@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शुक्रवार, 28 नवंबर 2025

रामजी बेगा आज्यो

'हाडौ़ती लघुकथा'

दाज्जी
ने आता देख मोबाइल देखर्यो छोट्या ने मोबाइल पर गाणो लगाद्यो, " रामजी मेरे घर आना".

दाज्जी आया तो गोडे पड़ी खाट पे बैठ ग्या.

गाणो पूरो भी न होयो छो के, दाज्जी खेबा लाग्या, "रे छोट्या यो काँईं गाणो लगा मेल्यो छे. गाणा सुणणी होवे तो ढंग का सुणबू कर.

'काँई होग्यो दाज्जी? रामजी को ही तो गाणो लगा मेल्यो छे' छोट्या ने खी.

'काँई को छोखो गाणो छे? जे घर घर आबा लाग्या ने तो रामजी ही बावळ्या हो जाणा छे. बंद कर ईं गाणा ने. पीबा के कारणे एक गिलास पाणी ला, अर् थोड़ी देर चैन से लेटबा दे.

गुरुवार, 27 नवंबर 2025

एन्काउन्टर

'लघुकथा'

शहर की अदालतों में इन दिनों अजीब सा माहौल था. हर जज की मेज़ पर मुकदमों की फाइलें ऐसे गिर रही थीं जैसे किसी युद्धभूमि में लाशें.

जजों को रोज़ वीडियो कॉन्फ़्रेंस पर हाईकोर्ट को जवाब देना पड़ता था—कितने मुकदमे निपटाए, कितने "टारगेट केस" खत्म किए.

एक दिन, एक मुवक्किल ने जज से कहा—

"महोदय, यह दस्तावेज़ तो प्रतिवादी से मंगवाया ही नहीं गया. अगर इसे देखे बिना फैसला हुआ तो हमारे साथ अन्याय होगा."

जज ने चश्मा उतारते हुए ठंडी आवाज़ में कहा—

"मैं कुछ नहीं जानता. अगर आपकी दरख़्वास्त मंज़ूर करूँगा तो मुकदमे में देरी होगी. यह टारगेट मुकदमा है."

और अगले ही दिन वह मुकदमा "एनकाउंटर" कर दिया गया.

इसी बीच शहर में खबर गूँजी—राम मंदिर पूरा हो गया है. कल वहाँ ध्वजारोहण होगा.

सोलह जिलों में रूट डायवर्जन होगा, लोग उमड़ेंगे, झंडा फहरेगा.

मुवक्किल ने अदालत से बाहर निकलते हुए सोचा—

"न्याय तो कालकोठरी में कैद है, लेकिन ध्वजारोहण तो समय पर हो ही जाएगा."

उसने आकाश की ओर देखा. मंदिर की घंटियाँ बज रही थीं, और अदालत की दीवारें चुप थीं.

गुरुवार, 9 अक्टूबर 2025

सिक्के और डाक टिकट

मेरे पर्स में एक-दो-पाँच-दस-बीस वाले सिक्कों की कुल संख्या छह-सात से अधिक नहीं होती। उसे भी तुरन्त ही पाँच के नीचे लाना पड़ता है। वर्ना पर्स की उम्र पर संकट आ जाता है। उसे अकाल मृत्यु का सामना करना पड़ जाता है। जेबों के साथ भी यही संकट है। अब सिक्के कौन अपने पास रखता है। अपने पर्स में कुछ नकद रखना हो तो 500 से ले कर पाँच दस रुपए के नोट रखना पसंद करता है। सिक्के अब आउट ऑफ डेट हो चले हैं। वैसे भी आज कल जमीन के ऊपर नकद भुगतान जितना होता है उससे बहुत अधिक यूपीआई हो चला है। नकद भुगतान पूरा का पूरा जमीन के नीचे का मामला हो चला है। जैसे रिश्वत देनी हो या चुनाव में वोटों के लिए नोट बाँटने हों। हालाँकि बिहार ने उसकी भी जरूरत खत्म करना शुरू कर दिया है। अब नोट सीधे वोटरों के बैंक खातों में भेजे जा रहे हैं जैसे स्त्रियों को और बेरोजगारों को। खैर!

