@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: मेट्रो
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सोमवार, 2 मई 2011

मेट्रो में फौरी आशिक की धुलाई!

रिकल्पना पर 9 मार्च2011 को घोषणा की गई थी कि हिन्‍दी ब्‍लॉगरों, प्रेमियों, साहित्‍यकारों : 30 अप्रैल 2011 को दिल्‍ली के हिन्‍दी भवन में मिल रहे हैं। इसे पढ़ने पर मन को लगा था कि सौ से अधिक ब्लागर तो दिल्ली में एक स्थान पर अवश्य एकत्र हो जाएंगे। मन ने मुझ से कहा कि तुझे इस दिन दिल्ली में होना चाहिए,  सभी ब्लागरों से मिलने का अवसर मिल सकेगा। पर वकील का पेशा ऐसा है कि कुछ भी इतने दिन पहले निश्चित नहीं किया जा सकता। कोटा से दिल्ली जाना कठिन नहीं। एक दिन पूर्व भी यदि आरक्षण कराया जाए तो कोटा जनशताब्दी में स्थान मिल जाता है। सुबह 6 बजे कोटा से चले तो दोपहर साढ़े बारह बजे ह.निजामुद्दीन उतार देती है। बेटी पास ही फरीदाबाद में रहती है तो उस से मिलने के लालच ने भी इस अवसर पर उपस्थित होने के लिए प्रेरक का काम किया।  इस बीच अविनाश वाचस्पति और रविन्द्र प्रभात की पुस्तक तथा रविन्द्र प्रभात के उपन्यास की एडवांस बुकिंग के प्रयास आरंभ हो गए। नुक्कड़ पर सभी ब्लागरों को दिल्ली पहुँचने के लिए खुला निमंत्रण प्रकाशित करता रहा। यह निमंत्रण ई-मेल से भी ब्लागरों को भेजा गया। एक सप्ताह पहले डायरी ने बताया कि मैं 29 अप्रेल से 1 मई तक का समय अपने व्यवसाय से निकाल सकता हूँ। मैं ने 28 अप्रेल की मध्यरात्रि को कोटा से ह. निजामुद्दीन पहुँचने वाली ट्रेन में जाने की और 1 मई को दोपहर निजामुद्दीन से कोटा के लिए आने वाली शताब्दी एक्सप्रेस की टिकटें अपने और अपनी पत्नी शोभा के लिए बुक करवा ली।   

म 29 अप्रेल की सुबह फरीदाबाद बेटी के यहाँ पहुँचे, कुछ आराम किया। कुछ लोगों से मिले-जुले। इस बीच टीम हमारीवाणी के सदस्यों से फोन पर संपर्क हुआ। मैं ने तय किया कि मुझे रात्रि को ही दिल्ली पहुँच जाना चाहिए। मैं शाम का भोजन कर रात्रि आठ बजे फरीदाबाद से रवाना हुआ। एक घंटे के ऑटोरिक्षा के सफर के बाद मैं बदरपुर सीमा पर था। शाहनवाज के घर जाने के लिए मेट्रो का प्रीत विहार के लिए टोकन लिया। सेंट्रल सेक्रेट्रिएट से गाड़ी बदल कर राजीव चौक पहुँचा। यहाँ एक ही प्लेटफॉर्म से दो तरह की गाड़ियाँ थीं। एक आनन्द विहार जाने वाली, दूसरी  सिटी सेंटर नोएडा के लिए। मुझे आनन्द विहार वाली गाड़ी पकड़नी थी। प्लेटफॉर्म का सूचक बता रहा था कि आनन्द विहार वाली गा़ड़ी पहले आ रही है। गाड़ी आती दिखाई दी। उस पर आनन्द विहार लिखा देख मैं उस में चढ़ गया और चैन की सांस ली कि अब और गाड़ी नहीं बदलनी। शाहनवाज को फोन किया तो वे प्रीतविहार स्टेशन के लिए अपने घर से रवाना हो गए। गाड़ी एक स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो चली ही नहीं। गाड़ी का सूचक देरी के लिए खेद व्यक्त करने लगा। मुझे चिन्ता हुई कि शाहनवाज को स्टेशन पहुँच कर मेरी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। कुछ देर बाद गाड़ी चली तो यमुना बेंक आ कर गाड़ी फिर रुक गई और बहुत देर तक रुकी रही। कारण क्या था यह भी पता नहीं चल रहा था। फिर खेद व्यक्त किया जाने लगा। इस बीच शाहनवाज का फोन आ गया। वे स्टेशन पहुँच गए थे। मैं ने उन्हें स्थिति बताई। 

