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सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

'हाडौती कहानी' प्यास लगे तो .....(2)


दीपावली के पहले 1 नवम्बर 2013 के बाद अनवरत पर कोई पोस्ट नहीं लिख सका। इस का एक कारण तो यह रहा कि नवभारत टाइम्स (एनबीटी) ऑनलाइन पर अपने ब्लाग समञ्जस पर लिखता रहा। लेकिन अपने इस ब्लाग पर इतना लंबा अन्तराल ठीक नहीं। अब इसे फिर से नियमित रूप से आरंभ करने का इरादा किया है। आज यहाँ हाड़ौती भाषा-बोली के गीतकार, कथाकार श्री गिरधारी लाल मालव की एक हाड़ौती कहानी 'तस लागै तो' के हिन्दी अनुवाद का उत्तरार्ध प्रस्तुत है।


‘हाड़ौती कहानी’
प्यास लगे तो ..... 

गिरधारी लाल ‘मालव’ 

अनुवाद : दिनेशराय द्विवेदी

(2) 


क दिन सुगन ने चम्पा के हाथ अंग्रेजी की पुस्तक देखी। पहले तो गौर से उसे देखता रहा। फिर पूछा “कैसी पुस्तक है?” चम्पा को ध्यान न था कि चोरी पकड़ी जाएगी। वह लज्जा से गुलाबी हो गई। धीमे स्वर में बोली -क्या करूँ? मन नहीं लगता तो ऐसे ही पन्ने पलटने लगती हूँ”।
चंपा का पढ़ने में मन देख सुगन ने सुझाया -माँ साब¡  से पूछ लो। वे कह देंगी तो मैं घड़ी दो घड़ी आ कर पढ़ा दूंगा।  चाहो तो सैकण्डरी का फार्म भर देना। पढ़ाने की जिम्मेदारी मेरी और पढ़ने की आप की। पटेल पटेलिन ने सोचा-इस बहाने से दोनों का मन मिल जाए तो क्या बुरा है? है तो जात का बेटा ही।
पाँच बरस गुजर गए।  इस अरसे में गाँव में शायद ही कोई घर बचा हो जिस के दुःख दर्द में सुगन काम न आया हो।  वह रोगी की सेवा भगवान की सेवा मानता।  किसी के बीमार होने का पता लगता तो वह तुरन्त पहुँचता। उस के पहुँचते ही लोग विश्वास से भर जाते -लो सुगन जी आ गए अब चिन्ता किस बात की?
चम्पा ने सैकण्डरी पास कर ली। उस के जीवन में नया प्रकाश फूटने लगा था।  बोलने-चलने से उठने-बैठने तक उस का व्यवहार सब के लिए मिठास बाँटने लगा।  गाँव में स्त्रियों के लिए खिंची लक्ष्मण रेखाओं के दायरे में जितना कर सकती थी लोगों के काम आती। रात के खाने-पीने से निपट कर अपने घर के बंगले में लड़कियों को इकट्ठा करती और उन्हें पढ़ाती।
सुगन पास के गाँव हाट में सामान लेने आया हुआ था। सूरज अस्ताचल को जाए उस से पहले ही काम निपटा कर उस ने अपने गाँव की राह पकड़ी। यूँ और लोग भी हाट से गाँव लौट रहे थे। लेकिन उस के बीस तीस कदम आगे पीछे कोई नहीं था, वह अकेला ही चल रहा था। आगे के तिराहे से उसे गाँव की ओर मुड़ना था। वहीं से रास्ता चम्पा के ससुराल की ओर निकलता था।  तिराहे से कुछ पहले एक पेड के पास दो व्यक्ति बैठे दिखे।  उस ने अनुमान किया कि हाट में थके होंगे तो विश्राम के लिए रुक गए होंगे। वह तो दिन बाद होने वाले स्कूल इंस्पेक्टर के गाँव आने की सूचना के बारे में  सोच रहा था।  पिछली बार जब डिप्टी इंस्पेक्टर जाँच करने आए तो हेड मास्टर ने चंपा के अलग से स्कूल चलाने से सरकारी स्कूल में लड़कियों की अनुपस्थिति बढ़ने की शिकायत की थी। लेकिन गाँव के लोगों ने चम्पा के स्कूल बहुत प्रशंसा की थी। तब डिप्टी साहब रात रुके और चम्पा का स्कूल चलाना देखा।  आज सुबह ही सूचना मिली थी कि खुद इंस्पेक्टर साहब आएंगे और चम्पा का स्कूल का भी देखेंगे। वह सोच रहा था कि चंपा के स्कूल में कुछ कार्यक्रम भी करना चाहिए। यदि इंस्पेक्टर को चंपा का स्कूल अच्छा लगा तो जरूर वे चंपा के स्कूल और उस के विद्यार्थियों को सरकारी मदद दिलवा देंगे। तभी सुगन के कानों में आवाज पड़ी।
-ये जाने वाला कौन है?
-सुगन मास्टर है। दूसरे ने जवाब दिया।
फिर दोनों सुगन के पीछे पगडंडी पर उतर आए। सुगन का ध्यान उधर न था। वह तो सोचता जा रहा था -कैसे चंपा के स्कूल में कार्यक्रम कराना होगा, स्वागत गान किस से कराएंगे कौन सी लड़कियों से गीत-कविताएँ प्रस्तुत कराना उचित होगा, कैसे सभा का संचालन होगा आदि आदि ...
तभी सुगन से जोर से सुना –ठहर जा रे¡ उस ने पीछे मुड़ कर देखा। दो अनजान जवान थे।
-क्या बात है? सुगन ने पूछा।
-सुगन है ना तू? एक ने डपट कर पूछा।
-हाँ, पर आप कौन हैं? सुगन ने पलट कर उन से पूछा।
-हम कौन हैं? अभी बताते हैं।  सुगन कुछ संभलता उस के पहले ही एक ने अपनी लाठी उस के माथे पर दे मारी। सुगन गिरा तो दोनों उसे लाठियों से मारते चले गए। आगे पीछे के लोग कुछ समझ कर उस तरफ आते उस से पहले ही दोनों उसे छोड़ कर भाग छूटे।
सुगन ने लाठी अपने सिर पर उठती देखी।  फिर खोपड़ी में पटाखे सा धमाका हुआ. आखों में पहले तेज रोशनी सी चमकी फिर अंधेरा छा गया।  पीछे क्या हुआ ये उसे नहीं पता। कितनी लाठियाँ उस के शरीर पर कहाँ पड़ीं? सब सपने जैसा लगा। पीछे उन दोनों में से कोई बोला था -मेरी सगी भावज को घर में डाल कर पूछता है कि तुम कौन हो? फिर डरावनी सी हँसी सुनाई दी थी।
