@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

चलो आज कुछ फुटबोलियायें

फुटबाल विश्वकप अब मजेदार दौर में है। केवल आठ दावेदार रह गए हैं मैदान में। सब के सामने तीन मैच हैं। जिस ने ये तीन मैच जीत लिए वही सिरमौर होगा। पिछले दिनों शाम साढ़े सात बजे और रात बारह बजे मैच देखते देखते ऐसी आदत पड़ गई कि पड़त के दो दिन बहुत बुरे गुजरे। आज दिन में अदालत में एक वकील साहब कह रहे थे......स्साले केबल वाले ने ईएसपीएन ही गायब कर दिया तलाशे-तलाशे ही नहीं मिल रहा है। मैं ने कहा .... ईएसपीएन तो है बस उस की जगह बदल दी गई है। ठीक से तलाशा ही न होगा। कहने लगे ......मैं ने तो सारा टीवी स्केन कर डाला दो दिन से कहीं फुटबॉल मैच दिखाई ही नहीं दिया। ....... दिखाई कैसे देता? दो दिन से मैच थे ही नहीं। अब आज से क्वार्टर फाइनल शुरू हो रहे हैं। आज जरूर दिखेगा। और वहीं दिखेगा जहाँ पहले देख रहे थे। 
ज हमने दोनों मैच देखने की पूरी तैयारी कर ली है। सब मुवक्किलों से कह दिया है कि जिसे भी काम हो साढ़े सात के पहले आ जाए। वरना मुवक्किल न लग कर पूरे दुश्मन लगोगे। सही सलामत मुवक्किलों ने तो बात मान ली है। पर कोई अचानक ही आ टपके तो उस का क्या किया जाएगा। यह ऐन वक्त ही सोचा जाएगा। पहले से बनाई गई नीति अक्सर फुटबॉल मैच में जा कर फेल हो जाती है। वहाँ तुरतबुद्धि ही काम आती है। होता यह है कि पूरी योजना बना कर पूरी टीम के खिलाड़ी विपक्षी के  गोल तक फुटबॉल ले जाते हैं और ऐन मौके पर रक्षक गोल बचा ही नहीं लेता साथ ही अपनी टीम के खिलाड़ी को पास दे देता है और विपक्षी फुटबॉल को ऐसा पकड़ते हैं कि मिनट पूरा होने के पहले ही गोल कर डालते हैं। रणनीति धरी रह जाती है। मैं सोचता हूँ कम से कम मेरे साथ ऐसा न हो। मैच के दौरान कोई मुवक्किल आ जाए और जाए तब तक मैच ही पूरा हो ले। हाँ दूसरे मैच में इस तरह का कोई खतरा नहीं है। पर इस बात का पूरा खतरा है कि नींद आ जाए। उस की पैड़ बांधने को हम ने दिन में पन्द्रह मिनट की झपकी ले ली है। 
ज दो मैच हैं, पहला ब्राजील और हॉलेंड के बीच। यूँ हॉलेंड की टीम अच्छी है, ब्राजील को रोक सकती है। लेकिन हमारा मत ब्राजील के पक्ष में है। इसलिए नहीं कि वह टीम अच्छी नहीं है। टीम तो वह अच्छी है ही। पर उस के पक्ष में एक सब से मजबूत कारण ये है कि उस में काले खिलाड़ी अधिक संख्या में हैं। जब भी काले और गोरों के बीच मैच हो तो हम हमेशा कालों के साथ खड़े होते हैं। यह हम ने हमारे गुरूजी वकील सज्जनदास जी मोहता से सीखा। जब भी भारत का मैच वेस्टइंडीज और श्रीलंका के साथ होता था तो वे हमेशा वेस्टइंडीज या श्री लंका के साथ होते थे। यदि श्रीलंका और वेस्टइंडीज के बीच होता तो वे वेस्टइंडीज के साथ होते थे। कारण कि वेस्टइंडीजी श्रीलंकाइयों से अधिक काले हैं। पर उन का फारमूला हम पूरा न अपना पाए। जब भी भारत का मैच होता है तो अपुन का दिल फिसल जाता है। ये काले वाली थियरी गोल हो जाती है। तो पहले मैच में हम ब्राजील की तरफ होंगे।
दूसरा मैच घाना और पराग्वे के बीच है। एक तो पराग्वे के खिलाड़ी घाना वालों का मुकाबला कालेपन में नहीं कर सकते। दूसरा ये कि घाना अफ्रीका महाद्वीप की अकेली टीम मुकाबले में रह गई है। अफ्रीका सारी दुनिया के इंसानों की पैदाइश की जगह है। उस महाद्वीप की इकलौती बची टीम क्वार्टर फाइनल में बाहर हो जाए ये कतई अच्छा न लगेगा। हाँ, ये जरूर है कि बाहर हो भी जाए तो हम फुटबॉल देखना छोड़ न देंगे। वैसे भी  इस मैच को दुनिया के ज्यादातर मर्द देखने वाले हैं। आखिर पराग्वे की खूबसूरत मॉडल लारिसा रिक्वेल के जलवे पराग्वे के हर मैच के दौरान देखने को जो मिलते हैं। वे कम साहसी नहीं हैं। जहाँ फुटबॉल के नामी सितारे और अर्जेंटीना टीम के मौजूदा कोच माराडोना ने जब ये घोषणा की कि उन की टीम इस विश्वकप को हासिल कर सकी तो वे मादरजात सड़क पर दौड़ेंगे,  तो उस मुकाबले को केवल इसी हसीना ने झेला और जवाबी हमला किया कि पराग्वे विश्व चैंपियन बना तो वे भी मादरजात केवल शरीर को पराग्वे खिलाड़ियों की यूनिफॉर्म के रंग पुतवाकर स्ट्रीट में दौड़ लगाएँगी। अब हम नहीं चाहते कि इस हसीना को ऐसा करना पड़े। इस लिए हमारा वोट घाना के हक में रहेगा। काशः घाना आज के दूसरे मैच में जीत कर सेमीफाइनल खेले और इतिहास रचे।

..... थैंक्यू ब्लागवाणी !! वैरी, वैरी मच थैंक्यू !!!

