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मंगलवार, 22 नवंबर 2022

सावरकर और उसकी विचारधारा देश की प्रगति और विकास के लिए सब से बड़ा रोड़ा है

सावरकर भारतीय हिन्दू दक्षिणपंथ के नायक होने के साथ साथ कमजोर नस भी हैं। राहुल गांधी ने महाराष्ट्र में प्रवेश करते हुए इस कमजोर नस को दबा दिया है। इस नस के दबते ही सारे भाजपाई एक साथ उबल पड़े हैं। यहाँ तक कि महाराष्ट्र में उनका साथ देने वाला और राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले ठाकरे परिवार को भी राहुल गांधी के बयान पर अपनी आपत्ति दर्ज करानी पड़ी। हालाँकि उद्धव ठाकरे ने राहुल गांधी के बयान की आलोचना के साथ ही भाजपाइयों पर हमला बोल कर इस बात की सावधानी बरती कि कांग्रेस के साथ उसके रिश्ते खराब न हों और उनका अगाड़ी मोर्चा बरकरार रहे।

राहुल गांधी ने इतना ही कहा था कि सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी, पर साथ ही आजादी के आंदोलन में उनके योगदान को एक हद तक स्वीकार करके अपने आलोचना कर्म को हलका कर दिया। लेकिन अब महात्मा गांधी के प्रपोत्र तुषार गांधी सावरकर की आलोचना के मैदान में उतर पड़े। उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी की हत्या के लिए पिस्तौल सावरकर ने उपलब्ध करवाने में मदद की थी। इस तरह सीधे सीधे उन्हें हत्या में सहयोगी कह दिया है। साथ ही उन्होंने कहा कि आजादी आंदोलन के दौरान सावरकर ने अंग्रेजों की मदद की। जिसका अर्थ था कि सावरकर ने आजादी आंदोलन की पीठ में छुरा घोंपा है।

सावरकर अपने कामों के लिए हमेशा विवादास्पद बने रह सकते हैं। क्यों कि यह बात तो अब भाजपाई भी मान रहे हैं कि सावरकर ने माफी मांगी थी और बचाव में वे झूठी कहानियाँ गढ़ रहे हैं कि दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों ने भी माफी मांगी थी। अब ये झूठी कहानियाँ उनके गले पड़ने वाली हैं।

सावरकर पर उनके कर्मों के कारण होने वाले हमलों से न भाजपा विचलित होगी और न ही अन्य भारतीय हिन्दू दक्षिणपंथी। हिन्दू दक्षिणपंथ के पास सावरकर के अतिरिक्त कोई अन्य सिद्धान्तकार है ही नहीं। विश्व में अकेले सिद्धान्तकार हैं जो भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाने का सिद्धान्त देते हैं। हालाँकि सभी हिन्दू दक्षिणपंथी अपने हिन्दू राष्ट्र को एक धार्मिक राष्ट्र के रूप में देखते-दिखाते हैं क्यों कि उसके बिना उनका इस रास्ते पर आगे बढ़ना बिलकुल संभव नहीं है। हिन्दू राष्ट्र से धर्म को अलग करते ही उनका हिन्दू राष्ट्र का यह राजमहल बिलकुल ताश के महल की तरह भरभराकर गिर पड़ेगा।

दूसरी ओर इस मामले में सावरकर उनके आड़े आ जाते हैं। सावरकर पूरी तरह नास्तिक थे। उनका हिन्दू राष्ट्र बिलकुल भी धार्मिक नहीं था। हिन्दू राष्ट्र की सबसे बड़े प्रतीक गौ माता के मामले में उनके विचार बहुत प्रगतिशील थे। वे कहते हैं कि गाय अन्य जानवरों की तरह ही जानवर है और उसे कोई इंसान माता कैसे मान सकता है। इस तरह सावरकर का उपयोग करने में अनेक अंतर्विरोध मौजूद हैं। फिर भी हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा देने वाला और कोई सिद्धान्तकार नहीं होने के कारण वही हिन्दू दक्षिणपंथ के सर्वोपरि आदर्श हो सकते हैं अन्य कोई भी व्यक्ति नहीं।

कम्प्यूटराइज्ड औद्योगिक समाजों के इस युग में आगे बढ़ने के लिए किसी भी देश के लिए एक धार्मिक राष्ट्र का होना एक बहुत बड़ा अवरोध है। ये दोनों एक साथ संभव नहीं हैं। देश को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाना है तो उसे दक्षिणपंथ पर काबू पाना होगा। अभी भाजपा इस हिन्दू दक्षिणपंथ पर सवार हो कर देश पर काबिज है। अब यदि राहुल गांधी और अन्य कोई भी नेता और उनकी पार्टियाँ चाहती हैं कि देश को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाने कि लिए देश पर से भाजपा के इस कब्जे को नेस्तनाबूत किया जाए तो उन्हें समूचे दक्षिणपंथ को निशाने पर लेना होगा। हिन्दू दक्षिणपंथ इस का बड़ा हिस्सा है। हिन्दू दक्षिणपंथ को मुख्य लक्ष्य बनाने के लिए सावरकर और उसके द्विराष्ट्र सिद्धान्त को ध्वस्त करना होगा। यह सावरकर ही था जिसने पहले पहल भारत में द्विराष्ट्र का सिद्धान्त दिया और धार्मिक पहचान के आधार पर देश के दो टुकड़े करने की नींव रखी। मुस्लिम नेता तो उसकी प्रतिक्रिया में अलग पाकिस्तान मांगने लगे। वस्तुतः देश के विभाजन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है तो वह सावरकर है। यदि सावरकर न होते तो भारत आज अखंड होता।

