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शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

वर्तमान में श्रेष्ठ हिन्दी ब्लाग संकलक 'हमारी वाणी'

जून 18, 2010 को ब्लागवाणी अचानक तंद्रा में चली गई। बहुत हंगामा हुआ, लोगों ने तरह-तरह के सुझाव दिए कि किसी भी तरह ब्लागवाणी की तंद्रा टूटे और वह वापस सजग हो मैदान में आ जाए। लेकिन छह माह से अधिक समय हो चुका है,  अभी तक ब्लागवाणी तंद्रा में है। फिर दिसम्बर 2010 के अंत तक चिट्ठाजगत ने बिना कुछ कहे विदाई ले ली। इस बार बहुत हो हल्ला नहीं हुआ। लेकिन अचानक दो सब से महत्वपूर्ण संकलकों की अनुपस्थिति इन दिनों ब्लागर बहुत शिद्दत के साथ महसूस कर रहे हैं। प्रतिदिन ही कहीं न कहीं यह बात सामने आती है कि एक अच्छा संकलक होना चाहिए। हालाँकि ब्लागवाणी अभी जहाँ रुकी थी वहाँ अभी भी नजर आती है और इस पर सदस्य लोगिन भी हो रहा है। कभी भी इस की तंद्रा टूट सकती है।

संकलक की इस कमी को पूरा करने के लिए पहले तो हिन्दी ब्लाग जगत सामने आया। यह ब्लागस्पॉट की कुछ सुविधाओं का उपयोग कर बनाया गया एक संकलक जैसा ब्लाग है। इस के कुछ दिन बाद ही जर्मनी के लोकप्रिय ब्लागर राज भाटिया जी ब्लाग परिवार नाम से हिन्दी ब्लाग जगत जैसा ही एक ब्लाग ले कर सामने आए। अब राज भाटिया जी चाहते हैं कि वे एक एग्रीगेटर बनाना चाहते हैं, लेकिन उन के पास तकनीकी जानकारी की कमी है। उन्हें कोई तकनीकी सहयोग करे तो वे एक ऐसा संकलक लाना चाहते हैं जिस का अपना खुद का डोमेन हो, जिस के बारे में उन का आश्वासन है कि वह उन के जीतेजी बन्द नहीं होगा। राज जी बहुत बड़ा काम हाथ में ले रहे हैं। मैं विश्वास करता हूँ कि वे इस काम को करने में सफल हो सकेंगे और हिन्दी ब्लाग जगत को एक अच्छा संकलक मिल जाएगा।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि एक अच्छा संकलक मौजूद ही न हो। ब्लागवाणी बन्द होने के उपरांत कुछ हिन्दी ब्लागरों के प्रयास से ही हमारी-वाणी आरंभ हुआ और वह बहुत अच्छे तरीके से काम करते हुए अधिकांश उन आवश्यकताओं की पूर्ति कर रहा है जिन की पूर्ति ये दोनों महत्वपूर्ण संकलक कर रहे थे। यह संकलक इस के विकास के लिए लगातार सुझाव भी आमंत्रित कर रहा है। यदि किसी ब्लॉगर को कोई कमी इस में दिखाई देती है तो वह सुझाव दे सकता है। इन सुझावों के आधार पर इस का विकास होता रहे तो हमारी-वाणी एक संपूर्ण हिन्दी/भारतीय संकलक का स्थान ले सकता है। अभी इस संकलक के लिंक 'ताजा ताजा ' ताजा पोस्टें विवरण सहित देखी जा सकती हैं। यदि कोई विवरण न देख कर ब्लागपोस्ट का शीर्षक ही देखना चाहे तो  'ताजा 100 ' लिंक पर जा कर देख सकता है। इस के अतिरिक्त ब्लागर 'मेरा पन्ना' लिंक पर जा कर स्वयं की प्रोफाइल देख सकता है तथा 'हमारे साथी' पर जा कर इस संकलक पर सदस्य ब्लागीरों की सूची देख सकता है। इस के अतिरिक्त इस संकलक पर अधिक 'पसंद' और ज्यादा पढ़े गए ब्लागों की सूची भी क्रमवार उपलब्ध है। एक विशेषता यह भी है कि यदि कोई ब्लागपोस्ट किसी समाचार पत्र में स्थान पाती है तो उसे अलग से दिखाया गया है, जैसे दैनिक जागरण में आज ही छपी तीसरा खंबा की पोस्ट के बारे में यहाँ सूचित किया  गया है और लिंक को क्लिक करने पर 'ब्लाग इन मीडिया' की लिंक खुलती है। यही नहीं यहाँ नये जुड़े ब्लागों को अलग  से सूची भी उपलब्ध है। इस तरह यह संकलक ब्लागीरों की अधिकांश आवश्यकताओं की पूर्ती करता है।
र्तमान में यदि कोई कमी दिखाई देती है तो वह यह है कि इस संकलक पर कुल 892 ब्लाग के ही लिंक उपलब्ध हैं, अर्थात इन्हीं ब्लागों की पोस्टों की सूचनाएँ इस संकलक पर उपलब्ध हो पाती हैं। जब कि हिन्दी ब्लागों की संख्या इस से लगभग 12 गुना अधिक तक जा चुकी है। इस कमी को भी पूरा किया जा सकता है। इस के दो तरीके हैं, पहला तो यह कि स्वयं संकलक संचालक शेष हिन्दी ब्लागों को इस से जोड़ दें, दूसरा यह कि स्वयं ब्लाग संचालक अपने ब्लाग को इस संकलक पर पंजीकृत कराएँ। दूसरा मार्ग अधिक उचित प्रतीत होता है कि जो भी ब्लागीर अपने ब्लाग को इस संकलक पर दिखाना चाहता है,  पहले स्वयं सदस्य बने और फिर ब्लाग को पंजीकृत कराए। 
मेरी दृष्टि में 'हमारी वाणी' एक अच्छे संकलक की लगभग सभी जरूरतें पूरी करता है और हिन्दी ब्लागों के लिए बहुपयोगी संकलक है। जिन ब्लागीर साथियों ने अभी इस संकलक पर खुद को सदस्य नहीं बनाया है, तुरंत इसकी सदस्यता ग्रहण करें और अपने ब्लागों को इस पर पंजीकृत कराएँ। 


शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

..... थैंक्यू ब्लागवाणी !! वैरी, वैरी मच थैंक्यू !!!

यी रामकथा की सीता दुविधा में अभी तक अटकी पड़ी है। ब्लागवाणी चालू है लेकिन नए फीड नहीं ले रही है। जिस तरह की बातें सामने आ रही हैं उस से लगता है यदि ब्लागवाणी को वापस लौटना है तो भी कुछ समय तो इंतजार करना ही होगा। जब तक ब्लागवाणी मैदान में थी तब तक कोई किसी दूसरे संकलक को घास न डालता था। अंतर्जाल चालू होने के बाद जब तक ब्लागवाणी खोल कर न देख ले हिन्दी ब्लागर को चैन नहीं पड़ता था। वह थी ही ऐसी ही। हो भी क्यों न? हिन्दी को सैंकड़ों फोंट देने वाले, कम्प्यूटर और अंतर्जाल जगत में हि्न्दी की पैठ के लिए जी-जान से अपना समय, श्रम, कौशल और धन लगाने वाले मैथिलीशरण गुप्त के अद्वितीय योगदान का ही यह नतीजा था। पिछले तीन वर्षों में अंतर्जाल पर हिन्दी में जो काम हुआ है, उस में सर्वाधिक योगदान यदि किसी का है तो वह ब्लागवाणी का है।
केवल एक बार ही मैथिली जी और सिरिल गुप्त से मिलने का सौभाग्य मुझे मिला। उन्हें संपूर्ण रूप से समझ पाने के लिए यह मुलाकात पर्याप्त नहीं थी। लेकिन मैं इतना अवश्य समझ सका था कि केवल और केवल एक-दो या चार व्यक्तियों के आर्थिक योगदान से ब्लागवाणी जैसी निरन्तर विस्तार पाती गैरव्यवासायिक परियोजना को चला पाना संभव नहीं हो सकेगा। यदि उस का विस्तार नहीं होता तो वह भी अपनी सीमाओं में बंध कर रह जाती, और विस्तार हमेशा अधिक श्रम और अधिक पूंजी की मांग करता है। जो वैयक्तिक साधनों से जुटा पाना लगभग असंभव था। ऐसी परिस्थितियों में दो ही मार्ग शेष रह जाते हैं। एक तो यह कि उस का व्यवसायीकरण कर दिया जाए और दूसरा यह की उसे ऐसा संगठन चलाए जिस के सदस्य निरंतर आर्थिक योगदान करते रहें। दूसरे विकल्प की कोई गुंजाइश इसलिए नहीं कि स्थाई संगठन केवल वैचारिक हो सकते हैं। इसलिए केवल एक विकल्प शेष रहता है कि संकलक को व्यवसायिक बनाया जाए और यही शायद मैथिली जी और सिरिल गुप्त को स्वीकार नहीं था। यदि ब्लागवाणी पुनः आरंभ हो सकी तो उसे दीर्घजीवी होने के लिए व्यवसायिक रूप प्राप्त करना ही होगा।  ब्लागवाणी सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी तो इस लिए कि वह थी और उस की वजह मैथिली जी का अनुभव और कौशल तथा सिरिल गुप्त का श्रम था। आज भी स्थिति यही है कि यदि इन दोनों के योगदान से ब्लागवाणी पुनः आरंभ होगी तो वह सर्वश्रेष्ठ हिन्दी संकलक होगी।