सुगन की निद्रा टूटी तो उसे लगा उस का सिर किसी नरम तकिए पर है।  सोचा थोड़ा और सो लिया जाए। फिर याद आई कि इंस्पेक्टर साहब आएंगे। चम्पा चिन्ता में घुली होगी। फिर भी मन ने कहा कुछ देर और सो लेने से क्या बिगड़ेगा? अभी तैयारी को पूरा दिन पड़ा है। उस ने करवट बदलनी चाही। शरीर हिला तो  सिर में तेज दर्द की लहर दौड़ गई, कण्ठ से कराह फूट पड़ी। तभी गरम पानी की दो बूंदे उस के गाल पर गिरीं। ये कहाँ से आईं? देखने के लिए आँखें खोली। आँखों से आधे हाथ दूर चम्पा का चेहरा दिखा। इतने नजदीक से वह उसे पहली बार देख रहा था। सुगन के कण्ठ से बोल न फूटा। चम्पा की बरसती और सूजी आँखों से उसे रात की घटना याद आ गई। पर ये न समझ आया कि वह कहाँ है और यहाँ कैसे पहुँचा?  उस ने पूछना चाहा -मैं कहाँ हूँ?
दर्द और कराह के बीच मुहँ से पूरा वाक्य भी न निकल सका, आँखों से आँसू निकल पड़े। चंपा ने उस की उस की आँखें अपने लूगड़े के पल्ले से पोंछीं। उसे न बोलने का इशारा करते हुए धीमे से बोली – सब बता दूंगी।
सुगन ने आसपास निगाह दौड़ाई तो समझ में आया कि चंपा के सोने का कमरा है। उस का सिर चंपा की गोद में है। आसपास चंपा की माँ और सयानी उम्र की कुछ औरतें-आदमी बैठे हैं। उस के सिर पर पट्टी बंधी है, फिर भी उस का सिर फटा जा रहा है।  
एक आदमी दूसरे से कह रहा था – आगे ही आगे मैं था। मैं तो अचानक देखते ही हक्का-बक्का रह गया। डरते डरते नजदीक पहुँचा तो देखा “सुगन जी”। इतने में तुम आ गए ...
-आ क्या गया? वो तो बच्चे के ससुर जी मिल गए। उन के साथ तम्बाकू पीने में पीछे रह गया। नहीं तो तुम्हारे साथ ही था। दूसरे ने बात को पूरा किया।
-फिर तो लोग इकट्ठे हो गए।  पीछे सभी तो आ रहे थे। मगन जी ने खुद का साफा फाड़ा और जला कर घाव में ठूँसा। खून रुका तो बचे हुए साफे से सिर पर पट्टा बांधा। फिर कांधे-माथे उठा के ले आए। आधा कोस ही तो था।
सुगन ने फिर करवट लेने की कोशिश की। चम्पा की माँ पूछने लगी। आँखें खुली क्या बेटी? हल्दी, गुड़ दूध के साथ ओटा कर रखी है, लाउँ?
चंपा ने सिर हिला कर हाँ का इशारा किया। सहारा दे कर सब ने सुगन को बैठाया। ओटावा पिला कर सुगन को फिर लिटा दिया। चंपा की माँ ने सब से कहा- होश आ गया अब खतरे की कोई बात नहीं।  आप सब सारी रात से बैठे हो। अब  जा कर थोड़ा आराम भी कर लो। सुगन को फिर निद्रा आ गई। उसे आराम से सोता देख सब लोग बिछड़ गए।
अगले दिन इंस्पेक्टर साहब आए।  बंगले में चलता चंपा का स्कूल देखा।  बंगले बाहर के चौक में ही कार्यक्रम हुआ। सुगन को सिर पर पट्टी बांधे देख सब काम करते देखा। कार्यक्रम हुआ। लड़कियों को पुरस्कार भी दिए। सुगन और चंपा के गाँव की लड़कियों को शिक्षित करने के प्रयासों की प्रशंसा भी की। सरकार की ओर से चंपा के स्कूल को हर महीने आर्थिक सहायता की घोषणा भी की। गाँव के सभी लोग खुश थे। सब काम से ठीक से हो जाने पर सुगन जाने लगा तो चंपा की माँ ने रोका। बोली - भोजन बन रहा है, कर के ही जाना। इस घर को अपना ही समझो। सुगन को रुकना पड़ा।
भोजन के  बाद सुगन घर जाने लगा तो चम्पा की माँ बोली –सुनो तो .....
सुगन जाते जाते ठिठक कर रुक गया।  लेकिन चम्पा की माँ चुप खड़ी रह गई।  सुगन ने ही मौन तोड़ा – कहो न, आप क्या कह रही थीं?
-अब क्या कहूँ?  मैं तो कहूँ अब तो दस्तूर .....।
-कैसा दस्तूर? मैं नहीं समझा। सुगन बात काट कर बोला।
-चंपा की माँ ने सिर से पल्लू कुछ और खींचा और मंद स्वरों से अटक अटक कर कहने लगी – गाँव की चार बायरों को बुला कर घर में लेने का दस्तूर हो जाता तो ...।
-सुगन मौन खड़ा रह गया। फिर होठों में ही बोला – माँ, साब¡ आप ने मुझे धरम संकट में डाल दिया।
-कैसा धरमसंकट?
-आप की बात मानूंगा तो लोग कहेंगे -आया जब से चम्पा पर डोरे डाल रहा था, अब घर में डाल कर ही माना।  और न मानूंगा तो आप की बात का अपमान कर बैठूंगा।  आप ही बताओ जो भी मैं ने किया इसलिए थोड़े ही किया?  मेरे मन में ऐसी बात कभी सपने में भी नहीं आई।
-अब आप की भावना कुछ भी रही हो।  पर जो कुछ आप ने चंपा के लिए किया।  कोई पराया थोड़े ही करता? आप के मन में चंपा के लिए अपनापन है .... और मैं तो कहूँ ये अपनापन सारे जीवन बना रहे।
-इस से क्या होगा? अपनापन तो वैसे भी बना ही रहेगा।
-इस से मेरे मन का बोझ उतर जाएगा। मैं चंपा का घर बसता देखना चाहती हूँ।
सुगन सोच में पड़ गया। वह क्या जवाब दे? फिर कुछ सोच कर बोला – चंपा से पूछा?
-चंपा से क्या पूछना? वह कौन होती है?
-पर फिर भी हर्जा क्या है?
चंपा किवाड़ के पीछे खड़ी दोनों की बातों पर कान लगाए थी।  वह कुछ कहना भी चाहती होगी पर उस ने नकली खाँसी खाँस कर अपनी उपस्थिति जताई।
सुगन ने लगभग हथियार डालते हुए कहा – फिर भी उस की इच्छा जाने बिना ...
सुगन की बात को बीच में ही काट कर चम्पा की माँ ने कड़ाई से बोली  –मर्दों की जात हम बायरों की भावना समझने लगे  तो सारे झगड़े ही नहीं रहें।  जमाना कितना बुरा है। अकेली विधवा आदमी के सहारे बिना कैसे जीवन काट सकेगी? और चंपा के लिए आप से ज्यादा अपना कोई नहीं।  अब मैं आप की कुछ न सुनूंगी।
जाते हुए कार्तिक की रात ठंडाने लगी थी। सुगन ने नीचा सिर कर के धीमे से कहा - आप को हुकुम...।
-जाओ अब सोवो। कह कर पटेलन धीरे धीरे औसारे की ओर मुड़ गई। जाते जाते कहती गई –चंपा¡ पानी का लोटा भर के रख लेना।
... प्यास लगे तो?  
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संपर्क- गिरधारी लाल मालव, ग्राम बरखेड़ा, अंता, जिला बाराँ (राजस्थान) मोबाइल- 09636403452