अब यदि अन्य नेता और राजनीतिक दल वास्तव में चाहते हैं कि भारत प्रगति के पथ पर आगे बढ़े तो उन्हें हिन्दू दक्षिणपंथ पर घातक हमले करने होंगे। यह उनकी विचारधारा को ध्वस्त करके ही किया जा सकता है, जिसका आधार सावरकर है। हम समझ सकते हैं कि आज देश की प्रगति और विकास के मार्ग में कोई सबसे बड़ी बाधा है तो वह सावरकर और उसकी विचारधारा है। इस कारण केवल सावरकर के कर्मों पर हमला करके काम नहीं चलेगा। सावरकर की विचारधारा के प्रति आक्रामक होना होगा और उस विचारधारा को ध्वस्त करना होगा।

सोमवार, 31 अक्टूबर 2022

मोरबी का पुल हादसा

ल शाम गुजरात के मोरबी में हुई दुर्घटना आज टीवी पर छायी हुई है। दुर्घटना बहुत बड़ी है। अब तक 134 लोगों के मरने और 100 से अधिक के घायल होने की पुख्ता जानकारी है। लापता लोगों की जानकारी भी लापता है।



यह कोई 100 बरस पुराना पुल है। इसे मरम्मत के लिए कोई सात माह पहले बन्द किया गया था। मरम्मत का ठेका एक कंपनी को दिया था। जिसका काम इलेक्ट्रोनिक घड़ियाँ और अन्य इलेक्ट्रोनिक वस्तुओं के उत्पादन का काम है। पर मुनाफा कमाने के लिए कंपनियाँ कैसे भी काम कर लेती हैं। इस ठेके में मरम्मत और अगले अनेक वर्षों के लिए पुल की देखभाल और संचालन का काम भी सम्मिलित है। कंपनी उस पर प्रवेश के लिए 17 रुपए प्रति व्यक्ति भी वसूल कर रही है।

यह पुल मात्र साढ़े चार फुट के लगभग चौड़ा है। इस पर एक व्यक्ति पैदल आ रहा हो तो शेष स्थान बस इतना बचता है कि सामने से आने वाला दूसरा व्यक्ति बगल से निकल जाए। यदि दो व्यक्ति साथ चल रहे हों तो सामने से आने वाले व्यक्ति को जाने देने के लिए एक व्यक्ति को हट कर दूसरे के पीछे आना पड़ेगा। इस पुल को तीन दिन पहले खोल दिया गया। आश्चर्य की बात है कि पुल पर तीन दिन से एक बार में सैंकड़ों अर्थात 500 व्यक्ति उस पुल पर चढ़ रहे थे। जबकि पुल की क्षमता 100 व्यक्तियों द्वारा एक बार में उपयोग करने की है। ऐसा लगता है रखरखाव रखने वाली कंपनी ने पुल को यातायात के साधन के रूप में नहीं बल्कि एक पर्यटन स्थल के रूप में बदल दिया था और कमाई कर रही थी। यह तथ्य भी सामने आयी है कि मरम्मत के बाद पुल को चालू करने के पहले नगर पालिका से एनओसी प्राप्त करनी थी और नगर पालिका ने ऐसी अनुमति नहीं दी थी पुल उसके बिना ही उपयोग में लिया जा रहा था। इस का मुख्य कारण कारपोरेट द्वारा मुनाफे के लालच से जनता की असीम लूट ही है।


नगर पालिका की ड्यूटी थी कि यदि पुल को बिना अनुमति चालू कर दिया था तो उसके उपयोग को रुकवाती और यह सुनिश्चित करती कि एक बार में उस पर 100 से अधिक लोग न चढ़ सकें। नगर पालिका के पास स्टाफ होता है जो अवैध निर्माण और संचालन पर निगाह रखता है। पर देश भर के नगर निकायों के तमाम ऐसे निगरानी स्टाफ पूरी तरह से भ्रष्टाचार में ऊब डूब है। जो पांच दस प्रतिशत ईमानदार स्टाफ है वह ठेकेदारों और उनसे संबंधित राजनीतिक लोगों द्वारा प्रतिशोध लेने से भयभीत रहता है और ऐसी घटनाओं से आँख मूंद लेता है। इसी कारण हर शहर में अवैध इमारतों, निर्माणों की भरमार हो चुकी है। फुटपाथ तो दुकानदारों की बपौती है। उस पर उन्हीं का माल फैला रहता है। यहाँ तक कि फुटपाथ के बाद का स्थान पार्किंग से भरा रहता है। सड़क पर यातायात अक्सर फँसा रहता है। जनता यह सब बर्दाश्त करती रहती है।

