@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

शिवराम जी के बाद, उन के घर .....

जीवनसाथी शोभा परसों से मायके गई हुई है। आज लौटना था, लेकिन सुबह फोन आ गया, अब वह कल सुबह आएगी। कल-आज और कल अवकाश के दिन हैं। मैं घर पर अकेला हूँ। चाहता तो था कि इन दिनों में मैं मकान बदलने से बिखरी अपने पुस्तकालय और कार्यालय को ठीक करवा लेता। पर अकेले यह भी संभव नहीं था। जिन्हें इस काम में साथ देना था वे भी अवकाश मना रहे हैं। शिवराम जी के बाद ब्लागीरी पर जो विराम लगा था, कल उसे तोड़ने का प्रयास किया। आज पूरे पाँच दिन के अन्तराल के बाद आज शिवराम जी के घर जाना हुआ। भाभी पहले तीन दिनों तक खुद को संभाल नहीं पा रही थीं। आज कुछ सामान्य दिखाई पड़ीं। मुझ से बात कर के  फिर से उन का अवसाद गहरा न जाए इस कारण उन से बात नहीं की। वे अपनी तीनों बहुओं और ननद के साथ बैठी बातें कर रही थीं और साथ दे रही थीं।
न के ज्येष्ठ पुत्र ब्लागर रवि कुमार और कनिष्ट पुत्र पवन से मुलाकात हुई। रवि बहुत सयाना है, उस में एक बड़ा कलाकार जीता है। सभी कोण से वह शिवराम जी से कम प्रतिभाशाली नहीं है। उसी से कुछ देर बात करता रहा। उसी ने बताया कि माँ अब अवसाद से धीरे-धीरे बाहर आ रही हैं। मैं ने पत्रिका अभिव्यक्ति की बात छेड़ दी। आपातकाल के ठीक पहले शिवराम जी से मेरी मुलाकात हुई थी। हम बाराँ में दिनकर साहित्य समिति चलाते थे और एक पत्रिका प्रकाशन की योजना बना रहे थे। शिवराम जी ने उसे आसान कर दिया। पत्रिका आरंभ हुई तो अनियमित रूप से प्रकाशित होती रही। लेकिन वह चल रही है और लघुपत्रिकाओं में अपना विशिष्ठ स्थान रखती है। शिवराम जी ही इस का संपादन करते रहे, सहयोग कई लोगों का रहा। लेकिन मूल काम और जिम्मेदारियाँ वही देखते थे। मैं ने रवि से अभिव्यक्ति में अपना योगदान बढ़ाने को कहा। उस ने बताया कि वह भी इस बारे में सोच रहा है। अभी तो वह शिवराम जी के कागजों को संभाल रहा है जिस से पता लगे कि वे कितने कामों को अधूरा छोड़ गए हैं, और उन्हें कैसे संभाला जा सकता है।
मैं ने रवि से उल्लेख किया कि घर आर्थिक रूप से तो संभला हुआ है। इस लिए पटरी पर जल्दी आ जाएगा, लेकिन जो सामाजिक जिम्मेदारियाँ शिवराम जी देखते थे, सब से बड़ा संकट वहाँ उत्पन्न हुआ है। उसे पटरी पर लाने में समय लगेगा। रवि ने प्रतिक्रिया दी कि यह तो मैं भी कह रहा हूँ कि अपने परिवार और घर के लिए तो वे सूचना मात्र रह गए थे, उन का सारा समय और जीवन तो समाज को ही समर्पित था। रवि ने ही बताया कि कुछ सांस्कृतिक संगठन कल शोक-सभा रख रहे हैं, जिस में कोटा के बाहर के कुछ महत्वपूर्ण लोग भी होंगे। यह मेरे लिए सूचना थी। मेरा मन तो कर रहा है कि इस सभा में रहूँ,  शिवराम जी के बाद उन से साक्षात्कार का यह अवसर मैं छोड़ना नहीं चाहता था। लेकिन मुझे पहले से तय जरूरी काम से जयपुर जाना होगा। रवि ने कल की सभा की छपी हुई सूचना मुझे दी। हरिहर ओझा की एक कविता इस पर छपी है, जो महत्वपूर्ण है।  मैं उस सूचना का चित्र यहाँ लगा रहा हूँ।  आर्य परिवार संस्था कोटा ने शिवराम को एक आँसू भरी श्रद्धांजलि पर्चे के रूप में छाप कर वितरित की है। यह बहुत महत्वपूर्ण है। शिवराम ईश्वर के अस्तित्व को नकारने वाले कम्युनिस्ट थे, लेकिन धर्मावलंबी जो उन के संपर्क में थे किस तरह सोचते थे, यह श्रद्धांजलि पर्चा उस की एक मिसाल है। दोनों को ही आप चित्र पर चटका लगा कर बड़ा कर के पढ़ सकते हैं।
 

 


शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

सिलसिला नहीं रुकेगा, जीवन भर। जैसे शिवराम! तुम न रुके थे।

मैं जानता हूँ कि जो मंजिल मेरा लक्ष्य है वह बहुत दूर है, मैं इस जीवन में वहाँ नहीं पहुँच सकूंगा। लेकिन वह मंजिल मेरी अकेले की तो नहीं। वह तो पूरी मानव जाति की मंजिल है। मनुष्य के पास दो ही मार्ग हैं, या तो वह निजी स्वार्थों और लालच के वशीभूत हो कर जीवन जिए और लड़-झगड़ कर इस धरती को बरबाद करे और स्वयं इस मानव जाति को नष्ट कर डाले, या फिर वह एक ऐसे मानव समाज की रचना करे जो संपूर्ण मानव-समाज के सामुहिक हित की सोचे। सामाजिक हित सर्वोपरि हों। धरती को हम खूबसूरत बनाएँ। जिएँ और जीने दें, लगातार उन्नति करते जाएँ। इस दूसरे रास्ते पर  चलने वाले दुनिया में लाखों नहीं करोड़ों लोग हैं। उन में बहुत लोग हैं जो मंजिल की ओर जा रहे काफिले की अगुवाई करते हैं। निश्चय ही वे मानवजाति के श्रेष्ठतम  लोग हैं। उन का पूरा जीवन काफिले की इस यात्रा को समर्पित है। वे जानते हैं कि वे मंजिल तक नहीं पहुँच पाएंगे, लेकिन फिर भी उन का सब कुछ इस मानव-समाज के लिए है। वे सोचते हैं कि वे नहीं उन की कोई आगामी पीढ़ी अवश्य ही मंजिल पा लेगी। यदि उन्हों ने कोताही की तो निश्चित ही मंजिल तक पहुँचने के पहले मानव जाति नष्ट हो जाएगी और हमारी यह खूबसूरत धरती भी जिस का कोई जोड़ अभी तक मनुष्य इस ब्रह्मांड में तलाश नहीं कर सका है।
शिवराम ऐसे ही व्यक्तित्व थे। सोचा न था कि वे चलते-चलते यूँ काफिला छोड़ जाएंगे। जब उन के जाने की खबर मिली तो हर कोई हतप्रभ रह गया। मुझ पर तो जैसे वज्रपात हुआ। मैं अदालत में था। जल्दी से अदालत से अपना काम समेट, घर पहुँचा। नेट पर सूचना चस्पा की और उन के घर पहुँच गया। वे घर के नीचे के कमरे में दरी पर विश्राम कर रहे थे, चादर ओढ़े। वह विश्राम जो उन्हों ने जीवन भर नहीं किया। चेहरा भी चादर से ढका था। इच्छा हुई कि चादर हटा कर देखूँ इस चिरविश्रांति में वे कैसे लग रहे हैं, लेकिन हिम्मत नहीं हुई। चेहरे से चादर हटी तो शायद मैं अपने आप पर काबू नहीं रख सकूंगा, कहूँगा- कामरेड! तुम अभी से सो गए। उठो अभी तो बहुत काम बाकी है। वे उठेंगे नहीं। मैं निराश सा, क्या कर लूंगा? सिवा रोने और विलाप करने के, जो मैं नहीं करना चाहता था। मैं कमरे के बाहर चला आया। 
शिवराम ने जीवन के इकसठ वर्ष पूरे नहीं किए। लेकिन इस जीवन में उन्हों ने सैंकड़ों जीवन जिए। विद्यार्थी जीवन के बाद नौकरी की तलाश के दिनों में ही उन्हों ने पहचान लिया था कि दुनिया और समाज जिस अवस्था में है, वह  निराश करता है ,जीने लायक नहीं है। उसे बदलना होगा, जीने लायक बनाना होगा। न जीने लायक उस दुनिया के बारे में वे लिखते हैं-
"मैं खुद बेरोजगारी के दौर में किसी तरह भटकता फिरता था. असहायता के अहसास से मैं भी गुजरा था। लेकिन रोटी के लिए वेश्यावृत्ति। आठ-दस साल  का बेटा अपनी माँ के लिए ग्राहक ढूंढेगा। यह स्साली कोई जिन्दगी है। लानत है। 
