की यात्रा करना या फिर कोई अन्य ऊटपटांग उपाय बताता है। लोगों को बाबा की बात का विश्वास तो है ही वे वैसा ही करते हैं जैसा बाबा कहता है। इस से उन में आत्मविश्वास पैदा होता है कि अब की बार वह प्रयत्न करेगा तो अवश्य ही उस का काम सफल होगा। वह आत्मविश्वास के साथ पूरी शक्ति लगा कर प्रयत्न करता है। पूरे  आत्मविश्वास के साथ और अपनी पूरी शक्ति के साथ जब कोई काम किया जाता है तो उस का सफल होना स्वाभाविक है। इस तरह शक्ति भी व्यक्ति की स्वयं की होती है और आत्मविश्वास भी उस का खुद का ही होता है। लेकिन व्यक्ति समझता है कि यह सब बाबा की शक्ति कर रही है। उसे वे बाबा की शक्ति की कृपा मान बैठते हैं। जिस दिन लोग यह समझने लगेंगे कि शक्ति उन में स्वयं में है उन्हें आत्मविश्वास भी पैदा होगा और उस दिन कोई ऐसे बाबाओं, ज्योतिषियों, नजूमियों को कोई नहीं पूछेगा।
मेरी बात समाप्त होते ही एक ग्राहक बोल उठा -बात तो सही है। ये लोग हमारी हताशा का लाभ उठाते हैं। तभी मेरे मोबाइल की घंटी बजने लगी। मैं ने कहा –बाबूलाल जी, आज का प्रवचन समाप्त। अब चलते हैं। अदालत से मुवक्किलों की घंटियाँ आने लगी हैं। कोई बात छूट गई हो तो कल फिर इसी वक्त दरबार लगा लेंगे।   

9 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

तो अब वकालत और प्रवचन दोनों साथ साथ :)

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

एक मूल प्रश्न
गुटखा नुक्सान देता है लेकिन लोग फिर उसे खाते हैं क्योंकि लोग नहीं जानते कि ‘इमोशनल फ़ीडिंग‘ नाम की भी कोई चीज़ होती है। कोई गुटखा खाता है तो कोई पान खाता है। इनकी कृपा से ही पान वाले की रोज़ी रोटी चल रही है। ऐसे ही सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से एक दूसरे को लाभ पहुंचा रहे हैं। यही कृपा लाभ है।
लोग एक दूसरे से लड़कर उन्हें नष्ट करने पर तुले हुए नहीं हैं। यह भी उनकी एक दूसरे पर कृपा है। कृपा लाभ से ही समाज क़ायम है।
समाज की संरचना बड़ी जटिल है और मानवीय संबंधों की संरचना उससे भी ज़्यादा जटिल है। गुरू शिष्य का रिश्ता भी इसी दायरे में आता है। रिश्ते हमेशा से हैं और उनकी मर्यादा भी। मर्यादा से खेलने वाले भी हमेशा से हैं।
सही गुरू सही मार्गदर्शन देगा, सही ज्ञान देगा और जिसे ख़ुद सही ज्ञान न हो वह केवल धोखा देगा। निर्मल बाबा यही कर रहे हैं।
किसी के काम को धोखा कहने के लिए हमारे पास एक ऐसा पैमाना होना ज़रूरी है जो ज्ञान-अज्ञान और विश्वास-अंधविश्वास में फ़र्क़ करना सिखा सके।
इस पैमाने के अभाव में हरेक की बुद्धि अलग फ़ैसला लेगी। एक की बुद्धि एक बात को सही और जायज़ बताएगी तो दूसरे की बुद्धि उसी काम को ग़लत और नाजायज़ बताएगी।
पैमाना अगर बुद्धि हो तो किसकी बुद्धि हो ?

यह मूल प्रश्न हल हो जाए तो इस देश में फ़र्ज़ी बाबाओं की धोखाधड़ी का वुजूद ही ख़त्म हो जाएगा।

एक विचारणीय पोस्ट देने के लिए शुक्रिया !

Satish Saxena ने कहा…

हताशा का लाभ उठाना बेहद आसान है ....

अजनबी -सत्य ने कहा…

बिल्कुल ही सही विचार है ...आत्मविश्वास का ही खेल है .....

सुज्ञ ने कहा…

"लोगों को बाबा की बात का विश्वास तो है ही वे वैसा ही करते हैं जैसा बाबा कहता है। इस से उन में आत्मविश्वास पैदा होता है कि अब की बार वह प्रयत्न करेगा तो अवश्य ही उस का काम सफल होगा। वह आत्मविश्वास के साथ पूरी शक्ति लगा कर प्रयत्न करता है। पूरे आत्मविश्वास के साथ और अपनी पूरी शक्ति के साथ जब कोई काम किया जाता है तो उस का सफल होना स्वाभाविक है।"

शालीन व सार्थक विवेचन!!

विष्णु बैरागी ने कहा…

जा की रही भावना जैसी।
प्रभु मूरत देखी तिन्‍ह तैसी।।

जिसने चोंच दी है, वह चुग्‍गा भी देगा। दुकानें सबकी चलती रहेंगी।

दिनेश दरबार शुरु करने पर विचार करें। हम आऍंगे उसमें - फीस चाहे जो।

Mansoor ali Hashmi ने कहा…

कोई 'निर्मल' के पास जाता है,
और कोई 'विमल' चबाता है,
'हल' समस्याओं का मिला उसको ,
खुद में विश्वास जो जगाता है.
http://aatm-manthan.com

[अच्छा हुआ किसी को 'कमल' याद नहीं आया]

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

@ Mansoor Ali
आप की कविता तो जानदार है ही, नीचे की टिप्पणी और भी शानदार है।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

शीघ्र ही पान की दुकान का दरबार खबरों में आने वाला है।