@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: देवताओं को लोगों की सामूहिक शक्ति के आगे झुकना पड़ता है

शुक्रवार, 25 जून 2010

देवताओं को लोगों की सामूहिक शक्ति के आगे झुकना पड़ता है

पिछली पोस्ट घमौरियों ने तोड़ा अहंकार - एक ग्रामयात्रा से आगे .......
चौपाल पर बैठे लोग आप में बतिया रहे थे। मैं अपरिचित था। इस लिए केवल सुनता रहा। कह रहे थे। जहाँ हम बैठे हैं वहाँ केवल खलिहान हुआ करता था। जहाँ गणेश जी की मूर्ति थी वहीं जागीरदार के कारिंदे अपना मुकाम लगाते।  गाँव नीचे होता था। गाँव जागीरी का था। जागीरदार किसानों से लगान तो वसूलता ही था जरूरत पड़ने पर खाने को अनाज बाढ़ी (यानी जितना अनाज दिया उस से सवाया या ड्योढ़ा फसल पर लौटाना होता)  पर उधार देता था। सारे गाँव की फसल कट कर पहले खलिहान पर आती जहाँ जागीरदार के कारिंदे मौजूद होते थे। फसल से दाने निकालने के बाद पहले लगान और बाढ़ी चुकता होती, उस के बाद ही किसान फसल घर ले जा सकते थे। कुल मिला कर फसल जो आती थी वह साल भर के लिए पर्याप्त नहीं होती थी। और घर चलाने के लिए फिर से कर्जे पर अनाज उधार लेना पड़ता था। कोई किसान न था जो कर्जे में न डूबा रहता हो। कुछ किसान फसल का हिस्सा चुराने की कोशिश भी करते थे। किसी समय कपड़े आदि में अनाज बांध कर कारिंदों की नजर बता कर खलिहान के बाहर डाल देते जहाँ दूसरा साथी मौजूद होता जो अनाज को घऱ पहुँचाता। पकड़े जाने पर जागीरदार सजा देता। लेकिन सजा का भय होते हुए भी लोग भूख से बचने को चोरी करते थे। फिर जागीरें खत्म हो गईं। धीरे-धीरे जागीरदार ने सब जमीनें बेच दीं। हवेली शेष रही उस का क्या करता सो उसे स्कूल को दान कर दिया। इस तरह जागीरी समाप्त हुई।
मैं ने पूछा-फसलें कैसी होती हैं, अब गाँव में? तो कहने लगे फसलें अच्छी होती हैं। मैं ने फिर पूछा -सब स्थानों पर भू-जल स्तर कम हो गया है, यहाँ की क्या स्थिति है। वे बताने लगे यहाँ पानी का तो वरदान है। जहाँ हम बैठे हैं वहाँ तीस-पैंतीस फुट पर पानी निकल आता है। साल भर हेंड पम्प चलते हैं। मैं ने गांव में एक भी  सार्वजनिक हेंड पम्प नहीं देखा था। इस लिए पूछा -मुझे तो एक भी नजर नहीं आया। एक बुजुर्ग बोले-कैसे नजर आएगा। बाहर कोई हेंड पम्प है ही नहीं। हर घर में कम से कम एक हेंड पम्प है। किसी किसी में दो भी हैं। उधर गांव की निचली तरफ तो कुईं खोदो तो इतना पानी है कि हाथ से लोटा-बाल्टी भर लो। उधर ही एक बोर पंचायत ने करवाया था। उस में इतना पानी है कि स्वतः ही बहता रहता है। हमने उस में पाइप लगा कर खेळ में भर रखा है जिस में जानवर पानी पीते हैं। वहीं कुछ जगह ऐसी बना दी है कि लोग पाइप लगा कर सीधे स्नान कर सकते हैं। जब जरूरत नहीं होती तो पानी खाळ (नाला) में बहता रहता है। वह खाळ एक छोटी नदी जैसा बन गया है। 
मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। इतना पानी जमीन में कहाँ से आ रहा है? मैं ने पूछा -आस पास कोई तालाब है? 
-नहीं, कोई नहीं।
-नदी कितनी दूर है? 
-नदी कोई दो कोस (लगभग तीन किलोमीटर) दूर है।
-तो जरूर पानी वहीं से आता होगा? 
-नदी तो बहुत नीचे है, वहाँ से पानी कैसे आएगा? यह तो भूमि ही ऐसी है कि बरसात में पानी सोख लेती है और साल भर देती रहती है।
मेरी इच्छा थी कि गाँव के दूसरे छोर पर, जा कर देखा जाए कि नलके से अपने आप पानी कैसे निकल रहा है। लेकिन कड़ी धूप थी। उस समय कोई मेरे साथ सहर्ष जाने को तैयार भी न था। कहने लगे शाम को चलेंगे। इतने में हवन का प्रथम खंड पूरा हो गया। गणेश जी को नीचे से उठा कर ऊपर लाने की तैयारी आरंभ हो गई। चौपाल  की बातें गणेश जी पर केंद्रित  हो गईँ।
लोग किस्सा सुना रहे थे, कैसे मेजबान के परदादा और उन के मित्र नदी से गणेश जी को उठा कर बैलगाड़ी में रख कर गाँव लाए थे? यूँ तो गणेश जी बहुत भारी हैं दो जनों के बस के नहीं है। फिर भी उन की खुद मर्जी थी इस लिए उन के साथ चले आए। इतने बरस नीम की जड़ में नीचे ही बैठे रहे। अब उन की मर्जी हुई तो चबूतरा भी बन गया और सिंहासन भी। 
मैं ने पूछा -अभी गणेश जी को नीचे से उठा कर ऊपर सिंहासन तक कैसे लाएँगे? 
वे कहने लगे -सब ले आएँगे। दो से न उठेंगे तो दस मिल कर उठा लेंगे। 
-और उन की मरजी न हुई तो? 
कुछ ऐसे ही थे वे गणेश
- नहीं कैसे नहीं होगी। उन की मरजी न होती तो चबूतरा-सिंहासन बनता? अब वे कैसे नखरे करेंगे। फिर ये कोई एक की मरजी थोड़े ही है। गाँव के पाँच लोगों ने तय कर के चबूतरा-सिंहासन बनाने की बात की है। गणेश जी को पाँच आदमियों की बात माननी होगी। 
मैं ने फिर कहा- और पाँच आदमियों की बात भी न मानी तो।
-कैसे न मानेंगे? पाँच आदमियों (पंचों) की बात वे टाल नहीं सकते। ऐसा हुआ तो गणेश जी पर से ही विश्वास उठ जाएगा। 
मैं सोचता रह गया, बहुत सारे देवताओं को मानने वाले  ग्रामीणों ने उन्हें खुला नहीं छोड़ रखा है। उन्हें भी लोगों  की सामूहिक शक्ति के आगे झुकना पड़ता है और लोग रोजमर्रा के व्यवहारों को ले कर  पूरी तरह व्यवहारिक हैं। मुझे देवीप्रसाद चटोपाध्याय की 'लोकायत' के विवरण स्मरण आने लगे। तभी चौपाल के  सभी मर्द गणेश  जी को उन के सिंहासन पर बिठाने उधर चले गए। मैं एकांत पा कर लेट गया। नीम के नीचे छाहँ थी और हवा चल रही थी। मुझे  झपकी लग गई।
...... क्रमशः