शायद इन्हीं दिनों हम पांडिचेरी गए। वहाँ भी हम ने यह सब देखा। आप को एक तौलिया खरीदना हो और दूकानदार आप के सामने दस तरह के तौलिए पटक दे। जो पसन्द हो छांट लो, वैसे ही साधारण से होटलों में लड़कियों की लाइन लगा दी जाती थी। सब की दरें बता दी जाती थीं। जो पसन्द हो ले कर अपने कमरे में चले जाओ। हमारा समूह भी एक होटल में पहुँच गया और यह सब दृष्य अपनी आँखों से देखा। औरों का मुझे पता नहीं, मेरे लिए यह भयानक अनुभव था। यह सब विद्यमान व्यवस्था की देन है। यह व्यवस्था क्यों है? गरीबी-अमीरी का मामला क्या है? भगवान इस सब को ठीक क्यों नहीं करता? पांडिचेरी में एक ओर इतना बड़ा आध्यात्मिक केन्द्र और दूसरी ओर यह गंदगी। आध्यात्मिकता और इस गंदगी का चोली दामन का साथ तो नहीं? इस आध्यात्मिक केंद्र की वजह से और इस शहर की खूबसूरती की वजह से यहाँ पर्यटक आने लगे होंगे तो यह धंधा फला-फूला होगा। पर्यटन और वेश्यावृत्ति क्या एक ही हिस्से के दो पहलू हैं?"
रोजगार की तलाश खत्म हुई, नौकरी लगी। प्रशिक्षण में स्वयं प्रकाश से भेंट हुई। वे भी ऐसे ही मोड़ पर थे। छह महिने की ट्रेनिंग पूरी होने पर जोधपुर में दो माह का प्रायोगिक प्रशिक्षण आरंभ हुआ। स्वयंप्रकाश के साहित्यिक लोगों से संबंध थे। वहीं मिले पारस अरोड़ा जिन के घर ज्ञानोदय के अंकों का ढेर और बहुत सी किताबें थीं। शिवराम इतनी किताबें देख चकित थे। इतना पढ़ते हैं ये लोग! हम चार स्कूली किताबें पढ़ कर, वो भी पास होने के लिए, खुद को पढ़ा लिखा समझते हैं। हम काहे के पढ़े लिखे हैं? जिन्दगी और दुनिया को समझना है तो किताबें पढ़नी होंगी। एक पुस्तकालय में विवेकानंद का साहित्य पढ़ने को मिला। उसे पढ़ा तो लगा विवेकानंद का बताया रास्ता सही है। सब बुराइयों की जड़ अज्ञान है, अशिक्षा है। बच्चों में उच्च मानवीय मूल्यों के संस्कार देने वाला साहित्य प्रचारित प्रसारित करो। दो माह यूँ ही गुजर गए। रामगंज मंडी  (जिला कोटा राजस्थान) में पोस्टिंग हुई। शिवराम नौकरी के अलावा वहाँ बच्चों के लिए निशुल्क स्कूल भी चलाने लगे कमरा निशुल्क मिल गया। वहाँ आर.एस.एस भी था और सोशलिस्ट पार्टी भी। आचार्य नरेन्द्रदेव की पुस्तकें और लोहिया की जीवनी पढ़ी। गीता का अंग्रेजी अनुवाद करने पर काम करने लगे। कुछ न कुछ लिखने भी लगे। स्वयं प्रकाश का पत्र मिला - क्या पढ़ रहे हो कार्ल मार्क्स की पूँजी पढ़ो। शिवराम का जवाब था -कम्युनिस्टों के चक्कर में पड़ गए लगते हो। मैं लोहिया पढ़ रहा हूँ पर संतुष्ट हूँ। स्वयं प्रकाश का उत्तर था -तुम्हें हक है कि जो तुम्हें ठीक  न लगे उसे खारिज कर दो, पर पहले उसे जानो, समझो तो सही। तुमने मार्क्स की पूंजी को चलताऊ तरीके से खारिज कर दिया। पत्र की भाषा बहुत सख्त थी। प्रतिक्रिया हुई -ठीक है मार्क्स को पढूंगा और फिर इसे बताउंगा मैं ने मार्क्स को क्यों खारिज किया। करौली बस स्टैंड पर प्रगतिशील साहित्य भंडार से मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन की किताबें और भगतसिंह की जीवनी खरीदी।  पैसे कम पड़ गए, दुकानदार से कहा कुछ किताबें निकाल दो, तो दुकानदार शर्मा जी ने एक किताब और मिलाई और बोले -फिर दे देना।  शिवराम कुछ महीने बाद पैसे लौटाने पहुँचे तो दुकान बंद थी। पता चला शर्मा जी नहीं रहे। उन का कर्ज रह गया। शिवराम ने मार्क्सवाद पढ़ा, समझा और वर्ग-संघर्ष के मार्ग पर चल पड़े। चलते-चलते सैंकड़ों-हजारों लोग साथ होते गए। काफिला बनता चला गया। आज वही शिवराम काफिले में नहीं हैं, चुपचाप सड़क के किनारे बैठ गए हों और कह रहे हों। जीवन ने यहीं तक साथ दिया, मैं आगे नहीं जा सकता। लेकिन ध्यान रहे! काफिला कम न हो और रुके नहीं।