रविवार, 2 फ़रवरी 2014

हाडौती 'कहानी' प्यास लगे तो .....

दीपावली के पहले 1 नवम्बर 2013 के बाद 'अनवरत' पर कोई पोस्ट नहीं लिख सका। इस का एक कारण तो यह रहा कि नवभारत टाइम्स (एनबीटी) ऑनलाइन के ऑथर ब्लाग 'समञ्जस' पर लिखता रहा। लेकिन अपने इस ब्लाग पर इतना लंबा अन्तराल ठीक नहीं। आज से इसे फिर से नियमित रूप से आरंभ करने का इरादा किया है। आज यहाँ हाड़ौती भाषा-बोली के गीतकार, कथाकार श्री गिरधारी लाल मालव की एक हाड़ौती कहानी 'तस लागै तो' के हिन्दी अनुवाद का पूर्वार्ध प्रस्तुत है।


‘हाड़ौती कहानी’
प्यास लगे तो ..... 

गिरधारी लाल ‘मालव’ 

अनुवाद : दिनेशराय द्विवेदी

(1)

 गाँव के निकट पहुँचा तो अभी बाँस भर दिन शेष था। पहले पहल खेळ का कुआ, फिर मोती बलाई की झौंपड़ी और उस के बाद गाँव का सीधा गलियारा। इस के दो घर बाद ही उन का मकान। यहाँ गलियारा संकरा है। दोनों तरफ के दो चाँदे, बाएँ चांदे के सहारे बाड़ा जिस की टाँटी गलियारे से लगी हुई है।