लेकिन जब राजनीतिक लोगों और पूंजीपतियों ठेकेदारों का भ्रष्टाचारी गठजोड़ लोगों की जाने लेने लगे तो जनता तत्काल उफनने लगती है। यह उफान भी सोडावाटरी होता है। तत्काल पुलिस ठेकेदार के कुछ कर्मचारियों को गिरफ्तार कर मुकदमा बनाती है। लेकिन पीछे पीछे भ्रष्टाचारी गठजोड़ काम करता रहता है। जो मुकदमे बनाए जाते हैं उनमें सबूत होते ही नहीं या फर्जी होते हैं। दसियों साल मुकदमा चलने के बाद सारे मुलजिम बरी हो जाते हैं। राजनीतिक लोगों और पूंजीपतियों ठेकेदारों का भ्रष्टाचारी गठजोड़ बना रहता है।

गुजरात में सारा प्रशासन भाजपा के हाथों में है केन्द्र् में भी उनकी सरकार है। प्रधानमंत्री का मन भटक कर टूटे पुल के पीड़ितों के आसपास भटक रहा है जाँच की घोषणा कर दी गयी है। लेकिन कोई राजनेता यह नहीं कह रहा है कि ठेकेदार, पालिका और सरकारी कर्मचारियों के साथ साथ उनसे यह सब काम करवाने में लिप्त रहे राजनेता भी दंडित किए जाएंगे। कौन अपनी माँ को डाकिन कहता है।

दो चार दिन हल्ला रहेगा। फिर चुनाव होगा। परिणाम आ जाएंगे। अफसर कर्मचारी जिन पर मुकदमा किया जाएगा वे सब बरी हो जाएंगे। किसी राजनेता पर कोई आँच नहीं आएगी और जनता फिर सो कर खर्राटे लेने लगेगी या फिर हिन्दू मुसलमान करते हुए धर्म की अफीम की पिनक में डूब जाएगी।

रविवार, 23 अक्टूबर 2022

धनतेरस का धन से कोई संबंध नहीं, वह केवल स्वास्थ्य संबंधी त्यौहार है

आज कार्तिक कृष्ण पक्ष की तेरस है। लोग इस को धनतेरस भी कहते हैं। ऐतिहासिक रूप से इसका धन अर्थात भौतिक संपत्ति से कोई संबंध नहीं है। वस्तुतः पौराणिक रूप से इसका महत्व सिर्फ इस कारण है कि समुद्र मंथन के दौरान इस दिन धन्वन्तरि उत्पन्न हुए जिन्हें आयुर्वेद (भारतीय चिकित्सा शास्त्र) का जनक माना जाता है। यही कारण है कि भारत सरकार ने इस दिन को राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस घोषित किया है।  

आज के दिन का धन अर्थात भौतिक संपत्ति से संबंध पहली बार बाजार ने ही स्थापित किया है। विशेष रूप से सोना चांदी और रत्न व्यापारियों ने। वरना न तो ऐतिहासिक और न ही पौराणिक रूप से इस संबंध के बारे में कहीं कोई सूचना नहीं मिलती है।

हमारी कुछ ज्योतिषीय मान्यताएँ हैं। चैत्रादि जिस मास में सूर्य की संक्रान्ति न पड़े वह अधिक मास होता है। यदि एक ही माह में दो संक्रान्तियाँ हों तो उन्हें पखवाड़े भर के दो माह माना जाता है। उसी तरह एक मान्यता है कि जिस तिथि में सूर्योदय न हो वह तिथि क्षय तिथि है और जिस तिथि में दो सूर्योदय हों वह तिथि बढ़ कर दो हो जाती है। इन्हीं मान्यताओं से एक और मान्यता निकली है कि जिस दिन का सूर्योदय जिस तिथि में हो अगले सूर्योदय के पूर्व तक वही तिथि मानी जाएगी। इस हिसाब से असली धन तेरस आज है। जो आयु बढ़ाने, स्वास्थ्य को उत्तम बनाए रखने के शास्त्र के प्रति समर्पित है। कल बाजारोत्पन्न नकली धन तेरस थी।

हमारे कई संकट हैं। उनमें एक संकट चंद्र सूर्य ग्रहण भी है। जिस दिन यह हो उस दिन पूजा वगैरा नहीं की जा सकती। अब अमावस तिथि पर सूर्य ग्रहण है इस कारण बाजार को दीवाली मनाने का एक दिन कम पड़ गया। उसने कल द्वादशी को धनतेरस मना डाली आज त्रयोदशी को नरक/ रूप चतुर्दशी मनाएगा और कल चतुर्दशी को तो दीवाली होगी ही। दीवाली ठीक है क्यों कि अमावस की रात तो कल ही होगी। अमावस की समाप्ति सूर्य ग्रहण के मध्य मंगलवार को होगी।

