आज फिर एक अक्टूबर का दिन है, मेरे लिए और श्रमजीवी वर्ग के बहुत से साथियों के लिए एक काला दिन। पिछले वर्ष इसी दिन ने प्रिय साथी, मार्गदर्शक, नाट्यकार, कवि, आलोचक, सिद्धान्तकार, संगठन कर्ता और नेता शिवराम को असमय छीन लिया। अगले दिन दो अक्टूबर को हमने उन्हें अंतिम विदाई दी। वे एक डिप्लोमा इंजिनियर थे, उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारी/अधिकारी के रूप में नौकरी करते हुए उन्होंने अपना सामान्य जीवन जिया, पूरी उम्र में सेवा निवृत्त हुए। तीन पुत्रों और एक पुत्री का विवाह किया और सभी कुशल मंगल से हैं। सामान्य नागरिक इसी तरह जीते हुए उम्र के ढलान पर आराम से जीवन व्यतीत कर सकता है। लेकिन अपनी नौकरी और सामाजिक जीवन के सभी दायित्वों को पूरा करते हुए उन्होंने जो कुछ किया वह मुझे तो अद्वितीय लगता है।
उन्हें यह समाज व्यवस्था अमानवीय लगती थी और उसे बदलना चाहते थे। प्रारंभ में वे विवेकानन्द से प्रभावित थे और समाज सेवा के कामों को हाथ में लेते थे। लेकिन उस काम से कुछ व्यक्तियों के जीवन में कुछ परिवर्तित करने का सुख तो मिलता था लेकिन अमानवीय समाज व्यवस्था को परिवर्तित करने का मार्ग वहाँ नहीं दीख पड़ता था। नौकरी के आरंभिक प्रशिक्षण के दौरान ही अपने एक साम्यवादी विचार रखने वाले सहकर्मी से बहस में उलझे और उसे कहा कि तुम्हारा यह मार्क्सवाद खोखला है। साथी ने जब कहा कि तुमने उसे जाने बिना ही खारिज कर दिया? तो वे उसे जानने के प्रयत्न में जुट गए। जब जाना तो फिर उसी साथी से फिर बहस में उलझ गए। अब वे उसे बता रहे थे कि मार्क्सवाद सही है लेकिन तुम उसे जैसे समझ रहे हो वह गलत है।
शिवराम ने जान लिया था कि समाज कैसे बदलता है? उस की दिशा क्या है? वे उस बदलाव की गति को तीव्र करना चाहते थे। परिवर्तन की शक्तियों को मजबूत बनाने में अपना योगदान करना चाहते थे। वे चाहते थे कि ऐसा परिवर्तन जिस से मनुष्य को मुक्ति प्राप्त हो शीघ्र हो। उन्हों ने देखा कि लोगों में जबर्दस्त सांस्कृतिक भूख है तो लोगों तक अपने विचारों को पहुँचाने के लिए उन्हों ने नाटकों का सहारा लिया। जीवन से तथ्य और कहानियाँ उठायीं नाटक रचे और सामान्य लोगों को साथ ले नाट्य प्रस्तुतियाँ करने लगे। कुछ ही प्रस्तुतियों ने अपना असर दिखाया। शोषण से त्रस्त खनिक उन से आ कर मिले पूछने लगे अन्याय से लड़ने के लिए एकता बनाने में मदद करो। जिस ने मार्ग दिखाया हो वह साथ चलने से मना कैसे कर सकता था? लेकिन यह उस के बस का था नहीं। उस ने अपने ही क्षेत्र में श्रमजीवियों के संगठन का काम करने वालों को तलाशा और उन्हें दिशा दी। खनिको के संघर्षशील संगठन ने आकार लिया। खान मालिक तुरंत ही जान गये कि यह नाटकों का असर है। शिकायत हुई और स्थानान्तरण झेलना पड़ा।
फूल जहाँ भी जाता है अपनी गंध बिखेरता जाता है। वे नये स्थान पर पहुँचे तो वहाँ भी कुछ ही दिनों में एक नाटक मंडली खड़ी की। उन के नाटकों के अभिनेता श्रमजीवी वर्ग से आते थे। हम यह भी कह सकते हैं कि वे श्रमजीवी वर्ग से लोगों को चुनते थे और उन्हें अभिनेता बना देते थे। यहीं उन से मेरी भेंट हुई। उन्हों ने मुझे तीन दिनों के एक कार्यक्रम की सूचना दी। बहुत बड़ा कार्यक्रम था। देश भर के अनेक उल्लेखनीय साहित्यकार उस में भाग लेने वाले थे। नाटक और कवि सम्मेलन भी होने थे। मैं दंग था कि मेरे गृह नगर में ऐसा कार्यक्रम हम पूरी ताकत लगा कर भी नहीं कर सकते थे उन्हें छह माह पहले नगर में स्थानांतरित हो कर आया एक डिप्लोमा इंजिनियर अपने