वह बाड़े की तरफ झाँका। पीली वायल के लूगड़े में तुरई के फूलों के रंग की सूरत दिखाई दी। नजर मिली तो वह मुस्कुराई तो उस के गालों पर गुलाब उग आए। होठों पर गुलबाँसिये की कलियाँ आ चिपकीं। वह देखता रहा और चलता रहा। उसे शहर की औरतें याद आईं तो मन उबकाई लेने लगा। सोचा गाँव में भी फैशन आ ही गया। लिपिस्टिक लगा रखा था। अंदर ने नाह निकली। नहीं, लिपिस्टिक नहीं है, होठों का रंग ही ऐसा है।

दच्च…..¡ अचानक जैसे आखों के आगे मोर ने मोरपंखियाँ फैला दी हों। अंधेरा छा गया। अंधेरे में तारे नाचने लगे। गाल और आँख के बीच की हड्डी में सुन्न दौड़ गई। कुछ देर में समझ आया कि वह चांदे के कोने से टकरा गया है।

सामने से तीन-चार मधुर कण्ठ खिलखिलाए। उसने जोर लगा कर आखें खोलीं और उन कण्ठों के चेहरे पहचानने का प्रयत्न किया। आँखों को लाल-पीले नाचते तारों के बीच गौने की उम्र की कुछ छोरियों की धुंधली छवि दीखाई पड़े। चोट के झन्नाटे के बीच सुनाई पड़ा।

-भड़बट खा गया बेचारा।

-चांदा भी न दिखा, पता नहीं, कहीं अंधा न हो।

-तेरी तरफ झाँकने का फल चख लिया।

-तेरे फूल¡ जा पट्टी बांध दे। तेरी वजह से भड़बट खाई, उस ने।

हँसी की लहर मोगरे की कलियाँ बिखरेते बालों के साथ फैल गई। लड़कियाँ खेळ के कुएँ पर पानी भरने चल दीं। वह नीचा सिर किए सोचता जा रहा था। “पता नहीं किस किस ने देखा? जो भी सुनेगा, हँसेगा।

फिर कानों ने सुना - लो सुगन जी भी आ गए। अब तक वह सचेत हो चुका था। सामने देखा, मन में सोचा – मेरा नाम जानने वाला यहाँ कौन होगा?

एक परोसगार पत्तलें हाथ में लिए पाहुनों से पंगत लगाने को कह रहा था। सुगन उसे नहीं पहचान सका। यहाँ गलियारा चौड़े चौक में बदल गया था। भैरू पटेल का मकान गलियारे से पच्चीस-तीस हाथ दूर था जिस से मकान के बाहर एक चौक बन गया था। मकान के आगे बंगले में गौने के पाहुन डोराड़ियों पर बैठे थे। परोसगार उन से बार बार पंगत लगाने का आग्रह कर रहे थे।

सुगन सब के साथ पंगत में बैठ गया।

पाहुन जीम-चूँट कर निपटे तो राव बोलने लगा। “धकड़ोल्या, धन्दोल्या राणा परताप ........। भैरू जी पटेल राणा परताप ........। ऊँटाँ, घोड़ाँ का दातार, घणी खम्माँ परथीनाथ, राजी खुसी बणया रह्यो”। राव लंबी डकारें लेता, लंबी मूँछो पर हाथ फेरता आज के अन्नदाता को आसीसता जा रहा था। दिया-बत्ती होते ही लुगाइयों से पोळ भर गई। पाहुनों के नाम ले ले कर सुरीले गलों से नेह के सुर फूटने लगे। वह डोराड़ी पर पसर गया।

तड़के ही भाई-सगे स्नान-ध्यान के लिए जाने की तैयारी में लगे थे। तभी एक जवान आता दीख पड़ा। सुगन ने दूर से ही पहचान लिया -माधो तू¡ वह सुगन की और मुळकता हुआ आ रहा था। तेल झरते अंग्रेजी कट के बाल, टेरीकोट की कमीज, लाल किनारी वाली सफेद झक्क टखने ढकती धोती और पैरों में दशहरे मेले से खरीदे सस्ते मोल के देसी बूट। माधो साली के गौने में बन-ठन कर आया था।

निकट आते ही सुगन ने मुलकते हुए पूछा। - रात देर से आया क्या?

-नहीं मैं तो जल्दी ही आ गया था। तू कब आया? माधो ने पलट कर पूछा।

-मैं तो दिन रहते ही पहुँच गया था। उत्तर देते देते सुगन का ध्यान कल की घटना पर चला गया।

-मुझे तेरे आने की आस नहीं थी। माधो कह रहा था।

-मुझे तो तुम्हारी पूरी आस थी। सुगन ने कहा। समधी जी समझेंगे कि हमें अब कौन गिनता मानता है। इस लिए आना ही पड़ा।

दोनों मित्र देर तक बातें करते रहे। सुगन और माधो आठवीं तक साथ ही पढ़ते थे। फिर माधो पढ़ाई छोड़ कर काम-धन्धे में लग गया। सुगन हायर सैकण्डरी कर के एस.टी.सी. कर ली। चार कोस दूर के गाँव के सरकारी स्कूल में अध्यापक हो गया।

कलेवा कर निपटते निपटते दुपहर हो गई। लुगाइयाँ पाहुनों के मेहंदी लगाने लगीं। पाहुनों के बोल छेड़खानी पर उतर आए । सुगन अन्न की गेहल से अलसाने लगा। गर्मी की दुपहरी में भोजन के बाद सोने का सुख अनोखा होता है। सुगन ने सब से अलग हो भैरू पटेल के नोहरे का दरवाजा जा खोला। नोहरे के बीच नीम का घेर-घुमेर पेड़ था। पास में बिना मँजे बरतन फैले पड़े थे। वहीं एक चारपाई थी। सुगन की मुराद पूरी हो गई। कोई कच्ची नींद में न जगा दे। यह सोच कर उस ने दरवाजे के किवाड़ लगा कर अन्दर से साँकल चढ़ा दी और चारपाई बिछा कर पसर गया। नोहरे और भैरू पटेल के मकान के बीच के सराड़े में आर-पार जो दरवाजा था उस की ओर सुगन का ध्यान ही नहीं गया।