एक बात और कि किसी भी बड़े भारतीय त्यौहार का मूलतः किसी धार्मिक अनुष्ठान से कोई संबंध नहीं है। दीपावली भी एक कृषि त्यौहार है। बरसात का मौसम समाप्त हो चुका होता है। हम घरों में हुई बरसाती क्षतियों को मिटा कर उनकी साफ सफाई करके उन्हें फिर से साल भर के लिए रहने योग्य बनाते हैं। इसी समय बरसात की फसलें मूलतः धान की कटाई आरंभ होती है। यह खेतों में उत्पन्न धान्य को घर लाने के लिए कटाई शुरू करने का त्यौहार है। इसी लिए दीवाली के अगले दिन बैल सजाए जाते हैं। वे इस समारोह के साथ फसल कटाई के लिए निकलते हैं। सभी धर्मों को लोकोत्सवों और तमाम सुन्दर मनभावन स्थानों को कब्जाने का अद्भुत गुण होता है। तो संस्थागत धर्मों के विकास के साथ साथ हर त्यौहार के साथ कुछ न कुछ धार्मिक कर्मकांड जोड़ कर उन्हें धार्मिक संज्ञा दे दी गयी है। इससे वे त्यौहार देश के एक खास धर्म के लोगों के लिए रह गया है। यदि इन त्यौहारों को अपने मूल प्राकृतिक रूप में मनाया जाए तो देश की सारी आबादी को चाहे वह किसी भी धर्म की क्यों न हो इन त्यौहारों के साथ जोड़ा जा सकता है। असल में दीवाली हिन्दू त्यौहार नहीं भारतीय त्यौहार है।

मैंने कल घर से बाहर कदम नहीं रखा। बाजार नहीं गया जिससे कुछ भी खरीद सकूँ। बेटा-बेटी बाजार गए थे। कुछ बाथरूम फिटिंग्स खरीद कर लाए हैं। आज का दिन हम लोग घर में कुछ पकवान्न बनाने में बिताएंगे और दुनिया में सब के अच्छे स्वास्थ्य के लिए कामना करेंगे।

सभी मित्रों को भी धन्वन्तरि तेरस मुबारक¡ सभी लोग जीवन में स्वस्थ बने रहें।

शनिवार, 22 अक्टूबर 2022

जज, या ............... ?

कोलिसिस्टेक्टोमी (पित्ताशय उच्छेदन) का ऑपरेशन 8 अक्तूबर 2022 को हुआ, 10 अक्तूबर को अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया। पाँच दिन बाद दिखाने को कहा गया। मैं 15 अक्तूबर को खुद कार ड्राइव करके डाक्टर को दिखाने गया तो टाँके हटा दिए गए। अदालत जाने की इजाजत मिल गयी। लेकिन न झुकने का प्रतिबंध था। फिर भी मैं 17 अक्तूबर को अदालत चला गया। चैम्बर में बैठा, कैन्टीन चाय पीने के लिए भी गया। लेकिन किसी अदालत में पैरवी के लिए नहीं गया। शाम को घर लौटा तो थकान से लगा कि अभी मुझे कम से कम एक सप्ताह और अदालत जाने से बचना चाहिए। मैंने तय किया कि अब दीवाली के बाद ही अदालत जाउंगा। अपने घर वाले ऑफिस में बैठ कर ही केस स्टडी करता रहा। लेकिन बुधवार 19 अक्तूबर को ही अदालत जाने की नौबत आ गयी।

हुआ ये कि उस दिन मेरे दो केस लगे हुए थे, मुझे इसबात की पूरी आशंका थी कि मौजूदा जज साहब ये मुकदमे हमें सुने बिना ही खारिज कर देंगे। जब कि यह कानून के मुताबिक गलत था। मैंने उस दिन अदालत जाने का निश्चय किया और अपने सहायक यादव को कहा कि वह 12 बजे तक मेरे मुकदमों की स्थिति बताए। तो यादव ने मुझे बताया कि रीडर से पूछने पर उसने कहा है कि उन केसेज को तो खारिज करने का आदेश कर दिया गया है। जब यादव ने उससे कहा कि हमें बिना सुने ऐसा कैसे हो सकता है। तो उसने कहा कि सब मुकदमों में यही तो हो रहा है। उसने जज साहब से बात करने को कहा। जब यादव ने जज साहब से बात की तो उन्होंने रीडर को निर्देश दिया कि इनके इस तरह के सारे मुकदमे दिसंबर के अंत में एक साथ लगा दो। इस पर रीडर ने हमारे मुकदमों में दिसम्बर अन्त की तारीख दे दी। यादव ने कहा भी कि वे इस बिन्दु पर बहस के लिए अदालत आने को तैयार हैं तो जज साहब ने कहा कि उनका आपरेशन हुआ है यहाँ आना उनके स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है। उन्हें यहाँ क्यों बुला रहे हैं।