यी रामकथा की सीता दुविधा में अभी तक अटकी पड़ी है। ब्लागवाणी चालू है लेकिन नए फीड नहीं ले रही है। जिस तरह की बातें सामने आ रही हैं उस से लगता है यदि ब्लागवाणी को वापस लौटना है तो भी कुछ समय तो इंतजार करना ही होगा। जब तक ब्लागवाणी मैदान में थी तब तक कोई किसी दूसरे संकलक को घास न डालता था। अंतर्जाल चालू होने के बाद जब तक ब्लागवाणी खोल कर न देख ले हिन्दी ब्लागर को चैन नहीं पड़ता था। वह थी ही ऐसी ही। हो भी क्यों न? हिन्दी को सैंकड़ों फोंट देने वाले, कम्प्यूटर और अंतर्जाल जगत में हि्न्दी की पैठ के लिए जी-जान से अपना समय, श्रम, कौशल और धन लगाने वाले मैथिलीशरण गुप्त के अद्वितीय योगदान का ही यह नतीजा था। पिछले तीन वर्षों में अंतर्जाल पर हिन्दी में जो काम हुआ है, उस में सर्वाधिक योगदान यदि किसी का है तो वह ब्लागवाणी का है।
केवल एक बार ही मैथिली जी और सिरिल गुप्त से मिलने का सौभाग्य मुझे मिला। उन्हें संपूर्ण रूप से समझ पाने के लिए यह मुलाकात पर्याप्त नहीं थी। लेकिन मैं इतना अवश्य समझ सका था कि केवल और केवल एक-दो या चार व्यक्तियों के आर्थिक योगदान से ब्लागवाणी जैसी निरन्तर विस्तार पाती गैरव्यवासायिक परियोजना को चला पाना संभव नहीं हो सकेगा। यदि उस का विस्तार नहीं होता तो वह भी अपनी सीमाओं में बंध कर रह जाती, और विस्तार हमेशा अधिक श्रम और अधिक पूंजी की मांग करता है। जो वैयक्तिक साधनों से जुटा पाना लगभग असंभव था। ऐसी परिस्थितियों में दो ही मार्ग शेष रह जाते हैं। एक तो यह कि उस का व्यवसायीकरण कर दिया जाए और दूसरा यह की उसे ऐसा संगठन चलाए जिस के सदस्य निरंतर आर्थिक योगदान करते रहें। दूसरे विकल्प की कोई गुंजाइश इसलिए नहीं कि स्थाई संगठन केवल वैचारिक हो सकते हैं। इसलिए केवल एक विकल्प शेष रहता है कि संकलक को व्यवसायिक बनाया जाए और यही शायद मैथिली जी और सिरिल गुप्त को स्वीकार नहीं था। यदि ब्लागवाणी पुनः आरंभ हो सकी तो उसे दीर्घजीवी होने के लिए व्यवसायिक रूप प्राप्त करना ही होगा।  ब्लागवाणी सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी तो इस लिए कि वह थी और उस की वजह मैथिली जी का अनुभव और कौशल तथा सिरिल गुप्त का श्रम था। आज भी स्थिति यही है कि यदि इन दोनों के योगदान से ब्लागवाणी पुनः आरंभ होगी तो वह सर्वश्रेष्ठ हिन्दी संकलक होगी।
किसी भी विशाल वृक्ष के अभाव की कल्पना से सभी का हृदय थरथरा उठता है। यदि यह नहीं हुआ तो क्या होगा? जानवर कड़ी धूप में कहाँ आश्रय पाएंगे? गाडियों को फिर धूप में खड़ा करना होगा। कहाँ बुजुर्गों की चौपाल लगेगी? वृक्ष पर पलने वाले पंछी और कीट कहाँ जाएंगे? आदि आदि। जब एक दिन आंधी में वह वृक्ष गिर पड़ता है तो नयी परिस्थितियों का सामना करना ही पड़ता है। तीन दिन पहले एक नीम का पुराना विशाल वृक्ष गिर पड़ा। पहले उस की शाखाओं की छंटाई हुई लोग उन्हें ले भागे। आज उस के तने को काट कर लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े किए गए जिस से अच्छी खासी इमारती लकड़ी प्राप्त हो गई। एक दो दिनों में उन्हें भी हटा दिया जाएगा। फिर वही विशाल नग्न भूमि प्राप्त हो जाएगी जो इस वृक्ष के लगाए जाने के पहले मौजूद थी। लेकिन अभी से आस पास के लोग विचार करने लगे हैं कि अब इस एक वृक्ष और पिछले वर्ष गिरे वृक्ष से रिक्त हुई भूमि पर कम से कम तीन पेड़ लगाए जा सकते हैं। निश्चित ही लोग वहाँ पेड़ लगा ही देंगे। कुछ वर्ष प्रतीक्षा करनी होगी, जब तक कि ये वृक्ष बड़े हो कर छाँह न देने लगें। 
ब्लागवाणी के अभाव को दो सप्ताह तक झेलना बहुत बुरा लगा। न जाने कितनी आत्माएँ उस के अभाव में तड़पती रहीं। साथ ही उन्हों ने पुराने कुछ संकलकों में आश्रय पाना आरंभ किया। पुराने संकलकों के यहाँ जो ब्लाग पंजीकृत नहीं थे वे होने लगे। इस बीच इंडली जैसा संकलक सामने आया। कुछ और कतार में हैं, कुछ निर्माण की अवस्था में भी।   इस से यह हुआ कि इन नए संकलकों से भी ब्लागों को पाठक मिलने लगे हैं। ब्लागवाणी के रुकने के बाद के पहले सप्ताह में ब्लागों पर पाठकों की आवक तेजी से गिरी थी। फिर कुछ सुधरने लगी। अब पिछले सप्ताह से पाठकों की आवक में तेजी से वृद्धि हुई है। अब स्थिति यह है कि हिन्दी ब्लागों को पहले से अधिक पाठक मिल रहे हैं। इस में भी ब्लागवाणी का योगदान कम नहीं है। यदि वह इस तरह यकायक दृश्य से गायब न हुई होती तो इन संकलकों तक हिन्दी ब्लाग पहुँचते ही नहीं और वे उन पाठकों से वंचित रहते जो उन के माध्यम  से हिन्दी ब्लागों तक पहुँचते हैं। इस नयी और अपेक्षाकृत अच्छी परिस्थिति उत्पन्न करने के लिए ब्लागवाणी निश्चित रूप से श्रेय प्राप्त करने की अधिकारी है। मेरी कामना है कि ब्लागवाणी वापस लौटे एक नए और सुधरे हुए रूप के साथ, सभी हिन्दी ब्लाग संकलकों का सिरमौर बन कर। अंत में इतना ही और कि ..... थैंक्यू ब्लागवाणी !!  वैरी,  वैरी मच थैंक्यू !!!