स्वयंकथ्य 
शिवराम के जाने ने अंदर तक आहत किया है। एक सप्ताह से की-बोर्ड पर उंगलियाँ चल ही नहीं पा रही थीं। आज हिम्मत कर के वापस बैठा हूँ। यह हिम्मत भी शिवराम की दी हुई है। कह रहे हों कि मैं छूट गया तो क्या सफर छोड़ दोगे? ऐसा ही था तो क्यों चले थे मेरे साथ? सफर छूटे ना, मंजिल अभी दूर है, बहुत चलना है, रुको मत! चलते रहो! मुड़ कर मत देखो!
ह सिलसिला नहीं रुकेगा, जीवन भर। जैसे शिवराम! तुम  न रुके  थे। 
शिवराम के जाने ने जो रिक्तता पैदा की है, उसे एक या कुछ लोग नहीं भर सकते।  उस के लिए बहुत लोगों को सामने आना होगा। साहित्य, संस्कृति, रंगमंच, ट्रेड यूनियनें, मोहल्ला संगठन, किसान सभाएँ और पार्टी, सब जगह अनेक लोगों को वे मोर्चे संभालने होंगे, जिन्हें अकेले शिवराम संभाले थे। शिवराम का न होना, लगातार पीछा कर रहा है। 'अनवरत' भी अभी कुछ दिन शिवराम-मय ही रहेगा। 

