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सोमवार, 5 अगस्त 2013

प्रेमचन्द की कहानी 'बालक'

प्रेमचन्द की इस कहानी को ले कर 4 अगस्त के जनसत्ता में किसी 'धर्मवीर' ने अपने लेख "हम प्रेमचंद को जानते हैं" के माध्यम से कानून और नैतिकता के सवाल खड़े किए हैं और प्रेमचन्द की प्रगतिशीलता को उछाला है। जब कि ये कहानी कहती है कि स्त्री-पुरुष का समानता पर आधारित प्रेम किस तरह प्रगतिशील मूल्यों को स्वयमेव स्थापित करता है। आप खुद इस कहानी को पढ़ें और निर्णय करें।  


‘कहानी’

बालक

-प्रेमचन्द


गंगू को लोग ब्राह्मण कहते हैं और वह अपने को ब्राह्मण समझता भी है। मेरे सईस और खिदमतगार मुझे दूर से सलाम करते हैं। गंगू मुझे कभी सलाम नहीं करता। वह शायद मुझसे पालागन की आशा रखता है। मेरा जूठा गिलास कभी हाथ से नहीं छूता और न मेरी कभी इतनी हिम्मत हुई कि उससे पंखा झलने को कहूँ। जब मैं पसीने से तर होता हूँ और वहाँ कोई दूसरा आदमी नहीं होता, तो गंगू आप-ही-आप पंखा उठा लेता है; लेकिन उसकी मुद्रा से यह भाव स्पष्ट प्रकट होता है कि मुझ पर कोई एहसान कर रहा है और मैं भी न-जाने क्यों फौरन ही उसके हाथ से पंखा छीन लेता हूँ। उग्र स्वभाव का मनुष्य है। किसी की बात नहीं सह सकता। ऐसे बहुत कम आदमी होंगे, जिनसे उसकी मित्रता हो; पर सईस और खिदमतगार के साथ बैठना शायद वह अपमानजनक समझता है। मैंने उसे किसी से मिलते-जुलते नहीं देखा। आश्चर्य यह है कि उसे भंग-बूटी से प्रेम नहीं, जो इस श्रेणी के मनुष्यों में एक असाधरण गुण है। मैंने उसे कभी पूजा-पाठ करते या नदी में स्नान करते नहीं देखा। बिलकुल निरक्षर है; लेकिन फिर भी वह ब्राह्मण है और चाहता है कि दुनिया उसकी प्रतिष्ठा तथा सेवा करे और क्यों न चाहे ? जब पुरखों की पैदा की हुई सम्पत्ति पर आज भी लोग अधिकार जमाये हुए हैं और उसी शान से, मानो खुद पैदा किये हों, तो वह क्यों उस प्रतिष्ठा और सम्मान को त्याग दे, जो उसके पुरुखों ने संचय किया था? यह उसकी बपौती है।

मेरा स्वभाव कुछ इस तरह का है कि अपने नौकरों से बहुत कम बोलता हूँ। मैं चाहता हूँ, जब तक मैं खुद न बुलाऊँ, कोई मेरे पास न आये। मुझे यह अच्छा नहीं लगता कि जरा-सी बातों के लिए नौकरों को आवाज देता फिरूँ। मुझे अपने हाथ से सुराही से पानी उँड़ेल लेना, अपना लैम्प जला लेना, अपने जूते पहन लेना या आलमारी से कोई किताब निकाल लेना, इससे कहीं ज्यादा सरल मालूम होता है कि हींगन और मैकू को पुकारूँ। इससे मुझे अपनी स्वेच्छा और आत्मविश्वास का बोधा होता है। नौकर भी मेरे स्वभाव से परिचित हो गये हैं और बिना जरूरत मेरे पास बहुत कम आते हैं। इसलिए एक दिन जब प्रात:काल गंगू मेरे सामने आकर खड़ा हो गया तो मुझे बहुत बुरा लगा। ये लोग जब आते हैं, तो पेशगी हिसाब में कुछ माँगने के लिए या किसी दूसरे नौकर की शिकायत करने के लिए। मुझे ये दोनों ही बातें अत्यंत अप्रिय हैं। मैं पहली तारीख को हर एक का वेतन चुका देता हूँ और बीच में जब कोई कुछ माँगता है, तो क्रोध आ जाता है; कौन दो-दो, चार-चार रुपये का हिसाब रखता फिरे। फिर जब किसी को महीने-भर की पूरी मजूरी मिल गयी, तो उसे क्या हक है कि उसे पन्द्रह दिन में खर्च कर दे और ऋण या पेशगी की शरण ले, और शिकायतों से तो मुझे घृणा है। मैं शिकायतों को दुर्बलता का प्रमाण समझता हूँ, या ठकुरसुहाती की क्षुद्र चेष्टा।

मैंने माथा सिकोड़कर कहा, क्या बात है, 'मैंने तो तुम्हें बुलाया नहीं ?'