नींद में उसे लगा कि कोई उसे छेड़ रहा है। सुगन की चमक नींद खुल गई, वह उठ बैठा। चार-पाँच बरस की एक छोरी भागती नजर आई। हरी छींट का घाघरा और लाल वायल का सलूका पहने थी। चार पाँच कदम जा कर पीछे अंगूठा उठाती बोली –ऐ, ब्याई जी मुझे परण ले जाओ ....।

एक गहरी हँसी की गूंज सराड़े के दरवाजे के किवाड़ों के पीछे से आई। निगाह उधर गई तो किवाड़ों के पीछे पीली वायल का लूगड़ा हवा के संग उड़ता दिखाई दिया। सुगन समझ गया क्या चालाकी है? और किस की है? छोरी दौड़ कर किवाड़ों के पीछे गुम हो गई। कानाफूसी सुनाई दी। फिर किवाड़ों के पीछे से झाँक कर छोरी ने हँसी दबाते हुए पूछा – पानी लाऊँ, ब्याई जी¡ ... पियोगे?

सुगन ने अब सीधी बात करना ठीक समझा। वह जोर से बोला – क्यों न पिएंगे? आप लाओ और हम न पिएँ? ये कैसे हो सकेगा?

कुछ देर में छोरी अपने नन्हें हाथों में एक पानी भरा लोटा लिए हाजिर थी। लेकिन सुगन का ध्यान तो किवाड़ों के पीछे लहराते पीले लूगड़े पर था। कल बाड़े में दिखी वही है। आधी किवाड़ों के पीछे और आधी दीखती खड़ी थी। इमली के कच्चे कटारों सी आँखें किनारे से पलकों तक बिखर बिखर हँस रही थीं। सुनहरी कढ़ाई वाला मूंगियां रंग का कब्जा और लाल चिकन का घाघरा पहने थी, पैरों में बाजणी पाजेब।

छोरी के लोटा पकड़े हाथ दुखने लगे, छूट कर लोटा नीचे गिरा। आवाज से सुगन चौंक कर होश में लौटा तो लोटा जमीन पर लुढ़क रहा था। छिटक कर पानी गिरने से उड़े धूल के गीले कणों ने सुगन की पेंट को चित्रित कर दिया था। उधर हँसी दरवाजे के किवाड़ों से न रुकी। छोरी सिटपिटा कर भाग गई। बाहर गलियारे में अभी भी बोल छेड़खानी पर उतारू थे। किसी ने आवाज लगाई – अरी..ई .... चम्पा...आ....¡ सुनते ही पीली वायल का लूगड़ा दरवाजे के पीछे गायब हो गया।

दो बरस पीछे सुगन का तबादला उसी गाँव में हो गया। उस ने स्कूल में उपस्थिति दी तब फागुन लग गया था। खेतों के ओढ़े सरसों के फूलों के लूगड़े फगुनाई हवा में लहराते थे। मानुष मन प्रकृति परिवर्तन से अप्रभावित कैसे रहता? सुगन के मन में भी रंगों का मेला सजा। पीले वायल का लूगड़ा स्मृति के किवाड़े खोल फागुन की हवा में लहराने लगा। मन कहता था वह अवश्य मिलेगी। स्मृति ने खुद का ही स्वर दोहरा दिया “क्यों न पिएंगे? आप लाओ और हम न पिएँ?” उस ने खुद से शरमा कर चारों ओर देखा। आस-पास कोई न दिखा तो संतोष हुआ।

पहले दिन का स्कूल कर के निकला तो उस के पैर सीधे भैरू पटेल के मकान की ओर चल पड़े। दरवाजे के बाहर जा कर आवाज लगाई तो अंदर से एक बदरंग लूगड़ा लपेटे एक बायर बाहर आई। देख कर सुगन सोच में पड़ गया। उनियारा तो चम्पा जैसा ही है पर इतना बदरंग कैसे? वह एकटक देखता रह गया। बायर ने ही मौन तोड़ा।

-ऐसे क्या झाँक रहे हो, निस्संग की नाईं? हँस कर उस ने पुरानी बात दोहराई तो विश्वास हुआ कि वह चम्पा ही है और उसे भूली नहीं। लेकिन? उस का मन दुख भरे विस्मय से भर गया। सचेत हो कर उस ने पूछा –पर ये क्या हुआ?