शनिवार, 2 अक्टूबर 2010

अलविदा !!!!...................... नहीं! ................. शिवराम हमारे बीच मौजूद हैं............................. यह आंधी नहीं थमेगी.............



शिवराम ने कल हम से अचानक विदा ले गए.......
भास्कर कोटा संस्करण ने आज समाचार प्रकाशित किया...........


अंतिम यात्रा के कुछ चित्र...............

ट्रेड यूनियन कार्यालय छावनी कोटा पर अंतिम दर्शन

लाल झंडे से लिपटे हुए




































































 उदयपुर से आए पार्टी साथी


पार्टी साथी पुष्पांजली अर्पित करते

अभिन्न ट्रेड यूनियन साथी महेन्द्र पाण्डे और विजय शंकर झा

छोटे पुत्र पवन के कंधों पर

चिता पर

पुत्र रविकुमार

चिता को अग्नि देते पुत्र रविकुमार पौत्र और पौत्री चीया

इंकलाब जिन्दाबाद का उद्घोष करता पुत्र रविकुमार अपनी पुत्री और पुत्र के साथ

शरीर अग्नि को समर्पित

पुत्र रविकुमार और पौत्री चीया चिता के निकट

चिता के चारों और सम्मान में झुके लाल झंडे

शिवराम नहीं हैं,  लेकिन आग शेष है

श्मशान पहुँचा एक अपंग मजदूर साथी

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

सर्वहारा वर्ग ने अपना एक योद्धा और सेनापति खो दिया

भी शिवराम जी के घर से लौटे हैं। हम शाम को जब उन के घर पहुँचा तो घर के बाहर भीड़ लगी थी, जिन में नगर के नामी साहित्यकार, नाट्यकर्मी, ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता, दूरसंचार कर्मचारी और बहुत से नागरिक थे। शिवराम के बडे पुत्र रवि कुमार (जिन्हें आप सृजन और सरोकार ब्लाग के ब्लागर के रूप में जानते हैं) आ चुके थे, सब से छोटे पुत्र पवन दो माह पूर्व ही कोटा में नया नियोजन प्राप्त कर लेने के कारण कोटा में ही थे। मंझले पुत्र शशि का समाचार था कि वह परिवार सहित ट्रेन में चढ़ चुका है और सुबह चार-पाँच बजे तक कोटा पहुँच जाएंगे। बेटी के भी दिल्ली से रवाना हो चुकने का समाचार मिल चुका था। सभी शोकाकुल थे। छोटे भाई और शायर पुरुषोत्तम 'यक़ीन' शोकाकुल हो कर पूरी तरह पस्त थे और कह रहे थे आज मैं यतीम हो गया हूँ। हम करीब दो घंटे वहाँ रहे। शिवराम अब चुपचाप लेटे थे। मैं जानता था, वह आवाज जिसे मैं पिछले 35 वर्षों से सुनने का अभ्यस्त हूँ अब कभी सुनाई नहीं देगी। उन की आवाज हमेशा ऊर्जा का संचार करती थी। वैयक्तिक क्षुद्र स्वार्थों से परे हट कर मनुष्य समाज के लिए काम करने को सदैव प्रेरणा देता यह व्यक्तित्व सहज ही हमें छोड़ कर चला गया। डाक्टर झा से वहीं मुलाकात हुई। बता रहे थे कि जैसा उन का शरीर था और जिस तरह वे अनवरत काम में जुटे रहते थे हम सोच भी नहीं सकते थे कि उन्हें इस तरह हृदयाघात हो सकता है कि वह अस्पताल तक पहुँचने के पहले ही प्राण हर ले।
शिवराम दोपहर तक स्वस्थ थे। सुबह उन्हों ने अपने मित्रों को टेलीफोन किए थे। कल शाम कंसुआँ की मजदूर बस्ती में एक मीटिंग को संबोधित किया था। दोपहर भोजन के उपरांत उन्हों ने असहज महसूस किया और सामान्य उपचार को नाकाफी महसूस कर स्वयं ही पत्नी और मकान में रहने वाले एक विद्यार्थी को साथ ले कर अस्पताल पहुँचे थे। अस्पताल में जा कर मूर्छित हुए तो फिर चिकित्सकों का कोई बस नहीं चला। उन की हृदयगति सदैव के लिए थम गई थी। मात्र 61 वर्ष की उम्र में इस तरह गए कि अनेक लोग स्वयं को अनाथ समझने लगे।