मुकदमों में अगली तारीख मिल जाने पर मेरा अदालत जाना जरूरी नहीं रह गया था। लेकिन मुझे एक बात कचोट रही थी कि मेरे मुकदमे खारिज होने से बच जाएंगे लेकिन बहुत सारे मजदूरों के केस खारिज कर दिए जाएंगे। उन्हें उच्च न्यायालय से निर्णय बदलवाकर लाना होगा। एक मजदूर के लिए श्रम न्यायालय में मुकदमा लड़ना बेहद खर्चीला और श्रम साध्य होने के कारण दूभर होता है। उसके लिए उच्च न्यायालय जाने की सोचना ही प्राणलेवा होता है। मैंने अदालत जाना और जज से उसी दिन बहस करना उचित समझा। मैं सूचना मिल जाने के बावजूद अदालत पहुँच गया। मैंने यादव को फाइल लेकर अदालत में तैयार रहने को कहा था। जैसे ही मैं अदालत में जा कर बैठा, जज की मुझ पर निगाह पड़ी। तत्काल वह हड़बड़ाया हुआ दिखाई दिया।

असल में मामला यह था कि केन्द्र सरकार ने 2016 में पाँच कानून पास करके हजार से भी अधिक कानूनों, संशोधन कानूनों को निरस्त (निरसन) और संशोधित कर दिया था। उसमें एक कानून औद्योगिक विवाद (संशोधन) अधिनियम (2010) भी था। इस संशोधन के माध्यम से एक मजदूर को उसकी सेवा समाप्ति के विरुद्ध समझौता अधिकारी के यहाँ शिकायत प्रस्तुत करने और 45 दिनों की अवधि में श्रम विभाग के समझौता कराने में असफल रहने पर सीधे श्रम न्यायालय को अपना दावा प्रस्तुत करने का अधिकार मिला था। इस अधिकार के 2016 में समाप्त हो जाने पर 2016 से अब तक पिछले 6 सालों में अदालत में इस कानून के तहत पेश किए गए सभी मुकदमे खारिज हो जाने थे। इन मुकदमों की संख्या सैंकड़ों में है। जज का कहना था कि त्रिपुरा और बंगाल उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि संशोधन कानून का निरसन हो जाने से मूल कानून औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 जिस में संशोधन करके प्रावधान जोड़े गए उसमें से वे संशोधन भी खारिज हो गए हैं और इसी कारण से उक्त निरसन अधिनियम प्रभावी होने के बाद अदालत में सीधे पेश किए गए मजदूरों के विवाद पूरी तरह से अवैध अकृत हो गए हैं इस कारण उन्हें निरस्त कर दिया जाए।

संशोधन कानूनों के निरसन पर जिस कानून में उस संशोधन कानून के द्वारा संशोधन किया गया था उससे वह संशोधन खारिज हो जाने के बिन्दु पर “जेठानन्द बेताब बनाम दिल्ली राज्य {1960 AIR 89, 1960 SCR (1) 755}” में सुप्रीम कोर्ट ने 15.09.1959 को ही निर्णय दे दिया गया था। इस निर्णय में कहा गया था कि किसी संशोधन कानून का काम पहले से मौजूद किसी पुराने कानून में संशोधन करना होता है। इस संशोधन कानून के प्रभावी होने के बाद वह संशोधन पुराने कानून का हिस्सा बन जाता है। यहीं संशोधन कानून का काम पूरा हो जाता है। वह कानूनों की सूची में अवशेष के रूप में बचा रहता है, उसका कोई उपयोग नहीं रह जाता। उस संशोधन कानून का निरसन कर दिए जाने पर उसका कोई प्रभाव उस पुराने कानून पर नहीं पड़ता जिसे संशोधित किया गया था। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने जनरल क्लॉजेज एक्ट की धारा 6-ए का उल्लेख करते हुए कहा कि इसमें ऐसा ही प्रावधान किया गया है। इसी पूर्व निर्णय का उल्लेख करते हुए दिनांक 29.08.2022 को सुप्रीम कोर्ट ने इंडिपेंडेंट स्कूल फेडरेशन ऑफ इंडिया बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया एवं अन्य के मामले में पारित निर्णय में फिर से इसी बात को दोहराया है।

जज को पहली फुरसत मिलते देख मैं सामने जा कर खड़ा हुआ तो जज साहब बोले -आप क्यों आए? आपको अभी आराम करना चाहिए। हमने तो आपके मुकदमों में तारीख दे दी है।

-सर¡ उससे क्या होगा? आपने दिसम्बर में तारीख दी है। तब तक तो आप इसी बिन्दु पर दूसरे सैंकड़ों मुकदमे खारिज कर चुके होंगे। जो कानून के हिसाब से गलत फैसला होगा। मेरी ड्यूटी है कि मैं अदालत को गलत निर्णय पारित करने से रोकूँ।

-दूसरे मुकदमों से आपका क्या लेना देना? हम खारिज कर देंगे और उच्च न्यायालय ने इसे गलत बताया तो हम वापस रेस्टोर कर देंगे।

-सर¡ रेस्टोर तो तब कर पाएंगे जब आपको ऐसा करने का क्षेत्राधिकार होगा। इस अदालत को अपने निर्णय रिव्यू करने की पावर नहीं है।

-नहीं है तो क्या? हम फिर भी कर देंगे। आप ही तो कहते रहे हैं कि इस अदालत को इन्हेरेंट पावर है।

-सर¡ रिव्यू की पावर कभी भी इन्हेरेंट नहीं हो सकती।

-तो क्या हुआ, हम फिर भी कर देंगे। जज साहब ने कहा तो मैं दंग रह गया कि कैसे जज अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर भी जा कर आदेश पारित करने को तैयार है।