बुधवार, 30 जून 2010

नागा बाबा मरा नहीं है ........ यादवचंद्र पाण्डेय की बाबा नागार्जुन को समर्पित एक कविता

ज बाबा नागार्जुन का 100 वाँ जन्‍मदिन है। आज से उन का जन्मशती वर्ष आरंभ हो गया है। बाबा के बारे में कुछ भी लिख कर सूरज को दिया नहीं दिखाना चाहता। उन के जीवन, कृतित्व को कौन नहीं जानता? यादवचंद्र पाण्डेय उम्र में उन से मात्र सोलह वर्ष छोटे रहे, लेकिन बाबा के साथ उन के जीवन का एक बड़ा हिस्सा गुजरा। बाबा के शतकीय जन्मदिन पर पाण्डेय जी की कविता 'नागा बाबा' पढ़िए, जिस में बाबा नागार्जुन साकार हो उठते हैं .....

'नागा बाबा'
  • यादवचंद्र पाण्डेय  

संसद और विधान सभा में
प्रगट, गुप्त, सुनसान सभा में
मगरमच्छ लिखता आँसू से 
नागार्जुन हिन्दी के राजा
ज्यों सिलाव का राजा-खाजा
या रसगुल्ला कोलकता का 
या लिलुआ का टनटन भाजा
या मिथिला का भोग चकाचक
चूड़ा - दही - जलेबी ताजा
            पर कोई मरदूद न आता
            लाठी खाने, जेल भोगने 
            ले - देकर बस - नागा बाबा 

तुम जूझे थे -हम पूजेंगे
हमें जूझने को मत कहना
भला हुआ जो खाट पकड़ ली 
बीती बात भुलाए रहना
अखबारों में हम छापेंगे
तेरा क्लोज-अप, तेरी महिमा
इंटरव्यू टीवी पर लेंगे
सब को दी है टॉफी, तुमको
च्यवनप्राश का डब्बा देंगे

कम्युनिस्ट थे या जो कुछ थे
निजी मामला है तुम जानो
किन्तु सेठिया प्रजातंत्र में
कविता को वर्गेतर मानो
तुझे मीडिया चमका देगा
हर महफिल में झमका देगा
पुरस्कार से घर भर देगा
कालिदास, भवभूति, व्यास से 
सौ मीटर आगे कर देगा

कलम न कुछ भी दे पाती है 
जो देते हैं हम हैं देते
तेरे सारे पात्र मर गए
भीख मांगते लेते लेते
मिल-खेतों में धक्के खाते
दफ्तर में धरने पर लेटे
अरे भजो जो हमको प्यारे
भकुआ भारत - श्री हो जाए
गोबर भी बन जाए गेटे

अस्पताल में जो जाते हैं
और नहीं वापस आते हैं
हम मिजाजपुर्सी में उनके
आते हैं अपनत्व जताने
रंथी पर सोना बरसाने
थीसिस लिखने फिल्म बनाने
खुद नागा बाबा बन जाने 
           पर कोई मरदूद न आता
           झंडा ढोने दरी बिछाने
           ले - देकर बस - नागा बाबा

वक्र कलम की पंडितजी पर 
ठेंगा तुझे दिखाया हमने
जेहल तुरत पिठाया हमने
'पेरल' पर तुम आए पटने 
जहाँ शहीदों के हैं सपने
कवि-सम्मेलन हुआ भयंकर
सारे कवि थे, तुम भी तो थे-
तुमको नहीं बुलाया हमने
और नहीं पढ़वाया हमने
              क्या प्रभात जी, गलत कही क्या? 
              रहे न तुम तो गलत-सही क्या !  