लगभग यही किस्सा डाकटिकटों का है। एक वक्त हुआ करता था जब डाक टिकट रखे होते थे पर्स में। अब वे गायब हैं दो-चार रख भी लें तो रखे रखे खराब हो जाते हैं किसी लिफाफे चिट्ठी पर चिपकाने के काम नहीं आते। वैसे भी डाक कौन भेजता है। केवल जरूरी चीजें जैसे कानूनी और सरकारी कागजात। बाकी तो सब अब कूरियर सर्विस वालों के हवाले है। डाक टिकट की महत्ता घटाने में प्राइवेट कूरियर वालों की भूमिका महान है। सरकार भी यही चाहती है कि कम से कम लोग डाक के भरोसे रहें। डाक अब स्पीड पोस्ट हो गयी है उसे चाहो जो करवा लो, चाहे तो पार्सल, चाहे तो रजिस्टर्ड वगैरा वगैरा। अब डाक विभाग डाक में भेजे जाने वाले सामान के वजन और दूरी के हिसाब से फीस वसूल करता है।
 
तो मित्रो!
शताब्दी सिक्के और डाक टिकट पर अधिक उछलने की जरूरत नहीं है। कारपोरेट सेवा में जब जिन्दगी झंड होने लगती है तो बीच बीच में ऐसे जश्न करने पड़ते हैं जिससे अपने वाले झण्डू उछलते रहें।

-दिनेशराय द्विवेदी

बुधवार, 8 अक्टूबर 2025

सामाजिक जीवन में बकवास का स्थान - दिनेशराय द्विवेदी

अच्छी बातें कोई भी कर सकता है। यहाँ तक कि बुरा से बुरा से व्यक्ति भी अच्छी बातें कर सकता है। इसी तरह कोई भी व्यक्ति बकवास भी कर सकता है। अच्छी और बकवास बातों पर किसी का एकाधिकार नहीं है।
 
बकवास बातों पर लोग कह देते हैं कि, अरे, छोड़ो यार! उससे कहाँ मुहँ लगना, बकवास कर रहा है, कभी कभी यह भी कह देते हैं कि कहाँ उस बकवास आदमी से उलझ रहे हो।
 
बकवास बहुत लोगों को जिन्दा रखे हुए है। उनमें सभी तरह के लोग हैं। उनमें साधारण लोग हैं, उनमें डाक्टर, वकील, इंजिनियर जैसे पेशेवर लोग हैं। उसमें अध्यापक और पुलिस वालेे हैं, दुकानदार और उत्पादक हैं। विज्ञापन बनाने वालों ने तो सिद्ध कर दिया है कि बकवास करने से बुरा से बुरा माल भी बाजार में खूब बेचा जा सकता है। इन लोगों में राजनीति करने वाले लोग हैं और ऐसे लोग हैं जो सभी स्तरों पर पहुँच चुके हैं। विश्व के बहुत सारे देशों के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, सेनापति वगैरा वगैरा अत्यन्त महत्वपूर्ण लोग भी कम नहीं हैं।

बकवास के अनेक प्रकार हैं, लेकिन वे सभी प्रकार इस तरह घुले मिले हैं कि बकवास करना भानुमति के कुनबे का महत्वपूर्ण गुण प्रतीत होने लगता है। वहाँ थोक से बकवादी लोग मिलेंगे। अभी तक किसी ने बकवासों का कोई वर्गीकरण नहीं किया है। यदि रामचन्द्र शुक्ल साहित्य का इतिहास लिखते समय यह नहीं समझ पाए कि साहित्य में बकवादी धारा और बकवादी युग भी हो सकते हैं तो मेरा बूता तो बिलकुल नहीं है कि मैं बकवादी धारा और बकवादी युगों की बात कर सकूँ। वैसे रामचंद्र शुक्ल ने हर युग के बकवादी साहित्य की पहचान भी की होती तो वे अधिक महान हो सकते थे। उनकी कीर्ति पताका साहित्य के बाहर भी फहराती नजर आती। 75 वर्ष के होने पर स्वर्ण जयन्ती मना लेने के बाद भी हमारे भक्तानांप्रियदर्शी प्रधानमंत्री जी ने कभी उनका नाम तक नहीं लिया। यदि शुक्ल जी ने बकवादी साहित्य की पहचान कर ली होती तो जब भी किसी स्कूल विश्वविद्यालय में प्रधानमंत्री का प्रवचन होता तो वे शुक्ल जी को महान घोषित करते और बताते कि देश को और कम से कम प्नोफेसरों को उनके आदर्शों पर चलना चाहिए। वे रामचंद्र शुक्ल के नाम का कोई स्मारक भी बनवा सकते थे।


