मेट्रो में यात्री पीछे खिड़की में एक
यात्री, मेरी और पूर्वा की प्रतिच्छाया
सीट पर बैठी बंगाली युवती की मेरी तरफ पीठ थी लेकिन जो लड़का उस से बात करने में मशगूल था उस का चेहरा मेरी तरफ था। वे दोनों मुंबई, सूरत, अहमदाबाद, दिल्ली आदि नगरों की बातें करते हुए कलकत्ता की उन से तुलना कर रहे थे। मुद्दा था नगरों की सफाई। युवक कुछ ही देर में समझ गया कि मैं उन की बातों में रुचि ले रहा हूँ। यकायक उसे अहसास हुआ कि उन की उन की भाषाई गोपनीयता टूट रही है। उन की किसी बात पर मुझे हँसी आ गई। तभी युवक ने मुझ से पूछ ही लिया - आप को बांग्ला आती है? -नहीं आती। पर ऐसा भी नहीं कि बिलकुल ही नहीं आती, कुछ तो समझ ही सकता हूँ। धीरे-धीरे वह युवक मुझ से बतियाने लगा। मैं ने उसे बताया कि कलकत्ता भले ही आज बंगाली संस्कृति का केन्द्र बना हो। पर उसे बसाने वाले अंग्रेज ही थे। इसी बातचीत में लोकल नई दिल्ली पहुँच गई। मैं उतरा और पूर्वा और शोभा को देखने लगा। वह जल्दी ही दिखाई दे गई।
शीशगंज गुरुद्वारा
हम पुल पार कर स्टेशन से बाहर निकले। सामने ही मेट्रो स्टेशन में उतरने के लिए द्वार था। हम उस में घुस लिए। शोभा पहली बार दिल्ली आई थी। हमने मेट्रो स्टेशन पर मेट्रो का मानचित्र दिखाने वाले तीन पर्चे उठाए, एक-एक तीनों के लिए। गंतव्य तलाश करने लगे। कुछ महिलाएँ अलग लाइन लगाए हुए थीं। पूर्वा उधर ही बढ़ी। कुछ ही सैकंड में वापस आ कर कॉमन लाइन में लग गई। उस ने बताया कि टोकन के लिए महिलाओं की अलग लाइन नहीं है। मुझे प्रसन्नता हुई कि मेट्रो में तो कम से कम स्त्री -पुरुष भेद समाप्त हुआ। वह कुछ ही देर में टोकन लाई और एक-एक हम दोनों को दे दिए। अब हमें सीक्योरिटी गेट से अंदर जाना था। मेरा स्त्री -पुरुष समानता का भ्रम यहाँ टूट गया। यहाँ फिर स्त्री -पुरुषों के लिए अलग-अलग गेट थे। पूर्वा और शोभा जल्दी ही अंदर पहुँच गईं। पुरुषों की पंक्ति स्त्रियों से कम से कम आठ गुना अधिक थी। मुझे अंदर पहुंचने में तीन-चार मिनट अधिक लगे।
जैन मंदिर चांदनी चौक
हमारा पहला गंतव्य पहले से तय था। डेढ़ बज रहे थे और हमें लंच करना था। चांदनी चौक पहुँच कर सीधे पराठे वाली गली जाना था और पराठे चेपने थे। एक ही स्टेशन बीच में पड़ता था। यह मेट्रो की ही मेहरबानी थी कि हम मिनटों में चांदनीचौक में थे। शीशगंज गुरुद्वारा से आगे ट्रेफिक रोका हुआ था। किसी वाहन को अंदर नहीं जाने दिया जा रहा था। सड़क पर वाहन न होने से वह बहुत खुली-खुली लग रही थी। लोग बेरोक-टोक सड़क पर चल रहे थे। मुझे लगा कि जब दिल्ली में स्वचलित वाहन नहीं रहे होंगे तब चांदनीचौक कितना खूबसूरत होता होगा। हम पराठा गली में पहुँचे तो दुकानों में बहुत भीड़ थी। सब से पुरानी दुकान पर जी टीवी वाले किसी कार्यक्रम की शूटिंग कर रहे थे। मुझे तुरंत खुशदीप जी का स्मरण हुआ। हो सकता है इस कार्यक्रम का निर्माण वही करा रहे हों। खैर, हमें जल्दी ही वहाँ जगह मिल गई। हमने एक-एक परत पराठा और एक-एक मैथी का पराठा खाया और एक लस्सी पी। आठ-दस वर्ष पहले पराठों में जो स्वाद आया था अब वह नहीं था। लगता था जैसे अब ये दुकानें केवल टीवी से मिले प्रचार को भुना रही हैं। भोजन के उपरांत वहीं गली में एक-पान खाया और हम गली से बाहर आए।
लाल किला
बल्लभगढ़ से रवाना होने के पहले पूर्वा ने कहा था, हम गुरुद्वारा जरूर चलेंगे, वह मुझे अच्छा लगता है। वहाँ सब कुछ बहुत स्वच्छ और शांत होता है। लेकिन शीशगंज गुरुद्वारा में अंदर जाने के लिए लोगों की संख्या को देख उस का इरादा बदल गया और हम आगे बढ़ गए। मैं ने गुरुद्वारा के कुछ चित्र अवश्य वहीं सामने के फुटपाथ पर खड़े हो कर लिए। हमने नीचे भूतल पर बनी सुरंग से सड़क पार की और निकले ठीक लाल किला के सामने। वहाँ द्वार बंद था। बोर्ड पर लिखा था। किला सोमवार के अलावा पूरे सप्ताह देखा जा सकता है। हमारी बदकिस्मती थी कि हम वहाँ सोमवार को ही पहुँचे थे। हम ने बाहर गेट से ही किले के चित्र लिए और वापस मेट्रो स्टेशन की ओर चल दिए।