किसी भी विशाल वृक्ष के अभाव की कल्पना से सभी का हृदय थरथरा उठता है। यदि यह नहीं हुआ तो क्या होगा? जानवर कड़ी धूप में कहाँ आश्रय पाएंगे? गाडियों को फिर धूप में खड़ा करना होगा। कहाँ बुजुर्गों की चौपाल लगेगी? वृक्ष पर पलने वाले पंछी और कीट कहाँ जाएंगे? आदि आदि। जब एक दिन आंधी में वह वृक्ष गिर पड़ता है तो नयी परिस्थितियों का सामना करना ही पड़ता है। तीन दिन पहले एक नीम का पुराना विशाल वृक्ष गिर पड़ा। पहले उस की शाखाओं की छंटाई हुई लोग उन्हें ले भागे। आज उस के तने को काट कर लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े किए गए जिस से अच्छी खासी इमारती लकड़ी प्राप्त हो गई। एक दो दिनों में उन्हें भी हटा दिया जाएगा। फिर वही विशाल नग्न भूमि प्राप्त हो जाएगी जो इस वृक्ष के लगाए जाने के पहले मौजूद थी। लेकिन अभी से आस पास के लोग विचार करने लगे हैं कि अब इस एक वृक्ष और पिछले वर्ष गिरे वृक्ष से रिक्त हुई भूमि पर कम से कम तीन पेड़ लगाए जा सकते हैं। निश्चित ही लोग वहाँ पेड़ लगा ही देंगे। कुछ वर्ष प्रतीक्षा करनी होगी, जब तक कि ये वृक्ष बड़े हो कर छाँह न देने लगें। 
ब्लागवाणी के अभाव को दो सप्ताह तक झेलना बहुत बुरा लगा। न जाने कितनी आत्माएँ उस के अभाव में तड़पती रहीं। साथ ही उन्हों ने पुराने कुछ संकलकों में आश्रय पाना आरंभ किया। पुराने संकलकों के यहाँ जो ब्लाग पंजीकृत नहीं थे वे होने लगे। इस बीच इंडली जैसा संकलक सामने आया। कुछ और कतार में हैं, कुछ निर्माण की अवस्था में भी।   इस से यह हुआ कि इन नए संकलकों से भी ब्लागों को पाठक मिलने लगे हैं। ब्लागवाणी के रुकने के बाद के पहले सप्ताह में ब्लागों पर पाठकों की आवक तेजी से गिरी थी। फिर कुछ सुधरने लगी। अब पिछले सप्ताह से पाठकों की आवक में तेजी से वृद्धि हुई है। अब स्थिति यह है कि हिन्दी ब्लागों को पहले से अधिक पाठक मिल रहे हैं। इस में भी ब्लागवाणी का योगदान कम नहीं है। यदि वह इस तरह यकायक दृश्य से गायब न हुई होती तो इन संकलकों तक हिन्दी ब्लाग पहुँचते ही नहीं और वे उन पाठकों से वंचित रहते जो उन के माध्यम  से हिन्दी ब्लागों तक पहुँचते हैं। इस नयी और अपेक्षाकृत अच्छी परिस्थिति उत्पन्न करने के लिए ब्लागवाणी निश्चित रूप से श्रेय प्राप्त करने की अधिकारी है। मेरी कामना है कि ब्लागवाणी वापस लौटे एक नए और सुधरे हुए रूप के साथ, सभी हिन्दी ब्लाग संकलकों का सिरमौर बन कर। अंत में इतना ही और कि ..... थैंक्यू ब्लागवाणी !!  वैरी,  वैरी मच थैंक्यू !!!