-ठीक है मेरा तो आपसे आग्रह है कि इस बिन्दु पर आप बहस सुन लें। जहाँ तक मेरा मुकदमा आज नहीं होने की बात है तो मैं ऐसे तमाम मुकदमों में मजदूरों से पावर हासिल कर लूंगा और कल आपके सामने दुबारा इसी बहस के लिए हाजिर होउंगा। तब आप इससे बच नहीं सकते। इससे बेहतर है आप इस बहस को आज ही सुन लें।

-ठीक है सुन लेता हूँ। आखिर जज साहब बहस सुनने को तैयार हो गए।

बहस वही थी, जो मैं ऊपर लिख चुका हूँ। मैंने बहस शुरु की। मैंने उन्हें निरसन कानून की धारा-4 पढ़ाई जिसमें स्पष्ट रूप से लिखा था। “The repeal by this Act of any enactment shall not effect any other enactment in which the enactment has been applied, incorporated or referred to;”

इस धारा के पढ़ते ही जज साहब बीच में ही बोल पड़े। कि इस कानून को पढ़ कर तो कलकत्ता और त्रिपुरा उच्च न्यायालयों ने निर्णय पारित किए हैं। जिसमें बहुत सारे वकीलों ने बहस की है तो वे गलत कैसे हो सकते हैं?

मैंने उन्हें कहा कि उन दो फैसलों को कुछ देर के लिए भूल जाइए और मेरी बहस सुन लीजिए। मैंने उन्हें सुप्रीम कोर्ट के 1959 में पारित “जेठानन्द बेताब के केस और 29.08.2022 को पारित इंडिपेंडेंट स्कूल फेडरेशन के मुकदमों का हवाला दिया।

जज साहब ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों पर बिलकुल ध्यान न देते हुए तर्क दिया जेठानन्द बेताब किसी और कानून के मामले में था और इंडिपेंडेंट स्कूल फेडरेशन का मुकदमा ग्रेच्युटी एक्ट के मामले में है इन दोनों में औद्योगिक विवाद अधिनियम के बारे में कुछ नहीं कहा है।

मैं ने उन्हें कहा कि ग्रेच्युटी संशोधन अधिनियम को निरस्त किया गया है उसी कानून की उसी सूची में औद्योगिक विवाद संशोधन अधिनियम भी शामिल है और यहाँ प्रश्न किसी खास कानून के निरसन का नहीं है बल्कि संशोधन अधिनियम के निरसन का है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि संशोधन अधिनियम निरसित कर दिए जाने पर जिस एक्ट में उसके द्वारा संशोधन किया गया है उस एक्ट के उस संशोधन पर कोई प्रभाव नहीं होता, वह जीवित रहता है।

जज साहब फिर से कहने लगे त्रिपुरा और कलकत्ता उच्च न्यायालय के जज और वहाँ बहस करने वाले वकील कैसे गलती कर सकते हैं?

मैं ने उन्हें कहा कि गलती तो कोई भी कर सकता है। “अरब के घोड़े प्रसिद्ध होने का मतलब ये नहीं होता कि वहाँ गधे नहीं होते।“

जज साहब ने मुझे घूर कर देखा। फिर रीडर को आदेश दिया कि मैं इस मामले को देखूंगा अभी कुछ दिन इस तरह के मुकदमों में कोई आदेश पारित न किया जाए।

बहस पूरी हुई। मैं अदालत से घर आ गया। उस दिन बहुत थकान हो गयी। अगले दो दिन मैं अदालत नहीं जा सका। अब दीवाली के बाद अदालत जाना हो सकेगा।

पर कल मैंने फिर सुना है कि जज साहब ने सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय को नकार दिया है और कुछ मुकदमे खारिज कर दिए गए हैं।

सवाल यह है कि जज साहब इस तरह की जिन्दा मक्खी क्यों निगल रहे हैं? बात सिर्फ इतनी सी है कि रोज दो मुकदमे खारिज होने से उनका निर्णय का कोटा आसानी से पूरा हो रहा है। वे आसानी से कह भी रहे हैं कि उच्च न्यायालय का निर्णय आने पर मैं उन्हें फिर से रेस्टोर कर दूंगा। पर सैंकड़ों मजदूरों को उच्च न्यायालय जा कर हजारों रुपए खर्च करने होंगे। बहुत से तो अर्थाभाव में जा भी नहीं सकेंगे। लेकिन जज साहब को अपने कोटे की पड़ी है। उन्हें न्याय करने से और मजदूर वर्ग की दुर्दशा से क्या लेना देना?

रविवार, 7 नवंबर 2021

एक दिए का जलना बहुत भला है

एक दिए का जलना
बहुत भला है

जहाँ अभी हाल के बरसों में
बुझ गए हों अनेक दीपक
महामारी से मरने वालों की संख्या
कम पड़ गई हो
आत्महत्या करने वालों से
उस देश का राजा सदा निन्दनीय रहेगा
इतिहास में
ये दीपमालिकाएं,
चुंधियाती रोशनी वाले लाखों लाख बल्ब
नहीं मिटा पाते अमावस का अंधकार
वह और गहराता जाता है.
तब,
एक दिए का जलना
बहुत भला है.

