अच्छी बातें कोई भी कर सकता है। यहाँ तक कि बुरा से बुरा से व्यक्ति भी अच्छी बातें कर सकता है। इसी तरह कोई भी व्यक्ति बकवास भी कर सकता है। अच्छी और बकवास बातों पर किसी का एकाधिकार नहीं है।
बकवास बातों पर लोग कह देते हैं कि, अरे, छोड़ो यार! उससे कहाँ मुहँ लगना, बकवास कर रहा है, कभी कभी यह भी कह देते हैं कि कहाँ उस बकवास आदमी से उलझ रहे हो।
बकवास बहुत लोगों को जिन्दा रखे हुए है। उनमें सभी तरह के लोग हैं। उनमें साधारण लोग हैं, उनमें डाक्टर, वकील, इंजिनियर जैसे पेशेवर लोग हैं। उसमें अध्यापक और पुलिस वालेे हैं, दुकानदार और उत्पादक हैं। विज्ञापन बनाने वालों ने तो सिद्ध कर दिया है कि बकवास करने से बुरा से बुरा माल भी बाजार में खूब बेचा जा सकता है। इन लोगों में राजनीति करने वाले लोग हैं और ऐसे लोग हैं जो सभी स्तरों पर पहुँच चुके हैं। विश्व के बहुत सारे देशों के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, सेनापति वगैरा वगैरा अत्यन्त महत्वपूर्ण लोग भी कम नहीं हैं।
बकवास के अनेक प्रकार हैं, लेकिन वे सभी प्रकार इस तरह घुले मिले हैं कि बकवास करना भानुमति के कुनबे का महत्वपूर्ण गुण प्रतीत होने लगता है। वहाँ थोक से बकवादी लोग मिलेंगे। अभी तक किसी ने बकवासों का कोई वर्गीकरण नहीं किया है। यदि रामचन्द्र शुक्ल साहित्य का इतिहास लिखते समय यह नहीं समझ पाए कि साहित्य में बकवादी धारा और बकवादी युग भी हो सकते हैं तो मेरा बूता तो बिलकुल नहीं है कि मैं बकवादी धारा और बकवादी युगों की बात कर सकूँ। वैसे रामचंद्र शुक्ल ने हर युग के बकवादी साहित्य की पहचान भी की होती तो वे अधिक महान हो सकते थे। उनकी कीर्ति पताका साहित्य के बाहर भी फहराती नजर आती। 75 वर्ष के होने पर स्वर्ण जयन्ती मना लेने के बाद भी हमारे भक्तानांप्रियदर्शी प्रधानमंत्री जी ने कभी उनका नाम तक नहीं लिया। यदि शुक्ल जी ने बकवादी साहित्य की पहचान कर ली होती तो जब भी किसी स्कूल विश्वविद्यालय में प्रधानमंत्री का प्रवचन होता तो वे शुक्ल जी को महान घोषित करते और बताते कि देश को और कम से कम प्नोफेसरों को उनके आदर्शों पर चलना चाहिए। वे रामचंद्र शुक्ल के नाम का कोई स्मारक भी बनवा सकते थे।
भले ही बकवासों का वर्गीकरण न हुआ फिर भी लोग बकवासों को पहचान लेते हैं। तनिक देर में ही पहचान कर बता देते हैं कि क्या चीज बकवास है। कुछ पारखी लोग तो यह भी पहचान लेते हैं कि बकवास किस तरह टाइप की है। वह अस्थायी है या स्थायी है, वह क्षण भंगुर है या फिर सनतान टाइप की है। इस तरह बकवास का वर्गीकरण भी हो लेता है। किसी शोधार्थी ने ध्यान दिया होता तो अब तक इन स्वाभाविक वर्गीकरणों पर अध्ययन करता, शोध करता और एक नहीं अनेक शोध पत्र लिख सकता था। साहित्य में इन दिनों शीर्ष बहसें सनातन बकवास पर हो रही होती। कोई न कोई अवश्य सनातन बकवास के साहित्य का इतिहास जैसे महत्वपूर्ण विषय पर पीएचडी किए लोगों के वीसी बनने का चांस सबसे उत्तम होता।
मुझे तो लगता है कि साहित्यिक गोष्ठियों में साल की किसी गोष्ठी का विषय बकवास साहित्य होना चाहिए। जैसे "मोदी युग में बकवास साहित्य का स्थान" या यह भी रखा जा सकता है, भक्ति या रीतिकाल में बकवास साहित्य। प्रकाशक चाहें तो इन नामों की किताबें भी प्रकाशित कर सकते हैं। यहाँ तक कि बकवास साहित्य के इतिहास तक लिखे जा सकते हैं।जैसे हिन्दी के बकवास साहित्य का इतिहास"। अंग्रेजी में लिखना हो तो "ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ बकवास" जैसा टाइटल रखा जा सकता है। पता नहीं अब तक किसी प्रोफेसर या विद्यार्थी को यह क्यों न सूझा कि बकवास साहित्य विषय पर अनेक शोधें की जा सकती हैं। प्राथमिक शोध विषय "समाज में बकवास का स्थान" हो सकता है।
खैर, बकवास करते बहुत समय बीत चुका है, आपको भी इसे पढ़ते हुए कोई जोर नहीं पड़ा होगा, सर्र से पढ़ा होगा और बकवास दिमाग से होते हुए किसी नर्व के रास्ते पेट में उतर चुकी होगी। बकवास के पेट में उतर जाने से वह पेट को कभी खराब नहीं करती। यदि आपको यह अहसास होने लगे कि बकवास ने पेट में गैस टाइप कुछ उपद्रव किया है तो उसे सीधे रास्ते से निकालने की कोशिश कभी न करें, बल्कि सबसे अच्छा और सटीक उपाय यह है कि उसे मुहँ के रास्ते पहला पात्र मिलते ही उसके कान में उड़ेल दें।