शिवराम का जन्म 23 दिसंबर 1949 को राजस्थान के करौली नगर में हुआ था। पिता के गांव गढ़ी बांदुवा, करौली और अजमेर में शिक्षा प्राप्त की। फिर वे दूर संचार विभाग में तकनीशियन के पद पर नियुक्त हुए। दो वर्ष पूर्व ही वे सेवा निवृत्त हुए थे। वे जीवन के हर क्षेत्र में सक्रिय रहे। अपने विभाग में वे कर्मचारियों के निर्विवाद नेता रहे। वे एक अच्छे संगठनकर्ता थे। प्रारंभ में वे स्वामी विवेकानंद से बहुत प्रभावित थे। लेकिन उस मार्ग पर उन्हें समाज में परिवर्तन की गुंजाइश दिखाई नहीं दी। बाद में वे मार्क्सवाद के संपर्क में आए, जिसे उन्हों ने एक ऐसे दर्शन के रूप में पाया जो कि दुनिया और प्रत्येक परिघटना की सही और सच्ची व्याख्या ही नहीं करता था। यह भी बताता था कि समाज कैसे बदलता है। वे समाज में परिवर्तन के काम में जुट गए। उन्हों ने अपनी बात को लोगों तक पहुँचाने के लिए नाटक और विशेष रूप से नुक्कड़ नाटक को सब से उत्तम साधन माना। वे नुक्कड़ नाटक लिखने और आसपास के लोगों को जुटा कर उन का मंचन करने लगे। उन का नाटक 'जनता पागल हो गई है' हिन्दी के प्रारंभिक नुक्कड़ नाटकों में एक है। यह हिन्दी का सर्वाधिक मंचित नाटक है। इस नाटक और शिवराम के अन्य कुछ नाटक अन्य भाषाओं में अनुदित किए जा कर भी खेले गए। वे नाट्य लेखक ही नहीं थे, अपितु लगातार उन के मंचन करते हुए एक कुशल निर्देशक और अभिनेता भी हो चुके थे। वे पिछले 33 वर्षों से हिन्दी की महत्वपूर्ण साहित्यिक लघु पत्रिका 'अभिव्यक्ति' का संपादन कर रहे थे। 
साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में सांगठनिक काम के महत्व को वे अच्छी तरह जानते थे। आरंभ में प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे। जनवादी लेखक संघ के संस्थापकों में से वे एक थे। लेकिन जल्दी ही सैद्धान्तिक मतभेद के कारण वे अलग हुए और अखिल भारतीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा 'विकल्प' के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। वर्तमान में वे 'विकल्प' के महासचिव थे। मूलतः सृजनधर्मी होते हुए भी संघर्षशील जन संगठनों के निर्माण को वे समाज परिवर्तन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते थे और संगठनों के निर्माण का कोई अवसर हाथ से न जाने देते थे। वे सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यकर्ता के साथ-साथ प्रभावशाली वक्ता थे। लोग किसी भी सभा में उन्हें सुनने के लिए रुके रहते थे। एक अध्येता और चिंतक थे। श्रमिक-कर्मचारी आंदोलनों में स्थानीय स्तर से ले कर राष्ट्रीय स्तर तक विभिन्न नेतृत्वकारी दायित्वों का उन्हों ने निर्वहन किया। अनेक महत्वपूर्ण आंदोलनों का उन्हों ने नेतृत्व किया। 
दूर संचार विभाग से सेवानिवृत्त होने के उपरांत उन्हों ने भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड) {एमसीपीआई (यू)}की सदस्यता ग्रहण की और शीघ्र ही वे पार्टी के पोलिट ब्यूरो के सदस्य हो गए। 

उन की प्रकाशित पुस्तकें इस प्रकार हैं ---
  • जनता पागल हो गई है (नाटक संग्रह)
  • घुसपैठिए (नाटक संग्रह)
  • दुलारी की माँ (नाटक)
  • एक गाँव की कहानी (नाटक)
  • राधेया की कहानी (नाटक)
  • सूली ऊपर सेज (सेज पर विवेचनात्मक पुस्तक)
  • पुनर्नव (नाट्य रूपांतर संग्रह)
  • गटक चूरमा (नाटक संग्रह)
  • माटी मुळकेगी एक दिन (कविता संग्रह)
  • कुछ तो हाथ गहो (कविता संग्रह)
  • खुद साधो पतवार (कविता संग्रह)
शिवराम जी का अंतिम संस्कार 2 अक्टूबर सुबह कोटा में किशोरपुरा मुक्ति धाम में संपन्न होगा। प्रातःकाल आठ बजे अंतिम यात्रा उन के निवास से आरंभ होगी और ट्रेड यूनियन कार्यालय छावनी जाएगी। जहाँ उन के पार्थिव शरीर को अंतिम दर्शनों के लिए कुछ देर रखा जाएगा। उस के उपरांत सर्वहारा वर्ग के एक यौद्धा और सेनापति के सम्मान के साथ अंतिम यात्रा किशोरपुरा मुक्तिधाम पहुँचेगी जहाँ उन का अंतिम संस्कार संपन्न होगा।   