भले ही बकवासों का वर्गीकरण न हुआ फिर भी लोग बकवासों को पहचान लेते हैं। तनिक देर में ही पहचान कर बता देते हैं कि क्या चीज बकवास है। कुछ पारखी लोग तो यह भी पहचान लेते हैं कि बकवास किस तरह टाइप की है। वह अस्थायी है या स्थायी है, वह क्षण भंगुर है या फिर सनतान टाइप की है। इस तरह बकवास का वर्गीकरण भी हो लेता है। किसी शोधार्थी ने ध्यान दिया होता तो अब तक इन स्वाभाविक वर्गीकरणों पर अध्ययन करता, शोध करता और एक नहीं अनेक शोध पत्र लिख सकता था। साहित्य में इन दिनों शीर्ष बहसें सनातन बकवास पर हो रही होती। कोई न कोई अवश्य सनातन बकवास के साहित्य का इतिहास जैसे महत्वपूर्ण विषय पर पीएचडी किए लोगों के वीसी बनने का चांस सबसे उत्तम होता।

मुझे तो लगता है कि साहित्यिक गोष्ठियों में साल की किसी गोष्ठी का विषय बकवास साहित्य होना चाहिए। जैसे "मोदी युग में बकवास साहित्य का स्थान" या यह भी रखा जा सकता है, भक्ति या रीतिकाल में बकवास साहित्य। प्रकाशक चाहें तो इन नामों की किताबें भी प्रकाशित कर सकते हैं। यहाँ तक कि बकवास साहित्य के इतिहास तक लिखे जा सकते हैं।जैसे हिन्दी के बकवास साहित्य का इतिहास"। अंग्रेजी में लिखना हो तो "ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ बकवास" जैसा टाइटल रखा जा सकता है। पता नहीं अब तक किसी प्रोफेसर या विद्यार्थी को यह क्यों न सूझा कि बकवास साहित्य विषय पर अनेक शोधें की जा सकती हैं। प्राथमिक शोध विषय "समाज में बकवास का स्थान" हो सकता है।

खैर, बकवास करते बहुत समय बीत चुका है, आपको भी इसे पढ़ते हुए कोई जोर नहीं पड़ा होगा, सर्र से पढ़ा होगा और बकवास दिमाग से होते हुए किसी नर्व के रास्ते पेट में उतर चुकी होगी। बकवास के पेट में उतर जाने से वह पेट को कभी खराब नहीं करती। यदि आपको यह अहसास होने लगे कि बकवास ने पेट में गैस टाइप कुछ उपद्रव किया है तो उसे सीधे रास्ते से निकालने की कोशिश कभी न करें, बल्कि सबसे अच्छा और सटीक उपाय यह है कि उसे मुहँ के रास्ते पहला पात्र मिलते ही उसके कान में उड़ेल दें।

शनिवार, 6 सितंबर 2025

भारतीय समाज में जाति, भाषा और राष्ट्रीयता का सवाल : दिनेशराय द्विवेदी

जोधपुर में हो रही आरएसएस की समन्वय बैठक में आरएसएस ने देश में जाति, भाषा, प्रांत और पंथ के नाम पर भेदभाव पैदा करने के षड्यंत्रों पर चिंता जताई। आरएसएस ने कहा कि देश में एकता और अखंडता को चुनौती देने वाली शक्तियां लगातार सक्रिय हैं, जो देश के लिए हितकारी नहीं हैं। इस तरह उनका मानना है कि जाति, भाषा, स्थानीय राष्ट्रीयता (प्रान्तीयता) और धर्म (पंथ) का उद्भव भारत की ऐतिहासिक परिस्थितियों से नहीं उपजा है बल्कि यह कृत्रिम है और इन सब भेदों के जनक तथाकथित षडयंत्रकारी शक्तियाँ हैं। इन षडयंत्रकारी शक्तियों से उनका तात्पर्य मुस्लिमों, ईसाइयों, सिख आतंकवादियों, सेक्युलर लोगों और कम्युनिटों से है। यही कुल मिला कर भारत में विपक्ष का निर्माण करते हैं। यदि ये सब षडयंत्र कर रहे हैं तो उससे उनका सीधा अर्थ यह है कि राज्य को उनका दमन करने का अधिकार है।


