राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने
आमिर खान का टीवी शो ‘सत्यमेव जयते’ पहले ही एपीसोड से हिट हो जाने के बाद
आमिर से मिलने की आतुरता प्रदर्शित की। आमिर इसी शो में पहले ही कह चुके
थे कि वे राजस्थान सरकार को चिट्ठी लिखेंगे कि कन्या भ्रूण हत्या के
अपराधिक मामलों की सुनवाई के लिए राजस्थान में एक विशेष न्यायालय स्थापित
करें, जिस से उन का निर्णय शीघ्र हो सके और गवाहों को अधिक परेशानी न हो।
राजस्थान सरकार के एक अधिकारी ने यह भी कहा कि सरकार ने इस तरह के मामलों
के लिए विशेष न्यायालय की स्थापना के लिए विचार किया है और जल्दी ही यह
अदालत आरंभ की जा सकती है। कल शाम अभिनेता आमिर खान अशोक गहलोत से मिलने जयपुर पहुँचे और बाद में संयुक्त रूप से प्रेस से मिले गहलोत ने कहा कि वे ‘भ्रूण हत्या’ के मामलों के लिए
विशेष न्यायालय खोलने की व्यवस्था कर रहे हैं इस के लिए उन्हों ने उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को लिखा है।
राजस्थान के श्रम न्यायालयों और औद्योगिक
न्यायाधिकरणों का हाल इस से भी बुरा है। पुराने स्थापित श्रम न्यायालयों और
औद्योगिक न्यायाधिकरणों मे जो कर्मचारी नियुक्त किए गए थे वे रिटायर होते
गए। नई नियुक्तियों के लिए वित्त विभाग स्वीकृति प्रदान नहीं करता। इस से
सब न्यायालयों में स्टाफ की कमी होती गई। अनेक न्यायालयों में आधे भी
कर्मचारी नहीं हैं। कंप्यूटरों और ऑनलाइन न्यायालयों के इस युग में
राजस्थान के अनेक श्रम न्यायालयों में अभी भी तीस तीस साल पुराने
टाइपराइटरों को बार बार दुरुस्त करवा कर काम चलाया जा रहा है हालाँकि उन
के मैकेनिक तक मिलना कठिन हो चला है। कुछ जिला और संभाग मुख्यालयों में नए
श्रम न्यायालय और औद्योगिक न्यायाधिकरण स्थापित किए गए हैं वहाँ तीन-चार सौ
मुकदमे निपटाने के लिए एक न्यायाधीश और पूरा स्टाफ नियुक्त है तो पुराने
न्यायालयों में पाँच-पाँच हजार मुकदमे लंबित हैं और स्टाफ जरूरत का आधा भी
नहीं है। श्रमिकों के मुकदमों के निपटारे में बीस से तीस साल तक लग रहे
हैं जिस से मुकदमे का निर्णय होने के पहले ही अधिकांश श्रमिकों की मृत्यु
हो जाती है। कुछ स्थानों पर एक के स्थान पर तीन तीन न्यायालयों की आवश्यकता
है लेकिन उस ओर ध्यान नहीं दिया जाता है और जहाँ जरूरत नहीं है वहाँ
राजनैतिक तुष्टिकरण के आधार पर न्यायालय स्थापित कर दिये गए हैं। इन
न्यायालयों में जहाँ समझदार जजों की नियुक्ति की आवश्यकता है वहाँ अक्षम और
श्रम कानून से अनभिज्ञ न्यायाधीशों की नियुक्ति की जा रही है जिस का
परिणाम यह हो रहा है कि हर मामले में निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में
रिट की जा रही है जिस से उच्च् न्यायालय का बोझ भी लगातार बढ़ रहा है। इस
मामले में मामूली प्रबंधन की आवश्यकता है। लेकिन राजस्थान सरकार के लिए
शायद कर्मचारियों के मामले उद्योगपतियों और सरकारी विभागों से अधिक महत्ता
नहीं रखते। जनता समझती भी है कि श्रम विभाग और श्रम न्यायालयों को राजस्थान
सरकार कचरे का डब्बा समझती है। शायद अशोक गहलोत भूल गए हैं कि राजस्थान के
कर्मचारी ही एक बार उन्हें कचरे के डब्बे की यात्रा करवा चुके हैं।
निस्सन्देह राजस्थान सरकार ने इस मामले
में त्वरित गति से अपनी रुचि दिखा कर अच्छा काम किया है। जब एक टीवी शो देश
