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शुक्रवार, 6 मई 2011

अग्रवाल जी की भाव विह्वलता और साढू़ भाई का प्रेम

भाव विह्वल
डॉ.गिरिजाशरण अग्रवाल 
पॉवर पाइंट प्रस्तुति के बाद जैसे ही सब अतिथि मंचासीन हुए, सब से पहले हिन्दी साहित्य निकेतन के सचिव डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल बोलने खड़े हुए। आयोजन के मुख्य यजमान होने के कारण यह उन का अधिकार था कि वे अतिथियों का स्वागत कर उन का आभार प्रकट करें। लेकिन बेटी द्वारा प्रस्तुत पॉवर पाइंट प्रस्तुति ने उन्हें अत्यन्त भावविह्वल कर दिया था। वे उसी से आरंभ हुए, उन के स्वर से लग रहा था कि आत्मजा ने उन्हें जो  सम्मान दिया था उस के स्नेह से उत्पन्न आह्लाद उन्हें रुला देगा, जिसे वे जबरन रोके हुए थे। उन्हों ने बताया कि इस प्रस्तुति के विनिर्माण को दोनों बेटियों ने उन से छुपाया और उन के सो जाने के बाद रात-रात भर जाग कर उसे तैयार किया। निस्संदेह यह प्रस्तुति उन के जीवन की अद्भुत घटना थी जिसे वे शायद जीवन भर विस्मृत न कर सकेंगे। अपनी भावविह्वलता को नियंत्रित कर लेने के उपरांत उन्हों ने सभी अतिथियों का स्वागत किया और हिंदी साहित्य निकेतन की स्थापना से ले कर आज तक किए गए स्वयं के अथक प्रयत्नों के साथ मित्रों के सहयोग का स्मरण भी किया। उन्होंने कार्यक्रम के अध्यक्ष अशोक चक्रधर को अपना छोटा भाई बताते हुए उन के योगदान की चर्चा की। उन्हों ने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री 'निशंक' की उपस्थिति में यह भी कहा कि निकेतन का विकास बिना किसी सरकारी सहायता के वे कर पाए हैं। उन के स्वर में सहायता न मिल पाने का दर्द अधिक था।

गिरिराज शरण जी के इस वक्तव्य के उपरांत धड़ाधड़ एक के बाद एक पुस्तकों और पत्रिकाओं के विमोचन हुए। बंडलों का खोला जाना, फिर सभी अतिथियों के पास एक-एक प्रति का पहुँचना और फिर सभी के द्वारा एक-एक प्रति को दर्शकाभिमुख कर प्रदर्शित कर चित्र खिंचवाना, आज कल विमोचन की सामान्य प्रक्रिया हो चली है, जो निभाई गई। मौके की नोईयत को देखते हुए यह काम इतनी त्वरित गति से हुआ कि कभी-कभी कोई अतिथि विमोचित पुस्तक/पत्रिका का अंतिम कवर पृष्ठ भी दर्शकाभिमुख कर देता और पड़ौसी अतिथि उसे ठोसा देकर उस का ध्यान आकर्षित करता और उस की आमुख दर्शकाभिमुख करवाता। इस समूह विमोचन में मुख्यमंत्री निशंक ने एक अपनी ही पुस्तक का विमोचन भी किया। जिस के बारे में गिरिराज जी ने बताया कि मंच से उस के विमोचन की घोषणा होने तक भी उन्हें यह पता नहीं लगने दिया गया था कि वे अपनी ही पुस्तक का विमोचन करने जा रहे हैं।
ब्लागिरी पर पुस्तक का विमोचन
स के उपरांत 64 ब्लागरों का सम्मान आरंभ हो गया। अब मंच संचालन का दायित्व एक बार पुनः रविन्द्र प्रभात ने अपने हाथों में ले लिया था। ऐसा दृष्य था जैसे किसी स्कूली प्रतियोगिता का समापन समारोह हो और प्रतियोगी बालक-बालिकाओं को पुरस्कार वितरित किए जा रहे हों। ब्लागरों में भी पुरस्कार प्राप्त करने का उत्साह बालकों जैसा ही था, वे भी पूरी तरह आह्लादित थे। रविन्द्र जी एक नाम पुकारते, फिर वह दर्शकों में से निकल कर मंच तक पहुँचता, अपना पुरस्कार लेता, तब तक अगले ब्लागर का नाम लिया जा रहा होता। कुछ ही देर बाद दर्शक यह पता करने में असमर्थ हो गए कि जो ब्लागर सम्मान ग्रहण कर रहा है, वह कौन है। दर्शकों की चौथाई संख्या तो पुरस्कृत व्यक्तियों की ही थी। इस बीच दर्शकों के बीच हलचल बढ़ गई और शोर भी। हर पुरस्कार पर कम या अधिक करतल ध्वनि गूंज उठती। समय सात से ऊपर हो चुका था। पुरस्कार वितरण, ग्रहण, दर्शन और व्यवस्था में सब इतने मशगूल थे कि आमंत्रण पत्र में वर्णित दूसरा सत्र और उस के अतिथि सभी से विस्मृत हो गए।

मुझे मंच पर एक लंबा सा दाढ़ी वाला नौजवान दिखा जो एक कैमरा स्टेंड पर अपना कैमरा टिकाए चित्र ले रहा था। । मैं पहली बार उसे देख रहा था, फिर भी तुरंत ही पहचान गया।  मैं ने पास बैठे शाहनवाज को उसे दिखा कर पूछा -इसे पहचान रहे हो? वे कुछ देर विस्मय से उस नौजवान को देखते रहे, फिर कहा -कहीं यह सिरफिरा तो नहीं? मैं ने बताया वही है, यह भी कहा कि इस से समारोह के बाद मिलेंगे। हम फिर पुरस्कार समारोह के दर्शन में व्यस्त हो गए। कुछ ही देर में मैं ने देखा कि शाहनवाज पास की सीट से गायब हैं। तभी मैं ने रतनसिंह शेखावत को हॉल से बाहर जाते देखा। वे फरीदाबाद में रहते हैं और मेरी सोच थी कि समारोह की समाप्ति के बाद मैं उन के वाहन पर लिफ्ट ले कर निकल लूंगा। शोभा वहीं बेटी के घर टिकी हुई थी। हमें अगले दिन वापस भी आना था। मैं भी तुरंत उन के पीछे बाहर की ओर लपका। बाहर निकल कर देखा तो बहुत लोग लॉबी में आपस में मिलने और विमोचित पुस्तकें खरीदने की जुगाड़ में थे। रतनसिंह जी उसी भीड़ में खो गए थे। कुछ ही देर में मैं ने उन्हें तलाश लिया। मैं उन से पहली बार प्रत्यक्ष हो रहा था।
रतनसिंह शेखावत
हले भी दो बार अवसर था जब हम मिल सकते थे। लेकिन जब मैं फरीदाबाद में होता तो वे व्यस्त होते। हम नहीं मिल सके। वे मेरे लिए एक महत्वपूर्ण ब्लागर हैं, इस मायने में कि वे अपने ब्लाग के माध्यम से राजस्थान के इतिहास की अनेक अलिखित कथाओं को सामने ले कर आए हैं। मेरी भी इस काम में रुचि रही है। हम मिले तो कुछ औपचारिक बातों के बाद वे एक कहानी बताने लगे कि कैसे शेखावतों का एक हिस्सा राजस्थान से गायब हो गया था और कैसे उन के वंशज अब उत्तर प्रदेश में मिल गए। मेरे पूछने पर उन्हों ने बताया कि वे बाइक से आए हैं। मैं ने उन्हें बताया कि मैं तो उन से लिफ्ट ले कर फरीदाबाद लौटने की सोचता रहा। उन्हों ने ही मुझे सुझाया कि मोहिन्द्र कुमार जी जाएँगे मैं उन के साथ निकल लूँ। उन से परिचय भी कराया। मैं ने मोहिन्द्र जी से कहा तो वे मुझे वापसी में फरीदाबाद सेक्टर 28 तक लिफ्ट देने को तैयार हो गए। मेरा रात्रि को ही फरीदाबाद लौटना तय हो गया था। यह अच्छा ही हुआ कि यह रमेश कुमार जैन सिरफिरा से मिलने के पहले ही तय हो गया। पहले उन से मिल लिया होता तो शायद वे मुझे अपने घर ले जा चुके होते। मैंने वहाँ आस पास निगाह दौड़ाई तो शाहनवाज दिखाई न दिए। पुस्तक काउंटर पर पुस्तकों को घेर कर लोग खड़े थे। मुझे वहाँ तक खुद के पहुँचने की संभावना क्षीण नजर आई तो मैं वापस हॉल में चला गया। पुरस्कार वितरण अंतिम  दौर में था। इस बीच मेरी मुलाकात निर्मला कपिला जी से हो गई। जैसा चित्र में वे दिखाई देती हैं उस से अधिक सुंदर और ममताशील थीं। मैं सोचता रहा कि यदि मेरी कोई बड़ी बहिन होती तो ऐसी ही होतीं। मैं उन की कहानियों का मुरीद हूँ। ऐसी सच्ची कहानियाँ मुझे कहीं नहीं मिलीं। वे पात्रों के चरित्र चित्रण में जरा कंजूस हैं और बीच की बहुत सी घटनाओं का अनुमान पाठकों पर छोड़ देती हैं। वे अपनी कहानी को सीधे मुख्य पात्रों के माध्यम से ही कहती हैं, यदि वे कंजूसी और पाठकों के अनुमान का सहारा न लें और कुछ सहायक पात्रों का उपयोग करने लगें तो उन की बहुत सी कहानियाँ हैं जो उपन्यास बनने को तैयार बैठी हैं। यह उन की किस्सागोई की विलक्षणता है कि वे एक उपन्यास की विषय वस्तु आप को एक कहानी में दे देती हैं। हो सकता है कि वे भविष्य का साहित्य रच रही हों। जब उपन्यास के लिए पाठक के पास वक्त ही नहीं होगा और वे एक छोटी सी कहानी में सारी विषय वस्तु को जानना चाहेंगे।
निर्मला कपिला जी, सम्मान ग्रहण करते हुए
पिला जी के साथ उन के पति भी थे। उन का स्वभाव लगा बहुत ही सरल प्रतीत हुआ। कहते हैं कि किसी पुरुष की सफलता में किसी स्त्री का हाथ अवश्य होता है। उन से मिल कर मुझे लगा कि कपिला जी के इतनी अच्छी कथाकार होने और एक नौजवान विद्यार्थी की तरह इस आयु में ग़ज़लों पर अभ्यास कर के उस में सफलता हासिल कर प्रसन्नता प्राप्त करने में निर्मला जी का बखूबी साथ दिया है। उन की सफलता के एक स्तंभ वे ही हैं। वे दोनों हॉल में मेरे समीप ही बैठ गए। हम बतियाने लगे। इस बीच सम्मान समारोह पूरा हो कर मंचासीन लोगों के वक्तव्य आरंभ हो चुके थे। किस ने क्या कहा इस का ब्यौरा उस दिन जारी की गई प्रेस विज्ञप्ति, उस के आधार पर बने समाचारों और ब्लागरों व कुछ पत्रकारों द्वारा समाचार पत्रों और वेबसाइटों पर प्रस्तुत विवरणों में आप लोग पढ़ चुके होंगे। अतिरिक्त रूप से मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि मुख्यमंत्री ने अपने भाषण का सारा जोर इस बात में लगा दिया कि उन्हों ने उत्तराखंड को विकास दिया है, गंगा को साफ किया है और पर्यटकों को सुविधाएँ प्रदान की हैं। वे हर किसी को उत्तराखंड यात्रा पर बुलाने का न्यौता दे रहे थे। उन्हों ने अग्रवाल जी की बहुत प्रशंसा की कि उन्हों ने असुविधाओं के बीच प्रकाशन संस्थान स्थापित कर उत्तराखंड के लेखकों को एक मंच प्रदान कर हिन्दी के प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान किया। उन्हों ने अग्रवाल जी को किसी तरह की सुविधा उपलब्ध कराने या सहायता प्रदान करने का कोई आश्वासन तक नहीं दिया। अभी अभी विवादों के घेरे में आये निशंक फिर से किसी नए विवाद को जन्म नहीं देना चाहते थे।  उधर चक्रधर जी ने अपनी लच्छेदार शैली में बोलते हुए कहा कि वे अग्रवाल जी के भाई नहीं हो कर साढू़ भाई हैं। शायद भाई से अधिक प्रेम साढ़ू भाई में होता है, वहाँ आपसी प्रेम के साथ-साथ पत्नियों का प्रेम भी तो जुड़ जाता है। 