नाटककार और मार्क्सवादी चिंतक शिवराम नही रहे!!!

ख्यात जनवादी नाटक 'जनता पागल हो गई है' के नाटककार, कवि और मार्क्सवादी चिंतक 'शिवराम' का आज तीसरे पहर पौने तीन बजे कोटा में हृदयाघात से देहान्त हो गया। वे भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड) के पोलिट ब्यूरो के वर्तमान सदस्य, दूरसंचार कर्मचारियों के नेता थे। साहित्य में उन का अपना विशिष्ठ स्थान था। मेरा 1975 से आज तक साथ बना रहा। अचानक इस समाचार से व्यथित हूँ। इस लिए अधिक कुछ बता पाने में असमर्थ भी। उन के निवास के लिए निकल रहा हूँ। उन की अंत्येष्टी दिनांक 2 अक्टूबर 2010 को सुबह नौ बजे के बाद कोटा में संपन्न होगी। जिस के संबंध में अद्यतन सूचना अनवरत पर कुछ घंटों के बाद प्रस्तुत कर दी जाएगी।

निर्णय का दिन

श्राद्धपक्ष चल रहा है। यूँ तो परिवार में सभी के गया श्राद्ध हो चुके हैं और परंपरा के अनुसार श्राद्ध कर्म की कोई आवश्यकता नहीं रह गई है। लेकिन मेरे लिए यह उन पूर्वजों को स्मरण करने का सर्वोत्तम रीति है। आज मेरे दादा जी, उन के छोटे भाई और दादा जी की माता जी के श्राद्ध का दिन था। सुबह-सुबह मैं ने अपने मित्र को भोजन पर बुलाने के लिए फोन किया तो पता लगा आज अभिभाषक परिषद ने नगर के एक स्वतंत्रता सेनानी के निधन पर 12 बजे शोक सभा रखी है।  निश्चित था कि अदालतों में काम नहीं होगा। हम ने तय किया कि अदालत से एक बजे भोजन के लिए घर आएंगे। दस बजे एक संबंधी के साथ पुलिस थाने जाना पड़ा। उन्हें किसी मामले में पूछताछ के लिए बुलाया गया था। चौसठ वर्षीय  संबंधी का कभी पुलिस से काम न पड़ा था। वे मुझे साथ ले जाने को तुले थे। प्रिय हैं, उन के साथ जाना पड़ा। थानाधिकारी ने कहा कि वे आज कानून और व्यवस्था में व्य्स्त हैं और संबंधी को बाद में बुला भेजेंगे। सड़कों पर यातायात रोज के मुकाबले चौथाई था और अदालत में मुवक्किल सिरे से गायब थे। वकील और मुंशी दो बजे तक मुकदमों में पेशियाँ ले कर घर जाने के मूड़ में थे।  सब की दिनचर्या को अयोध्या के निर्णय की तारीख प्रभावित कर रही थी।
मैं ने भी अपना काम एक बजे तक निपटा लिया। मित्रों के साथ घर पहुँचा तो डेढ़ बज रहे थे। भोजन से निपटते दो बज गये। मित्र वापस अदालत के लिये रवाना हो गये। गरिष्ठ भोजन के कारण उनींदा होने लगा, लेकिन एक काम अदालत में छूट गया था। उस के बारे में सहायक को फोन पर निर्देश दिया तो उस ने बताया कि वह भी यह काम कर के अदालत से निकल लेगा। मैं बिस्तर पर लेटा तो नींद लग गई। उठा तो पौने चार बज रहे थे। मुझे ध्यान आया कि कल पहनने के लिए एक भी सफेद कमीज पर इस्त्री नहीं है। नए आवास पर आने के बाद कपड़े इस्त्री के लिए दिए ही नहीं गए थे। मैं पास के धोबी तक बात कर ने गया तो वह घर जाने की तैयारी में था। उस ने आज दुकान तो खोली थी पर केवल इस्त्री किए कपड़े देने के लिए। आज कोई काम नहीं लिया था। इस्त्री गरम ही नहीं की गई वह ठंडी पड़ी थी। मैं ने किराने वाले की दुकान पर नजर डाली, लेकिन एक जमीन-मकान के दलाल की दुकान के अलावा सब बंद थीं। मैं घर लौट आया। पत्नी ने बताया कि बीमा कंपनी से फोन आया था कि उन्हें नया पता नहीं बताया गया इस कारण से मुझे भेजी डाक वापस लौट गई है। मैं ने फोन कर के पूछा कि कोई आवश्यक डाक तो नहीं है। डाक आवश्यक नहीं थी। फिर भी मैं ने बीमा कंपनी जाने का निश्चय किया। नया पता भी उन्हें दर्ज करा देंगे और डाक भी ले आएंगे। मैं घर लौटा। टीवी पर बताया जा रहा था कि कुछ ही देर में अयोध्या निर्णय आने वाला है। 
मेरा मन हुआ कि न जाऊँ और टीवी पर समाचार सुनने लगूँ। लेकिन फिर जाना तय कर लिया। सड़कें पूरी तरह सूनी पड़ी थीं। कार चलाने का वैसा ही आनंद मिला जैसा रात एक बजे से सुबह चार बजे के बीच मिलता है। बीमा कंपनी पहुँचा तो निर्णय आ चुका था। उसी की चर्चा चल रही थी। लोग खुश थे कि निर्णय ऐसा है कि खास हलचल नहीं होने की। कुछ देर रुक कर डाक ले कर मैं लौटा। इस बीच जीवन बीमा के कार्यालय से फोन आ गया। यह मार्ग में पड़ता था मैं कुछ देर वहाँ रुका। उन का आज अर्धवार्षिक क्लोजिंग था। कर्मचारियों को देर तक रुक कर काम निपटाना था। मैं ने वहाँ भी नया पता दिया और डाक ली। 
स बीच बेटी का फोन आ गया कि वह ट्रेन में बैठ गयी है। शाम को पहुँच जाएगी। मुझे तुरंत पंखे का स्मरण आया कि उस के  कमरे में पंखा नहीं है, बाजार से ले कर आज ही लगवाना पड़ेगा। मैं बाजार निकल गया। अब सड़कों पर यातायात सामान्य हो चला था। पंखे की दुकान पर मनचाहा पंखा नहीं मिला। मैं ने पंखा अगले दिन लेना तय किया। पास ही सब्जी मंडी लगी थी। मुझे कांटे वाले देसी बैंगन दिख गए तो आधा किलोग्राम खरीदे और घर के लिए चल दिया। अब यातायात सामान्य से कुछ अधिक लगा। वैसे ही जैसे बरसात रुकते ही रुके हुए लोग सड़कों पर अपने वाहन ले कर निकल पड़ने पर यातायात बढ़ जाता है।  मैं घर पहुँचा तो कुछ मुवक्किल दफ्तर में प्रतीक्षा कर रहे थे। उन का काम निपटाया तब तक स्टेशन बेटी को लेने जाने का वक्त हो गया। स्टेशन के रास्ते में पूरी रौनक थी। बेटी ट्रेन से उतर कर कार को खड़ी करने के स्थान पर आ गयी। ट्रेन से उतरने वाली सवारियाँ सामान्य से चौथाई भी नहीं थीं। बेटी ने बताया कि ट्रेन खाली थी। रास्ते के स्टेशनों के प्लेटफॉर्म भी सूने पड़े थे। मथुरा के स्टेशन पर पुलिस सतर्क थी लेकिन सवारियाँ वहाँ भी नहीं थीं। कार में बैठते ही बेटी फोन करने लगी। उस के सहकर्मियों ने उसे आज यात्रा करने के लिए मना किया था। वह उन्हें बता रही थी कि वह सकुशल आराम के साथ कोटा पहुँच गई है और अपने पापा-मम्मी के साथ कार में घर जा रही है। वह यह भी कह रही थी कि - मैं ने पहले ही कहा था कि आज कुछ नहीं होने का है। लोग वैसे ही बौरा रहे थे।

बुधवार, 29 सितंबर 2010

हम कब इंसान और भारतीय बनेंगे?