शनिवार, 19 जून 2010

कहीं आप बीमार तो नहीं ?

शाम तीन बजकर उन्नीस मिनट के बाद, पता नहीं क्या हुआ?
जैसे घड़ी की सुइयाँ अटक गई हों,
समय आगे ही नहीं खिसक रहा हो,

राम ने बंदूक तान रखी है
मणिरत्नम् की सीता दुविधा में है
बीच में आ कर खड़ी हो गई है
अब राम दुविधा में है
वह घोड़ा दबाए या न दबाए
रावण को कायदे से यहाँ अट्टहास करना चाहिए था
लेकिन उस के दसों चेहरे क्रोध से लाल हो रहा है
दसों चेहरों से पसीना टपक रहा है
और मक्खियाँ हैं कि चेहरों के
इर्द-गिर्द मंडरा रही हैं

इधर तरुणा अस्पताल में बिस्तर पर लेटी दुविधा में है
माँ-बाप लड़ कर गए हैं, उसे विनीत अच्छा लगता है
ये बात सारे वार्ड को बता गए हैं
वह सोच रही है जाऊँ तो जाऊँ कहाँ?
ससुराल? वहाँ सब उसे निचोड़ने को तैयार हैं
और देवर की क्षुधित आँखें?
नहीं वहाँ नहीं जाएगी
तो फिर, माँ-बाप के पास?
उन्हें छत के बदले एक नौकरानी चाहिए
सब लेने को तैयार हैं, देने को कोई नहीं
तभी विनीत आ जाता है,
वह भी उस से कुछ न कुछ लेने को बैठा है
पर वह है जो उसे कुछ दे सकता है

नीरज कुमार झा ने बीच में आ कर बोला
ईस्ट इंडिया कंपनी भारत की हो गई है
मैं सोचता हूँ ये भी कितना बड़ा भ्रम है,
यूनियन कार्बाइड भी तो भारतीय होने को तैयार थी
पहले ही टैंक फट गया
गिनती नहीं, कितने मरे और
कितने ही पीढ़ियों तक भुगतेंगे


जूनियर ब्लागर ऐसोसिएशन का गठन हो चुका है
आखिर
कब तक खून चूसेंगे परदेसी और परजीवी
हम नहीं चूसने देंगे
चूसना ही होगा तो आपस में चूसेंगे

पर गड़बड़ क्या हुई
अब तक रुकी पड़ी है सुई
कुछ भी हो सकती है

कुछ सोचते नहीं
कुछ समझते नहीं
बस करते रहते हैं
एक साथ कई काम
कहीं आप बीमार तो नहीं ?