'इन्दू जी क्या हुआ आप को ...'
नाच - नाचकर तुमने गाया
'मीसा' में धर तुरत सिपाही
ने, छपरे का जेल दिखाया
तब भी तो तुम कवि थे प्यारे
सब कवियों में धाकड़ न्यारे
पर तेरे मित्रों ने छापा
इसे न कविता का 'क' आता
करे छेद जिस पत्तल खाता
              चुप क्यों हैं, कुछ कहें खगेन्दर
              मैं क्या कहूँ, बंद था अंदर --


शक्ति इन्दिरा जी की दिल्ली में
मैं ने देखी तुम ने देखी
वामवीर साहित्यकार की 
ठकुरसुहाती थी मुहँदेखी
बातें सब ने सुनीं, व्यंग्य से
ऐंठ गया चेहरा तुम्हारा
तुरत तुम्हारा नाम कट गया
मुफ्त रूस के टूर-लिस्ट से
(फिर न जाने कैसे सट गया)


कवि-कोविद सत्ता के जितने 
बेटे जो बनते भूषण के 
सब हैं अंडे खर-दूषण के
जिन के फूटे, फूटा करते 
जाति, धर्म, भाषा के दंगे
जो भी सत्ता में आता है
बन जाते ये उस के झंडे
भाड़े के ये भट्ट-पवँरिए
सारे कर्म-कुकर्म करंते


घोटालों की लगी आग में
चौके - चूल्हे सब के ठंडे
भ्राता रावण,  बहन लंकिनी
बारी - बारी देश लुटंते
जो टोके - खाँसे, 'मीसा' में
या 'पोटा' में बंद करंते
इन के लाग - डाँट मानव क्या,
देव - दनुज तक नहीं बुझंते
ये हैं सौ - सौ रूप धरंते
              रहे न बाबा, कौन बताए
              इन के तिकड़म, गोरखधंधे

कालनेमि - घर बजे बधावा
भले मरा यह बाबा - ताबा
बक्र कैंचिया हँसुआ जैसा
बेलगाम कवि - नागा बाबा
ध्वनि प्रचंड पवि - नागा बाबा
विद्रोही रवि - नागा बाबा
सारे तुक्कड़ - लुक्कड़ का जो
चला रहा था भारी ढाबा
भला हुआ जो गया अभागा

नागा बाबा मरा नहीं है
लामबंद, जीवन - संघर्षों -
को, करने से डरा नहीं है
हर जुलूस, हर मार्च - प्रदर्शन
में चलता, चुप खड़ा नहीं है
जहाँ - जहाँ है जनता लड़ती
वहाँ - वहाँ नागा बाबा का
लड़ने से मन भरा नहीं है
नागा बाबा मरा नहीं है।
यादवचंद्र पाण्डेय

मंगलवार, 29 जून 2010

ऐसे चिकित्सक को क्या दंड मिलना चाहिए?

आज अखबार में समाचार था-
क महिला रोगी के पैर में ऑपरेशन कर रॉड डालनी थी, जिस से कि टूटी हुई हड्डी को जोड़ा जा सके। रोगी ऑपरेशन टेबल पर थी। डाक्टर ने उस के पैर का एक्स-रे देखा और पैर में ऑपरेशन कर रॉड डाल दी। बाद में पता लगा कि रॉड जिस पैर में डाली जानी थी उस के स्थान पर दूसरे पैर में डाल दी गई। 
डॉक्टर का बयान भी अखबार में था कि एक्स-रे देखने के लिए स्टैंड पर लगा हुआ था। किसी ने उसे उलट दिया जिस के कारण उस से यह गलती हो गई। 
मुझे यह समाचार ही समझ नहीं आया। आखिर एक चिकित्सक कैसे ऐसी गलती कर सकता है कि वह जिस पैर में हड्ड़ी टूटी हो उस के स्थान पर दूसरे पैर में रॉड डाल दे। क्या चिकित्सक ने एक्स-रे देखने के उपरांत पैर को देखा ही नहीं? क्या ऑपरेशन करने के पहले उस ने भौतिक रूप से यह जानना भी उचित नहीं समझा कि वास्तव में किस पैर की हड्डी टूटी है? क्या एक स्वस्थ पैर और हड्डी टूट जाने वाले पैर को एक चिकित्सक पहचान भी नहीं सकता? या चिकित्सक इतने हृदयहीन और यांत्रिक हो गए हैं कि वे यह भी नहीं जानते कि वे एक मनुष्य की चिकित्सा कर रहे हैं किसी आम के पेड़ पर कलम नहीं बांध रहे  हैं?
सुप्रीम कोर्ट ने एक निर्णय में कहा है कि चिकित्सकों के विरुद्ध अपराधिक लापरवाही के लिए कार्यवाही करने के पहले यह आवश्यक है कि उस मामले में किसी चिकित्सक की साक्ष्य उपलब्ध होनी चाहिए कि लापरवाही हुई है। क्या ऐसे मामले में भी किसी चिकित्सक की इस तरह की साक्ष्य की आवश्यकता है? मैं जानता हूँ कि नहीं। इस तरह के मामले में किसी चिकित्सक की इस तरह की साक्ष्य की आवश्यकता नहीं है। इस समाचार को पढ़ने के बाद मेरे सामने अनेक प्रश्न एकत्र हो गए हैं। मसलन....
1. क्या इलाके का पुलिस थाना जिसे समाचार पत्र से इस तथ्य की जानकारी हो गई है उस चिकित्सक के विरुद्ध बिना मरीज से शिकायत प्राप्त किए कोई अपराधिक मुकदमा दर्ज करेगा? 
2. मरीज स्वयं उस चिकित्सक के विरुद्ध पुलिस थाने में रपट लिखाए तब भी क्या पुलिस इस मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर अन्वेषण आरंभ करेगा? 
3. क्या अस्पताल का मुखिया ऐसे चिकित्सक के विरुद्ध कोई अनुशासनिक कार्यवाही करेगा?
मुझे इन सभी प्रश्नों के उत्तर की तलाश है जो शायद आने वाले कुछ दिनों या महिनों में मिल ही जाएँगे। लेकिन दो प्रश्न और है जिस का उत्तर मैं आप पाठकों से चाहता हूँ;
हला यह कि यदि पुलिस ऐसे चिकित्सक के विरुद्ध कार्यवाही करे, न्यायालय में उस के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत कर दे और यह साबित हो जाए कि चिकित्सक ने अपराधिक लापरवाही की है तो न्यायालय को उस चिकित्सक को सजा देना चाहिए या नहीं? यदि हाँ तो कितनी?
दूसरा यह कि यदि अस्पताल का मुखिया चिकित्सक के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही करे तो चिकित्सक को क्या दंड मिलना चाहिए?