कुछ देर बाद यमुना बेंक से गाड़ी चली तो कुछ दूर चल कर रुक गई। यहाँ सूचना दी गई कि आनन्द विहार की ओर यात्रा करने वाले गाड़ी बदलने के लिए उतर जाएँ। मैं हैरान हुआ कि ऐसा कैसे हो सकता है? मैं तो आनन्द विहार वाली गाड़ी में ही बैठा था। जब मैं गाड़ी में सवार हुआ शायद गाड़ी पर गलती से आनन्द विहार डिस्प्ले हो रहा था। खैर मैं जल्दी से उतरा और गाड़ी की प्रतीक्षा करने लगा। कुछ इंतजार के बाद गाड़ी आई तो उस में सवार हुआ। यहाँ गाड़ी में भीड़ थी मैं हैंडल पकड़ कर खड़ा हो गया। गाड़ी कुछ देर चली ही थी कि मेरे दाईं ओर से एक नौजवान चिल्लाया -कौन सा स्टेशन आने वाला है? इतनी जोर से बोलना मुझे असभ्यता लगी।  मैं ने चौंक कर उस की ओर देखा। तो वह डिब्बे के पीछे से निकल कर दरवाजे के पास आ रहा था। किसी ने उसे बताया कि लक्ष्मीनगर आने वाला है तो वह बीच में ही रुक गया। लक्ष्मीनगर स्टेशन पर सवारियाँ उतरी-चढ़ीं और गाड़ी आगे बढ़ गई। जोर से बोलने वाला युवक दरवाजे के पास आ कर खड़ा हो गया। जैसे ही स्टेशन आया और गाड़ी रुकने के लिए धीमी हुई वह युवक फिर चिल्लाया -कौन है वह बहन का भाई सामने आए! किसी ने उत्तर न दिया। उस ने वही वाक्य फिर दोहराया। मेरी बायीं और से कोई साठ वर्ष के एक सरदार जी ने ऊँची आवाज में कहा -मैं हूँ बहनों का भाई! 

गाड़ी रुकी, दरवाजा खुला तो वह युवक दरवाजे को बंद होने से रोक कर खड़ा हो गया। अब गाड़ी चल नहीं सकती थी। सिस्टम ही कुछ ऐसा था कि दरवाजे बंद हों तो गाड़ी चले। अब युवक चिल्ला रहा था जो भी बहनों के भाई हों सब आ जाएँ। देखते हैं कौन टिकता है। अब तक स्पष्ट हो गया था कि वह युवक शराब के नशे में है। गाड़ी रुक जाने से यात्री परेशान हो रहे थे। कुछ ने उस युवक को नीचे उतरने को कहा तो वह अकड़ गया -गाड़ी तो फैसला होने पर चलेगी। कुछ अन्य युवक जो उस के परिचित लगे उसे गाड़ी से उतारने का प्रयास करने लगे लेकिन वह युवक दरवाजे को रोके खड़ा रहा। इतने में गाड़ी में यात्री एक युवक गुस्सा गया, उस ने उस युवक को जबरन नीचे उतारा तो उस ने उस युवक को पकड़ कर प्लेटफार्म पर ही रोकना चाहा। फिर क्या था। गाड़ी से तीन चार पैसेंजर नीचे उतरे और शराबी युवक की धुलाई कर दी। फिर उसे घसीट कर गाड़ी में ले आए। वे चाहते थे कि गाड़ी चल पड़े तो उस युवक को धुलाई करते हुए आगे ले जाया जाए और फिर उसे पुलिस के हवाले कर दिया जाए। लेकिन शराबी युवक के साथ वालों ने उसे खींच कर फिर से प्लेटफार्म पर उतार लिया। गाड़ी के दरवाजे बंद होने लगे तो एक यात्री युवक ने अन्य को इशारा किया तो यात्री सभी ट्रेन पर आ चढ़े। दरवाजा बंद हुआ और गाड़ी चल पड़ी। 