असल में संघ की यह दृष्टि ही एक कृत्रिम दृष्टि है। उसके नजरिए का आधार यह मिथ्या धारणा प्राचीन भारत एक हिन्दू राष्ट्र है, उस पर इतिहास में बहुत दमन हुए और अब यह वक्त उस दमन का बदला लेने का है और उसे फिर से हिन्दू राष्ट्र बनना चाहिए। संघ का यह दृष्टिकोण ही उसे एक खतरनाक फासीवादी संगठन बना देता है। भारतीय समाज की संरचना ऐतिहासिक रूप से जटिल और बहुआयामी रही है। जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्रीय पहचानों के अंतर्संबंधों ने एक ऐसा सामाजिक ताना-बाना बुना है जिसकी व्याख्या बिना वर्गीय विश्लेषण के अधूरी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) द्वारा "हिन्दू राष्ट्र" की परिकल्पना और जाति, भाषा व प्रान्तीयता को "षड्यंत्र" के रूप में प्रस्तुत करना, एक प्रतिक्रियावादी परियोजना है जो सामाजिक यथास्थिति को बनाए रखने का काम करती है।


यथार्थ तो यह है कि जाति और भाषाई राष्ट्रीयताओं का उदय और विकास एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है, न कि कोई "षड्यंत्र"। ये पहचानें भारत में उत्पादन के खास तरीकों और सामाजिक संबंधों की उपज हैं। जाति व्यवस्था, जो मूल रूप से श्रम के विभाजन का एक रूप थी, शोषण के एक सुदृढ़ तंत्र में तब्दील हो गई। यह सामंती और पूर्व-सामंती उत्पादन प्रणालियों का अभिन्न अंग बन गई, जहाँ शासक वर्गों ने श्रमिक जनता के शोषण और दमन के लिए इन्हें एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया।


इसी तरह, भाषाई और क्षेत्रीय पहचानें लंबे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विकास की परिणति हैं। पंजाबी, बंगाली, तमिल आदि राष्ट्रीयताओं का अस्तित्व एक सामाजिक यथार्थ है। इन्हें "उभारा" नहीं जा रहा, बल्कि ये पहले से मौजूद हैं। सवाल यह है कि इन पहचानों के साथ किस तरह का राजनीतिक-सामाजिक व्यवहार किया जाए।


आरएसएस की "हिन्दू राष्ट्र" की परिकल्पना एक अवैज्ञानिक, प्रतिक्रियावादी और जनविरोधी परियोजना है। यह परियोजना भारत की वास्तविक, भौतिक समस्याओं—जैसे आर्थिक असमानता, शोषण, बेरोजगारी, गरीबी—से ध्यान भटकाने का काम करती है। एक कृत्रिम "हिन्दू" एकता का निर्माण करके, यह सामंती और पूंजीवादी ताकतों के हितों की रक्षा करती है, जिनके लिए जातिगत, धार्मिक और भाषाई विभाजन शोषण की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं।

सरसंघचालक का यह कहना कि जाति और भाषा के भेद एक "षड्यंत्र" हैं, वास्तव में इन गहरी जड़ें जमाए सामाजिक विभाजनों और शोषण के इतिहास को नकारना है। यह बयानबाजी शासक वर्गों के हित में है, क्योंकि यह मेहनतकश जनता की वास्तविक एकता—जो कि जाति, धर्म और भाषा की दीवारों को तोड़कर ही संभव है—को रोकती है। इसका उद्देश्य शोषितों और दलितों को एक ऐसी काल्पनिक एकता में बाँधना है जो वास्तव में शोषकों के वर्चस्व को ही मजबूत करती है।