चम्पा की लंबी पलकें टप-टप गिरते मोतियों को न रोक सकीं। सुगन थैला लिए हक्का-बक्का खड़ा रह गया। चम्पा पहले होश में आई। मुड़ कर झट से घर के अंदर चली गई। जाती जाती कहती गई –बैठने को बिछावन लाती हूँ।

पीछे से चम्पा की माँ आ गई। खेत से हरे चनों का गट्ठर लाई थी। दरवाजे पर पाहुन दिखा तो थोड़ा पल्ला खींच लिया। सुगन ने उन्हें देख अभिवादन किया – ढोक देता हूँ।

आवाज सुन कर चम्पा की माँ समझ गई कि सुगन है। वारणे लेती हुई बोली – कब पधारया? सुगन कुछ बोलता उस के पहले ही हाँक लगा दी – चम्पा ... आ....¡ कुछ बिछाने को ला। पाहुन खड़े हैं। पानी का लोटा भी भर लाना ....।

चम्पा नई कथरी लाई और चबूतरे पर बिछा दी. फिर “पानी लाती हूँ” कहते हुए तुरन्त ही अंदर चली गई। चम्पा की माँ ने बूटों का गट्ठर चबूतरे पर एक ओर पटका और पाहुन से कुछ दूर बैठ घूंघट लिए लिए ही बतियाने लगी।

-भाग फूट गए बेचारी के। दो दिन भी सुहाग का सुख न देखा। ठीक से आती जाती भी न हुई थी। ...... बुढ़िया बिना किसी की हाँ हूँ के धाराप्रवाह बोलने लगी जैसे खुद से ही बतिया रही हो। चम्पा ने पानी का लोटा ला कर सुगन को थमा दिया था और वहीं माँ के समीप ही बैठ गई थी।

सुगन के पल्ले कुछ न पड़ा। वह बोला – मेरे तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा है। आखिर ऐसा दुःख कैसे आन पड़ा?

चम्पा की माँ अनवरत बोलती रही। जवाँईं भी कैसा? देवता जैसा था। ऐसा तो कभी मेरे पाहुन भी न आया। कभी नीचे से ऊपर न देखा उस ने। ससुर के तो सामने भी न बोला। पर न जाने क्या हुआ बेचारे को। एक रात में ही .....। सुगन बीच बीच में हाँ हूँ करने लगा था। पर बुढ़िया उस पर ध्यान दिए बिना ही कहती जा रही थी।

-घर वालों ने भी ऐसी करी, नामुरादों ने कि बारह दिन भी साता से न काटने दिए। ताने देने लगे। ये आई है न सतवन्ती जो आते ही निहाल कर दिया। आते ही आदमी को खा गई। पटेल जी को सारी हालत का पता लगा तो पगफेरे के बहाने ले कर आए। तब जा कर साता आई इसे। सूख के पंजर हो गई थी।

-मैं कहती हूँ। रात दिन आँसू बहाने से क्या होगा? अभी तो तेरे खाने-खेलने के दिन हैं। पटेल जी से कह कर अच्छा घर-बार देख दूंगी। पर ये समझती नहीं। कुछ कहते ही मोरनी की तरह आँसू टपकाने लगती है। एक दिन ज्यादा कही तो बोली – मेरे भाग में सुख होता तो ऐसा क्यों होता?

उस दिन के बाद सुगन उस घर बे-रोक टोक आने जाने लगा। छोटा गाँव, मानुष बातों की लहरें बुनने लगे। गोबर फेंकती लुगाइयाँ रेवड़ी पर मिल जातीं तो चम्पा और नए मास्टर जी बात करने लगतीं।

-आज तो चम्पा बाई काजल लगाए थी। एक चर्चा छेड़ती तो दूसरी टीप लगाती।

-नए मास्टर जी रात ग्यारह बजे भैरू जी पटेल के यहाँ से आ रहे थे। मेरे वो जब बाहर निकले तो पूछा- कौन है? तो बोला –मैं हूँ, सुगन। राख होए को शरम भी नहीं आती। दो को बतियाते देख तीसरी भी रस लेने आ जाती और बात का सींग-पूँछ जाने बिना ही बीच में बोल जाती।

- इस से तो सब के सामने हाथ पकड़ ले वही अच्छा। कुछ न कुछ उल्टा-सीधा हो जाएगा तो बेचारी की जिन्दगी खराब हो जाएगी।

गाँव के उठती रेखाओं और भरी कलाइयों वाले जवान भी सुगन को रास्ते में देखते ही खखारने लगे।

                                                                                                              ... क्रमशः


संपर्क- गिरधारी लाल मालव, ग्राम बरखेड़ा, अंता, जिला बाराँ (राजस्थान) मोबाइल - 09636403452

शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

26:10 की धनतेरस


ज सुबह सो कर उठा तब तक उत्तमार्ध सारे घर की धुलाई कर चुकी थी, बस अंतिम चरण चल रहा था। कहने लगीं –कार घर से बाहर निकाल दो तो वहाँ भी धुलाई हो जाए। मैं कार को घर के बाहर खड़ी कर वापस घर में घुसा ही था कि दूध वाला दूध देने आ गया। मुझे गीले फर्श पर चल कर दूध लेने जाना पड़ता इसलिए बरतन उत्तमार्ध ने ले लिया। वह किचन तक पहुँचती कि ढोल वाला आ कर दरवाजे के बाहर आ कर ढोल बजाने लगा। यह आज के दिन का आरंभ था। आज धनतेरस है न, तो अखबार और दिनों से दुगना भारी है। 16 के स्थान पर 36 पृष्ठ, बीस पृष्ठ की रद्दी बेशी। लेकिन उन में से 23 के प्रत्यक्ष विज्ञापन हैं, बचे 13, उन में से भी तीन पृष्ठ की सामग्री केवल विक्रेताओं के लिए ग्राहकों को लुभाने वाली है। सीधा सीधा गणित है 26:10 के अनुपात का। यानी 10 का माल 36 में बेचो 26 का मुनाफा कमाओ। ऐसा सब के साथ हो जाए तो दुनिया की धनतेरस चंगी हो जाए। पर ऐसा होता नहीं है। जब 36 में 10 का माल मिलेगा तो सीधे-सीधे खरीददार को 72.22 परसेंट का नुकसान तो होना ही होना है। तैयार हो कर घर से निकलने लगे तो उत्तमार्ध जी ने पूछा –आज क्या खरीदोगे? मैं ने उन्हें ऊपर वाला गणित समझाया और कहा कि यदि धनतेरस करनी है तो आज बाजार से कुछ मत खरीदो। वर्ना दीवाली वाले दिन लक्ष्मी जी घर के बाहर से मुस्कुरा कर निकल जाएंगी। कहेंगी साल में जब वाहन बदलना होगा तो इस घर को याद रखेंगे।