गुरुवार, 5 मई 2011

परिकल्पना सम्मान : लोकसंघर्ष के जनसंघर्ष से साहित्य निकेतन की उत्तर आधुनिकता तक

मुख्यमंत्री 'निशंक' की प्रतीक्षा में समारोह पौने दो घंटे देरी से चल रहा है। जैसे ही यह बात मैं ने नजदीक बैठे शाहनवाज को कही, उन्हों ने चिंता से कहा। आगे के कार्यक्रमों का पता नहीं क्या होगा। अभी अभी हिन्दी साहित्य निकेतन की 50 वर्ष की विकास यात्रा का पावर पाइंट देखा था। मेरी आँखों के सामने परिकल्पना  सम्मान की विकास यात्रा गुजरने लगी ... इस सम्मान 2010 की घोषणा 9 जुलाई 2010 को परिकल्पना ब्लाग पर तथा 10 जुलाई 2010 को लोकसंघर्ष ब्लाग पर आई पोस्टों पर हुई थी। तब यह लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान था और श्रेष्ठ सृजनकारों से रूबरू कराने हेतु ब्लाग पोस्टों की एक श्रंखला मात्र थी। लोकसंघर्ष जनसंघर्ष को समर्पित एक वामपंथी पत्रिका और ब्लाग है। इस से लगा था कि इस सम्मान की आधारशिला सामाजिक यथार्थ और संघर्षशील जनता की संस्कृति के इर्द-गिर्द रहेगी। फिर 12 जुलाई 2010 से परिकल्पना और ब्लोगोत्सव-२०१० ब्लागों पर प्रतिदिन एक ब्लागर को पुरस्कार घोषित होने लगा और इन ब्लागों पर एक सम्मान पत्र प्रकाशित किया जाता। यह ब्लागजगत की आभासी दुनिया में ब्लागरों का आभासी सम्मान था। ब्लागर इस सम्मान से रोमांचित और प्रसन्न भी थे। यह सिलसिला करीब दो माह वर्ष के श्रेष्ठ ब्लागर का सम्मान घोषित होने तक चलता रहा।  इस के कुछ दिन बाद ब्लाग विश्लेषण की श्रंखला आरंभ हो गई जो काफी लोकप्रिय हुई। फिर अचानक 9 मार्च 2011 को परिकल्पना पर ही घोषणा हुई कि "हिन्‍दी ब्‍लॉगरों, प्रेमियों, साहित्‍यकारों : 30 अप्रैल 2011 को दिल्‍ली के हिन्‍दी भवन में मिल रहे हैं। इस घोषणा में यह स्पष्ट कर दिया गया था कि हिन्दी साहित्य निकेतन 50 वर्षों की अपनी विकास-यात्रा और गतिविधियों को आपके समक्ष प्रस्तुत करने के लिए 30 अप्रैल २०११ दिन शनिवार को दिल्ली के हिंदी भवन में एक दिवसीय भव्य आयोजन कर रहा है।"


हाँ यह भी कहा गया था कि "इस अवसर पर देश और विदेश में रहने वाले लगभग 400 ब्लॉगरों का सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है, जिसमें परिकल्‍पना समूह के तत्‍वावधान में इतिहास में पहली बार आयोजित ब्लॉगोत्‍सव 2010 के अंतर्गत चयनित 51 ब्लॉगरों का ‘सारस्‍वत सम्मान’ भी किया जाएगा। इस अवसर पर लगभग 400 पृष्ठों की पुस्तक ( हिंदी ब्लॉगिंग : अभिव्यक्ति की नई क्रान्ति), हिंदी साहित्य निकेतन की द्विमासिक पत्रिका ‘शोध दिशा’ का विशेष अंक ( इसमें ब्लॉगोत्सव -२०१० में प्रकाशित सभी प्रमुख रचनाओं को शामिल किया गया है) मेरा (रविन्द्र प्रभात का) उपन्यास (ताकि बचा रहे गणतंत्र ), रश्मि प्रभा के संपादन में प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका (वटवृक्ष ) के प्रवेशांक के साथ-साथ और कई महत्वपूर्ण किताबों का लोकार्पण होना है ! इस कार्यक्रम में विमर्श,परिचर्चाएँ एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आकर्षण का केंद्र होंगे। पूरे कार्यक्रम का जीवंत प्रसारण इंटरनेट के माध्यम से पूरे विश्व में किया जाएगा।" कार्यक्रम का समय शनिवार 30 अप्रैल 2011, दोपहर 3 बजे से रात्रि‍ 8.30 बजे तक घोषित किया गया था उस के उपरान्त रात्रि‍ 8 .30 बजे भोजन होना था।

जितनी बड़ी घोषणाएँ की गई थीं उस के हिसाब से समस्त कार्यक्रम के लिए डेढ़ दिनों में चार सत्र वांछित थे। इन कार्यक्रमों को इस से कम समय देना उन के साथ अन्याय होता। लेकिन जैसी हमारी आदत है हम दो सवारी के लिए बनी बाइक पर पत्नी और तीन और कभी कभी चार बच्चों को सवारी करा सकते हैं, लाइन की बस का कंडक्टर सवारियों को बस में उसी तरह ठूँस सकता है जैसे आटा चक्की वाला आटे को लकड़ी के डंडे से ठोक-ठोक कर ठूँसता है, यह महसूस हो गया था कि कार्यक्रम साढ़े पाँच घंटे के समय में जबरन ठूँसा जाएगा। तब किस के साथ न्याय होगा और किस के साथ अन्याय? यह अनुमान करना दुष्कर था। तब यह भी पता नहीं था कि कार्यक्रम के मुख्य, विशिष्ठ अतिथि, अध्यक्ष आदि कौन हो सकते हैं। लेकिन इतना जरूर अनुमान हो चला था कि उस दिन चार सौ नहीं तो कम से कम सौ-डेढ़ सौ ब्लागर देश के विभिन्न हिस्सों से दिल्ली में अवश्य एकत्र होंगे। मैं ने डायरी मैनेज की और एक दिन पहले शुक्रवार 29 अप्रेल को कोई काम नहीं रखा। मुझे पूरे तीन दिन मिल रहे थे। मेरा दिल्ली आने का मन बन चुका था, लेकिन मैं इसे पूरी तरह व्यक्तिगत यात्रा बनाना चाहता था और मैं ने किसी को भी सूचित नहीं किया कि मैं दिल्ली पहुँच रहा हूँ। बाद में लोकसंघर्ष पत्रिका/ब्लाग के रणधीर सिंह की एक पोस्ट हमारीवाणी ई-पत्रिका प्रकाशित हुई जिस में इसी कार्यक्रम की घोषणा की और उसी के साथ एक निमंत्रण पत्र भी प्रकाशित किया गया जो ब्लागरों को ई-मेल से भी प्रेषित किया गया। इस निमंत्रण पत्र में सूचित किया गया था कि कार्यक्रम 30 अप्रेल को 4.00 बजे आरंभ होगा तथा 6.00 बजे समाप्त होगा। चाय के बाद दूसरा सत्र 6.30 पर आरंभ होगा जिस में  हिन्दी साहित्य निकेतन की विकास यात्रा, पुस्तकों का लोकार्पण तथा हिन्दी ब्लागरों का सारस्वत सम्मान किया जाएगा इस कार्यक्रम का उद्घाटन उत्तराखंड के मुख्य मंत्री निशंक व अध्यक्षता अशोक चक्रधर करेंगे, रामदरश मिश्र व अशोक बजाज मुख्य और विशिष्ठ अतिथि होंगे तथा प्रेम जनमेजय और विश्वबंधु गुप्ता का सानिध्य रहेगा।  दूसरे सत्र में "न्यू मीडिया की भूमिका" विषय पर संगोष्ठी होनी थी जिस की अध्यक्षता प्रभाकर श्रोत्रीय को करनी थी, मुख्य अतिथि पुण्य प्रसून वाजपेयी व विशिष्ठ अतिथि उदयप्रकाश घोषित किए गए थे तथा मनीषा कुलश्रेष्ठ, अजीत अंजुम व देवेंद्र देवेश का सानिध्य रहना  था। इस घोषणा के साथ ही सम्मान समारोह की आगे की रूपरेखा में सुमन जी की भूमिका समाप्त प्रायः हो गई थी। एक तरह से यह परिकल्पना सम्मान को उत्तर-आधुनिकता प्रदान करने के लिए सुमन जी का नाइस प्रमाणपत्र था।  इस के साथ ही लोकसंघर्ष का नाम भी समारोह के हर दृश्य से गायब हो चुका था। सम्मान प्रकल्प जनसंघर्ष से आरंभ हो कर उत्तर-आधुनिक युग में प्रवेश कर चुका था।  