आज हम जाति, भाषा या क्षेत्रीय पहचानों के अस्तित्व को नकारता नहीं सकते। बल्कि इन पहचानों के आधार पर होने वाले उत्पीड़न और शोषण का अंत करने के लिए इन्हें मान्यता देना और इनके खिलाफ संघर्ष करना जरूरी है। जाति और भाषाई उत्पीड़न, वर्गीय शोषण से अलग नहीं हैं, बल्कि उसी के विशेष रूप हैं। समाधान इन पहचानों के "दमन" में नहीं, बल्कि इनके आधार पर होने वाले भेदभाव और शोषण के उन्मूलन में निहित है। इसके लिए आवश्यक है कि जाति व्यवस्था, जो श्रम के विभाजन और शोषण का एक साधन है, का पूर्ण उन्मूलन जरूरी है। यह केवल सामाजिक जागरूकता और एक जनवादी और समाजवादी क्रांति से ही संभव है।

राष्ट्रीयताओं (प्रान्तीयताओं) और भाषा के अधिकार को सम्मान देना आवश्यक है। भाषाई और सांस्कृतिक राष्ट्रीयताओं की स्वायत्तता के अधिकार को मान्यता देना और उसे बढ़ावा देना आवश्यक है। एक स्वैच्छिक और वास्तविक संघ ही विभिन्न राष्ट्रीयताओं की एकता को मजबूत कर सकता है।

अंततः, सभी शोषितों—चाहे वे किसी भी जाति, धर्म, भाषा या प्रांत के हों—की वर्गीय एकता ही सामंती-पूंजीवादी शोषण के खिलाफ संघर्ष में जीत दिला सकती है। "हिन्दू राष्ट्र" का भ्रम इस वर्गीय एकता को तोड़ने का काम करता है।

आरएसएस की "हिन्दू राष्ट्र" की परियोजना और जाति-भाषा के भेद को "षड्यंत्र" बताने की कोशिश, भारत के शोषक वर्गों की एक राजनीतिक चाल है। इसका उद्देश्य जनता का ध्यान वास्तविक समस्याओं—पूंजीवादी शोषण, सामंती अवशेष, और साम्राज्यवादी नियंत्रण—से हटाकर काल्पनिक दुश्मनों की ओर मोड़ना है। एक यथार्थवादी दृष्टिकोण इन विभाजनों को नकारता नहीं, बल्कि उनके ऐतिहासिक और भौतिक आधार को समझते हुए, शोषण के इन सभी रूपों के खिलाफ मेहनतकश जनता की वर्गीय एकता को मजबूत करने पर जोर देता है।

सोमवार, 11 अगस्त 2025

नागरिकता की कसौटी पर लोकतंत्र: बिहार की मतदाता-सूची पर उठते सवाल

बिहार में चुनावी मौसम दस्तक दे चुका है, लेकिन इस बार चर्चा न तो घोषणापत्रों की है, न ही गठबंधनों की। इस बार बहस उस बुनियादी दस्तावेज़ पर है, जो लोकतंत्र की पहली सीढ़ी है—मतदाता-सूची। भारत निर्वाचन आयोग द्वारा 24 जून 2025 को जारी आदेश ने इस प्रक्रिया को एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है, जहां नागरिकता और मताधिकार के बीच एक नई दीवार खड़ी होती दिख रही है।

 

लोकतंत्र की नींव पर प्रहार

 

बिना पर्याप्त तैयारी और प्रशिक्षण के, एक महीने के भीतर नई मतदाता-सूची तैयार करने क निर्देश ने प्रशासनिक अव्यवस्था को जन्म दिया। बीएलओ को फॉर्म भरवाने, फोटो और हस्ताक्षर लेने की जिम्मेदारी दी गई, लेकिन समय के दबाव में नियमों की अनदेखी आम हो गई। जनसुनवाइयों और रिपोर्टों से यह स्पष्ट है कि कई बार केवल आधार कार्ड और फोन नंबर लेकर फर्जी हस्ताक्षर के साथ फॉर्म अपलोड किए गए। यह प्रक्रिया न केवल अव्यवस्थित थी, बल्कि इसने लोकतंत्र की आत्मा—विश्वसनीयता और समावेशिता—को भी आहत किया है।

 

लाखों मतदाता सूची से बाहर: यह कैसा लोकतंत्र है?