रविवार, 27 जून 2010

गाँव की सामान्य अर्थव्यवस्था - -एक ग्राम यात्रा

पिछली पोस्टों घमौरियों ने तोड़ा अहंकार - एक ग्रामयात्रादेवताओं को लोगों की सामूहिक शक्ति के आगे झुकना पड़ता है और घूंघट में दूरबीन और हेण्डपम्प का शीतल जल से आगे ....... 
 कोई दो सौ कदम चलने पर ही पोस्टमेन जी का घर आ गया। एक कमरा पक्का बना हुआ था, शेष वही कवेलूपोश। घर में आंगन था जिस में नीम का पेड़ लगा था। पास ही एक हेण्डपम्प था।  पेड़ के नीचे दो चारपाइयाँ बिछी थीं। एक बुनी हुई और दूसरी निवार से बुनने की प्रक्रिया में थी। हम बुनी हुई चारपाई पर बैठ गए। पोस्टमेन जी चाय बनाने को कहने लगे। मैं ने इनकार किया कि मैं तो बीस बरस से चाय नहीं पीता। उन्हों ने शरबत का आग्रह किया। मैं ने उस के लिए भी मना कर दिया। उन की पोती जल्दी से शीतल जल ले आई। पोस्टमेन जी बताने लगे कि वे रिटायर होने के बाद गाँव ही आ गए। यहाँ कुछ जमीन है उसे देखते हैं, खेती अच्छी हो जाती है। दो लड़कों ने गाँव में ही अपना स्कूल खोल रखा है, जिस में सैकण्डरी तक पढ़ाई होती है। खुद पढ़ाते हैं और गाँव के ही कुछ नौजवानों को जिन्होंने बी.एड. कर रखा है और सरकारी नौकरी नहीं लगी है स्कूल में अध्यापक रख लिया है। स्कूल अच्छा चल रहा है, यही कोई ढाई सौ विद्यार्थी हैं। दो लड़के कोटा में नौकरी करते हैं। वहाँ उन्हों ने नौकरी के दौरान मकान बना लिया था उस में रहते हैं। मुझे पोस्टमेन जी अपने जीवन से संतुष्ट दिखाई दिए। इस से अच्छी कोई बात नहीं हो सकती थी कि उन के चारों पुत्र रोजगार पर हैं, सब के विवाह हो चुके हैं। उन्हें पेंशन मिल रही है और खेती की जमीन पर खेती हो जाती है। 
चौपाल पर गाँव का एक बालक
मैं ने उन से पूछा -खेती में तो खटना पड़ता होगा?
वे बताने लगे -खेती में आजकल कुछ नहीं करना पड़ता। सभी काम मशीनों से हो जाते हैं जो करवा लिये जाते हैं। बस खाद-बीज-कीटनाशक की व्यवस्था करनी पड़ती है। रखवाली और अन्य कामों के लिए एक हाळी (वार्षिक मजदूरी पर खेती के कामों के लिए रखा मजदूर) रख लेते हैं। हंकाई-जुताई-बिजाई ट्रेक्टर वाला किराए पर कर देता है। फसल पकने पर कंबाइन आ जाता है जो काट कर अनाज निकाल कर बोरों में भर देता है। ट्रेक्टर किराए पर ले कर फसल मंडी में बेच आते हैं। निराई आदि के काम बीच में आ जाते हैं तो मजदूर मिल जाते हैं। उन्हों ने बताया कि गाँव में जितने भी लोगों के पास खुद की भूमि है वे सभी इसी तरह काम करते हैं। किसी के पास ट्रेक्टर और दूसरे साधन हैं तो वे  भी उन से काम करने के लिए मजदूर रख लेते हैं।  गाँव में जिन के पास भूमि है उन सब के पास बहुत समय है, वे केवल खेती का प्रबंधन करते हैं या फिर मौज-मस्ती में जीवन गुजारते हैं। 
-इस हिसाब से गाँव संपन्न दिखाई देना चाहिए, लेकिन वैसी संपन्नता दिखाई नहीं देती। अभी भी गांव के 70-80 प्रतिशत घरों पर पक्की छतें नहीं हैं। मैं ने पूछा।
पोस्टमेन जी बताने लगे। लोग खुद तो कुछ करते नहीं सब मजूरों और मशीनों पर कराते हैं। नतीजे में खेती में खर्चा बहुत हो जाता है बस गुजारे लायक ही बचता है। जो लोग खेती के साथ दूसरे व्यवसाय करने लगते हैं या जिन्हें नौकरियाँ मिल जाती हैं वे अवश्य संपन्न हो चले हैं, पर ऐसे लोग कम ही हैं। हाँ, जिन के पास खेती नहीं है और केवल मजदूरी पर निर्वाह कर रहे हैं उन के पास इसी कारण से काम की कमी नहीं रही है। जो अच्छा काम करते हैं उन्हें हमेशा काम मिल जाता है। वैसे साल भर काम नहीं रहता है। लेकिन जब काम नहीं मिलता है तब वे नरेगा आदि में चले जाते हैं। उन में से जिन में कोई ऐब नहीं है वे धन संग्रह भी कर पाए हैं। गाँव में स्थिति यह है कि किसी जमीन वाले को पैसे की जरूरत पड़ जाए तो ये मजदूरी करने वाले लोग तीन रुपया सैंकड़ा मासिक ब्याज पर उधार दे देते हैं। 
मैं ने अपने मोबाइल पर समय देखा पौने चार हो रहे थे। मुझे उसी दिन रातको जोधपुर के लिए निकलना था। यह तभी हो सकता था जब कि मैं कम से कम छह बजे तक कोटा अपने घर पहुँच सकता। मुझे लगा अब यहाँ से चलना चाहिए। मैं ने पोस्टमेन जी से विदा लेनी चाही लेकिन, वे मुझे मेरे मेजबान के घर तक छोड़ने आए।  मेजबान का घर मेहमानों से भरा था। कुछ सुस्ता रहे थे, कुछ बतियाने में लगे थे। लेकिन घर की महिलाओं और लड़कियाँ काम  में लगी थीं। रसोई में चाय बन रही थी। दो महिलाएँ हेण्डपम्प के पास बर्तन साफ करने में लगी थीं। मेहमानों के लिए चाय आई। मैं ने मना किया तो मेरे लिए तुरंत ही नींबू की शिकंजी बन कर आ गई। अब सब लोगों को भोजन कराने की तैयारी थी। जो कहीं और बन रहा था। मैं भोजन करने के लिए रुकता तो फिर जोधपुर न जा सकता था। मैं निकलने के लिए अपनी कार तक आया। उस की धूल झाड़ ही रहा था कि मेजबान का पुत्र वहाँ आ गया। भोजन बिलकुल तैयार है बस आधे घंटे में आप निपट लेंगे, मैं उस के आग्रह को न टाल सका। 
ह मुझे उस स्थान पर ले गया जहाँ भोजन बन रहा था और खिलाया जाना था। वह एक घर था जिस मेंकेवल दो कच्चे कमरेबने थे, शेष भूमि रिक्त थी। जो जानवरों को बांधने आदि के काम आती थी। वहीं भोजन बन रहा था। खाली भूमि को साफ कर दिया गया था जिस से वहाँ बैठा कर भोजन कराया जा सके। हम पाँच-छह लोग जिन्हें जाने की जल्दी थी बिठा दिए गए। भोजन में आलू-टमाटर की स्वादिष्ट सब्जी थी, कच्चे आम की आँच थी जिस में बेसन की नमकीन बूंदी डाली गई थी, इस के अलावा बेसन के चरपरे सेव थे और मीठी बूंदी थी जिसे हम यहाँ नुकती कहते हैं, गरमागरम पूरियाँ परोसी जा रही थीं। हाड़ौती का ठेठ परंपरागत मीनू था, यह। गर्मी के कारण भोजन स्वादिष्ट होने पर भी ठीक से न कर पाए। भोजन के उपरांत हम गाँव से लौट पड़े।