ब सरदार जी युवकों से नाराज हो रहे थे -जवान पट्ठे एक शराबी को गाड़ी में नहीं खींच पाए। उसे तो आगे ले जा कर ऐसा सबक सिखाना था कि इलाके के सब गुंडों को सबक मिल जाए। कुछ यात्री सरदार जी का गुस्सा शांत करने में जुट गए। कुछ उन युवकों को शाबासी देने लगे जिन ने उस शराबी युवक की धुलाई की थी। कहते हैं, दिल्ली मेट्रो में सुरक्षा जबर्दस्त है, लेकिन इतनी देर में कोई भी सुरक्षाकर्मी वहाँ दिखाई न दिया। रहा भी होगा तो उस ने इस घटना में कोई हस्तक्षेप न किया। हाँ इस घटना को देख कर अच्छा लगा कि दिल्ली मेट्रो के यात्रियों में सहभागिता और स्वसुरक्षा की भावना विकसित होने लगी है। सही भी है सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा जागरूक जनता ही कर सकती है, गुंडों से भी और भ्रष्टों से भी।  कुछ देर में गाड़ी प्रीत विहार स्टेशन पर थी। मैं वहीं उतर गया। स्टेशन के बाहर शाहनवाज मिल गए। यकायक मैं पहचान न सका। अब तक उन का क्लीन शेव चित्र देखा था। यहाँ वे खूबसूरत दाढ़ी में थे। वे मुझे अपनी बाइक पर बिठा कर अपने घर ले चले।  

गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

मेट्रो, पराठा-गली, शीशगंज गुरुद्वारा और लाल-किला

      मेट्रो में यात्री पीछे खिड़की में एक 
यात्री, मेरी  और पूर्वा  की प्रतिच्छाया


सीट  पर बैठी  बंगाली युवती की मेरी  तरफ  पीठ थी  लेकिन जो लड़का  उस से बात  करने में मशगूल था  उस का चेहरा  मेरी  तरफ  था। वे दोनों  मुंबई, सूरत, अहमदाबाद, दिल्ली आदि  नगरों  की बातें  करते हुए कलकत्ता की उन से तुलना  कर रहे थे। मुद्दा  था नगरों  की  सफाई। युवक कुछ ही देर  में  समझ  गया कि मैं उन की बातों में रुचि ले रहा हूँ। यकायक उसे अहसास हुआ  कि उन की उन की भाषाई गोपनीयता  टूट  रही  है। उन की  किसी बात पर मुझे  हँसी आ गई। तभी  युवक ने  मुझ से पूछ ही लिया - आप को बांग्ला आती  है? -नहीं आती। पर ऐसा भी नहीं कि बिलकुल ही नहीं आती, कुछ तो समझ ही सकता हूँ।  धीरे-धीरे वह युवक मुझ से बतियाने  लगा। मैं ने उसे बताया कि कलकत्ता  भले ही आज बंगाली संस्कृति  का केन्द्र बना हो।  पर उसे बसाने वाले  अंग्रेज ही थे। इसी बातचीत में लोकल  नई दिल्ली पहुँच गई। मैं उतरा  और  पूर्वा  और शोभा को देखने  लगा। वह जल्दी  ही दिखाई दे गई।
शीशगंज गुरुद्वारा