1 अगस्त को जारी मसौदा सूची में 7.24 करोड़ मतदाता शामिल हैं, जबकि पहले की सूची में यह संख्या 7.89 करोड़ थी। यानी लगभग 65 लाख लोग गायब हैं। यह आंकड़ा सिर्फ संख्या नहीं, बल्कि उन नागरिकों की पहचान है जिन्हें उनके मताधिकार से वंचित किया जा रहा है। क्या यह लोकतंत्र का अपमान नहीं?

 


नागरिकता साबित करने की शर्त: एक खतरनाक मोड़

 

अब मतदाताओं से अपेक्षा की जा रही है कि वे 11 दस्तावेज़ों में से कम से कम एक प्रस्तुत करें, जिससे उनकी नागरिकता सिद्ध हो सके। सुप्रीम कोर्ट में आयोग द्वारा प्रस्तुत हलफनामे में कहा गया कि नागरिकता साबित करना अब मतदाता की जिम्मेदारी है। यह एक खतरनाक बदलाव है। अब तक नागरिकता की जांच केवल संदेह की स्थिति में होती थी, लेकिन अब यह एक सामान्य शर्त बनती जा रही है। इस तरह कानून की अवधारणा को पूरी तरह उलट दिया गया है। देश में निवास कर रहे व्यक्ति को यदि कोई (सरकार या कोई भी संस्था) भी कहता है कि वह नागरिक नहीं है तो इसे साबित करने की जिम्मेदारी उस किसी व्यक्ति, सरकार या संस्था की है। लेकिन इसे उलटा जा रहा है, यह जिम्मेदारी अब नागरिक पर डाली जा रही है, यह सरासर गलत है। यह पूरी तरह फासीवादी अवधारणा है और पूरी तरह असंवैधानिक ही नहीं है, बल्कि उन करोड़ों नागरिकों के लिए अपमानजनक है जिनके पास ये दस्तावेज़ नहीं हैं।

 

मनमानी का खतरा और लोकतंत्र की गिरती साख

 

निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी (ईआरओ) को यह अधिकार दिया गया है कि वे तय करें कि कोई व्यक्ति नागरिक है या नहीं। यह अधिकार, यदि बिना पारदर्शी दिशा-निर्देशों के लागू होता है, तो मनमानी और भेदभाव की आशंका को जन्म देता है। विशेष रूप से गरीब, वंचित और हाशिए पर खड़े समुदायों के लिए यह प्रक्रिया एक नए प्रकार के उत्पीड़न का माध्यम बन चुका है।

 

यह सिर्फ बिहार नहीं, पूरे देश की चिंता है

 

यह विशेष गहन पुनरीक्षण केवल बिहार तक सीमित नहीं है। यह पूरे देश में लागू होना है। ऐसे में यह सवाल उठाना जरूरी है—क्या हम एक समावेशी लोकतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं, या एक ऐसे तंत्र की ओर, जहां नागरिकता साबित करना ही नागरिक होने की शर्त बन जाए?

 

मतदाता-सूची का पुनरीक्षण यदि समावेशिता, पारदर्शिता और संवेदनशीलता के साथ नहीं किया गया, तो यह लोकतंत्र की आत्मा को आहत करेगा। नागरिकता कोई दस्तावेज़ नहीं, बल्कि एक जीवंत अनुभव है—जिसे हर नागरिक अपने अधिकारों के माध्यम से जीता है। उसे कागज़ों की कसौटी पर तौलना, लोकतंत्र को कमजोर करना है।

इस प्रक्रिया पर पुनर्विचार करना आवश्यक है, क्योंकि सवाल सिर्फ मतदाता-सूची का नहीं, लोकतंत्र की आत्मा को जीवित बचाने का है।

शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2024

एक उद्योगपति की मौत

एक खेत मजदूर अक्सर खेत मजदूर के घर या छोटे किसान के घर पैदा होता है, मजदूरी करना उसकी नियति है, वह वहीं काम करते हुए अभावों में जीवन जीता है। उसकी आकांक्षा होती है कि उसके बच्चे जैसे तैसे कुछ पढ़ लिख जाएँ, खेत की मजदूरी करने के बजाए कहीं शहर में बाबू, या किसी कारखाने की नौकरी करें, वहीं घर वर बना लें और इस नर्क से निकल जाएँ। शहर के कारखानों में मशीनों पर काम करने वाले, लोडिंग अनलोडिंग में बोझा उठाने वाले, निर्माण में काम करने वालेे, खानों में काम करने वाले, मंडियों में बोझा ढोने वाले मजदूर चाहते हैं कि वे अपने इस नर्क से निकलें कोई सफेद कालर वाला काम कर लें। पर अधिकांश नहीं कर पाते और उसी नर्क में मर जाते हैं। किसान जिनके पास खेत हैं वे भी अपने खेतों में फसलें उगाते हुए , कर्जों और मौसम की मार झेलते हुए जीते रहते हैं उनमें से थोड़े बहुत निकल कर सफेदपोश भले ही हो जाएँ। पर रहते उसी किसानी में हैं।

इनके बाद आते हैं नगरीय टटपूंजिए वे हमेशा सपना देखते हैं कि डंडी मार कर या कोई तिकड़म कर के, या उनमें से कोई सरकारी नौकरी में लग गया हो तो रिश्वत खाते हुए थोड़ी बड़ी पूंजी इकट्ठा कर लें और ऐसा धंधा करें जिससे दिन दूनी और रात चौगुनी कमाई कर लें और वे नहीं तो उनके बच्चे ही ऐश की जिन्दगी जी लें। पर ऊपर की पायदान पर चढ़ने की कोशिश करने वालों में से ज्यादातर दूसरी तीसरी मंजिल पर चढ़ते हुए ऊँचाई से गिर कर घायल होते हैं, या मर जाते हैं और उनकी संतानें उसी नगरीय मजूरों की श्रेणी में शामिल हो जाते हैं। कुछ जरूर ऐसे होते हैं जो बड़े पूंजीपतियों और अफसरों की चम्पी मारते हुए तीसरी चौथी मंजिल पर चढ़ने में कामयाब हो जाते है, पर उन्हें अपने ही लोगों की तरह नीचे गिरने और घायल हो कर पड़े रहने या मर जाने का भय हमेशा सताता रहता है। इन्हीं में वे लोग भी हैं जो ऊंचाई चढ़ने का स्वप्न नहीं देखते बस चाहते हैं किसी तरह उनके बच्चे उनसे थोड़ा बेहतर कर लें या उन्हीं की तरह जी लें और नीचे न गिरें।

इनके बाद बड़े सरकारी अफसर हैं जिन्हें आप ब्यूरोक्रेट्स कहते हैं इनसे नाभिनालबद्ध नेता हैं जो कभी इस और कभी उस सरकार में बने रहते हैं, या लगातार सरकार में होने का प्रयत्न करते रहते हैं। ये सभी इस मौके में लगे रहते हैं कि अपना कोई बड़ा उद्योग या बिजनेस स्थापित कर लें और नीचे की पायदान के लोगों के श्रम का उपयोग करते हुए अतिरिक्त श्रम का दोहन करते हुए टॉप के 10-20-50-100 या 1000 पूंजीपतियों की श्रेणी में पहुँच जाएँ।

सबसे ऊपर ये टॉप के 10-20-50-100 या 1000 पूंजीपति हैं, जो बाकी सबको हाँकते रहते हैं, देश की जमीन के ऊपर की और जमीन के नीचे की तमाम संपदा को निचोड़ते रहते हैं। इनकी सारी ताकत इस बात में लगी रहती है कि कैसे उनकी पूंजी दिन चौगुनी और रात अठगुनी होती रहे। इनमें कौन लोग शामिल हैं ये हर कोई जानता है।

मंदिर का एक निर्धन संपत्तिहीन पुजारी, ज्योतिषी और कथावाचक जो टटपूंजिए बनियों की बिरादरी के मंदिर की पूजा करने की नौकरी करता था, उसके दोनों बेटे सरकारी अध्यापक हो गए थे। बड़े बेटे के घर दूसरे बच्चे ने जन्म लिया। पहली बेटी थी जो पैदा होने के चंद दिन बाद मर गयी। दूसरे के बाद अनेक बच्चे पैदा हुए लेकिन चार बेटे और दो बेटियाँ जीवित रहे। बड़े बेटे को जब गणित और भाषा पढ़ने हुनर आ गया तो घर में रखी धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने का अवसर मिला। स्कूल में भर्ती होने के साथ ही विज्ञान से साबका पड़ा। वह दोनों के बीच झूलता हुआ जब इस हालत में पहुँचा कि उसे जीवन जीने के लिए कुछ करना पड़ेगा, तब उसने बहुत सपने देखे। कभी कलट्टर जैसा अफसर बनने का, वैज्ञानिक बनने का पर वह पुजारी, ज्योतिषी, कथावाचक और अध्यापक कतई नहीं बनना चाहता था, क्योंकि इन पेशों की हकीकत जान चुका था।