गंगू के तीखे अभिमानी मुख पर आज कुछ ऐसी नम्रता, कुछ ऐसी याचना, कुछ ऐसा संकोच था कि मैं चकित हो गया। ऐसा जान पड़ा, वह कुछ जवाब देना चाहता है; मगर शब्द नहीं मिल रहे हैं। मैंने जरा नम्र होकर कहा, 'आखिर क्या बात है, कहते क्यों नहीं ? तुम जानते हो, यह मेरे टहलने का समय है। मुझे देर हो रही है।'

गंगू ने निराशा भरे स्वर में कहा, 'तो आप हवा खाने जायँ, मैं फिर आ जाऊँगा।'

यह अवस्था और भी चिन्ताजनक थी। इस जल्दी में तो वह एक क्षण में अपना वृत्तान्त कह सुनायेगा। वह जानता है कि मुझे ज्यादा अवकाश नहीं है। दूसरे अवसर पर तो दुष्ट घण्टों रोयेगा। मेरे कुछ लिखने-पढ़ने को तो वह शायद कुछ काम समझता हो; लेकिन विचार को, जो मेरे लिए सबसे कठिन साधना है, वह मेरे विश्राम का समय समझता है। वह उसी वक्त आकर मेरे सिर पर सवार हो जायगा। मैंने निर्दयता के साथ कहा,

'क्या कुछ पेशगी माँगने आये हो ? मैं पेशगी नहीं देता।'

'जी नहीं सरकार, मैंने तो कभी पेशगी नहीं माँगा।'

'तो क्या किसी की शिकायत करना चाहते हो ? मुझे शिकायतों से घृणा है।'

'जी नहीं सरकार, मैंने तो कभी किसी की शिकायत नहीं की।'

गंगू ने अपना दिल मजबूत किया। उसकी आकृति से स्पष्ट झलक रहा था, मानो वह कोई छलाँग मारने के लिए अपनी सारी शक्तियों को एकत्र कर रहा हो। और लड़खड़ाती हुई आवाज में बोला, 'मुझे आप छुट्टी दे दें।

'मैं आपकी नौकरी अब न कर सकूँगा।'

यह इस तरह का पहला प्रस्ताव था, जो मेरे कानों में पड़ा। मेरे आत्माभिमान को चोट लगी। मैं जब अपने को मनुष्यता का पुतला समझता हूँ, अपने नौकरों को कभी कटु-वचन नहीं कहता, अपने स्वामित्व को यथासाध्य म्यान में रखने की चेष्टा करता हूँ, तब मैं इस प्रस्ताव पर क्यों न विस्मित हो जाता ! कठोर स्वर में बोला, 'क्यों, क्या शिकायत है ?

'आपने तो हुजूर, जैसा अच्छा स्वभाव पाया है, वैसा क्या कोई पायेगा; लेकिन बात ऐसी आ पड़ी है कि अब मैं आपके यहाँ नहीं रह सकता। ऐसा न हो कि पीछे से कोई बात हो जाय, तो आपकी बदनामी हो। मैं नहीं चाहता कि मेरी वजह से आपकी आबरू में बट्टा लगे।'

मेरे दिल में उलझन पैदा हुई। जिज्ञासा की अग्नि प्रचण्ड हो गयी। आत्मसमर्पण के भाव से बरामदे में पड़ी हुई कुर्सी पर बैठकर बोला, 'तुम तो पहेलियाँ बुझवा रहे हो। साफ-साफ क्यों नहीं कहते, क्या मामला है ?'

गंगू ने बड़ी नम्रता से कहा, 'बात यह है कि वह स्त्री, जो अभी विधवा-आश्रम से निकाल दी गयी है, वह गोमती देवी ...

वह चुप हो गया। मैंने अधीर होकर कहा, 'हाँ, निकाल दी गयी है, तो फिर ? तुम्हारी नौकरी से उससे क्या सम्बन्ध ?'

गंगू ने जैसे अपने सिर का भारी बोझ जमीन पर पटक दिया -- 'मैं उससे ब्याह करना चाहता हूँ बाबूजी !'

मैं विस्मय से उसका मुँह ताकने लगा। यह पुराने विचारों का पोंगा ब्राह्मण जिसे नयी सभ्यता की हवा तक न लगी, उस कुलटा से विवाह करने जा रहा है, जिसे कोई भला आदमी अपने घर में कदम भी न रखने देगा।

गोमती ने मुहल्ले के शान्त वातावरण में थोड़ी-सी हलचल पैदा कर दी। कई साल पहले वह विधवाश्रम में आयी थी। तीन बार आश्रम के कर्मचारियों ने उसका विवाह करा दिया था, पर हर बार वह महीने-पन्द्रह दिन के बाद भाग आयी थी। यहाँ तक कि आश्रम के मन्त्री ने अबकी बार उसे आश्रम से निकाल दिया था। तब से वह इसी मुहल्ले में एक कोठरी लेकर रहती थी और सारे मुहल्ले के शोहदों के लिए मनोरंजन का केन्द्र बनी हुई थी।

मुझे गंगू की सरलता पर क्रोध भी आया और दया भी। इस गधो को सारी दुनिया में कोई स्त्री ही न मिलती थी, जो इससे ब्याह करने जा रहा है। जब वह तीन बार पतियों के पास से भाग आयी, तो इसके पास कितने दिन रहेगी ? कोई गाँठ का पूरा आदमी होता, तो एक बात भी थी। शायद साल-छ: महीने टिक जाती। यह तो निपट आँख का अन्धा है। एक सप्ताह भी तो निबाह न होगा। मैंने चेतावनी के भाव से पूछा, 'तुम्हें इस स्त्री की जीवन-कथा मालूम है?'

गंगू ने आँखों-देखी बात की तरह कहा, 'सब झूठ है सरकार, लोगों ने हकनाहक उसको बदनाम कर दिया है।'

'क्या कहते हो, वह तीन बार अपने पतियों के पास से नहीं भाग आयी ?'

'उन लोगों ने उसे निकाल दिया, तो क्या करती ?'

'कैसे बुध्दू आदमी हो ! कोई इतनी दूर से आकर विवाह करके ले जाता है, हजारों रुपये खर्च करता है, इसीलिए कि औरत को निकाल दे ?'