र उन्हें इस तरह टालना संभव नहीं था। आठ बरस से जो मेरे दफ्तर में बैठने की टीकवुड की जो कुर्सी अपनी सेवाएँ दे रही थी, दो माह पहले उस की एक कील निकल गई थी, वह भी इस तरह कि वर्कशॉप जाए बिना उस का दुरुस्त होना संभव नहीं था। दूसरी साइड की कील आखिर कब तक अकेले दबाव बर्दाश्त करती दो दिन पहले वह भी निकल गई। दीवाली सिर पर थी, न तो कोई बढ़ई उसे दुरुस्त करने घर आने को तैयार था और न ही किसी वर्कशॉप को इतनी फुरसत की ये अड़गम-बड़गम काम करे। सब के सब दीवाली पर ग्राहकों को चेपे जाने वाले माल पर रंगरोगन में लगे थे। मैं भी उस बीमार कुर्सी को इस्तेमाल करता रहा। नतीजा ये हुआ कि परसों रात को जब मैं प्रिंटर में कागज लोड करने को एक तरफ झुका तो कुर्सी टू-पीस हो गई। उस ने मुजे जमीन पर ला दिया। आखिर उस वीआईपी कुर्सी के ध्वंसावशेषों को दफ्तर से हटाना पड़ा और एक विजिटर कुर्सी को अपने लिए रखना पड़ा। मैं ने उत्तमार्ध को बोला –कल बाजार में कुर्सियाँ देख कर आया हूँ, पर लाया नहीं। आज ले आउंगा। जरूरत भी पूरी हो जाएगी और धनतेरस का शगुन भी हो जाएगा। उत्तमार्ध के माथे पर पड़ रही सिलवटें कुछ कम हो गईं। मुझे भी चैन आ गया कि अब कम से कम घर में गड़बड़ होने की कोई संभावना नहीं है।

दालत जाते हुए बाबूलाल की दुकान पर पान खाने रुका तो मुझे देखते ही उस ने धनतेरस की शुभकामनाएँ ठोक मारीं। अब जवाब देना तो बनता था न। तो उत्तर में उसे कहा –बाबूलाल जी अपनी काहे की धनतेरस, धनतेरस तो बाजार की है। धनतेरस तो उन की है जो दुकाने सजाए बैठे हैं। मैं ने बाबूलाल को अखबार वाले का 26:10 के अनुपात का गणित समझाया। तब तक वह ‘हूँ कारे’ देता रहा। जब भी वह हूँ कारा देता मुझे, मोदी की पटना रैली याद आ जाती। मैं ने बाबूलाल जी को बोला –भाई¡ अपनी तो पूरे साल 365 दिन चौबीसों घंटे आप के लिए यही शुभकामनाएँ हैं कि आप की दुकान भन्नाट चलती रहे। आप को भी दाल-रोटी, खीर-पूरी मिलती रहे और हमें भी क्वालिटी वाला पान मिलता रहे। वर्ना आज कल तो पान की दुकानें महज गुटकों की दूकानें बन कर रह गई हैं। तब तक एक और ग्राहक जो अब तक अखबार में चेहरा छुपाए हुए था बोल पड़ा –वकील साहब, आप ठीक कह रहे हो। 23 तेईस पेज का मतलब तेईस लाख का धंधा तो अखबार वाले ने कर ही लिया है। मैं चौंका, ये मुझ से बड़ी गणित वाला कौन पान का ग्राहक निकल आया? पता किया तो वह इंटरनेशनल कूरियर वाला था।

दालत पहुँचा तो देखा जहाँ पार्किंग के लिए जगह तलाशनी पड़ती थी, वहाँ आज मैदान खाली है, कार कहीं पार्क कर दो। अपनी बैठने की जगह जा कर पता लगा कि बार एसोसिएशन ने आज धनतेरस के त्यौहार के कारण काम बंद कर दिया है। एक मुवक्किल से फीस आने की उम्मीद थी, उस के बारे में पूछा तो मुंशी जी ने बताया कि वह तो तारीख ले कर चला गया। अब अपनी धनतेरस की कमाई वाली रही सही उम्मीद भी जाती रही। मैं ने मुंशी जी को बोला बाकी के मुकदमों भी तारीख ही बदलनी है तो बदलवा दो तो वापस घर चलें।  कुल मिला कर एक घंटे में काम निपट गया। वापसी में दो दिन पहले मिला फीस का एक चैक बैंक में जमा करवा कर अपनी धनतेरस का शगुन किया। एक परिचित फर्नीचर वाले के यहाँ से नई कुर्सी खऱीद कर कार में रखवाई। कल पूछताझ करने का लाभ ये रहा कि परिचित ने कुर्सी की कीमत सौ रुपए कम ली।