की हिन्दी भाषी जनता को पहली ही प्रस्तुति में भा गया हो तब उस से मिली
प्रशंसा को भुनाना राजनीतिक चतुराई का अव्वल नमूना ही होगा। वैसे भी इस
विशेष न्यायालय की स्थापना से व्यवस्था के किसी अंग को कोई चोट नहीं
पहुँचने वाली है। बस कुछ चिकित्सकों की आसान कमाई रुक जाएगी, हो सकता है
कुछ चिकित्सकों और उन के सहायकों को दंडित किया जा सके तथा पुरुष संतान
चाहने वाले कुछ लोग कुछ परेशान हों जाएँ। लेकिन इस से किसी बड़े थैलीशाह के
मुनाफे या राजनीतिज्ञ के राजनीति पर कोई असर नहीं होने वाला है। गहलोत
सरकार को इस कदम से वाहवाही ही मिलनी है। स्वयं को राजस्थान का गांधी कहाने
वाले इस राजनेता की न्यायप्रियता का डंका भी पीटा जा सकता है।
लेकिन क्या गहलोत वास्तव में इतने ही
न्याय प्रिय हैं? क्या उन के राजस्थान में जरूरत के माफिक अदालतें हैं? और
क्या वे ठीक से काम कर रही हैं? राजस्थान में 2001 में जब गहलोत
मुख्यमंत्री थे तब उन की सरकार ने राजस्थान किराया नियंत्रण अधिनियम 2001
पारित कराया था। उन के इस कदम को एक प्रगतिशील कदम कहा गया था। इस के
द्वारा पुराने किराया नियंत्रण कानून को समाप्त कर दिया गया था जिस के
अंतर्गत कोई भी राहत प्राप्त करने के लिए दीवानी दावा करना पड़ता था। इस
अधिनियम के द्वारा किराया अधिकरण और अपील किराया अधिकरणों की स्थापना की
व्यवस्था की गयी थी। जब इस अधिनियम को लागू करने और इन अधिकरणों को की
स्थापना करने की स्थिति आई तो राजस्थान उच्च न्यायालय ने उस के लिए भवन,
साधन और पदों के सृजन की आवश्यकता बताई। जिस पर राजस्थान सरकार ने तुरंत
असमर्थता व्यक्त की और राजस्थान सरकार के इस वायदे पर कि वह शीघ्र ही इन
अधिकरणों के लिए भवनों, साधनों और पदों की व्यवस्था करेगी, लेकिन अभी
तात्कालिक आवश्यकता के अधीन उस का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाए। राजस्थान
उच्च न्यायालय ने सरकार की बात मानते हुए कुछ वरिष्ठ खंड के अपर सिविल
न्यायाधीश एवं अपर मुख्य न्यायाधीशों के न्यायालयों को जो कि पहले से
अपराधिक और दीवानी मुकदमों की सुनवाई भी कर रहे थे किराया अधिकरणों की तथा
जिला न्यायाधीशों को अपील किराया अधिकरणों की शक्तियाँ प्रदान कर दीं। इस
उहापोह में किराया नियंत्रण कानून-2001 को 1 अप्रेल 2003 को ही लागू किया
जा सका। उस के बाद आज नौ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं राजस्थान में किराया
नियंत्रण अधिनियम के अंतर्गत स्वतंत्र रूप से एक भी अधिकरण या अपील अधिकरण
स्थापित नहीं किया जा सका है।
राजस्थान में परिवार न्यायालय स्थापित
हैं, लेकिन कुछ ही जिलों में। वहाँ भी मुकदमों की इतनी भरमार है कि एक
वैवाहिक विवाद के निपटारे में चार-पाँच वर्ष लगना स्वाभाविक है वह भी तब जब
कि इन न्यायालयों में वकीलों द्वारा पैरवी पर पाबंदी है। न्यायाधीश अपने
हिसाब से न्यायालय चलाते हैं। अपने हिसाब से गवाहियाँ दर्ज करते हैं।
न्यायार्थी गवाहों की प्रतिपरीक्षा करने में असमर्थ रहता है तो जज खुद दो
चार प्रश्न पूछ कर इति श्री कर देते हैं। सचाई सामने खुल कर नहीं आती और
इसी तरह के बनावटी सबूतों के आधार पर निर्णय पारित होते हैं। इन मुकदमों के
निपटारे में लगने वाली देरी से अनेक दंपतियों की गृहस्थियाँ सदैव के लिए