गंगू ने भावुकता से कहा, 'जहाँ प्रेम नहीं है हुजूर, वहाँ कोई स्त्री नहीं रह सकती। स्त्री केवल रोटी-कपड़ा ही नहीं चाहती, कुछ प्रेम भी तो चाहती है। वे लोग समझते होंगे कि हमने एक विधवा से विवाह करके उसके ऊपर कोई बहुत बड़ा एहसान किया है। चाहते होंगे कि तन-मन से वह उनकी हो जाय, लेकिन दूसरे को अपना बनाने के लिए पहले आप उसका बन जाना पड़ता है हुजूर। यह बात है। फिर उसे एक बीमारी भी है। उसे कोई भूत लगा हुआ है। यह कभी-कभी बक-झक करने लगती है और बेहोश हो जाती है।'

'और तुम ऐसी स्त्री से विवाह करोगे ?' मैंने संदिग्ध भाव से सिर हिलाकर कहा, समझ लो, जीवन कड़वा हो जायगा।'

गंगू ने शहीदों के-से आवेश से कहा, 'मैं तो समझता हूँ, मेरी जिन्दगी बन जायगी बाबूजी, आगे भगवान् की मर्जी !'

मैंने जोर देकर पूछा, 'तो तुमने तय कर लिया है ?'

'हाँ, हुजूर।'

'तो मैं तुम्हारा इस्तीफा मंजूर करता हूँ।'

मैं निरर्थक रूढ़ियों और व्यर्थ के बन्धनों का दास नहीं हूँ; लेकिन जो आदमी एक दुष्टा से विवाह करे, उसे अपने यहाँ रखना वास्तव में जटिल समस्या थी। आये-दिन टण्टे-बखेड़े होंगे, नयी-नयी उलझनें पैदा होंगी, कभी पुलिस दौड़ लेकर आयेगी, कभी मुकदमे खड़े होंगे। सम्भव है, चोरी की वारदातें भी हों। इस दलदल से दूर रहना ही अच्छा। गंगू क्षुधा-पीड़ित प्राणी की भाँति रोटी का टुकड़ा देखकर उसकी ओर लपक रहा है। रोटी जूठी है, सूखी हुई है, खाने योग्य नहीं है, इसकी उसे परवाह नहीं; उसको विचार-बुद्धि से काम लेना कठिन था। मैंने उसे पृथक् कर देने ही में अपनी कुशल समझी।

2

पाँच महीने गुजर गये। गंगू ने गोमती से विवाह कर लिया था और उसी मुहल्ले में एक खपरैल का मकान लेकर रहता था। वह अब चाट का खोंचा लगाकर गुजर-बसर करता था। मुझे जब कभी बाजार में मिल जाता, तो मैं उसका क्षेम-कुशल पूछता। मुझे उसके जीवन से विशेष अनुराग हो गया था। यह एक सामाजिक प्रश्न की परीक्षा थी सामाजिक ही नहीं, मनोवैज्ञानिक भी। मैं देखना चाहता था, इसका परिणाम क्या होता है। मैं गंगू को सदैव प्रसन्न-मुख देखता। समृद्धि और निश्चिन्तता के मुख पर जो एक तेज और स्वभाव में जो एक आत्म-सम्मान पैदा हो जाता है, वह मुझे यहाँ प्रत्यक्ष दिखायी देता था। रुपये-बीस-आने की रोज बिक्री हो जाती थी। इसमें लागत निकालकर आठ-दस आने बच जाते थे। यही उसकी जीविका थी; किन्तु इसमें किसी देवता का वरदान था; क्योंकि इस वर्ग के मनुष्यों में जो निर्लज्जता और विपन्नता पायी जाती है, इसका वहाँ चिह्न तक न था। उसके मुख पर आत्म-विकास और आनन्द की झलक थी, जो चित्त की शान्ति से ही आ सकती है।

एक दिन मैंने सुना कि गोमती गंगू के घर से भाग गयी है ! कह नहीं सकता, क्यों ? मुझे इस खबर से एक विचित्र आनन्द हुआ। मुझे गंगू के संतुष्ट और सुखी जीवन पर एक प्रकार कीर् ईर्ष्या होती थी। मैं उसके विषय में किसी अनिष्ट की, किसी घातक अनर्थ की, किसी लज्जास्पद घटना की प्रतीक्षा करता था। इस खबर से ईर्ष्या को सान्त्वना मिली। आखिर वही बात हुई, जिसका मुझे विश्वास था। आखिर बच्चा को अपनी अदूरदर्शिता का दण्ड भोगना पड़ा। अब देखें, बचा कैसे मुँह दिखाते हैं। अब आँखें खुलेंगी और मालूम होगा कि लोग, जो उन्हें इस विवाह से रोक रहे थे, उनके कैसे शुभचिन्तक थे। उस वक्त तो ऐसा मालूम होता था, मानो आपको कोई दुर्लभ पदार्थ मिला जा रहा हो। मानो मुक्ति का द्वार खुल गया है। लोगों ने कितना कहा, कि यह स्त्री विश्वास के योग्य नहीं है, कितनों को दगा दे चुकी है, तुम्हारे साथ भी दगा करेगी; लेकिन इन कानों पर जूँ तक न रेंगी। अब मिलें, तो जरा उनका मिजाज पूछूँ। कहूँ क्यों महाराज, देवीजी का यह वरदान पाकर प्रसन्न हुए या नहीं ? तुम तो कहते थे, वह ऐसी है और वैसी है, लोग उस पर केवल दुर्भावना के कारण दोष आरोपित करते हैं। अब बतलाओ, किसकी भूल थी ?

उसी दिन संयोगवश गंगू से बाजार में भेंट हो गयी। घबराया हुआ था, बदहवास था, बिलकुल खोया हुआ। मुझे देखते ही उसकी आँखों में आँसू भर आये, लज्जा से नहीं, व्यथा से। मेरे पास आकर बोला, 'बाबूजी, गोमती ने मेरे साथ विश्वासघात किया।' मैंने कुटिल आनन्द से, लेकिन कृत्रिम सहानुभूति दिखाकर कहा, 'तुमसे तो मैंने पहले ही कहा था; लेकिन तुम माने ही नहीं, अब सब्र करो। इसके सिवा और क्या उपाय है। रुपये-पैसे ले गयी या कुछ छोड़ गयी ?'