शनिवार, 26 जून 2010

घूंघट में दूरबीन और हेण्डपम्प का शीतल जल -एक ग्राम यात्रा

पिछली पोस्टों घमौरियों ने तोड़ा अहंकार - एक ग्रामयात्रा और  देवताओं को लोगों की सामूहिक शक्ति के आगे झुकना पड़ता है  से आगे ....... 
 णेश जी महाराज की जय! जोरों का लगातार उद्घोष सुन कर मेरी झपकी टूट गई। शायद गणेश जी को नीचे से सिंहासन पर बैठाया जा रहा था। मेरी निगाह ऊपर नीम पर गई जिस के पत्तों के बीच से सूरज झाँक-झाँक जाता था। चौपाल पर मर्दों के जाते ही वहाँ बच्चे और युवतियाँ आ खड़े हुए थे। सिंहासन पर बैठते हुए गणेश जी के दर्शन करने की उत्सुकता के साथ। उन के पीछे महिलाएँ घूंघट काढ़े एक हाथ की दो उंगलियों से उस में छेद बना कर एक आँख से दूर से ही सिंहासन पर नजर गड़ाए खड़ी थीं। मुझे मुस्कुराना आ गया। हम दूर की वस्तुएँ को साफ देखने के लिए कभी हथेली को एक नली का रूप दे कर आँख के सामने रख देखते थे तो वे साफ दिखाई देने लगती थीं। कहते हैं कि यदि गहरे कुएँ में नीचे उतर कर आसमान में देखें तो दिन में तारे देखे जा सकते हैं। शायद वही प्रयोग वे घूंघटधारी महिलाएँ कर रही थीं। निश्चित रूप से वे दूर तक अधिक साफ देख पा रही होंगी। मैं ने उधर नजर दौड़ाई तो भीड़ में कुछ न दिखाई दिया। गणेश जी भीड़ से ढके थे।
ब एक एक कर लोग चौपाल पर लौटने लगे थे। हवन फिर से होने लगा। कुछ ही देर में मेहमान और गाँव के लोग हाथों में थैलियाँ लेकर तैयार नजर आए। अब कार्यक्रम का समापन नजदीक था। अंत में पूजा करने वाले मेजबान परिवार के जोड़ों को ये सब कपड़े भेंट करने वाले थे। कुछ ही देर में यह सब भी होने लगा। इतने में नाइन आ गई, सब को ढोबा (दोनों हाथों से बनी अंजुरी)  भर-भर बताशे बांटने लगी। मुझे भी लेने पड़े। मुझे समझ नहीं आया की उन बताशों का मैं क्या करूँ। बच्चों को बुलाया और उन्हें बांटने लगा, कुछ मैं ने भी खाए। मीठे बताशे खा कर पानी पीने से लगा जैसे गर्मी में शरबत की कमी पूरी हो गई है।  एक-एक कर लोग कपड़े पहनाने जाते रहे और वापस लौटते रहे। चौपाल पर फिर बातें होने लगीं। कोई कह रहा था। इन गणेश जी के साथ ही गाँव के सब देवता जमीन से चबूतरों और मंदिरों में आ चुके हैं। किसी दूसरे ने कहा-गणेश जी यूँ तो प्रथम पूज्य हैं लेकिन जिम्मेदार भी हैं। शेष सब देवताओं को चबूतरों पर बिठाने के बाद अपने लिए स्थान बनवाया है। मैं उन ग्रामीणों की समझ पर दंग था। जो सब काम वे खुद कर रहे थे, उस का सारा श्रेय देवताओं को दिए जाते थे। 
भी हनुमान जी के चबूतरे की बात चल निकली। कोई नेता था जो यह श्रेय खुद लेना चाहता था। गाँव वाले कहते थे, हमारे देवता हैं तो हम ही सब कुछ करेंगे। दूसरे की मदद क्यों लें? जब गाँव वाले करने लगे तो उस ने पुलिस का सहारा लिया और गाँव वालों पर मुकदमा बना दिया। सब गाँव वाले मुकदमे में कोटा जाने की बातें ताजा करने लगे। छह माह मुकदमा चला, हर माह कोटा जाना पड़ता था। जब मुकदमा खत्म हुआ तो  आखरी दिन उन में से एक आदमी उदास हो गया। उसे नयापुरा चौराहे पर रतन सेव भंड़ार की कचौड़ियाँ अच्छी लगती थीँ। वह हर पेशी पर जाता तो कचौड़ियाँ जरूर खाता। कहने लगा अब न जाने कब कचौड़ियाँ मिलेंगी। उस की इस आदत का लोग आनंद लेने लगे। जब भी जी चाहता उसे कहते -यार नोटिस आ गए हैं, फिर से तारीखों पर चलना पड़ेगा। वह कहता -जरूर चलेंगे, कचौड़ियाँ तो खाने को मिलेंगी। धीरे-धीरे यह होने लगा कि जब भी कोई बाइक से अकेला कोटा जाने को होता तो उसे साथ चलने को कहता। वह हमेशा तैयार हो जाता, उस की एक ही शर्त होती, रतन सेव वाले की कचौड़ियाँ खिलानी पड़ेंगी।