दीपिका गोयल
चित्र सौजन्य: पद्म सिंह
मारोह के आरंभ के पूर्व जो अघोषित कार्यक्रम चल रहा था उस का संयोजन रविन्द्र प्रभात के कुशल हाथों में था। लेकिन जैसे ही निशंक जी के द्वार तक पहुँचने की सूचना आयोजकों को प्राप्त हुई कार्यक्रम का संचालन रविन्द्र प्रभात जी के हाथों से हिन्दी साहित्य निकेतन के सचिव की पुत्री दीपिका गोयल के सिद्ध हाथों में चला गया।  मंच के नीचे हॉल में ही उद्घाटन कर्ता व अन्य अतिथियों का स्वागत किया गया और उन्हें मंच के स्थान पर दर्शकों की पहली पंक्ति में बैठने को कहा गया। इस का कारण हिन्दी साहित्य निकेतन की 50 वर्षों की विकास यात्रा पर दीपिका गोयल की पॉवर पाइंट प्रेजेण्टेशन की प्रस्तुति रही जिसे उन की मधुर आवाज में रिकार्ड किया गया था। हॉल की बत्तियाँ बुझा दी गई और प्रेजेण्टेशन आरंभ हुआ। यह चित्रमय और काव्यमय प्रस्तुति अद्भुत थी। निस्सन्देह इस पर कड़ा श्रम किया गया था जिस का काव्य संयोजन स्पष्टतः अशोक चक्रधर का था, हालाँकि इस का श्रेय गीतिका गोयल ने प्राप्त किया।  पावर पाइंट प्रस्तुति ने सभी को प्रभावित किया। इस के बाद जब बत्तियाँ पुनः रोशन हुई तो छह बज कर कुछ मिनट हो रहे थे। पहले कार्यक्रम का समय समाप्त हो कर चाय का समय था लेकिन कार्यक्रम तो अब आरंभ हो रहा था। उद्घाटनकर्ता व अन्य अतिथिगण मंच पर जा कर अपना स्थान ग्रहण कर रहे थे। 

मंगलवार, 3 मई 2011

शाहनवाज के घर से हिन्दी भवन तक

शाहनवाज के घर पहुँचे तो आधी रात होने में एक घंटा भी शेष न था। तुरंत ही एक सुंदर स्त्री पानी ले कर हाजिर थी। शाहनवाज ने तआर्रुफ़ कराया -ये आप की बहू है। मैं ने उन्हें अभिवादन किया। फरीदाबाद से चलने के पहले ही बता चुका था कि मैं भोजन कर के चला हूँ, फिर भी उन्हों ने भोजन के लिए पूछा। मैं ने उन्हें कहा -सिर्फ कॉफी पीना चाहता हूँ। हम बातों में लगे ही थे कि कॉफी के साथ बहुत सारा नाश्ता आ गया। खुशदीप भाई और सतीश सक्सेना जी से बात हुई। सुबह हम सब का मिलना तय हुआ। देर रात तक शाहनवाज मुझे हमारीवाणी के तकनीकी पहलू बताते रहे। 

सुबह नींद खुली तो लगा कि अभी पाँच बजे होंगे। घड़ी देखी तो पौने आठ बजने वाले थे। कमरे में रोशनी का प्रवेश कम होने से ऐसा लग रहा था। मैं तुरंत उठ बैठा। कुछ ही देर में शाहनवाज आ भी आ गए, और उन के पीछे-पीछे कॉफी भी। हम फिर बातों में मशगूल हो गए। उधर खबर लगी कि टीम छत्तीसगढ़ (टीसी) दिल्ली पहुँच चुकी है और पहाड़गंज के किसी होटल में प्रातःकर्म निपटा रही है। इस बीच शाहनवाज की प्यारी सी, छोटी छोटी दो बेटियों से मुलाकात हुई। वे नींद से उठ कर आयी थीं और सीधे शाहनवाज से चिपक गई थीं। उन्हें सुबह के नाश्ते में पिता से स्नेह चाहिए था, जो उन्हें भरपूर मिला। स्नान और नाश्ते से निवृत्त होते-होते साढ़े दस बज गए। हम ने खुशदीप जी के यहाँ जाना तय किया, लेकिन रवाना होने के पहले उन से बात कर लेना उचित समझा। बात की तो पता लगा कि सतीश भाई उनके यहाँ हैं और वे इधर ही आ रहे हैं। कुछ ही देर में दोनों हमारे बीच थे। वे कचौड़ियाँ और मिठाई साथ लाए थे। हम ने हमारीवाणी के संबंध में चर्चा आरंभ कर दी। इस चर्चा में हम ने हमारीवाणी संकलक और हमारीवाणी ई-पत्रिका के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण निर्णय लिए। फिर फोटो सेशन हुआ। चारों के चित्र लेने के लिए बहूजी को कैमरा सौंपा गया। हमारी योजना अजय. झा के यहाँ जाने की थी। उन के पिता को उन से बिछड़े पखवाड़ा भी नहीं हुआ था। हम उन से अब तक नहीं मिल सके थे। इसी कारण शाम के कार्यक्रम में भी उन के आने की कोई संभावना नहीं थी। लेकिन देरी हो चुकी थी कि वे कई दिन के अवकाश के बाद पहली बार अपनी ड्यूटी पर जा चुके थे। हम ने उन के कार्यस्थल पर मिलना उचित नहीं समझा।
हमारीवाणी टीम के सदस्य शाहनवाज के घर
चित्र  सौजन्य : सतीश सक्सेना
फिर पाबला जी से बात हुई, टीसी अभी होटल में जमी थी। हम तुरंत ही उन के होटल के लिए रवाना हो गए।  वहाँ पहुँचे तो सब के सब लॉबी में ही मिले। सुनीता शानू भी वहाँ थीं सब को अपने यहाँ ले जाने को आई थीं। सतीश जी को अपने किसी निजि समारोह में शिरकत के लिए जाना था लेकिन शानू जी के आग्रह के सामने वे पिघल गए और उन्हों ने जिस गाड़ी में टीसी सवार थी उस के पीछे अपनी कार लगा दी। कोई आधे घंटे में हम वहाँ पहुँचे और पूरे सवा घंटे आतिथ्य का आनन्द लिया। सतीश भाई को फिर अपने निजि समारोह की याद आई, खुशदीप जी को भी स्मरण हुआ कि कुछ ब्लागर उन के घर पहुँचने वाले हैं। हम तुरंत वहाँ से चले। लेकिन बीच में हिन्दी भवन रुकने का लोभ संवरण न कर सके। वहाँ पहुँच कर अविनाश वाचस्पति को फोन किया। तो उन्हों ने पीछे से आ कर हमें चौंका दिया। कुछ ही देर में रविन्द्र प्रभात भी वहीं मिल गए। दोनों से बात हुई। वे तैयारियों में जुटे थे। हम अविनाश जी के साथ पीछे कार तक गए। हिन्दी साहित्य निकेतन के गिरजाशरण अग्रवाल भी वहीं थे और कार से पुस्तकें व मोमेण्टो उतरवा रहे थे। उन्हें व्यस्त देख हमें लगा कि हम उन के काम में मदद करने के स्थान पर व्यवधान बन सकते हैं। हम ने उन से काम भी पूछा, लेकिन अविनाश जी का कहना था कि आप लोग समय पर पहुँच जाएँ इतना ही पर्याप्त है। वहाँ से चले तो ढाई बज चुके थे और हमें जा कर वापस भी लौटना था। इसलिए बिना समय व्यर्थ किए हम वहाँ से चल दिए। मुझे और शाहनवाज को छोड़ सतीश भाई और खुशदीप चल दिए। मेरे पास कोई काम न था। शाहनवाज को कुछ जरूरी घरेलू काम निपटाने थे। मैं ने तनिक विश्राम करना उचित समझा। मैं सो कर उठा तो पौने चार बज रहे थे। शाहनवाज  चिंतित हो रहे थे कि अब समय पर नहीं पहुँच सकेंगे तो अविनाश जी को अच्छा नहीं लगेगा। हम तुरंत ही तैयार हो कर बाइक से ही हिन्दी भवन रवाना हो गए।