गंगू ने छाती पर हाथ रखा। ऐसा जान पड़ा, मानो मेरे इस प्रश्न ने उसके ह्रदय को विदीर्ण कर दिया।

'अरे बाबूजी, ऐसा न कहिए, उसने धेले की भी चीज नहीं छुई। अपना जो कुछ था, वह भी छोड़ गयी। न-जाने मुझमें क्या बुराई देखी। मैं उसके योग्य न था और क्या कहूँ। वह पढ़ी-लिखी थी, मैं करिया अक्षर भैंस बराबर। मेरे साथ इतने दिन रही, यही बहुत था। कुछ दिन और उसके साथ रह जाता, तो आदमी बन जाता। उसका आपसे कहाँ तक बखान करूँ हुजूर। औरों के लिए चाहे जो कुछ रही हो, मेरे लिए तो किसी देवता का आशीर्वाद थी। न-जाने मुझसे क्या ऐसी खता हो गयी। मगर कसम ले लीजिए, जो उसके मुख पर मैल तक आया हो। मेरी औकात ही क्या है बाबूजी ! दस-बारह आने का मजूर हूँ; पर इसी में उसके हाथों इतनी बरक्कत थी कि कभी कमी नहीं पड़ी।'

मुझे इन शब्दों से घोर निराशा हुई। मैंने समझा था, वह उसकी बेवफाई की कथा कहेगा और मैं उसकी अन्ध-भक्ति पर कुछ सहानुभूति प्रकट करूँगा; मगर उस मूर्ख की आँखें अब तक नहीं खुलीं। अब भी उसी का मन्त्र पढ़ रहा है। अवश्य ही इसका चित्त कुछ अव्यवस्थित है।

मैंने कुटिल परिहास आरम्भ किया- 'तो तुम्हारे घर से कुछ नहीं ले गयी ?

'कुछ भी नहीं बाबूजी, धेले की भी चीज नहीं।'

'और तुमसे प्रेम भी बहुत करती थी ?'

'अब आपसे क्या कहूँ बाबूजी, वह प्रेम तो मरते दम तक याद रहेगा।'

'फिर भी तुम्हें छोड़कर चली गयी ?'

'यही तो आश्चर्य है बाबूजी !'

'त्रिया-चरित्र का नाम कभी सुना है ?'

'अरे बाबूजी, ऐसा न कहिए। मेरी गर्दन पर कोई छुरी रख दे, तो भी मैं उसका यश ही गाऊँगा।'

'तो फिर ढूँढ़ निकालो !'

'हाँ, मालिक। जब तक उसे ढूँढ़ न लाऊँगा, मुझे चैन न आयेगा। मुझे इतना मालूम हो जाय कि वह कहाँ है, फिर तो मैं उसे ले ही आऊँगा; और बाबूजी, मेरा दिल कहता है कि वह आयेगी जरूर। देख लीजिएगा। वह मुझसे रूठकर नहीं गयी; लेकिन दिल नहीं मानता। जाता हूँ, महीने-दो-महीने जंगल, पहाड़ की धूल छानूँगा। जीता रहा, तो फिर आपके दर्शन करूँगा।'

यह कहकर वह उन्माद की दशा में एक तरफ चल दिया।

3

इसके बाद मुझे एक जरूरत से नैनीताल जाना पड़ा। सैर करने के लिए नहीं। एक महीने के बाद लौटा, और अभी कपड़े भी न उतारने पाया था कि देखता हूँ, गंगू एक नवजात शिशु को गोद में लिये खड़ा है। शायद कृष्ण को पाकर नन्द भी इतने पुलकित न हुए होंगे। मालूम होता था, उसके रोम-रोम से आनन्द फूटा पड़ता है। चेहरे और आँखों से कृतज्ञता और श्रद्धा के राग-से निकल रहे थे। कुछ वही भाव था, जो किसी क्षुधा-पीड़ित भिक्षुक के चेहरे पर भरपेट भोजन करने के बाद नजर आता है।

मैंने पूछा- कहो महाराज, गोमतीदेवी का कुछ पता लगा, तुम तो बाहर गये थे ?

गंगू ने आपे में न समाते हुए जवाब दिया, 'हाँ बाबूजी, आपके आशीर्वाद से ढूँढ़ लाया। लखनऊ के जनाने अस्पताल में मिली। यहाँ एक सहेली से कह गयी थी कि अगर वह बहुत घबरायें तो बतला देना। मैं सुनते ही लखनऊ भागा और उसे घसीट लाया। घाते में यह बच्चा भी मिल गया। उसने बच्चे को उठाकर मेरी तरफ बढ़ाया। मानो कोई खिलाड़ी तमगा पाकर दिखा रहा हो।'

मैंने उपहास के भाव से पूछा, 'अच्छा, यह लड़का भी मिल गया ? शायद इसीलिए वह यहाँ से भागी थी। है तो तुम्हारा ही लड़का ?'

'मेरा काहे को है बाबूजी, आपका है, भगवान् का है।'

'तो लखनऊ में पैदा हुआ ?'

'हाँ बाबूजी, अभी तो कुल एक महीने का है।'

'तुम्हारे ब्याह हुए कितने दिन हुए ?'

'यह सातवाँ महीना जा रहा है।'

'तो शादी के छठे महीने पैदा हुआ ?'

'और क्या बाबूजी।'

'फिर भी तुम्हारा लड़का है ?'