कुरबान हो जाती हैं। अनेक लोग जो शीघ्र तलाक मिलने पर अपनी नई गृहस्थी बसा
सकते थे। मुकदमों के निर्णय होने की प्रतीक्षा में बूढ़े हो जाते हैं। इस
का एक नतीजा यह भी हो रहा है कि वैवाहिक विवादों से ग्रस्त अनेक पुरुष चोरी
छिपे इस तरह के विवाह कर लेते हैं जो अपराध हैं लेकिन जिन्हे साबित नहीं
किया जा सकता। इस तरह पारिवारिक न्यायालयों की कमी एक ओर तो वैवाहिक
अपराधों के लिए प्रेरणा बन रही है, दूसरी ओर परित्यक्ता स्त्रियों की
संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है।
राजस्थान के प्रत्येक जिले में जिला
उपभोक्ता अदालतें स्थापित है, जिन में एक न्यायाधीश के साथ दो सदस्य बैठते
हैं। अक्सर इन दो सदस्यों की नियुक्ति राजनैतिक आधार पर की जाती है।
न्यायाधीश के पद पर अक्सर किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को पाँच वर्ष के लिए
नियुक्त किया जाता है। लेकिन न्यायपालिका के अपने कार्यकाल में थके हुए ये
न्यायाधीश उपभोक्ता न्यायालय के अपने कार्यकाल में सुस्त पड़ जाते हैं और
इस पद को अपना विशेषाधिकार समझ कर केवल अधिकारों का उपभोग करते हैं। अनेक
स्थानों पर न्यायाधीश नियुक्त ही नहीं हैं वहाँ सदस्य और न्यायालय के
कर्मचारी बिना कोई काम किए वेतन उठाते रहते हैं। यदि किसी न्यायालय में
सदस्यों की नियुक्ति नहीं हो पाती है जो कि राजनैतिक कारणों से विलम्बित
होती रहती है तो जज सहित न्यायालय के सभी कर्मचारी सरकारी वेतन पर पिकनिक
मनाते रहते हैं और अदालत मुकदमों से लबालब हो जाती है। इन न्यायालयों में
सेवा निवृत्त न्यायाधीशों के स्थान पर जिला न्यायालयों के वरिष्ठ वकीलों को
भी नियुक्त किया जा सकता है और न्यायालय को सुचारु रूप से चलाया जा सकता
है, लेकिन राजनीति उस में अड़चन बनी हुई है।
राजस्थान के हर जिले में कर्मचारी
क्षतिपूर्ति आयुक्त, वेतन भुगतान अधिनियम, न्यूनतम वेतन अधिनियम,
ग्रेच्युटी अधिनियम आदि के अंतर्गत एक एक न्यायालय स्थापित है जिस में
राजस्थान के श्रम विभाग के श्रम कल्याण अधिकारियों या उस से उच्च पद के
अधिकारियों को पीठासीन अधिकारी नियुक्त किया जाता है। लेकिन सरकार के पास
इतने सक्षम श्रम कल्याण अधिकारी ही नहीं है कि आधे न्यायालयों में भी उन की
नियुक्ति की जा सके। जिस के कारण एक एक अधिकारी को दो या तीन न्यायालयों
और कार्यालयों का काम देखना पड़ता है। वे एक जिला मुख्यालय से दूसरे जिला
मुख्यालय तक सप्ताह में दो-तीन बार सफर करते हैं और अपना यात्रा भत्ता
बनाते हैं। न्यायालय और कार्यालय सप्ताह में एक या दो दिन खुलते हैं बाकी
दिन उन में ताले लटके नजर आते हैं क्यों कि कई कार्यालयों में लिपिक और
चपरासी भी नहीं हैं जो कार्यालयों को नित्य खोल सकें। जो हैं, उन्हें भी
अपने अधिकारी की तरह ही इधर से उधर की यात्रा करनी पड़ती है।
हो सकता है स्वयं को राजस्थान का गांधी कहलाने वाले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की घोषणा के अनुरूप भ्रूण
हत्या के अपराधिक मामलों के लिए विशेष अदालत कुछ सप्ताह में काम करना आरंभ कर दे और न्याय प्रिय कहलाए जाएँ लगें। लेकिन जहाँ रोज न्याय की भ्रूण हत्या हो रही हो वहाँ राजस्थान की जनता के लिए यह महज एक और
चुटकुला होगा यदि वे राज्य सरकार द्वारा संचालित दूसरे न्यायालयों की दशा
सुधारने के लिए कुछ नहीं करते।