मुझे लघुशंका हो रही थी। मैं ने एक सज्जन से पूछा किधर जाना होगा। उस ने बिजली के दो खंबों के पीछे निकल जाने को कहा। मैं उधर गया तो वह गणेश जी का पिछवाड़ा निकला। और पीछे गया तो गाँव खत्म हो चला था, खेत आ गए थे। मैं निबट कर लौटा तो एक ने आवाज दे दी -हाथ धोने इधर आ जाओ। वहाँ  बाड़े में हेण्डपंप पर चौपाल पर बैठे लोगों में से एक मौजूद था। मैं वहाँ गया हाथ धोए तो पानी बहुत ठंडा था, जैसे फ्रिज में से निकला हो। मैं ने पानी पिया भी। मैं ने प्रतिक्रिया व्यक्त की, यहाँ तो पानी ठंडा करने की जरूरत ही नहीं। उन सज्जन ने कहा -यहाँ गर्मी में कोई मटकी का पानी नहीं पीता। सीधे हेण्डपंप से ही निकाल कर पीते हैं। मैं चौपाल पर पहुँचा तो वह खाली थी। सब लोग कपड़े पहना कर जा चुके थे। बस एक बचा था जो मेरा पूर्व परिचित निकला था। वह एक पोस्टमेन था जो आठ वर्ष पहले सेवानिवृत्त होने तक लगातार सोलह सत्रह वर्ष तक कोटा में मेरी बीट में डाक बांटता रहा था। अब सेवानिवृत्त हो जाने पर यहाँ अपने गाँव में वापस आ कर रहने लगा था। वह कहने लगा  -लो, आप को घर दिखा दूँ। मैं उस के साथ चल पड़ा।
......... क्रमशः