'हाँ, जी।'

'कैसी बे-सिर-पैर की बात कर रहे हो ?'

मालूम नहीं, वह मेरा आशय समझ रहा था, या बन रहा था। उसी निष्कपट भाव से बोला, मरते-मरते बची, बाबूजी नया जनम हुआ। तीन दिन, तीन रात छटपटाती रही। कुछ न पूछिए। मैंने अब जरा व्यंग्य-भाव से कहा, लेकिन छ: महीने में लड़का होते आज ही सुना। यह चोट निशाने पर जा बैठी।

मुस्कराकर बोला, 'अच्छा, वह बात ! मुझे तो उसका ध्यान भी नहीं आया। इसी भय से तो गोमती भागी थी। मैंने कहा, 'ग़ोमती, अगर तुम्हारा मन मुझसे नहीं मिलता, तो तुम मुझे छोड़ दो। मैं अभी चला जाऊँगा और फिर कभी तुम्हारे पास न आऊँगा। तुमको जब कुछ काम पड़े तो मुझे लिखना, मैं भरसक तुम्हारी मदद करूँगा। मुझे तुमसे कुछ मलाल नहीं है। मेरी आँखों में तुम अब भी उतनी ही भली हो। अब भी मैं तुम्हें उतना ही चाहता हूँ। नहीं, अब मैं तुम्हें और ज्यादा चाहता हूँ; लेकिन अगर तुम्हारा मन मुझसे फिर नहीं गया है, तो मेरे साथ चलो। गंगू जीते-जी तुमसे बेवफाई नहीं करेगा। मैंने तुमसे इसलिए विवाह नहीं किया कि तुम देवी हो; बल्कि इसलिए कि मैं तुम्हें चाहता था और सोचता था कि तुम भी मुझे चाहती हो। यह बच्चा मेरा बच्चा है। मेरा अपना बच्चा है। मैंने एक बोया हुआ खेत लिया, तो क्या उसकी फसल को इसलिए छोड़ दूंगा, कि उसे किसी दूसरे ने बोया था ? यह कहकर उसने जोर से ठट्ठा मारा।

मैं कपड़े उतारना भूल गया। कह नहीं सकता, क्यों मेरी आँखें सजल हो गयीं। न-जाने वह कौन-सी शक्ति थी, जिसने मेरी मनोगत घृणा को दबाकर मेरे हाथों को बढ़ा दिया। मैंने उस निष्कलंक बालक को गोद में ले लिया और इतने प्यार से उसका चुम्बन लिया कि शायद अपने बच्चों का भी न लिया होगा।

गंगू बोला, 'बाबूजी, आप बड़े सज्जन हैं। मैं गोमती से बार-बार आपका बखान किया करता हूँ। कहता हूँ, चल, एक बार उनके दर्शन कर आ; लेकिन मारे लाज के आती ही नहीं।'

मैं और सज्जन ! अपनी सज्जनता का पर्दा आज मेरी आँखों से हटा। मैंने भक्ति से डूबे हुए स्वर में कहा, 'नहीं जी, मेरे-जैसे कलुषित मनुष्य के पास वह क्या आयेगी। चलो, मैं उनके दर्शन करने चलता हूँ। तुम मुझे सज्जन समझते हो ? मैं ऊपर से सज्जन हूँ; पर दिल का कमीना हूँ। असली सज्जनता तुममें है। और यह बालक वह फूल है, जिससे तुम्हारी सज्जनता की महक निकल रही है।

मैं बच्चे को छाती से लगाये हुए गंगू के साथ चला।

शुक्रवार, 6 मई 2011

अग्रवाल जी की भाव विह्वलता और साढू़ भाई का प्रेम

भाव विह्वल
डॉ.गिरिजाशरण अग्रवाल 
पॉवर पाइंट प्रस्तुति के बाद जैसे ही सब अतिथि मंचासीन हुए, सब से पहले हिन्दी साहित्य निकेतन के सचिव डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल बोलने खड़े हुए। आयोजन के मुख्य यजमान होने के कारण यह उन का अधिकार था कि वे अतिथियों का स्वागत कर उन का आभार प्रकट करें। लेकिन बेटी द्वारा प्रस्तुत पॉवर पाइंट प्रस्तुति ने उन्हें अत्यन्त भावविह्वल कर दिया था। वे उसी से आरंभ हुए, उन के स्वर से लग रहा था कि आत्मजा ने उन्हें जो  सम्मान दिया था उस के स्नेह से उत्पन्न आह्लाद उन्हें रुला देगा, जिसे वे जबरन रोके हुए थे। उन्हों ने बताया कि इस प्रस्तुति के विनिर्माण को दोनों बेटियों ने उन से छुपाया और उन के सो जाने के बाद रात-रात भर जाग कर उसे तैयार किया। निस्संदेह यह प्रस्तुति उन के जीवन की अद्भुत घटना थी जिसे वे शायद जीवन भर विस्मृत न कर सकेंगे। अपनी भावविह्वलता को नियंत्रित कर लेने के उपरांत उन्हों ने सभी अतिथियों का स्वागत किया और हिंदी साहित्य निकेतन की स्थापना से ले कर आज तक किए गए स्वयं के अथक प्रयत्नों के साथ मित्रों के सहयोग का स्मरण भी किया। उन्होंने कार्यक्रम के अध्यक्ष अशोक चक्रधर को अपना छोटा भाई बताते हुए उन के योगदान की चर्चा की। उन्हों ने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री 'निशंक' की उपस्थिति में यह भी कहा कि निकेतन का विकास बिना किसी सरकारी सहायता के वे कर पाए हैं। उन के स्वर में सहायता न मिल पाने का दर्द अधिक था।