उसका ध्यान इंजिनियरिंग की तरफ था लेकिन उसे जीवविज्ञान पढ़ना पड़ा। कुछ दिन उसके आसपास के लोग उसे डाक्टर कहते रहे कि शायद बन जाए। लेकिन वह लोगों को सचाई बताने के चक्कर मेंं पत्रकार हो गया। भीतर घुस कर देखने पर पता लगा कि वे अर्धसत्य के वाहक भर हैं। ज्यादातर सच वह होता है जो अखबारों के मालिक बताना चाहते हैं। क्रूर सच तो शायद कभी बाहर ही नहीं आता। तब उसने सब कुछ छोड़ कर वकील बनना चुना जो मजदूरों की पैरवी करना चाहता था। वकालत करते हुए उसे 45 साल से ज्यादा हो गया है।

रतन टाटा मर गया। वकील की पत्नी कल रात काम से निपटने के बाद मोबाइल पर कोई वीडियो देख रही थी। वकील के पूछने पर उसने बताया कि रतन टाटा के बारे में बता रहे हैं, बहुत बड़ा उद्योगपति था। वकील बोला, वह देश के टॉप के उद्योगपति घराने का बेटा था, उससे ऊपर जाने की इस दुनिया में कोई जगह नहीं थी। उसने दुनिया के टॉप उद्योगपतियों में शामिल होने की कोशिश जरूर की होगी, पर सफल नहीं हुआ। लेकिन नीचे गिरने से बचता रहा, इस तरह गिरने से बचना ही उसकी सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है। हम अपने पिता दादा से बेहतर स्थिति में आ सके और अपने से नीचे की श्रेणी के लोगों के साथ जो अन्याय होता है उस को थोड़ा बहुत कम करने की कोशिश करते हुए, अपने जीवन के लिए जीने के साधन जुटाते हुए जी रहे हैं। हमारे बच्चे हम से बेहतर मजदूरी करते हुए जी रहे हैं और चाहते हैं कि समाज एक ऐसी शक्ल ले ले जिसमें सभी यथाशक्ति काम करें और उन्हें अपनी जरूरत की तमाम चीजें मिलती रहें। जिससे समाज के तमाम लोग बराबरी महसूस करते हुए जी सकें। न कोई छोटा हो न महान हो। न कोई टाटा बिरला, डालमिया, अम्बानी, अडानी हो और न कोई बोझा ढोते हुए या मशीन चलाते हुए बीमार हो कर बिना इलाज और भोजन, कपड़ा और छत के अभाव में जिए। हम थोड़ा बहुत हमारे इस लक्ष्य से काम करते भी हैं। मुझे लगता है हम बेहतर हैं और थोड़ा बेहतर करने की कोशिश करते रहते हैं। ये अखबार, ये मीडिया कभी नहीं छापता कि कोई मजदूर अभावों में मर गया। कभी किसी दुर्घटना में मजदूर मर जाते हैं तो उनकी केवल संख्या छपती है इस तरह कोई विरुदावली नहीं गाता। ये उन्हीं टॉप के 10-20-50-100 या 1000 लोगों के चाकर हैं। ये टॉप के 10-20-50-100 या 1000 लोग समाज में न रहें, एक वर्ग के रूप में हमेशा हमेशा के लिए समाप्त हो जाएँ। मेरी सोच में दुनिया में कोई वर्ग ही नहीं रहे, हमारा समाज वर्गहीन हो जाए तो साँस में साँस आए। मनुष्य और प्रकृति दोनों साँस लेते हुए चैन से जी सकें।

इति संवाद:।।
11.10.2024