म पहुँचे तो पाँच बज चुके थे। सारे रास्ते शाहनवाज चिंतित थे कि देरी से आने के कारण अविनाश जी की नाराजगी झेलनी पड़ेगी। मैं उन्हें सान्त्वना देता रहा कि समारोह अभी आरंभ ही न हुआ होगा। हिन्दी भवन के बाहर बहुत लोग खड़े थे। पता चला अभी समारोह आरंभ नहीं हुआ है। शाहनवाज को  तसल्ली हुई।  ऊपर हॉल के बाहर की लॉबी में पहुँचे। तो वहाँ वे सभी पुस्तकें जिन का विमोचन होना था टेबलों पर सजी थीं। हमने उन्हें खरीदना चाहा तो बताया गया कि विमोचन के पहले बिक्री नहीं की जाएगी। हम ने कुछ दूसरी पुस्तकें देखीं। इस बीच ब्लागरों से मिलना आरंभ हो गया। मेरी कठिनाई थी कि मैं कम लोगों को पहचान पा रहा था, लेकिन अधिकांश ब्लागर मुझे सहज ही पहचान रहे थे। शायद मेरी सपाट खोपड़ी उन के लिए अच्छा पहचान चिन्ह बन गई थी। वहाँ बहुत लोगों से मिलना हुआ। मैं सब के नाम बताने लगूंगा तो कुछ का छूटना स्वाभाविक है। फिर जिन के नाम छूट जाएंगे मैं उन का दोषी हो जाउंगा। इस लिए मैं कुछ एक ब्लागरों का ही यहाँ उल्लेख करूंगा। हम लॉबी छोड़ कर हॉल में पहुँचे। वहाँ करीब ढाई सौ दर्शक बैठ सकते थे। लगभग चौथाई हॉल में लोग बैठे थे। देरी होने के कारण रविन्द्र प्रभात कुछ ब्लागरों के भाषण करवा रहे थे। हम ने निगाह दौड़ाई तो अनेक परिचित ब्लागर वहाँ दिखाई दिए। उन में से अनेक को पहचानने में शाहनवाज ने मेरी मदद की। मैं वहाँ बैठने के स्थान पर बाहर लॉबी में जाना चाहता था, जिस से अधिक से अधिक ब्लागरों से भेंट कर सकूँ। लेकिन तभी रविन्द्र प्रभात जी ने मंच से घोषणा की कि कुछ देर में दिनेशराय द्विवेदी ब्लागरी के कानूनी पहलुओं पर संक्षिप्त जानकारी देंगे।  इस घोषणा से मैं बंध गया। पहले से कुछ तय नहीं था। इसलिए सोचने लगा कि क्या बोलूंगा? 
समारोह के दौरान हिन्दी भवन का लगभग पूरा हॉल, कितना खचाखच भरा है? 
चित्र  सौजन्य : पद्म सिंह
मैं बोलने से बहुत घबड़ाता हूँ। जब भी बोलता हूँ, मुझे समय सीमा का ज्ञान नहीं रहता, और श्रोताओ को भी। संचालक समय बीतता देख कुड़कुड़ाता रहता है। अक्सर ही संचालक की पर्ची मुझ तक पहुँचती है कि जरा संक्षिप्त करो। छात्र जीवन में पहली बार जब मुझे जबरन अपनी इच्छा के विपरीत मुझे बोलना पड़ा था तो पाँच मिनट की सीमा तय थी। लेकिन मैं बोलता रहा, श्रोता तालियाँ बजाते रहे।  मैं मंच से उतरा तो पता लगा मैं पूरे सवा घंटे बोल चुका हूँ। यहाँ स्थिति कुछ विचित्र थी। वास्तव में  विशेष अतिथि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक की प्रतीक्षा हो रही थी, वे कभी भी वहाँ पहुँच सकते थे। उन के पहुँचने पर बोलने वाले को तुरंत ही मंच से विदा होना पड़ता। तब वक्ता की स्थिति बहुत असहज हो जाती। ऐसा लगता जैसे किसी को पूरा खाने के पहले ही खाने की टेबल से उठा दिया गया हो। मैं ने तय किया कि मैं एक या दो मिनट में अपना संदेश पूरा कर दूंगा। 

जैसे ही मंच से बोलने वाले वक्ता ने अपना वक्तव्य पूरा किया, मुझे बुलाया गया। मैं ने मंच पर पहुँच कर इतना ही बोला कि "समाज में बोलने और लिखने के कानून हैं। यदि उन को हम तोड़ते हैं तो अपराध होता है, जिस के लिए सजा हो सकती है, दीवानी दायित्व भी आ सकता है। वे सभी कानून ब्लागरी पर भी लागू होते हैं, कोई अलग से कानून नहीं है। इसलिए ब्लागरों को चाहिए कि वे सभी सावधानियाँ जो समाज में उन्हें बरतनी चाहिए ब्लागरी में भी बरतें।" मैं दो मिनट से कम समय में ही मंच से उतर आया था। मेरे बाद फिर किसी को मंच पर बोलने के लिए बुला लिया गया। तभी बोलने वाले को बीच में हटा कर सूचना दी गई कि विशेष अतिथि आ चुके हैं और हमारे स्वागत के पहले मीडिया वाले उन का बाहर स्वागत कर रहे हैं। मुझे तसल्ली हुई कि मैं समय रहते मंच से उतर लिया। वरना......।  मैं ने अपना मोबाइल निकाल कर समय देखा तो पौने छह से ऊपर समय हो चुका था। समारोह पौने दो घंटे पीछे चल रहा था। 

बेरोजगार मक्खन ढक्कन कोटा में

सुबह पत्नी ने समय पर जगाया तो था, पर रात देर से सोने के कारण उठ नहीं पाया नींद फिर लग गई। फिर नींद खुली तो कॉलबेल बज रही थी। पत्नी ने आ कर बताया कि एक अधेड़ पुरुष और स्त्री और एक नौजवान खड़ा है। मैं समझा कोई नया मुवक्किल है। उसे कहा कि उन्हें ऑफिस में बिठाओ। मैं अपनी शक्ल दुरुस्त करने को बाथरूम में घुस गया। दस मिनट बाद बदन पर कुर्ता डाल कर ऑफिस में घुसा तीनों हाथ जोड़ कर खड़े हो गए। मैं ने उन्हें कहा -वकील तो फीस ले कर काम करता है, हाथ जोड़ने की जरूरत नहीं। वे तीनों फिर भी खड़े रहे। मैं अपनी कुर्सी पर बैठा तो भी खड़े रह गए। 

मैं ने पूछा -कहाँ से आए हो? कैसे आए हो? क्या काम है? तो अधेड़ पुरुष बोलने लगा।

-साहब! आप ने पहचाना नहीं? हम सीधे नोएडा से आ रहे हैं। मक्खन हूँ और ये मक्खनी और ये ढक्कन। कई महिनों से खुशदीप जी के यहाँ काम करते थे। उनको पता नहीं क्या हुआ। शनिवार को रात को घर लौटे तो गला एकदम खराब था। आते ही बोले -भई मक्खन-ढक्कन अपने यहाँ से तुम्हारा दाना-पानी उठ गया। हमारा स्लॉग ओवर बंद हो गया। एक महिने की एडवांस तनखा ले जाओ और काम ढूंढ लो। हम रात को कहाँ जाते तो रात उन के बरामदे में काटी। शायद सुबह तक साहब का मूड़ कुछ ठीक हो जाए। पर सुबह भी साहब का वही आलम था। गला इतना खराब था कि उन से बोले ही नहीं जा रहा था। हमें इशारे में समझाया कि हमें जाना ही पड़ेगा।

मैं मक्खन परिवार को देख एकदम सकते में आ गया। मैं ने पढ़ा तो था कि खुशदीप जी ने ब्लागरी को अलविदा कह दिया है। पर ये अंदाज नहीं था कि वे स्लॉग ओवर भी बंद कर देंगे। मैं ने मक्खन से पूछा- फिर तुम ने क्या किया? 

-साहब! हम ने साहब का नमक खाया है। हम तो उन की हालत देख कर कुछ कहने के भी नहीं थे। उन से महिने की एडवांस तनखा भी नहीं ली और चल दिए। हजरत निजामुद्दीन स्टेशन पहुँचे तो वहाँ जो ट्रेन खड़ी थी, उस में बैठ गए। टिकट तो था नहीं। टीटी ने पकड़ लिया और कोटा तक ले आया। हम ने टीटी को दास्तान सुनाई तो उसे हम पर रहम आ गया। बोला यहाँ किसी को जानते हो। हम ने आप का नाम बताया। तो वह आप को जानता था। उस ने कहा कि अभी रात है स्टेशन पर गुजार लो मैं द्विवेदी जी का पता दे देता हूँ। सुबह उन के यहाँ चले जाना। सुबह उजाला होते ही स्टेशन से चल दिए। पूछते-पूछते आप के घर आ गए हैं। 

मैं सकते में था, मुझे समझ ही नहीं आ रहा था इन तीनों का क्या करूँ? फिर उन से ही पूछा -मुझ से क्या चाहते हो? मक्खन फिर कहने लगा।

-अब साहब का मूड तो लगता है हफ्ते-दो हफ्ते ठीक नहीं होगा। तब तक हम चाहते हैं कि आप यहाँ ही काम दिला दें,अपने यहाँ ही रख लें। जब उन का मूड ठीक हो जाएगा तो वे स्लाग ओवर जरूर चालू करेंगे। हम उन के पास वापस लौट जाएंगे। 

अब मैं क्या करता? अंदर जा कर पत्नी को सारी दास्तान सुनाई। तो वह कहने लगी -बेचारे इतनी दूर से आए हैं। उन्हें चाय की भी नहीं पूछी। मैं उन्हें चाय देती हूँ। तब तक आप सोच लीजिए क्या करना है। मैं क्या सोचता? मुझे तो तैयार हो कर अदालत जाना था। मैं तैयार होने में जुट गया। घंटे भर बाद ऑफिस घुसा तो मक्खन-मक्खनी और ढक्कन चाय पी चुके थे। मैं ने उन से कहा -तुम यहीं रुको। मैं दोपहर बाद अदालत से लौटूंगा तब तुम्हारे बारे में सोचेंगे। 