गिरिराज शरण जी के इस वक्तव्य के उपरांत धड़ाधड़ एक के बाद एक पुस्तकों और पत्रिकाओं के विमोचन हुए। बंडलों का खोला जाना, फिर सभी अतिथियों के पास एक-एक प्रति का पहुँचना और फिर सभी के द्वारा एक-एक प्रति को दर्शकाभिमुख कर प्रदर्शित कर चित्र खिंचवाना, आज कल विमोचन की सामान्य प्रक्रिया हो चली है, जो निभाई गई। मौके की नोईयत को देखते हुए यह काम इतनी त्वरित गति से हुआ कि कभी-कभी कोई अतिथि विमोचित पुस्तक/पत्रिका का अंतिम कवर पृष्ठ भी दर्शकाभिमुख कर देता और पड़ौसी अतिथि उसे ठोसा देकर उस का ध्यान आकर्षित करता और उस की आमुख दर्शकाभिमुख करवाता। इस समूह विमोचन में मुख्यमंत्री निशंक ने एक अपनी ही पुस्तक का विमोचन भी किया। जिस के बारे में गिरिराज जी ने बताया कि मंच से उस के विमोचन की घोषणा होने तक भी उन्हें यह पता नहीं लगने दिया गया था कि वे अपनी ही पुस्तक का विमोचन करने जा रहे हैं।
ब्लागिरी पर पुस्तक का विमोचन
स के उपरांत 64 ब्लागरों का सम्मान आरंभ हो गया। अब मंच संचालन का दायित्व एक बार पुनः रविन्द्र प्रभात ने अपने हाथों में ले लिया था। ऐसा दृष्य था जैसे किसी स्कूली प्रतियोगिता का समापन समारोह हो और प्रतियोगी बालक-बालिकाओं को पुरस्कार वितरित किए जा रहे हों। ब्लागरों में भी पुरस्कार प्राप्त करने का उत्साह बालकों जैसा ही था, वे भी पूरी तरह आह्लादित थे। रविन्द्र जी एक नाम पुकारते, फिर वह दर्शकों में से निकल कर मंच तक पहुँचता, अपना पुरस्कार लेता, तब तक अगले ब्लागर का नाम लिया जा रहा होता। कुछ ही देर बाद दर्शक यह पता करने में असमर्थ हो गए कि जो ब्लागर सम्मान ग्रहण कर रहा है, वह कौन है। दर्शकों की चौथाई संख्या तो पुरस्कृत व्यक्तियों की ही थी। इस बीच दर्शकों के बीच हलचल बढ़ गई और शोर भी। हर पुरस्कार पर कम या अधिक करतल ध्वनि गूंज उठती। समय सात से ऊपर हो चुका था। पुरस्कार वितरण, ग्रहण, दर्शन और व्यवस्था में सब इतने मशगूल थे कि आमंत्रण पत्र में वर्णित दूसरा सत्र और उस के अतिथि सभी से विस्मृत हो गए।