दम पर कैसे आयोजित कर रहा है? उन्हों ने मुझे नाटकों की रिहर्सल में बुलाया। कौतुहल का मारा मैं पहुँचा तो एक भूमिका मेरे मत्थे भी मढ़ दी गई। कार्यक्रम बहुत सफल रहा। दो दिन जो वैचारिक गोष्ठियाँ हुईं। उन से बहुत कुछ सीखने को मिला और बहुत से नए प्रश्न खड़े हो गए। कार्यक्रम ने व्यवस्था और तत्कालीन सरकारी निजाम पर बहुत सवाल खड़े किए थे। अंतिम दिन रात्रि को ग्यारह बजे कार्यक्रम समाप्त हुआ। अगली सुबह जब मैं उठा तो पता लगा देश में आपातकाल लागू हो चुका है। विपक्षी दलों के नेताओं की बड़ी संख्या में गिरफ्तारियाँ हुई हैं, बहुत से सांस्कृतिक कर्मी भी गिरफ्तार हुए हैं। मुझे चिंता लगी कि इन कार्यक्रमों में सम्मिलित आमंत्रित लोगों में से कुछ तो अवश्य जेल पहुँच गए होंगे। पता किया तो जाना कि सब सुरक्षित नगर से निकल गए हैं। नगर के कुछ विपक्षी नेता अवश्य गिरफ्तार किए गए थे। लेकिन उस कार्यक्रम से संबंधित सभी लोग सुरक्षित थे।
आपातकाल में भी शिवराम के नाटक नहीं रुके। वे गाँव-गाँव चौपालों पर नाटक, कविसम्मेलन और गोष्ठियाँ करते रहे। श्रमजीवी वर्ग की एकता और संघर्ष की चेतना की मशाल जलती रही और नयी मशालों को चेताती रही। पाँच वर्ष बाद फिर स्थानान्तरण हुआ। अब वे कोटा जिला मुख्यालय पर थे और मजदूरों, किसानों, विद्यार्थियों, नौजवानों और सांस्कृतिक कर्मियों के संपर्क में थे। सभी क्षेत्रों में उन्हों ने संगठन की चेतना की मशाल जलाई और जलाए ऱखी। जहाँ वे गए वहाँ काम किया और सभी के प्रिय रहे। उन्हें हर श्रमजीवी से अगाध प्रेम था, उन में से जो भी उन के संपर्क में आया उन से प्रेम करने लगा। वे प्रेम की प्रतिमूर्ति थे। उन के काम का विस्तार हुआ, इतना कि देश भर के लोग उन से आशाएँ रखने लगे। सार्वजनिक क्षेत्र से सेवानिवृत्त हुए तो बहुत काम करने का संकल्प था। वे तुरंत जुट गए। वे अपने समय के एक-एक क्षण का उपयोग करते थे। लेकिन जीवन ने असमय धोखा दिया। वह रूठ गया। वे चले गए, लेकिन जो भी उन के संपर्क में एक बार भी आया उस के अंदर वे सदैव जीवित रहेंगे।
शिवराम के बारे में लिखना बहुत कठिन है, मैं लिखता ही रहूँ तो वह लेखन कभी विराम नहीं ले सकेगा। हम एक और दो अक्टूबर के इन दो काले दिनों को उन की स्मृतियों और प्रेरणा से उजला बनाना चाहते हैं। इस के लिए इस वर्ष उन की बरसी पर कोटा में दो दिनों का कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। 1 अक्टूबर 2011 को भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड), राजस्थान ट्रेड यूनियन केन्द्र और अखिल भारतीय जनवादी युवा मोर्चा की ओर से दो सत्रों का कार्यक्रम है। पहले सत्र में 'सर्वहारा वर्ग के निराले साथी शिवराम' विषय से एक श्रद्धांजलि सभा दोपहर एक बजे होगी। तीन बजे उन का सुप्रसिद्ध नाटक "जनता पागल हो गई है" का मंचन 'अभिव्यक्ति नाट्य और कला मंच' के कलाकार प्रस्तुत करेंगे। दूसरे सत्र में 'साथी शिवराम के संकल्पों का भारत' विषय पर संगोष्ठी होगी। 2 अक्टूबर को 'विकल्प' जनसांस्कृतिक मंच, श्रमजीवी विचार मंच और अभिव्यक्ति नाट्य एवं कला मंच द्वारा दो गोष्ठियाँ आयोजित कर रहे हैं। पहली गोष्ठी का विषय "जन-संस्कृति के युगान्तरकारी सर्जक : साथी शिवराम" तथा दूसरी गोष्ठी का विषय "अभावों से जूझते जन-गण एवं लेखकों कलाकारों की भूमिका" है। दोनों दिनों के कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में श्रमजीवी, लेखक और कलाकार भाग लेंगे।
'जनता पागल हो गई है' नाटक की एक चौराहे पर प्रस्तुति