अदालत में फुरसत हुई तो ध्यान फिर मक्खन परिवार की ओर घूम गया। खुशदीप जी को फोन लगा कर बताया कि मक्खन-मक्खनी और ढक्कन इधर मेरे यहाँ पहुँच गए हैं, चिंता न करना। आप का गला ठीक हो जाए तो इन्हें वापस भेज दूंगा जिस से स्लॉग ओवर फिर आरंभ हो सके। खुशदीप बोल तो रहे थे पर गले से आवाज कम ही निकल रही थी, जैसे-तैसे बताया कि वे एंटीबायोटिक खा रहे हैं। मुझे तो एंटीबायोटिक के नाम से झुरझुरी छूट गई। मैं ने बताया कि मुझे तो इन से डर लगता है और मैं तो ऐसा मौका आने पर सतीश सक्सेना जी की होमियोपैथी की मीठी गोलियों से काम चला लेता हूँ। आप एंटीबायोटिक के बजाए सक्सेना जी को ट्राई क्यों नहीं करते? खुशदीप कहने लगे -शाम को चैनल की नौकरी भी करनी है। अब की बार तो एंटीबायोटिक खा ली हैं। सक्सेना जी को अगली बार ट्राई करूंगा। फोन कट गया। मैं असमंजस का असमंजस में रहा। सोचने लगा मक्खन-ढक्कन को अपने यहाँ ही रख लूँ। पर फिर ख्याल आया कि कहीं इन को रखने से खुशदीप नाराज न हो जाए। मुझे उपाय सूझ गया। 

ऑफिस से लौटते ही तीनों को कह दिया कि मैं तुम्हें काम दे भी सकता हूँ और दिलवा भी सकता हूँ। लेकिन खुशदीप जी से  नो-ऑब्जेक्शन लाना पड़ेगा। बेचारा मक्खन सुन कर सकते में आ गया। कहने लगा मेरे पास तो दिल्ली जा कर नो-ऑब्जेक्शन लाने का पैसा भी नहीं है। 

मैं ने उसे कहा -मैं तीनों का टिकिट कटा देता हूँ। कल सुबह की गाड़ी से दिल्ली चले जाना। हो सकता है तब तक खुशदीप जी स्लॉग ओवर चालू कर ही दें तो तुम्हारी पुरानी नौकरी ही बरकरार हो जाएगी, वापस न आना पड़ेगा और यदि कुछ दिन और लगें तो यहाँ आने की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी। मैं शाहनवाज को फोन करता देता हूँ। तुम उन से मिल लेना वे स्लॉग ओवर शुरू होने तक तुम्हारा इंतजाम कर देंगे। तीनों इस पर राजी हो गए हैं। पत्नी ने उन्हें खाना परोस दिया है। तीनों बहुत तसल्ली से भोजन कर रहे हैं। अब ये कल तक मेरे मेहमान हैं। शाहनवाज को फोन किया तो वे छूटते ही बोले -वे तो गुड़गाँव शिफ्ट हो रहे हैं। फिर भी उन्हों ने मुझे तसल्ली दी कि वैसे तो स्लाग ओवर कल-परसों तक शुरू हो जाएगा। मक्खन-ढक्कन को परेशानी नहीं होगी। नहीं भी शुरू हुआ तो शुरू होने तक वह दोनों को सतीश सक्सेना जी के यहाँ काम दिला देंगे। अब मैं भी निश्चिंत हूँ कि आज रात की ही तो बात है सुबह जल्दी ही तीनों को गाड़ी में बिठा दूंगा। 

सतीश सक्सेना जी को फोन नहीं किया है। यदि वे भी कहीं टूर पर जा रहे होंगे तो फिर मक्खन-ढक्कन का क्या करूंगा। कल सुबह उन्हें गाड़ी से रवाना होने के बाद ही उन्हें फोन करूंगा। 

सोमवार, 2 मई 2011

मेट्रो में फौरी आशिक की धुलाई!

रिकल्पना पर 9 मार्च2011 को घोषणा की गई थी कि हिन्‍दी ब्‍लॉगरों, प्रेमियों, साहित्‍यकारों : 30 अप्रैल 2011 को दिल्‍ली के हिन्‍दी भवन में मिल रहे हैं। इसे पढ़ने पर मन को लगा था कि सौ से अधिक ब्लागर तो दिल्ली में एक स्थान पर अवश्य एकत्र हो जाएंगे। मन ने मुझ से कहा कि तुझे इस दिन दिल्ली में होना चाहिए,  सभी ब्लागरों से मिलने का अवसर मिल सकेगा। पर वकील का पेशा ऐसा है कि कुछ भी इतने दिन पहले निश्चित नहीं किया जा सकता। कोटा से दिल्ली जाना कठिन नहीं। एक दिन पूर्व भी यदि आरक्षण कराया जाए तो कोटा जनशताब्दी में स्थान मिल जाता है। सुबह 6 बजे कोटा से चले तो दोपहर साढ़े बारह बजे ह.निजामुद्दीन उतार देती है। बेटी पास ही फरीदाबाद में रहती है तो उस से मिलने के लालच ने भी इस अवसर पर उपस्थित होने के लिए प्रेरक का काम किया।  इस बीच अविनाश वाचस्पति और रविन्द्र प्रभात की पुस्तक तथा रविन्द्र प्रभात के उपन्यास की एडवांस बुकिंग के प्रयास आरंभ हो गए। नुक्कड़ पर सभी ब्लागरों को दिल्ली पहुँचने के लिए खुला निमंत्रण प्रकाशित करता रहा। यह निमंत्रण ई-मेल से भी ब्लागरों को भेजा गया। एक सप्ताह पहले डायरी ने बताया कि मैं 29 अप्रेल से 1 मई तक का समय अपने व्यवसाय से निकाल सकता हूँ। मैं ने 28 अप्रेल की मध्यरात्रि को कोटा से ह. निजामुद्दीन पहुँचने वाली ट्रेन में जाने की और 1 मई को दोपहर निजामुद्दीन से कोटा के लिए आने वाली शताब्दी एक्सप्रेस की टिकटें अपने और अपनी पत्नी शोभा के लिए बुक करवा ली।   

म 29 अप्रेल की सुबह फरीदाबाद बेटी के यहाँ पहुँचे, कुछ आराम किया। कुछ लोगों से मिले-जुले। इस बीच टीम हमारीवाणी के सदस्यों से फोन पर संपर्क हुआ। मैं ने तय किया कि मुझे रात्रि को ही दिल्ली पहुँच जाना चाहिए। मैं शाम का भोजन कर रात्रि आठ बजे फरीदाबाद से रवाना हुआ। एक घंटे के ऑटोरिक्षा के सफर के बाद मैं बदरपुर सीमा पर था। शाहनवाज के घर जाने के लिए मेट्रो का प्रीत विहार के लिए टोकन लिया। सेंट्रल सेक्रेट्रिएट से गाड़ी बदल कर राजीव चौक पहुँचा। यहाँ एक ही प्लेटफॉर्म से दो तरह की गाड़ियाँ थीं। एक आनन्द विहार जाने वाली, दूसरी  सिटी सेंटर नोएडा के लिए। मुझे आनन्द विहार वाली गाड़ी पकड़नी थी। प्लेटफॉर्म का सूचक बता रहा था कि आनन्द विहार वाली गा़ड़ी पहले आ रही है। गाड़ी आती दिखाई दी। उस पर आनन्द विहार लिखा देख मैं उस में चढ़ गया और चैन की सांस ली कि अब और गाड़ी नहीं बदलनी। शाहनवाज को फोन किया तो वे प्रीतविहार स्टेशन के लिए अपने घर से रवाना हो गए। गाड़ी एक स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो चली ही नहीं। गाड़ी का सूचक देरी के लिए खेद व्यक्त करने लगा। मुझे चिन्ता हुई कि शाहनवाज को स्टेशन पहुँच कर मेरी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। कुछ देर बाद गाड़ी चली तो यमुना बेंक आ कर गाड़ी फिर रुक गई और बहुत देर तक रुकी रही। कारण क्या था यह भी पता नहीं चल रहा था। फिर खेद व्यक्त किया जाने लगा। इस बीच शाहनवाज का फोन आ गया। वे स्टेशन पहुँच गए थे। मैं ने उन्हें स्थिति बताई। 

कुछ देर बाद यमुना बेंक से गाड़ी चली तो कुछ दूर चल कर रुक गई। यहाँ सूचना दी गई कि आनन्द विहार की ओर यात्रा करने वाले गाड़ी बदलने के लिए उतर जाएँ। मैं हैरान हुआ कि ऐसा कैसे हो सकता है? मैं तो आनन्द विहार वाली गाड़ी में ही बैठा था। जब मैं गाड़ी में सवार हुआ शायद गाड़ी पर गलती से आनन्द विहार डिस्प्ले हो रहा था। खैर मैं जल्दी से उतरा और गाड़ी की प्रतीक्षा करने लगा। कुछ इंतजार के बाद गाड़ी आई तो उस में सवार हुआ। यहाँ गाड़ी में भीड़ थी मैं हैंडल पकड़ कर खड़ा हो गया। गाड़ी कुछ देर चली ही थी कि मेरे दाईं ओर से एक नौजवान चिल्लाया -कौन सा स्टेशन आने वाला है? इतनी जोर से बोलना मुझे असभ्यता लगी।  मैं ने चौंक कर उस की ओर देखा। तो वह डिब्बे के पीछे से निकल कर दरवाजे के पास आ रहा था। किसी ने उसे बताया कि लक्ष्मीनगर आने वाला है तो वह बीच में ही रुक गया। लक्ष्मीनगर स्टेशन पर सवारियाँ उतरी-चढ़ीं और गाड़ी आगे बढ़ गई। जोर से बोलने वाला युवक दरवाजे के पास आ कर खड़ा हो गया। जैसे ही स्टेशन आया और गाड़ी रुकने के लिए धीमी हुई वह युवक फिर चिल्लाया -कौन है वह बहन का भाई सामने आए! किसी ने उत्तर न दिया। उस ने वही वाक्य फिर दोहराया। मेरी बायीं और से कोई साठ वर्ष के एक सरदार जी ने ऊँची आवाज में कहा -मैं हूँ बहनों का भाई! 