शुक्रवार, 25 जून 2010

देवताओं को लोगों की सामूहिक शक्ति के आगे झुकना पड़ता है

पिछली पोस्ट घमौरियों ने तोड़ा अहंकार - एक ग्रामयात्रा से आगे .......
चौपाल पर बैठे लोग आप में बतिया रहे थे। मैं अपरिचित था। इस लिए केवल सुनता रहा। कह रहे थे। जहाँ हम बैठे हैं वहाँ केवल खलिहान हुआ करता था। जहाँ गणेश जी की मूर्ति थी वहीं जागीरदार के कारिंदे अपना मुकाम लगाते।  गाँव नीचे होता था। गाँव जागीरी का था। जागीरदार किसानों से लगान तो वसूलता ही था जरूरत पड़ने पर खाने को अनाज बाढ़ी (यानी जितना अनाज दिया उस से सवाया या ड्योढ़ा फसल पर लौटाना होता)  पर उधार देता था। सारे गाँव की फसल कट कर पहले खलिहान पर आती जहाँ जागीरदार के कारिंदे मौजूद होते थे। फसल से दाने निकालने के बाद पहले लगान और बाढ़ी चुकता होती, उस के बाद ही किसान फसल घर ले जा सकते थे। कुल मिला कर फसल जो आती थी वह साल भर के लिए पर्याप्त नहीं होती थी। और घर चलाने के लिए फिर से कर्जे पर अनाज उधार लेना पड़ता था। कोई किसान न था जो कर्जे में न डूबा रहता हो। कुछ किसान फसल का हिस्सा चुराने की कोशिश भी करते थे। किसी समय कपड़े आदि में अनाज बांध कर कारिंदों की नजर बता कर खलिहान के बाहर डाल देते जहाँ दूसरा साथी मौजूद होता जो अनाज को घऱ पहुँचाता। पकड़े जाने पर जागीरदार सजा देता। लेकिन सजा का भय होते हुए भी लोग भूख से बचने को चोरी करते थे। फिर जागीरें खत्म हो गईं। धीरे-धीरे जागीरदार ने सब जमीनें बेच दीं। हवेली शेष रही उस का क्या करता सो उसे स्कूल को दान कर दिया। इस तरह जागीरी समाप्त हुई।
मैं ने पूछा-फसलें कैसी होती हैं, अब गाँव में? तो कहने लगे फसलें अच्छी होती हैं। मैं ने फिर पूछा -सब स्थानों पर भू-जल स्तर कम हो गया है, यहाँ की क्या स्थिति है। वे बताने लगे यहाँ पानी का तो वरदान है। जहाँ हम बैठे हैं वहाँ तीस-पैंतीस फुट पर पानी निकल आता है। साल भर हेंड पम्प चलते हैं। मैं ने गांव में एक भी  सार्वजनिक हेंड पम्प नहीं देखा था। इस लिए पूछा -मुझे तो एक भी नजर नहीं आया। एक बुजुर्ग बोले-कैसे नजर आएगा। बाहर कोई हेंड पम्प है ही नहीं। हर घर में कम से कम एक हेंड पम्प है। किसी किसी में दो भी हैं। उधर गांव की निचली तरफ तो कुईं खोदो तो इतना पानी है कि हाथ से लोटा-बाल्टी भर लो। उधर ही एक बोर पंचायत ने करवाया था। उस में इतना पानी है कि स्वतः ही बहता रहता है। हमने उस में पाइप लगा कर खेळ में भर रखा है जिस में जानवर पानी पीते हैं। वहीं कुछ जगह ऐसी बना दी है कि लोग पाइप लगा कर सीधे स्नान कर सकते हैं। जब जरूरत नहीं होती तो पानी खाळ (नाला) में बहता रहता है। वह खाळ एक छोटी नदी जैसा बन गया है। 
मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। इतना पानी जमीन में कहाँ से आ रहा है? मैं ने पूछा -आस पास कोई तालाब है? 
-नहीं, कोई नहीं।
-नदी कितनी दूर है? 
-नदी कोई दो कोस (लगभग तीन किलोमीटर) दूर है।
-तो जरूर पानी वहीं से आता होगा? 
-नदी तो बहुत नीचे है, वहाँ से पानी कैसे आएगा? यह तो भूमि ही ऐसी है कि बरसात में पानी सोख लेती है और साल भर देती रहती है।
मेरी इच्छा थी कि गाँव के दूसरे छोर पर, जा कर देखा जाए कि नलके से अपने आप पानी कैसे निकल रहा है। लेकिन कड़ी धूप थी। उस समय कोई मेरे साथ सहर्ष जाने को तैयार भी न था। कहने लगे शाम को चलेंगे। इतने में हवन का प्रथम खंड पूरा हो गया। गणेश जी को नीचे से उठा कर ऊपर लाने की तैयारी आरंभ हो गई। चौपाल  की बातें गणेश जी पर केंद्रित  हो गईँ।
लोग किस्सा सुना रहे थे, कैसे मेजबान के परदादा और उन के मित्र नदी से गणेश जी को उठा कर बैलगाड़ी में रख कर गाँव लाए थे? यूँ तो गणेश जी बहुत भारी हैं दो जनों के बस के नहीं है। फिर भी उन की खुद मर्जी थी इस लिए उन के साथ चले आए। इतने बरस नीम की जड़ में नीचे ही बैठे रहे। अब उन की मर्जी हुई तो चबूतरा भी बन गया और सिंहासन भी। 
मैं ने पूछा -अभी गणेश जी को नीचे से उठा कर ऊपर सिंहासन तक कैसे लाएँगे? 
वे कहने लगे -सब ले आएँगे। दो से न उठेंगे तो दस मिल कर उठा लेंगे। 
-और उन की मरजी न हुई तो? 
कुछ ऐसे ही थे वे गणेश
- नहीं कैसे नहीं होगी। उन की मरजी न होती तो चबूतरा-सिंहासन बनता? अब वे कैसे नखरे करेंगे। फिर ये कोई एक की मरजी थोड़े ही है। गाँव के पाँच लोगों ने तय कर के चबूतरा-सिंहासन बनाने की बात की है। गणेश जी को पाँच आदमियों की बात माननी होगी। 
मैं ने फिर कहा- और पाँच आदमियों की बात भी न मानी तो।
-कैसे न मानेंगे? पाँच आदमियों (पंचों) की बात वे टाल नहीं सकते। ऐसा हुआ तो गणेश जी पर से ही विश्वास उठ जाएगा। 
मैं सोचता रह गया, बहुत सारे देवताओं को मानने वाले  ग्रामीणों ने उन्हें खुला नहीं छोड़ रखा है। उन्हें भी लोगों  की सामूहिक शक्ति के आगे झुकना पड़ता है और लोग रोजमर्रा के व्यवहारों को ले कर  पूरी तरह व्यवहारिक हैं। मुझे देवीप्रसाद चटोपाध्याय की 'लोकायत' के विवरण स्मरण आने लगे। तभी चौपाल के  सभी मर्द गणेश  जी को उन के सिंहासन पर बिठाने उधर चले गए। मैं एकांत पा कर लेट गया। नीम के नीचे छाहँ थी और हवा चल रही थी। मुझे  झपकी लग गई।
...... क्रमशः