शुक्रवार, 20 अगस्त 2021

स्त्री-पुरुष संवाद अगस्त 2021

- आखिर, यह नियम किसने बनाया कि स्त्री एक से अधिक पुरुषों से यौन सम्बन्ध नहीं बना सकती, जबकि पुरुष एक से अधिक स्त्रियों से एक ही काल खंड में यौन संबंध बना कर रख सकता है?
- निश्चित रूप से, समाज ने.
- तो उस समाज में स्त्रियाँ नागरिक नहीं रही होंगी. उन्हें नागरिकों के कुछ अधिकार रहे हो सकते हैं, लेकिन वे पुरुष समान नहीं थे. रहे होते तो समाज में यह नियम चल नहीं सकता था.
- लेकिन अब तो सभ्य समाजों में दोनों के लिए यही नरम है.
- है, लेकिन वहीं, जहाँ पुरुष कमजोर है और नियमों को मानना उसकी विवशता है. यह विवशता हटते ही वह अपनी मनमानी करने लगता है.
- हां, ऐसा तो है.
- तो सबको मनमानी क्यों न करने दिया जाए, जब तक कि किसीज्ञके साथ जबर्दस्ती न की जाए? पुरुषों के लादे गए इस नियम को क्यों न ध्वस्त कर दिया जाए?
- उससे तो समाज में अराजकता फैल जाएगी. पुरुष को यह पता ही नहीं चलेगा कि कौन उसकी सन्तान है, और कौन नहीं? सन्तान की पहचान ही मिट जाएगी. शब्दकोश से पिता शब्द ही मिट जाएगा.
- केवल स्त्री संतान की पहचान क्यों नहीं हो सकती? जैसे सदियों से पुरुष चला आ रहा है.
- जरूर हो सकती है. लेकिन पुरुष भी उसकी पहचान बना रहे तो क्या आपत्ति हो सकती है?
- मुझे कोई आपत्ति नहीं. लेकिन देखा जाता है कि स्त्री पुरुष के बीच संबन्ध समाप्त हो जाने पर पुरुष सन्तान को स्त्री से छीनने की कोशिश करता है और अक्सर कामयाब भी हो जाता है.
- हाँ, यह तो है. पर समाज में स्त्री-पुरुष समानता स्थापित हो जाने पर ऐसा नहीं हो सकेगा.
- हा हा हा, अब आई नाव में गाड़ी. स्त्री-पुरुष समानता स्थापित हो जाने पर तो स्त्री-पुरुष के लिए समाज के नियम बराबर हो जाएंगे. फिर या तो यौन संबंधों के मामले में स्त्रियों को आजादी देनी होगी. या यह नियम बनाना होगा कि साथ रहने के काल खंड में दोनों किसी दूसरे के साथ यौन संबंध न बनाए.
- हां, यह तो करना पड़ेगा. पर फिर भी, गर्भकाल और संतान की परवरिश के आरंभिक काल में स्त्री कोई उत्पादक काम नहीं कर पाएगी. तब उत्पादक काम पुरुष को ही करने होंगे.
- तुम शायद भूल रहे हो कि मानव विकास के आरंभिक काल में जब मनुष्य केवल फल संग्राहक या शिकारी था तब तक एक मात्र उत्पादक कार्य संतानोत्पत्ति था और मनुष्य समाज का सबसे महत्वपूर्ण काम भी.
- हाँ, तब तो समाज में स्त्रियों की ही प्रधानता थी. वे ही सबसे महत्वपूर्ण थीं. वे ही समाज को नया सदस्य देती थीं. समाज के लिए एक सदस्य को खो देना आसान था, नए को जन्म देना और वयस्क और खुद मुख्तार होने तक पालन पोषण करना बहुत ही दुष्कर.
- और एक लंबे समय तक तो पुरुषों को यह भी पता नहीं था कि संतानोत्पत्ति में उनका भी कोई योगदान था. स्त्री ने खिलखिलाते हुए कहा.
- वही तो, तब पुरुषों की स्थिति अत्यंत दयनीय रही होगी. तभी उन्होंने पितृसत्ता स्थापित कर बदला लिया. पुरुष भी इतना कह कर खिलखिलाया.
- बहुत हुआ, तुम्हारा यह बदला-सिद्धान्त नहीं चलने का. सदियों पुरुष ने स्त्रियों को हलकान रखा है, अब ऐसा नहीं चलेगा. स्त्रियां तेजी से समझदार हो रही हैं. देख नहीं रहे. अभी तालिबान को काबुल पहुंचे हफ्ता भी नहीं हुआ कि वहाँ स्त्रियाँ दमन के विरुद्ध आवाज उठाने लगी हैं.
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गुरुवार, 3 जून 2021