गाड़ी रुकी, दरवाजा खुला तो वह युवक दरवाजे को बंद होने से रोक कर खड़ा हो गया। अब गाड़ी चल नहीं सकती थी। सिस्टम ही कुछ ऐसा था कि दरवाजे बंद हों तो गाड़ी चले। अब युवक चिल्ला रहा था जो भी बहनों के भाई हों सब आ जाएँ। देखते हैं कौन टिकता है। अब तक स्पष्ट हो गया था कि वह युवक शराब के नशे में है। गाड़ी रुक जाने से यात्री परेशान हो रहे थे। कुछ ने उस युवक को नीचे उतरने को कहा तो वह अकड़ गया -गाड़ी तो फैसला होने पर चलेगी। कुछ अन्य युवक जो उस के परिचित लगे उसे गाड़ी से उतारने का प्रयास करने लगे लेकिन वह युवक दरवाजे को रोके खड़ा रहा। इतने में गाड़ी में यात्री एक युवक गुस्सा गया, उस ने उस युवक को जबरन नीचे उतारा तो उस ने उस युवक को पकड़ कर प्लेटफार्म पर ही रोकना चाहा। फिर क्या था। गाड़ी से तीन चार पैसेंजर नीचे उतरे और शराबी युवक की धुलाई कर दी। फिर उसे घसीट कर गाड़ी में ले आए। वे चाहते थे कि गाड़ी चल पड़े तो उस युवक को धुलाई करते हुए आगे ले जाया जाए और फिर उसे पुलिस के हवाले कर दिया जाए। लेकिन शराबी युवक के साथ वालों ने उसे खींच कर फिर से प्लेटफार्म पर उतार लिया। गाड़ी के दरवाजे बंद होने लगे तो एक यात्री युवक ने अन्य को इशारा किया तो यात्री सभी ट्रेन पर आ चढ़े। दरवाजा बंद हुआ और गाड़ी चल पड़ी। 

ब सरदार जी युवकों से नाराज हो रहे थे -जवान पट्ठे एक शराबी को गाड़ी में नहीं खींच पाए। उसे तो आगे ले जा कर ऐसा सबक सिखाना था कि इलाके के सब गुंडों को सबक मिल जाए। कुछ यात्री सरदार जी का गुस्सा शांत करने में जुट गए। कुछ उन युवकों को शाबासी देने लगे जिन ने उस शराबी युवक की धुलाई की थी। कहते हैं, दिल्ली मेट्रो में सुरक्षा जबर्दस्त है, लेकिन इतनी देर में कोई भी सुरक्षाकर्मी वहाँ दिखाई न दिया। रहा भी होगा तो उस ने इस घटना में कोई हस्तक्षेप न किया। हाँ इस घटना को देख कर अच्छा लगा कि दिल्ली मेट्रो के यात्रियों में सहभागिता और स्वसुरक्षा की भावना विकसित होने लगी है। सही भी है सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा जागरूक जनता ही कर सकती है, गुंडों से भी और भ्रष्टों से भी।  कुछ देर में गाड़ी प्रीत विहार स्टेशन पर थी। मैं वहीं उतर गया। स्टेशन के बाहर शाहनवाज मिल गए। यकायक मैं पहचान न सका। अब तक उन का क्लीन शेव चित्र देखा था। यहाँ वे खूबसूरत दाढ़ी में थे। वे मुझे अपनी बाइक पर बिठा कर अपने घर ले चले।  

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

मोतीलाल साँप वाला किसी को धोखा नहीं देता, कभी झूठ नहीं बोलता...

पाँचवीं क्लास तक स्कूल घर से बिलकुल पास ही था, शहर में हमारे घूमने फिरने का दायरा सीमित था। जैसे ही छठी कक्षा में प्रवेश लिया। हम मिडिल स्कूल जाने लगे। यह शहर के दूसरे छोर, रेलवे स्टेशन से कुछ ही पहले था। पर अब रेलवे स्टेशन तक हमारे घूमने फिरने की जद में आ गया था। स्कूल जाने के लिए हमें शहर के पूरे बाजार को पार करना पड़ता था। स्टेशन से मांगरोल जाने वाली सड़क बहुत चौड़ी थी। दुकानों और इमारतों से सड़क के बीच दोनों ओर बहुत स्थान बच रहता था। वहाँ लोग जमीन पर अस्थाई रूप से दुकान लगा लेते। अजीब अजीब चीजों की दुकानें हुआ करती थीं। पुरानी किताबों की दुकानें, जिन में कॉमिक्स और कार्टूनों वाली किताबें, ऐसी रहस्यमय किताबें जिन्हें दुकानदार छिपा कर रखता था बिका करती थीं और केवल बड़ी उम्र वालों को ही बेचता था। कलेंडरों और चित्रों की दुकानें, नए सामानों की दुकानें आदि आदि। कभी कभी सड़क के किनारे मजमा लगा होता।  कोई धुलाई का पाउडर बेच रहा होता। एक बरतन में धुलाई का पाउडर पानी में घोलता और फिर एक साफ दिखने वाला कपड़ा उस में डालता और घुमाता। थोड़ी देर में कपड़ा उस में से निकाल कर निचोड़ता तो पानी एक दम काला पड़ जाता। दर्शक आश्चर्य में डूब जाते कि इस साफ दिखने वाले कपड़े में इतना मैल था! फिर कपड़े को एक-दो बार फिर साफ पानी में निचोड़ा जाता। यह पानी भी मैला हो जाता, तब और आश्चर्य होता। सब से अधिक आश्चर्य तो तब होता जब वह कपड़ा वैसा उजला हो जाता जैसे अभी बजाज की दुकान से खरीदा हो।

क बार एक मूँछ वाला काला सा अधेड़ आदमी सड़क के किनारे मजमा लगाए हुए था। दो-तीन साँप बंद करने वाली बाँस की बनी टोकरियाँ रखी थीं। कुछ और सामान रखा  था जिन में तस्वीर में जड़े कुछ प्रमाण पत्र थे जो कलेक्टर, उप कलेक्टऱ, बड़े स्कूल के प्रिंसिपल आदि जैसे बड़े लोगों द्वारा दिए गए थे। मूँछ वाला खड़े हो कर प्रवचन जैसा कर रहा था। कुछ बच्चे उसे जिज्ञासा से सुनने खड़े हो गए थे। मैं भी वहीं खड़ा हो गया। वह बोल रहा था...

-हाड़ौती के तीनों जिलों में एक नाम मशहूर है, मोतीलाल साँपवाला। जानते हो कौन है मोतीलाल साँपवाला? लोग किसी को जहर दे कर मार देते हैं। किस के लिए? धन के लिए, दौलत के लिए, औरत के लिए। औरत अपने आदमी को जहर दे देती है, अपने यार के लिए। बेटा बाप को जहर दे देता है उस की दौलत के लिए। भाई भाई को जहर दे देता है दौलत के लिए। बिलकुल कलयुग आ गया है, कोई किसी का भरोसा नहीं कर सकता। लेकिन लोग मोतीलाल साँपवाला का भरोसा करते हैं। वह किसी को धोखा नहीं देता, वह कभी झूठ नहीं बोलता। कोई किसी को जहर दे तो मोतीलाल साँपवाला उस का जहर खींच कर बाहर निकाल देता है। आदमी को मरने से बचा लेता है। जानते हो कौन है मोतीलाल साँपवाला? जो जानते हों हाथ खड़े करें!

क भी हाथ खड़ा नहीं हुआ। वह फिर कहने लगता - सब नए लोग हैं, पुराने होते तो तुरंत बता देते। तो जान लो मोतीलाल साँपवाला आप के सामने खड़ा है। यह कह कर उस ने अपनी लम्बी मूंछों पर ताव दिया। मैं समझ गया यह खुद के बारे में कह रहा है। 
-यह मोतीलाल साँप पालता है, जहर पैदा करने वाले को पालता है। आप जानते हैं इन टोकरियों में क्या है? इन में साँप हैं। जीवित साँप। मोतीलाल आप को दिखाएगा, जिन्दा साँप। उस ने एक टोकरी हाथों में उठाई और बोलने लगा। उस ने तब क्या बोला, यह मुझे अब याद नहीं आ रहा। वैसे भी मेरा ध्यान उस की बातों से हट कर टोकरी पर केंद्रित हो गया था। उस ने टोकरी का ढक्कन नहीं खोला, बोलते हुए वापस रख दी। फिर कहने लगा
-बहुत सपेरे आते हैं। साँप का खेल दिखाते हैं, चादर बिछा कर दान माँगते हैं और चले जाते हैं। उन के साँपों के जहर के दाँत निकाले हुए होते हैं। लेकिन मोतीलाल साँपवाला साँप के जहर के दाँत नहीं निकालता। साँप का जहर निकाल लो तो साँप फिर टोकरी के बाहर जिन्दा नहीं रह सकता। उसे कोई भी मार देगा। मोतीलाल के साँप जहर वाले हैं। मोतीलाल साँप का खेल नहीं दिखाता। साँपों से प्यार करता है। इतना कह कर उस ने एक टोकरी का ढक्कन हटाया। उस में एक बड़ा सा साँप कुंडली मार कर बैठा था। उसे रोशनी मिलते ही उस ने फन उठाया और आसपास देखने लगा। मोतीलाल फिर बोलने लगा...