सोमवार, 8 मार्च 2010

खुशी, जो मिलती है आभासी के वास्तविक होने पर

ल रात मैं भोजन कर निपटा ही था कि मोबाइल घनघना उठा। जहाँ मैं था वहाँ सिग्नल कमजोर होने से आवाज स्पष्ट नहीं आती। मैं ने मोबाइल उठाया तो नमस्ते के बाद कहा गया कि मैं रतलाम से .......... बोल रहा हूँ। नाम स्पष्ट समझ नहीं आया। बाद में संदेश था कि वे सुबह मुंबई-जयपुर एक्सप्रेस से सवाईमाधोपुर जा रहे हैं। साथ में उन  के भतीजे की बेटी भी है। मेरे लिए उन के पास एक पार्सल है। यदि किसी को स्टेशन भेज सकें तो पार्सल उन्हें दे दूंगा। यह ट्रेन कोटा सुबह 8.40 पर पहुँचती है। मुझे सुबह छह बजे अपनी बेटी को स्टेशन छोड़ना था। घर से स्टेशन 12 किलोमीटर पड़ता है। सोचा दो घंटे स्टेशन के किसी मित्र से मिलने में गुजार लेंगे। मैं ने उन्हें कह दिया कि मैं खुद ही स्टेशन हाजिर होता हूँ। इस के बाद बात समाप्त हो गई। 
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि रतलाम से किस का फोन हो सकता है। भतीजे की  बेटी साथ है तो निश्चित रूप से  उन की उम्र 55-60 तो होनी ही चाहिए थी। इस उम्र के केवल दो ही व्यक्ति  हो सकते थे। एक विष्णु बैरागी और दूसरे मंसूर अली हाशमी। बैरागी जी की भाषा और आवाज कुछ अलग है। निश्चित ही वे नहीं थे। जरूर वे मंसूर अली हाशमी रहे होंगे। फिर देर रात जी-मेल पर उन का चैट संदेश देखा तो पक्का हो गया कि वे ही हैं।  संदेश का उत्तर दिया, लेकिन वह संदेश शायद फोन करने के पहले का था। रात के बारह बजने वाले थे।  उत्तर का उत्तर नहीं आया। उन की ट्रेन रतलाम से सुबह चार बजे चलती है, जिस के लिए उन्हें निश्चित ही तीन बजे तो तैयारी करनी होगी। निश्चित ही वे तब तक सो चुके होंगे।
सुबह साढ़े चार नींद खुली तो घर में कोई उठा न था। मैं ने शोभा को कहा -उठो पूर्वा को जाना है न। तो उस ने बताया कि उस को रात पेट में बहुत दर्द था। वह नहीं जा रही है। मेरी भी नींद पूरी नहीं हुई थी। मैं फिर से सो गया। सुबह आठ बजे मैं घर से रवाना हुआ। गाड़ी कोई दो-सौ मीटर ही चली होगी कि हाशमी जी का फोन आ गया। मैं ने उन्हें बताया कि उन की गाड़ी दरा घाटी से गुजर रही होगी, वे उस का आनंद लें मैं उन से स्टेशन पर ही मिल रहा हूँ। 
 मैं प्लेटफार्म पर कोई पंद्रह मिनट पहले पहुँच गया था, वहाँ एक और ट्रेन खड़ी थी। अगले पाँच मिनट में वह चल दी। फिर कोच के लिए डिस्प्ले आने लगा तो मैं वांछित कोच के स्थान पर बैंच पर जा बैठा। कोई दस मिनट बाद प्रतीक्षित ट्रेन भी आ गई। हाशमी जी कोच के दरवाजे पर ही थे। ट्रेन रुकते ही उतरे और सीधे गले आ लगे। जैसे हम बचपन या किशोरावस्था के बहुत गहरे मित्र हों और बरसों बाद मिल रहे हों। उन्हों ने एक पोली-बैग मेरी तरफ बढ़ाया और बोले -बस रतलाम की सौगात है। मैं भी ऐसे ही एक छोटे बैग में कुछ सौगात लिए था । हमने बैग बदल लिये। पीछे से उन की पौत्री उतरी, यही कोई बाईस से पच्चीस