मुझे मंच पर एक लंबा सा दाढ़ी वाला नौजवान दिखा जो एक कैमरा स्टेंड पर अपना कैमरा टिकाए चित्र ले रहा था। । मैं पहली बार उसे देख रहा था, फिर भी तुरंत ही पहचान गया।  मैं ने पास बैठे शाहनवाज को उसे दिखा कर पूछा -इसे पहचान रहे हो? वे कुछ देर विस्मय से उस नौजवान को देखते रहे, फिर कहा -कहीं यह सिरफिरा तो नहीं? मैं ने बताया वही है, यह भी कहा कि इस से समारोह के बाद मिलेंगे। हम फिर पुरस्कार समारोह के दर्शन में व्यस्त हो गए। कुछ ही देर में मैं ने देखा कि शाहनवाज पास की सीट से गायब हैं। तभी मैं ने रतनसिंह शेखावत को हॉल से बाहर जाते देखा। वे फरीदाबाद में रहते हैं और मेरी सोच थी कि समारोह की समाप्ति के बाद मैं उन के वाहन पर लिफ्ट ले कर निकल लूंगा। शोभा वहीं बेटी के घर टिकी हुई थी। हमें अगले दिन वापस भी आना था। मैं भी तुरंत उन के पीछे बाहर की ओर लपका। बाहर निकल कर देखा तो बहुत लोग लॉबी में आपस में मिलने और विमोचित पुस्तकें खरीदने की जुगाड़ में थे। रतनसिंह जी उसी भीड़ में खो गए थे। कुछ ही देर में मैं ने उन्हें तलाश लिया। मैं उन से पहली बार प्रत्यक्ष हो रहा था।
रतनसिंह शेखावत
हले भी दो बार अवसर था जब हम मिल सकते थे। लेकिन जब मैं फरीदाबाद में होता तो वे व्यस्त होते। हम नहीं मिल सके। वे मेरे लिए एक महत्वपूर्ण ब्लागर हैं, इस मायने में कि वे अपने ब्लाग के माध्यम से राजस्थान के इतिहास की अनेक अलिखित कथाओं को सामने ले कर आए हैं। मेरी भी इस काम में रुचि रही है। हम मिले तो कुछ औपचारिक बातों के बाद वे एक कहानी बताने लगे कि कैसे शेखावतों का एक हिस्सा राजस्थान से गायब हो गया था और कैसे उन के वंशज अब उत्तर प्रदेश में मिल गए। मेरे पूछने पर उन्हों ने बताया कि वे बाइक से आए हैं। मैं ने उन्हें बताया कि मैं तो उन से लिफ्ट ले कर फरीदाबाद लौटने की सोचता रहा। उन्हों ने ही मुझे सुझाया कि मोहिन्द्र कुमार जी जाएँगे मैं उन के साथ निकल लूँ। उन से परिचय भी कराया। मैं ने मोहिन्द्र जी से कहा तो वे मुझे वापसी में फरीदाबाद सेक्टर 28 तक लिफ्ट देने को तैयार हो गए। मेरा रात्रि को ही फरीदाबाद लौटना तय हो गया था। यह अच्छा ही हुआ कि यह रमेश कुमार जैन सिरफिरा से मिलने के पहले ही तय हो गया। पहले उन से मिल लिया होता तो शायद वे मुझे अपने घर ले जा चुके होते। मैंने वहाँ आस पास निगाह दौड़ाई तो शाहनवाज दिखाई न दिए। पुस्तक काउंटर पर पुस्तकों को घेर कर लोग खड़े थे। मुझे वहाँ तक खुद के पहुँचने की संभावना क्षीण नजर आई तो मैं वापस हॉल में चला गया। पुरस्कार वितरण अंतिम  दौर में था। इस बीच मेरी मुलाकात निर्मला कपिला जी से हो गई। जैसा चित्र में वे दिखाई देती हैं उस से अधिक सुंदर और ममताशील थीं। मैं सोचता रहा कि यदि मेरी कोई बड़ी बहिन होती तो ऐसी ही होतीं। मैं उन की कहानियों का मुरीद हूँ। ऐसी सच्ची कहानियाँ मुझे कहीं नहीं मिलीं। वे पात्रों के चरित्र चित्रण में जरा कंजूस हैं और बीच की बहुत सी घटनाओं का अनुमान पाठकों पर छोड़ देती हैं। वे अपनी कहानी को सीधे मुख्य पात्रों के माध्यम से ही कहती हैं, यदि वे कंजूसी और पाठकों के अनुमान का सहारा न लें और कुछ सहायक पात्रों का उपयोग करने लगें तो उन की बहुत सी कहानियाँ हैं जो उपन्यास बनने को तैयार बैठी हैं। यह उन की किस्सागोई की विलक्षणता है कि वे एक उपन्यास की विषय वस्तु आप को एक कहानी में दे देती हैं। हो सकता है कि वे भविष्य का साहित्य रच रही हों। जब उपन्यास के लिए पाठक के पास वक्त ही नहीं होगा और वे एक छोटी सी कहानी में सारी विषय वस्तु को जानना चाहेंगे।
निर्मला कपिला जी, सम्मान ग्रहण करते हुए
पिला जी के साथ उन के पति भी थे। उन का स्वभाव लगा बहुत ही सरल प्रतीत हुआ। कहते हैं कि किसी पुरुष की सफलता में किसी स्त्री का हाथ अवश्य होता है। उन से मिल कर मुझे लगा कि कपिला जी के इतनी अच्छी कथाकार होने और एक नौजवान विद्यार्थी की तरह इस आयु में ग़ज़लों पर अभ्यास कर के उस में सफलता हासिल कर प्रसन्नता प्राप्त करने में निर्मला जी का बखूबी साथ दिया है। उन की सफलता के एक स्तंभ वे ही हैं। वे दोनों हॉल में मेरे समीप ही बैठ गए। हम बतियाने लगे। इस बीच सम्मान समारोह पूरा हो कर मंचासीन लोगों के वक्तव्य आरंभ हो चुके थे। किस ने क्या कहा इस का ब्यौरा उस दिन जारी की गई प्रेस विज्ञप्ति, उस के आधार पर बने समाचारों और ब्लागरों व कुछ पत्रकारों द्वारा समाचार पत्रों और वेबसाइटों पर प्रस्तुत विवरणों में आप लोग पढ़ चुके होंगे। अतिरिक्त रूप से मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि मुख्यमंत्री ने अपने भाषण का सारा जोर इस बात में लगा दिया कि उन्हों ने उत्तराखंड को विकास दिया है, गंगा को साफ किया है और पर्यटकों को सुविधाएँ प्रदान की हैं। वे हर किसी को उत्तराखंड यात्रा पर बुलाने का न्यौता दे रहे थे। उन्हों ने अग्रवाल जी की बहुत प्रशंसा की कि उन्हों ने असुविधाओं के बीच प्रकाशन संस्थान स्थापित कर उत्तराखंड के लेखकों को एक मंच प्रदान कर हिन्दी के प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान किया। उन्हों ने अग्रवाल जी को किसी तरह की सुविधा उपलब्ध कराने या सहायता प्रदान करने का कोई आश्वासन तक नहीं दिया। अभी अभी विवादों के घेरे में आये निशंक फिर से किसी नए विवाद को जन्म नहीं देना चाहते थे।  उधर चक्रधर जी ने अपनी लच्छेदार शैली में बोलते हुए कहा कि वे अग्रवाल जी के भाई नहीं हो कर साढू़ भाई हैं। शायद भाई से अधिक प्रेम साढ़ू भाई में होता है, वहाँ आपसी प्रेम के साथ-साथ पत्नियों का प्रेम भी तो जुड़ जाता है। 