लाहाबाद उच्च न्यायालय के अयोध्या निर्णयके लिए 30 तारीख मुकर्रर हो चुकी है। कल सर्वोच्च न्यायालय ने कह दिया कि बातचीत से समझौते पर पहुँचने के लिए बहुत देरी हो चुकी है, अदालत को अपना निर्णय दे देना चाहिए। दोनों निर्णयों के बीच की दूरी सिर्फ 48-50 घंटों की रहेगी। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के उपरान्त इतना समय तो दिया जाना जरूरी भी था। जिस से जिस-जिस को जो जो तैयारी करनी हो कर ले। 
ल दोपहर जब मैं अपने नियमित साथियों के साथ मध्यान्ह की कॉफी पीने बैठा तो मेरे ही एक सहायक का मोबाइल मिला कि आप के क वकील मित्र आप को कॉफी के लिए बुला रहे हैं। शहीद भगत सिहं का जन्मदिवस होने से अभिभाषक परिषद में मध्यान्ह पश्चात कार्यक्रम था। अदालती काम लगभग निपट चुका था। मैं नियमित कॉफी निपटाने के बाद दूसरी कॉफी मजलिस में पहुँचा। वहाँ अधिकतर लोग जा चुके थे। पर क वकील साहब अपने एक अन्य मित्र ख के साथ वहीं  विराजमान थे। कुछ देर इधर-उधर की बातें हुई और कॉफी आ गई। तभी वकील साहब के मोबाइल की घंटी बजी। सूचना थी कि सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्चन्यायालय को अयोध्या पर निर्णय सुनाने के लिए हरी झंडी दिखा दी है।  वकील साहब तुरंत ही मोबाइल  पर व्यस्त हो गए। कुछ देर बाद उन्हों ने बताया कि निर्णय 30 सितंबर को सुनाया जाएगा। फिर उन्हों ने अपने घर फोन किया कि घर की जरूरत का सभी सामान जो माह के पहले सप्ताह में मंगाया जाता है वह आज ही मंगा लिया जाए, कम से कम 30-40 किलो गेहूँ पिसवा कर आटा कर लिया जाए और पाँच-सात दूध पाउडर के डब्बे जरूर मंगा लिए जाएँ। वजह अयोध्या का निर्णय था, उन के मन में यह आशंका नही बल्कि विश्वास था कि अयोध्या का निर्णय कुछ भी हो पर उस के परिणाम में दंगे जरूर भड़क उठेंगे.... कर्फ्यू लगेगा और कुछ दिन जरूरी चीजें लेने के लिए बाजार उपलब्ध नहीं होगा।
वकील साहब न कांग्रेसी हैं न भाजपाई। उन के संबंध कुछ पुराने बड़े राजघरानों से हैं जिन की अपनी सामंती कुलीनता और संपन्नता के कारण किसी न किसी राजनैतिक दल में पहुँच है। इस पहुँच को वे कोई रंग देते भी नहीं हैं। क्यों कि कब कौन सा दल शासन में रहेगा यह नहीं कहा जा सकता। वे केवल अपनी सामंती कुलीनता को बनाए रखना चाहते हैं और संपन्नता को पूंजीवादी संपन्नता में लगातार बदलने के लिए काम करते हैं। ऐसे लोग हमेशा शासन के निकट बने रहते हैं। उन की सोच थी कि फैसला कुछ भी हो देश का माहौल जरूर बिगड़ेगा और दंगे जरूर होंगे।
वकील साहब घोषित रूप से कांग्रेसी हैं। उन के पास अपनी कोई कुलीनता नहीं है। लेकिन वे किसी भी अवसर को झपट लेने को सदैव तैयार रहते हैं। उन की भी सोच यही थी कि दंगे तो अवश्यंभावी हैं। दंगों में फायदा हिन्दुओं को होगा, वे कम मारे जाएंगे। मुसलमानों को अधिक क्षति होगी, क्यों कि पुलिस और अर्ध सैनिक बल हिन्दुओं की तरफदारी में रहेंगे। इन सब के बावजूद न तो वे दूध के लिए चिंतित थे और न ही घर में आटे के डब्बे के लिए। उन के पिचहत्तर साल के पिता मौजूद हैं। घर और खेती की जमीन के मालिक हैं और वे ही घर चलाते हैं। चिंता होगी भी तो उन्हें होगी। दोनों ने अयोध्या के मामले में सुनवाई करने वाली पीठों के न्यायाधीशों के हिन्दू-मुस्लिम चरित्र को भी खंगाल डाला। पर इस बात पर अटक गए कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय में समझौते के लिए बातचीत करने का समर्थन करने के लिए मतभेद प्रकट करने वाले न्यायाधीश हिन्दू थे।
धर न्यायालय परिसर में बातचीत हो रही थी। कुछ हिन्दू वकील कह रहे थे कि यदि फैसला उन के हक में नहीं हुआ तो  वे हिन्दू संगठन फैसले को न मानेंगे और जमीनी लड़ाई पर उतर आएंगे। लेकिन यदि फैसला मुसलमानों के हक में आता है तो उन्हें अनुशासन में रहना चाहिए। कुछ मुस्लिम वकील जवाब में प्रश्न कर रहे थे कि वे तो हमेशा ही अनुशासन में रहते आए हैं। लेकिन यह अनुशासन उन के लिए ही क्यों?
शाम को बेटे का फोन आया तो उस ने मुझे तो कुछ नहीं कहा। पर अपनी माँ को यह अवश्य कहा कि घर में सामान की व्यवस्था अवश्य कर लें और पापा से कहें कि वे अनावश्यक घर के बाहर न जाएँ। माँ ने बेटे की सलाह मान ली है। घर में कुछ दिनों के आवश्यक सामानों की व्यवस्था कर ली है।
मैं सोच रहा हूँ कि हम कब तक अपनी खालों के भीतर हिन्दू और मुसलमानों को ढोते रहेंगे? कब इंसान और भारतीय बनेंगे?