-साँप जब तक इस टोकरी में है आप सुरक्षित हैं। यह बाहर निकला तो किसी को भी काट सकता है। इसे इस टोकरी में ही रहने दिया जाए। इतना कह कर उस ने उस टोकरी का ढक्कन बंद कर दिया। यह मोतीलाल जादू जानता है। वह चमत्कार करना जानता है। इस ने बहुत खेल दिखाए हैं। ये सब प्रमाण पत्र उन्हीं खेलों से चकित और प्रसन्न हो कर बड़े-बड़े लोगों ने दिए हैं...... उस ने एक प्रमाण पत्र हाथ में उठा कर दिखाया। यह फलाँ स्कूल के हेडमास्टर ने दिया है। इस तरह उसने सारे प्रमाणपत्र दिखाए और उन्हें देने वालों के बड़प्पन के बारे में व्याख्यान दिया।

-मोतीलाल साँपवाला आप को भी जादू दिखाएगा। वैसे दुनिया में कोई जादू नाम की कोई चीज नहीं होती,  चमत्कार नाम की कोई चीज नहीं होती। फिर भी आप जादू और चमत्कार देखते हैं, आप चकित हो जाते हैं। पर ये सब साइंस और हाथ की सफाई होती है। मोतीलाल साँपवाला आज आप को जादू दिखाएगा ही नहीं जादू सिखाएगा भी ........ वह बोलता रहा, भीड़ चमत्कृत सी सुनती रही। मैं भी उस शख्सियत से चमत्कृत हो गया था,  सब से अधिक तो उस की लच्छेदार भाषा से। मैं सोच रहा था इतना अच्छा बोलना मुझे भी आता तो मैं स्कूल के सारे मास्टरों पर जादू कर देता, सारे स्कूल के बच्चों को चमत्कृत कर देता।

ह बाँए हाथ का अंगूठा दिखाते हुए बोल रहा था -मेरा यह अंगूठा कट गया था। मैं ने कटे हुए को संभाल कर रखा। उसे मसाला लगा कर ऐसा कर दिया कि वह मरा हुआ न लगे, जिन्दा लगे। फिर मैं ने उसे उस की जगह चिपका दिया। देखिए जनाब! मेरा बाँए हाथ का अंगूठा देखिए! कैसा लगता है? जिन्दा या मरा हुआ? उस ने एक बड़े आदमी के सामने अपना बाँए हाथ का अंगूठा आगे कर कहा -इसे दबा कर देखिए... डरिए नहीं, दबा कर देखिए! उस आदमी ने दबा कर देखा, फिर दाहिने हाथ का अंगूठा दिखाया, दोनों एक जैसे थे।
उस आदमी ने कहा -यह कटा हुआ नहीं है। तुम झूठ बोलते हो।

स का प्रवचन फिर शुरू हो गया -मोतीलाल साँपवाला कभी झूठ नहीं बोलता। वह साबित कर देगा कि उस का अंगूठा कटा हुआ है। वह कटे हुए हिस्से को अलग कर के दिखाएगा। लेकिन उस के लिए आप सब को मेरे सामने आना होगा। मेरे पीछे कोई और रहा और अंगूठा वापस जोड़ने के पहले हिला भी तो अंगूठा अलग होने के बाद फिर नहीं जुड़ पाएगा। आप में से कोई नहीं चाहेगा कि मोतीलाल का अंगूठा कटा हुआ रह जाए। इस लिए सब सामने आ जाएँ। उस ने सारे दर्शकों को आपने सामने कर दिया। फिर बाँए हाथ का अंगूठा दाहिने हाथ से पकड़ा और अलग कर दिया। अब बाएँ हाथ का कटा हुआ अंगूठा उस के दाएँ हाथ में था।
 
मैं चमत्कृत था। लोग जड़ हो गए थे, जरा भी हिल नहीं रहे थे। मेरी तो साँस तक रुक गई थी। फिर उस ने अंगूठा वापस बाँए हाथ में चिपका दिया। दोनों हाथ दिखाए। दोनों हाथों के अंगूठे एक जैसे और जीवित थे।  वह फिर बोलने लगा।
-सही और सच बात तो यह है कि मोतीलाल झूठा आदमी है। उस ने झूठ बोला कि उस का अंगूठा कटा हुआ है। उस का अंगूठा कभी नहीं कटा, कभी हाथ से अलग नहीं हुआ। लेकिन आप ने अलग होते हुए देखा। जो देखा वह आप की आँखों का भ्रम था। आप की आँखों का भ्रम ही आप के लिए जादू है, चमत्कार है। यह वही चमत्कार है जिसे दिखा कर लोग लाखों कमाते हैं। झूठे लोग चमत्कारी साधु हो जाते हैं और लोगों से धन ठगते हैं। फिर लाखों ठगते हैं,  एक दिन लखपती बन जाते हैं। उन से बड़े धोखेबाज, भगवान बन जाते हैं। लोगों से अपनी पूजा कराते हैं। वे सब से बड़े झूठे, मक्कार और धोखेबाज हैं। पर मोतीलाल साँपवाला झूठा, मक्कार और धोखेबाज नहीं है। वह बताएगा कि उस ने कैसे अंगूठे को हाथ से अलग करने का चमत्कार दिखाया। वह आप को सिखाएगा कि कैसे यह चमत्कार किया जाता है।

फिर उस ने ट्रिक बताई, और सिखाई। मैं ने भी उसे मनोयोग से सीखा। सब के बाद उस ने कहा - लेकिन मोतीलाल साँपवाले के भी पेट है, शरीर है, बीबी है, बच्चे हैं और एक बूढ़ी माँ भी है। मोतीलाल को उन के लिए कमाना पड़ता है। लेकिन वह धोखा दे कर, मक्कारी कर के नहीं कमाता। वह दवा बेचता है। जहर का असर खत्म करने की दवा। फिर उस ने एक सफेद कागज जमीन पर बिछा कर उस पर एक बड़े ताम्बे के पैसे (आजकल कल के रुपए का सिक्का) के बराबर की काली गोल टिकियाएँ जमा दीं।

- वह फिर बोलने लगा ये टिकिया बिच्छू के काटे की दवा है। वह एक टिकिया बेचता है सिर्फ एक चवन्नी में, अठन्नी में तीन बेचता है और रुपए की सात टिकिया बेचता है। फिर उस ने एक बिच्छू निकाला, एक आदमी को तैयार किया, उसे बिच्छू का डंक लगाया। वह आदमी कराह उठा। मोतीलाल ने झट से टिकिया को डंक वाली जगह घिसा। उस आदमी का दर्द गायब हो गया। फिर उस ने टिकिया बेचना शुरू किया। कागज पर निकाली हुई कोई पच्चीस टिकिया उस ने बेच दी। मेरे पास उस वक्त एक चवन्नी न थी, वर्ना मैं भी एक खरीद लेता। कभी बिच्छू काट ले तो काम आए। मजमा खत्म हो गया। मैं अंगूठा अलग करने वाली ट्रिक का अभ्यास करता रहा। कुछ दिन लोगों को दिखाने लगा। जिन ने मोतीलाल को ऐसा करते न देखा था वे हैरान हो जाते।

स के बाद मोतीलाल को हर साल तीन चार बार मजमा लगाते हुए देखता। उस से मैं ने तीन-चार जादू की ट्रिक्स सीखीं। फिर मालूम हुआ कि वह हमारे ही शहर का रहने वाला है। पूरी हाड़ौती में बिच्छू काटे के इलाज की टिकिया बेचता है। लगभग हर घर में उस की बेची टिकिया मिल जाती थी। जब बिच्छू किसी को काट लेता तो टिकिया के प्रयोग से आराम भी हो जाता। टिकिया न मिलती तब मरीज को अस्पताल ले जाया जाता। लेकिन उस के पहले मोतीलाल की याद जरूर आती, पास-पड़ौस में पूछा जाता कि किसी के पास बिच्छू की टिकिया है या नहीं। फिर मैं पढ़ने के लिए शहर के बाहर चला गया। बाद में काम के सिलसिले में अपना शहर छूट गया। फिर भी मोतीलाल दो-चार साल में कहीं न कहीं। मेले-ठेले और रेल में टकरा जाता। फिर उस का दिखना बंद हो गया। एक दिन पता लगा वह मर गया। उस के बच्चे हैं। जो पढ़ लिख कर सरकारी नौकरी करने लगे हैं। पिछले पच्चीस साल से उसे मैं ने नहीं देखा, न उस के बारे में सुना।

पिछले सोमवार अदालत के केंटीन में जब हम मध्यान्ह की चाय पी रहे थे। तब वहाँ बाबा सत्य साईं के मरने की चर्चा होने लगी। तब मुझे मोतीलाल बेसाख्ता याद आया। लेकिन मुझे उस का नाम याद न आ रहा था। मैं ने उस के बारे में लोगों को बताया तो एक पैसठ वर्षीय व्यक्ति ने तुरंत उस का नाम बताया। मुझे भी उस का नाम याद आ गया। मुझे आश्चर्य हुआ कि हाड़ौती के दूसरे छोर पर रहने वाले भी उसे वैसे ही जानते थे, जैसे मैं जानता था। मोतीलाल की भाषा लच्छेदार थी। वह अपने अंदाज से लोगों को सम्मोहित कर लेता था। उसे लोगों को चमत्कृत करना आता था। लेकिन वह कभी महत्वपूर्ण आदमी नहीं बना। वह चमत्कार दिखा कर अपनी दवा बेचता रहा, पेट पालता रहा, बीबी और बच्चे पालता रहा। चमत्कारों का भेद खोलता रहा और करना सिखाता रहा। उस ने कोई शिष्य नहीं बनाया। उस का नाम कभी अखबार में न छपा, किसी किताब में न छपा। उस ने बच्चों को पढ़ाया, पैरों पर खड़े होना सिखाया, मेहनत से कमाना सिखाया और एक दिन मर गया। वह अब सिर्फ उन लोगों को याद है जिन्हों ने उसे बिच्छू काटे की दवा की टिकिया बेचते देखा था। 