म पुल पार  कर स्टेशन से बाहर निकले। सामने ही मेट्रो स्टेशन में उतरने के लिए द्वार था। हम उस में घुस लिए। शोभा पहली बार  दिल्ली आई  थी। हमने  मेट्रो स्टेशन पर  मेट्रो का मानचित्र दिखाने वाले तीन पर्चे  उठाए, एक-एक तीनों  के लिए। गंतव्य तलाश करने लगे। कुछ महिलाएँ  अलग लाइन लगाए हुए थीं। पूर्वा  उधर ही बढ़ी। कुछ ही सैकंड में  वापस आ कर कॉमन लाइन में  लग  गई।  उस ने बताया कि टोकन  के  लिए महिलाओं  की  अलग लाइन नहीं है। मुझे  प्रसन्नता हुई कि  मेट्रो में तो कम  से कम स्त्री -पुरुष भेद समाप्त  हुआ। वह कुछ ही देर  में टोकन लाई और एक-एक हम दोनों  को  दे दिए। अब हमें  सीक्योरिटी  गेट  से अंदर जाना था। मेरा  स्त्री -पुरुष समानता का भ्रम यहाँ टूट  गया। यहाँ फिर स्त्री -पुरुषों के  लिए अलग-अलग गेट  थे। पूर्वा और शोभा जल्दी ही अंदर  पहुँच गईं।  पुरुषों की  पंक्ति स्त्रियों से कम से कम आठ  गुना अधिक थी। मुझे अंदर पहुंचने  में  तीन-चार मिनट  अधिक लगे।
जैन मंदिर चांदनी चौक

मारा  पहला  गंतव्य पहले से तय था। डेढ़  बज  रहे थे और हमें लंच करना था। चांदनी चौक पहुँच कर सीधे पराठे वाली गली जाना  था और पराठे चेपने  थे। एक  ही  स्टेशन बीच  में पड़ता  था। यह  मेट्रो की  ही  मेहरबानी थी कि हम मिनटों में चांदनीचौक में थे। शीशगंज  गुरुद्वारा से आगे ट्रेफिक रोका  हुआ था।  किसी वाहन  को अंदर  नहीं जाने दिया जा रहा  था। सड़क पर  वाहन न होने से वह  बहुत  खुली-खुली लग रही थी। लोग  बेरोक-टोक  सड़क पर चल रहे थे। मुझे लगा कि जब दिल्ली  में स्वचलित  वाहन नहीं रहे होंगे  तब चांदनीचौक  कितना  खूबसूरत होता  होगा। हम  पराठा गली में पहुँचे  तो दुकानों  में  बहुत भीड़  थी। सब  से पुरानी  दुकान  पर जी टीवी वाले किसी कार्यक्रम  की शूटिंग  कर  रहे थे।  मुझे  तुरंत खुशदीप  जी का स्मरण हुआ। हो  सकता है इस कार्यक्रम का निर्माण वही करा रहे हों। खैर, हमें  जल्दी ही  वहाँ जगह  मिल गई। हमने एक-एक परत  पराठा और  एक-एक मैथी का  पराठा खाया और एक लस्सी पी। आठ-दस वर्ष पहले पराठों में  जो  स्वाद  आया था  अब वह नहीं  था।  लगता  था  जैसे अब ये दुकानें केवल  टीवी से मिले प्रचार को भुना  रही हैं। भोजन  के उपरांत वहीं  गली  में एक-पान  खाया और हम गली से बाहर  आए।
लाल किला


ल्लभगढ़  से रवाना  होने  के पहले पूर्वा ने कहा था, हम  गुरुद्वारा  जरूर चलेंगे, वह  मुझे अच्छा लगता  है। वहाँ सब कुछ  बहुत  स्वच्छ  और शांत  होता  है। लेकिन शीशगंज गुरुद्वारा  में अंदर जाने  के लिए लोगों  की  संख्या  को देख उस का इरादा  बदल गया और हम आगे बढ़  गए। मैं ने गुरुद्वारा के  कुछ चित्र अवश्य वहीं सामने के  फुटपाथ पर  खड़े हो  कर लिए।  हमने  नीचे भूतल  पर बनी सुरंग  से सड़क  पार  की और निकले  ठीक लाल किला के सामने। वहाँ द्वार  बंद था। बोर्ड  पर लिखा था। किला सोमवार के अलावा  पूरे  सप्ताह देखा  जा सकता  है। हमारी बदकिस्मती  थी कि हम वहाँ सोमवार  को ही पहुँचे थे।  हम ने बाहर गेट  से ही किले  के चित्र  लिए और वापस मेट्रो  स्टेशन की  ओर चल दिए।