के बीच की रही होगी। उस ने तुरंत हाथ बढ़ाया, मैं ने गौर से उस के चेहरे की ओर देखा। आँखें कह रही थीं -हैलो अंकल! शेक हैंड। मेरा हाथ तुरंत बढ़ गया। इतनी देर में जेब से कैमरा निकाल कर वे मेरा एक चित्र ले चुके थे। मैं लड़की से बात करने लगा। वे बड़ी तेजी से कोई पचास फुट दूर तक गए। लगा जैसे उन की उम्र 62 नहीं 20-22 हो। मैं चौंका, ऐसा क्या हुआ कि वे इतनी इतनी तेजी से दूर गए। उन की ओर देखा तो वे दूर से एक चित्र ले रहे थे। वे फिर पास आए तो मैं ने भी अपने मोबाइल से उन का चित्र लिया।
मारे पास केवल दस मिनट थे जिस में से तीन समाप्त हो चुके थे। इतने में उन की पौत्री ने बोला- वो लड़का डिब्बे में अपना बैग छोड़ कर भाग गया। अब हम दोनों के चौंकने की बारी थी।  बिटिया कह रही थी कि वह सुबह किसी स्टेशन से चढ़ा था और पास वाले से अजीब सी बातें कर रहा था। हाशमी जी ने बोला स्टाल पर कुछ लेने गया होगा। मैं ने कहा -बिटिया की सजगता को हलके से न लेना चाहिए। बिटिया ने कोच में चढ़ कर उस का बैग बताया। रंग में काला बैग पुराना था। मुझे उस में संदेहास्पद कुछ न लगा। हम फिर बातें करने लगे। उन्हें सवाई माधोपुर हो कर श्योपुर जाना था। मैं ने बोला वह तो मध्य प्रदेश में है, अब अलग जिला है पहले मुरैना जिले में हुआ करता था। हाशमी जी की प्रतिक्रिया थी -यानी हम मध्यप्रदेश से चल कर वापस वहीं पहुँच जाएंगे?
फिर रतलाम की बात चली। वे बताने लगे वहाँ मेडीकल स्टोर ठीक चल रहा है। पर मैं ने कुछ कृषि भूमि खरीद ली है और खेती करने का आनंद ले रहा हूँ।  उन्हों ने कैमरे में अपने परिजनों और खेत में गेहूँ की फसल के चित्र दिखाए। मैं न कवि अलीक के बारे में जानना चाहा तो उन्हों ने बताया कि उन का कविता संग्रह छप कर तैयार है बस विमोचन का तय नहीं हो पा रहा है। मैं ने उन से वादा किया कि विमोचन में शिवराम या महेन्द्र नेह अवश्य आएंगे और मैं भी उन के साथ चला आउंगा। वे कहने लगे -मैं ने कोटा आने का काम पूरा कर दिया है, अब आप की बारी है। गाड़ी अब चलने का संकेत दे रही थी। भागा हुआ लड़का दौड़ते हुए वापस आया और अपना बैग ले कर कोच के दूसरे हिस्से में चला गया। उसे वापस आया देख कर हमें संतोष हुआ, सब से अधिक हाशमी जी की पौत्री की चिंता खत्म हुई। गाड़ी चलने लगी तो हाशमी जी ने गाड़ी में चढ़ कर विदा ली।
हाशमी जी से परिचय इसी आभासी दुनिया में हुआ। उन के तीन ब्लॉग हैं आत्म-मंथन, अदब नवाज, और चौथा बंदर। मुझे उन के लेखन में अक्सर उन की जवानी के दिनों का जो उल्लेख होता है उस में और मेरी किशोरावस्था में बहुत समानता प्रतीत हुई। शायद उस जमाने की मेरी और उन की पसंद एक जैसी थी। उन के लेखन में वही जवानी वाली शरारतें अब भी हैं। जो उन्हें मेरी पसंदीदा बनाती हैं।  आज एक आभासी संबंध वास्तविकता में बदला। आप भी महसूस कर रहे होंगे कि आभासी संबंध जब वास्तविक होता है तो कितनी खुशी देता है।