11 टिप्‍पणियां:

उम्मतें ने कहा…

लोकायत का अच्छा स्मरण दिलाया आपने !
मुझे भी पानी की सुलभता का रहस्य जानने की इच्छा है क्रपया पता करके बताइये !

समयचक्र ने कहा…

बहुत ही सटीक बात कही है आपने .....समूह के आगे देवता भी झुक जाते हैं .... जहाँ समूह में प्राथना(किसी भी धर्म में) की जाती है वहां देवता भी मनोरथ पूरे करने तत्पर हो जाते हैं .... आभार

hem pandey ने कहा…

यदि नीयत नेक होगी तो ईश्वर साथ देगा.

राज भाटिय़ा ने कहा…

श्रद्धा हो तो सब कुछ हो जाता है , ताकत अपने आप आ जाती है, लेकिन यह पानी का रह्स्य मेरे ख्याल मै वो नदी ही है, ओर गरीब बेचारा हमेशा पिस्ता ही आ रहा है, आज की पोस्ट भी मजे दार चलिये आप आराम किजिये कल फ़िर मिलेगे, राम राम जी की

राम त्यागी ने कहा…

अच्छे लग रहे हैं आप के गाँव के ये चर्चे ...देवता और इश्वर को हम वही कराते है जो खुद कि सहूलियत के लिए सही होता है. आप वहाँ घमोरियों से परेशान और हम इधर चींटियों से बहुत परेशान हैं आजकल जबसे गर्मी आई है ....जबा इंडिया आऊंगा तब आपको मोरेना के एक गाँव का चक्कर जरूर लगवाएंगे ...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मानवीय हठ का सम्मान देवता भी करते हैं । समूह में तो हठ बनाये रखने का उत्साह भी आ जाता है ।

निर्मला कपिला ने कहा…

भी भी क्रमश: अपका ध्यान छोटी से छोती बात पर भी इतनी गम्भीरता से सोचता है। आश्चर्य। बहुत अच्छा चल रहा है यात्रा का संस्मरण। धन्यवाद।

Arvind Mishra ने कहा…

ग्राम्य समूह के आगे खुदा भी पनाह मांगे !

विष्णु बैरागी ने कहा…

लोक विश्‍वास ही देवता को देवता बनाए रखता है।

Smart Indian ने कहा…

कैसे न मानेंगे? पाँच आदमियों (पंचों) की बात वे टाल नहीं सकते।
क्या बात है. सरल सहज ग्रामीण भी इस दैवी गुण को स्वतः ही समझते हैं. जहां असुरराज खुदमुख्तार होता था वहां देव हर काम मंत्रणा से करते थे. यज्ञ में भी कम से कम पांच लोगों की अनिवार्यता जनगण (वर्सस "मैं") की बुद्धिमता के सम्मान का प्रतीक है.
हमारे एक मित्र कहते हैं कि यह ग्रामीण ही दुनिया भर में लोकतंत्र के जन्मदाता और संरक्षक हैं. जब भारत के शहरी रेलों के समय पर चलने को ही सबसे बड़ा प्रसाद मानकर आपातकाल के गुणगान कर रहे थे तब लोकतंत्र के जन्मदाता और संरक्षक इन्हीं ग्रामीणों ने रानी के सिंघासन का पटरा खींच लिया था. उनकी मानें तो हिरानाकश्यप के नरसिंह और मथुरा की जेल के द्वार खोलने वाले सब यही जन थे.

ghughutibasuti ने कहा…

हाहा , यह गणेश जी पर भी सबाव बनाए रखना मजेदार लगा। पानी का रहस्य बताइए।
घुघूती बासूती