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

कमलेश्वर महादेव (क्वाँळजी) में कुछ घंटे

क्वाँळजी शिव मंदिर
श्वरी बाबा का नौकरी का मुकदमा अभी चल रहा है। आते-आते बाबा ने पूछा उस में क्या हो रहा है? मैं ने बताया कि इस बार आप का बयान होना है, उस के लिए आना पड़ेगा। वे तारीख पूछने लगे तो मैं ने कहा मैं फोन पर बता दूंगाष बाबा ने अपने एक चेले को हमारी कार में बिठा भेजा जिस से हम से वहाँ टेक्स वसूल न किया जा सके। चेला टोल प्लाजा पर उतर गया। हम वापस लौटे, इन्द्रगढ़ को पीछे छोड़ा। कोई चार किलोमीटर चलने पर एक पुल के नीचे से रेललाइन को पार किया और सामने जंगल दिखाई पड़ने लगा। हमें कोई दस किलोमीटर और चलना था। एक वाहन चलने लायक सड़क थी। बीच-बीच में एक दो मोटरसायकिल वाले मिले। दो छोटे-छोटे गाँव भी पड़े। क्वाँळजी पहुँचने के तीन किलोमीटर पहले सवाईमाधोपुर वन्य जीव अभयारण्य आरंभ हो गया। क्वाँळजी इसी के अंदर था। 

मंदिर द्वार
दूर से ही मंदिर का शीर्ष दिखाई देने लगा था। शीर्ष पर जड़े कलात्मक पत्थर उखड़ चुके थे,अंदर ईंटों का निर्माण दिखाई दे रहा था। ठीक मंदिर से पहले एक पुल था जिस के नीचे हो कर त्रिवेणी बहती थी, जो पुरी तरह सूखी थी। पुल के पहले दाहिनी ओर एक सड़क जा रही थी जो सौ मीटर दूर जा कर समाप्त होती थी। वहीं छोटे आकार वाला बड़ा कुंड होना चाहिए था। हमने पुल पार किया। वाहन रोक दिया गया। बायीं ओर एक मैदान में पार्क करने को कहा गया। हम ने कार पार्क की तो एक सज्जन टोकन दे कर दस रुपए ले गए। बाकायदे पार्किंग की व्यवस्था थी। सड़क की दूसरी ओर चाय-पान के लिए छप्पर वाली दुकानें लगी थीं। हम सीधे मंदिर पहुँचे। मंदिर के नीचे फिर दुकानें थीं जहाँ नारियल, प्रसाद बिक रहे थे। पास ही कुछ महिलाएँ आक-धतूरे के पुष्पों की मालाएँ और विल्वपत्र भी बेच रहे थे। शोभा (पत्नी) ने नारियल, प्रसाद, मालाएँ और विल्वपत्र वह सब कुछ खरीदा जिन से शिवजी के प्रसन्न होने की संभावना बनती थी। 

द्वार का बायाँ स्तम्भ
द्वार का दायाँ स्तम्भ
मारे पास कैमरा न था, मोबाइल चार थे। जिन में से तीन में कैमरा था। सब से अच्छा वाला था बेटी पूर्वा के पास। मैं ने उस का मोबाइल थाम लिया। मंदिर की सीढ़ियों के पहले ही पुरातत्व विभाग का बोर्ड लगा था। जो सूचित करता था कि यह मंदिर उन के संरक्षण में है। मंदिर के आगे लाल पत्थरों का बना चबूतरा था, जिस पर चढ़ने के लिए पत्थरों की सीढ़ियाँ थीं। उन की घिसावट बता रही थी कि वे कम से कम सात-आठ शताब्दी पहले बनाई गई होंगी। सीढ़ियाँ धूप तप कर गर्म हो गई थीं। मैंने मंदिर के सामने से कुछ चित्र लिए, द्वार अभी सही सलामत था। मेरे हमारे पैर जलने लगे। हम ने शीघ्रता से मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश किया। अंदर ठंडक थी। गर्भगृह उज्जैन के महाकाल मंदिर से बड़ा था। उस की बनावट देख कर लगा कि वह उस से अधिक भव्य भी था। बीचों बीच लाल पत्थर का बना शिवलिंग स्थापित था। प्रवेश द्वार के सामने पार्वती की सफेद संगमरमर  की प्रतिमा थी। मैं पहले जब यहाँ आया तब यह स्थान रिक्त था। शायद प्राचीन प्रतिमा पहले किसी ने चोरी कर ली होगी। फर्श पर संगमरमर लगाया हुआ था। दीवारों पर भी जहाँ पुराने पत्थर हट गए थे वहाँ सिरेमिक टाइल्स लगा दी गई थीं। शिवलिंग के आसपास इतना स्थान था कि पचास-साठ भक्त एक साथ समा जाएँ। अंदर दो पुजारी और एक-दो दर्शनार्थी ही थे।  शोभा ने साथ लाई सामग्री से पूजा की और सामने हाथ जोड़ बैठ गईं।  मैं ने मंदिर का अवलोकन किया और कुछ चित्र लिए। मुझे स्मरण हो आया कि दाहजी (दादाजी) जब तक गैंता में रहे हर श्रावण मास में यहाँ आते रहे। वे पूरे श्रावण मास यहीं रह कर श्रावणी करते थे। शायद उन की ये स्मृतियाँ ही मुझे यहाँ खींच लाई थीं। हम पंद्रह मिनट गर्भगृह में रुके। बाहर आ कर परिक्रमा की कुछ चित्र वहाँ भी लिए। समय के साथ मंदिर का प्राचीन वैभव नष्ट होता जा रहा था। मंदिर के आसपास बने पुराने कमरों की छतें गायब थीं। लेकिन पास ही नए निर्माण हो चुके थे। 
पूजा कराते पुजारी

म मंदिर से नीचे उतरे तो सामने ही छोटा लेकिन आकार में बड़ा कुंड दिखाई दिया। कुंड में पानी था। मुझे आश्चर्य हुआ कि कुंड में पानी होते हुए भी त्रिवेणी सूखी क्यों है? सोतों पर ही कुंडों का निर्माण हुआ था।उन से निकल कर ही जल त्रिवेणी में बहता था। एक दुकानदार ने बताया कि कुंडों का पानी तो कार्तिक में ही समाप्त हो जाता है। उस के बाद तो कुंडों में नलकूप का पानी डाला जाता है जिस से दर्शनार्थी स्नान कर सकें। यह मनुष्यकृत समस्या थी। आसपास की पहाड़ियों पर स्थित जंगल कट चुके थे। ये पहाड़ियाँ ही तो वर्षा का जल अपने अंदर भरे रखती थीं जो इन कुंडों के सोतों में आता था। पहाड़ियाँ नंगी हुई तो उन की जल धारण क्षमता कम हो गई। अब कुंडों में पानी कहाँ से आता। शोभा कुंड में नीचे पानी तक उतर गई। पानी कुछ गंदला था। फिर भी उस ने श्रद्धावश अपने हाथ-मुहँ उस में पखारे। मैं ने भी उस का अनुसरण किया। बच्चे कुंड तक नहीं आए। बाहर आ कर मैं ने बड़े कुंड के लिए पूछा तो दुकानदार ने त्रिवेणी के पहले वाली सड़क का उल्लेख कर दिया।


नई स्थापित की गई पार्वती प्रतिमा
म पार्किंग तक पहुँचे। अब कुछ भूख भी लगने लगी थी। पार्किंग में ही कार के सभी दरवाजे खोल कर फल निकाल कर तराशे। मूंगफली के तले हुए दाने और मूंगफली की बनी हुई मिठाई निकाल ली गई। सब ने फलाहार किया।  वापस चले तो पुल पार करते ही कार को बड़े कुंड के मार्ग पर मोड़ दिया। कुंड देखते ही मन निराशा से भर गया। यह कुंड आकार में छोटा था और अपने महात्म्य के कारण ही बड़ा कहाता था। कुंड को पूरी तरह ध्वस्त कर चौड़ा कर दिया गया था। चौड़ा करने में जिस तरह का निर्माण किया गया था। उस की प्राचीनता समाप्त हो गई थी। यहाँ भी कुंड में नलकूप द्वारा डाला जा रहा पानी था। यात्री आ कर उसी में स्नान कर रहे थे।  लोग यहाँ पहुँचते ही सब से पहले इसी कुंड में स्नान करते, फिर मंदिर के पास बने बड़े कुंड में, उस के बाद मंदिर में दर्शन करने जाते। मुझे अब विचार आया कि हम ने तो सारी प्रक्रिया को ही उलट डाला था। इस पूरे स्थान को प्राचीन इमारतों का संरक्षण करने वाले सिद्धहस्त लोगों के निर्देशन में पुननिर्माण की आवश्यकता है। इसे प्रमुख दर्शनीय स्थल और पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित किया जा सकता है। पर मौजूदा सरकार में ऐसी सोच होना संभव प्रतीत नहीं होता। हम वापस इंद्रगढ़ की ओर चल दिए। वहाँ अभी एक और मुवक्किल और एक वकील मित्र से मिलना था। 

सब से बायीं ओर बैठी शोभा

मंदिर के बाहर कलात्मक प्रतिमाएँ
 
मंदिर आधार पर शेष बची प्रस्तर कला


आकार में बड़ा, नाम में छोटा कुंड
(दायीं ओर नलकूप से जल लाता पाइप दिखाई दे रहा है)
नोट :  सभी चित्रों को क्लिक कर के बड़े आकार में स्पष्ट देखा जा सकता है।