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

बाबू का मिथ और प्रेम की भाषा

बाबूलाल जांगीड की पान की दुकान घर से अदालत के रास्ते में मिडवे है। रोज सुबह वहाँ रुकना, पान खाना और दिन के लिए बंधवाना। इस बीच वहाँ कुछ और लोगों से बात होती है। वहीं एक और बाबू मिलता है। बाबू में दो व्यक्तित्व हैं। जब भी वह फालतू दिखाई देता है तो फुटपाथ पर खड़ा अनजान लोगों को गालियाँ देता हुआ कोसता रहता है। तब लगता है उस का क्रोध दुनिया भर में प्रलय ला देगा। सब को जला देगा। यह दुनिया जल कर भस्म हो जाएगी। फिर ! फिर एक नई दुनिया का निर्माण होगा। उस का यह गालीगलौच वाला प्रवचन अनवरत चलता रहता है। किसी की हिम्मत नहीं कि उसे उस बीच में टोक दे। जब अति होने लगती है तो बाबूलाल जांगीड़ दुकान से उठता है और बाबू को एक मिनट में ठिकाने ले आता है। इस के लिए उसे डाँटना पड़ता है। यह बाबू का एक व्यक्तित्व है।  
बाबू का दूसरा व्यक्तित्व है, वह प्लम्बर का काम करता है। पान की दुकान उस के मिलने की जगह है। जिसे भी उस से काम लेना होता है इसी पान की दुकान पर तलाशता है। बाबू मौके पर जा कर निरीक्षण करता है। जरूरत का सामान बताता है। जरूरत का सामान आ जाने पर नल आदि की मरम्मत कर वापस लौट आता है। उस का घर कोई पाँच किलोमीटर है। रोज सुबह वह घऱ से पैदल ही निकलता है और काम निपटने के बाद पैदल ही घर लौटता है। लेकिन पान की दुकान पर पहुँचने के बाद पैदल चलने का कोटा खत्म। फिर उसे काम के लिए आप को ही ले जाना होगा। वापसी पर सवारी के पैसे देने होंगे। कई बार मैं पहुँचता हूँ तो वह प्रवचन मोड में होता है। मैं जैसे ही उसे आवाज देता हूँ बाबूलाल! वह मुड़ कर देखता है और तुरंत मुस्कुरा देता है। इसी के साथ उस का प्रवचन मोड समाप्त हो जाता है। 
दो दिन पहले भी ऐसा ही हुआ। वह प्रवचन मोड में था। मैं ने आवाज दी तो तुरंत मेरी ओर देखा और मुस्कुरा दिया। फिर उस ने मटके से पानी निकाल कर पिया और मेरे पास आ खड़ा हुआ। पान की दुकान पर उस का राज्य है, उस ने हाथ बढ़ा कर तम्बाकू हथेली में लिया वहीं ट्यूब से चूना ले कर दूर खड़ा हो कर हथेली पर घिसने लगा। तम्बाकू उस ने बहुत सारा लिया था। जांगीड़ कहने लगा अभी बीस मिनट पहले इस ने जर्दा खाया है और फिर ले लिया है। पता नहीं कैसे पचाता है? मैं ने तुरंत प्रतिक्रिया की -क्या फर्क पड़ता है? जर्दा ज्यादा खाने से यही तो होगा दस बरस पहले मर जाएगा। मरने के डर से क्यों जर्दा खाना छोड़ा जाए। मरने के बाद या तो नर्क में जाना होगा या फिर स्वर्ग में दोनों ही जगह जर्दा मिलने से रहा। इस लिए कोटा यहीं पूरा कर ले तो ठीक है। मैं ने यह बात जोर से कही थी जिस से बाबू सुन ले। जांगीड़ समझ रहा था कि वह भड़क जाएगा। लेकिन वह नहीं भड़का पर मेरी बात का उत्तर देने लगा।
रने से क्या डरना भाई साहब! ये तो सब चलता रहेगा। जो भी मरेगा कंकड़ पत्थर बन जाएगा। पता नहीं कब तक ऐसे ही लुढ़कता रहेगा। फिर जब उस का वक्त आएगा फिर जीव बन जाएगा। अब वो कुछ भी बन सकता है। मछली, या पंछी या फिर जानवर या फिर इंसान। इंसान बड़ी मुश्किल से बनता है। अब मैं कोई जुल्म तो नहीं करता? जर्दा ही तो खाता हूँ। किसी का कुछ बिगाड़ता नहीं। यहाँ तो एक से एक बढ़ कर जुल्मी पड़े हैं। चाहते हैं दुनिया भर का माल खुद ही भर लें, कैसे भी? चोरी से, डकैती से, हक मार कर, दूसरे का गला काट कर। पर उस से क्या सब मर जाएंगे एक दिन। सब कंकड़ पत्थर हो जाएंगे। फिर उन पर घन चलेंगे। गरम-गरम डामर के साथ उन को चिपका दिया जाएगा। फिर रोड़ रोलर चलेगा उन पर। जब धरती से चिपक जाएंगे तो लोग उन सब को पैरों से रोंदेंगे। सब यहीँ है। क्या जरूरत है भोले शंकर को नर्क बनाने की। वो तो ये लोग खुद ही अपने लिए बना कर रखे हैं। 
जांगीड़ की पान की दुकान और पास खड़ा बाबू
स की इस बात में कहीं भी प्रवचन नहीं था। कोई गाली-गलौच नहीं थी। उस की अपनी सोच थी जिसे उसे किसी ने सिखाया नहीं था और न ही उस ने कहीँ इसे पढ़ा था। उस के खुद के अनुभव ने एक मिथ का सृजन कर दिया था। जिसे वह स्वयं सच मानने लगा था। मैं ने उसे पूछा -फिर भोले शंकर की क्या भूमिका है? उस की क्या भूमिका होगी? वह सिर्फ देखता है और आनंद लेता है। उसे थोड़े ही कुछ करने की जरूरत है।
जांगीड़ मुझे कहता है -भाई साहब, यह आप को बहुत मानता है। आप के आवाज देते ही इस का फितूर भाग जाता है और ज्ञान की बातें करने लगता है। मैं ने कहा -उस का राज है। वह सिर्फ प्रेम चाहता है। ऐसा प्रेम जिस में न उसे कोई चाह है और न मुझे कोई चाह। बस जब भी एक दूसरे को दिखाई दे जाते हैं दोनों के अंदर प्रेम उपजने लगता है। शायद वह प्रेम की इस भाषा को समझता भी है।