साइकिल


यूँ तो हम नगर में रहते थे। लेकिन नगर इतना बड़ा भी नहीं था कि आसानी पैदल नहीं नापा जा सके। नगर से बाहर जाने के लिए बसें और ट्रेन थी। नगर में सामान ढोने का काम हाथ ठेले करते थे। बाकी इन्सान अधिकतर पैदल ही चलते थे। कुछ लोग जिन्हें काम से शहर के बाहर ज्यादा जाना होता था उनके पास सायकिलें थीं। मोटर सायकिलें बहुत कम थीं। चौपाया वाहन तो इक्का-दुक्का ही थे। हाँ सरकारी जीपें बहुत थीं। पिताजी अध्यापक थे, अक्सर बाहर पोस्टिंग रहती थी। बाकी हम सब का काम पैदल चलने से हो जाता था। पर जैसे जैसे मैं बड़ा होता गया सोचता जरूर था कि घर में एक साइकिल तो होनी चाहिए। आसपास के बच्चे किराए पर साइकिल ले आते और कैंची चलाते रहते। मेरा भी दिल तो करता था। पर सोचता साइकिल सीख भी लूंगा तो किस काम की, जब तक घर में न हो। बिना साइकिल के काम चलता रहा।

एक दिन पास के गाँव से जो चार किलोमीटर दूर था, किसी बिरादरी वाले के यहाँ से भोज का निमन्त्रण मिला। किसी न किसी का जाना जरूरी था। दादाजी जा नहीं सकते थे। घर में पुरुष मैं अकेला था। दादाजी ने आदेश दिया कि मैं चला जाऊँ। उन दिनों हमारे गाँव का लड़का गणपत गुप्ता पढ़ने के लिए हमारे साथ ही रहता था। मैंने दादाजी से कहा कि मैं गणपत को साथ ले जाऊँ, तो उन्होंने अनुमति दे दी।

भोज के लिए गाँव जाने के दो साधन थे। हम पैदल जा सकते थे, या फिर साइकिल से। साइकिल नहीं थी, पर किराए पर ली जा सकती थी। मुझे चलाना आता नहीं था। मैंने गणपत से पूछा, “तुम्हें चलाना आता है।”
उसने कहा, “आता है।”

मैं बहुत खुश था कि अब साइकिल किराए पर ले चलेंगे। गणपत चलाएगा, मैं कैरियर पर बैठ जाऊंगा। हम तीसरे पहर चार बजे करीब घर से निकले। नगर में आधा किलोमीटर चलने के बाद साइकिल की दुकान आई। हमने किराए पर एक साइकिल ले ली। साइकिल ले कर हम कुछ दूर पैदल चले। फिर मैंने गणपत से कहा, “तुम साइकिल चलाओ, थोड़ा धीरे रखना मैं उचक कर कैरियर पर बैठ जाउंगा।”

“मैं साइकिल तो चला लूंगा लेकिन मुझे पैडल से बैठना नहीं आता। कहीं ऊंची जगह होगी तो वहाँ पैर रख कर साइकिल पर चढ़ जाउंगा, तुम कैरियर पर बैठ जाना।” गणपत ने कहा।

“ठीक है”, मैंने कहा।
हम आधा किलोमीटर और चले। शहर खत्म हो गया। उसके बाद एक नाला आया। उसकी पुलिया पर पैर रख कर गणपत ने चालक की सीट संभाली। मुझे कहा तो मैं कैरियर पर बैठ गया।

“ठीक से बैठ गए?” गणपत ने मुझ से पूछा।

“हाँ, बैठ गया”.

“मैं पैडल मारूँ?”

“बिलकुल”, मैंने कहा।

गणपत ने पैडल मारा। साइकिल का हैंडल बायीं तरफ मुड़ा और पुलिया की मुँडेर खत्म होने के बाद सीधे नाले में। नीचे, साइकिल, ऊपर गणपत, उस पर मैं। एक दो बरसात हो चुकी थीं। नाले में मामली पानी था और खेतों से बहकर आई मुलायम मिट्टी। हमें चोट नहीं लगी। पर कपड़े उन पर मिट्टी पड़ गयी। हाथ पैर भी मिट्टी मे सन गए।

हम सोच रहे थे क्या करें? वापस जाने में बड़ी दिक्कत थी। शाम के खाने का क्या होगा? हमने आगे बढ़ना तय किया।

हम साइकिल लेकर पैदल चले। एक किलोमीटर बाद एक बावड़ी आई। उसमें हमने अपने कपड़ों से और शरीर से मिट्टी हटायी। फिर आगे चल पड़े। फिर उसी भोज में जाते कुछ परिचित मिले। उन्होंने कहा कि साइकिल होते हुए पैदल क्यों जा रहे हो? हमने अपनी दिक्कत बताई कि केवल गणपत को चलाना आता है लेकिन वह मुझे बिठा नहीं सकता। उनमें से एक ने मुझे अपनी साइकिल के कैरियर पर बिठा लिया। गणपत कहीं ऊँची जगह देख कर साइकिल पर चढ़ा और भोज वाले गाँव पहुँचे। वापसी में उन्हीं परिचित ने मुझे अपने घर के नजदीक छोड़ा। सुबह साइकिल दुकान वाले को जमा करा दी गयी। किराए सहित।
बाद में घर में साइकिल आई। उसके बाद के भी अनेक किस्से हैं। पर वे फिर कभी।