ब दोपहर बाद से घर पर हूँ। अदालत से पेशी ले कर खिसक जाने वाले मुवक्किल का फोन आया था। मैं ने उसे उलाहना दिया –बिना हमारी धनतेरस कराए निकल लिए। वह मेरी बात पर बहुत हँसा। बिजली वाला कल शाम छत की मुंडेरों पर रोशनियाँ लगा गया था। उन्हें चैक कर आया हूँ। सात सिरीजें लगा गया है कुल 340 बल्ब हैं। मैं हिसाब लगा रहा हूँ कि वह कितने का बिल देगा। दीवाली पर बच्चों को इस बार छुट्टियाँ नहीं मिली हैं। शनिवार-रविवार की छुट्टियों में दीवाली निकल ली है। नौकरियों वालों कि इस साल ज्यादातर छुट्टियाँ शनिवार-रविवार खा गए। सब दुखी हैं, कहते हैं ये साल एम्प्लाइज का नहीं एम्प्लायरों का निकला। फिर भी बच्चे अपनी सीएल, ईएल ले कर दो-चार रोज के लिए घर आ रहे हैं। जो ठीक दीवाली के दिन सुबह पहुँचेंगे। असली दीवाली तो तभी शुरु होगी जब वे घर पहुँच लेंगे। शाम होने को है। उत्तमार्ध जी धनतेरस पर हरी साग के लिए बाहर बैठी मैथी साफ कर रही थी, अब उसे ले कर रसोई में जा चुकी हैं। मैं डर रहा हूँ कि वे जल्दी रसोई से छूट गई तो फिर से धनतेरस पर कुछ खरीदने की बात उन्हें याद न आ आ जाए। अब तो 26:10 के अनुपात का किस्सा भी उन पर कोई असर न करेगा।

शनिवार, 19 अक्टूबर 2013

गप्पू जी का प्रहसन . . .

ब 'पप्पू' पप्पू नहीं रहा। वह जवान भी हो गया है और समझदार भी। समझदार भी इतना कि उस की मज़ाक बनाने के चक्कर में अच्छे-अच्छे समझदार खुद-ब-खुद मूर्ख बने घूम रहे हैं। विज्ञान भवन में हुए दलित अधिकार सम्मेलन में पप्पू ने भौतिकी के 'एस्केप वेलोसिटी' के सिद्धान्त को दलित मुक्ति के साथ जोड़ते हुए अपनी बात रखी और पृथ्वी और बृहस्पति ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से बाहर निकलने के ‘पलायन वेग’ का उल्लेख किया। बस फिर क्या था। गप्पू समर्थक पप्पू का मज़ाक बनाने में जुट गए। लगता हैं उन्हें ट्रेनिंग में यही सिखाया गया है कि पप्पू कुछ भी कहे उस का मज़ाक उड़ाना है। वो सही कहे तो भी और वो गलत कहे तो भी। बस यहीं वे फिसलन को पक्की सड़क समझ कर फिसल गए और ऐसे फिसले कि संभलने तक का नहीं बना। ऐसी मूर्खता हुई है कि अब छुपाए नहीं छुपेगी।

प्पू बोला था-'एयरोनॉटिक्स में 'एस्केप वेलॉसिटी' का कॉन्सेप्ट होता है। मालूम है आपको इस बारे में... बताएंगे आप...? 'एस्केप वेलॉसिटी' मतलब अगर आपको धरती से स्पेस में जाना है.. अगर आप हमारी धरती में हैं तो 11.2 किलोमीटर प्रति सेंकंड्स आपकी वेलॉसिटी होनी चाहिए। अगर कम होगी तो आप कितना भी करेंगे आप स्पेस में नहीं जा सकेंगे। ज्यादा होगी तो आप निकल जाएंगे। तो अब जूपिटर की 'एस्केप वेलॉसिटी' होती है 60 किलोमीटर प्रति सेकंड्स। अगर कोई जूपिटर पर खड़ा है और उसे वहां से निकलना होता है तो उसे 60 किलोमीटर प्रति सेकंड्स गति के वेग की जरूरत होती है। यहां हिंदुस्तान में हमारा जात का कॉन्सेप्ट है। यहां भी 'एस्केप वेलॉसिटी' होती है। अगर आप किसी जात के हैं और अगर आपको सक्सेस पानी है तो आपको भी 'एस्केप वेलॉसिटी' की जरूरत होती है। और दलित समुदाय को इस धरती पर जूपिटर जैसी 'एस्केप वेलॉसिटी' की जरूरत है।‘

प्पू तो सही बोला। जैसे किसी चीज को किसी ग्रह की गुरुत्वाकर्षण से बाहर निकलने के लिए एक खास 'पलायन वेग' की जरूरत होती है, उस से कम वेग होने पर वह चीज वापस उसी ग्रह पर गिर पड़ती है। उसी तरह दलितों को दलितपन से निकलने के लिए एक 'पलायन वेग' की जरूरत है। दलित तो समझ गए और समझ जाएंगे, पर जिन्हें उन की मज़ाक बनाने का काम मिला है, वे न तो किसी को सुनते हैं और न ठीक से पढ़ते हैं। उन्हें समझ ही न आया कि पप्पू कह क्या रहा है। वह दलितों को सुझा रहा है कि आप को खुद इतनी ताकत और इच्छाशक्ति पैदा करनी होगी कि अपनी जाति के पिछड़ेपन से निकल सके, दुनिया को अपनी चमक दिखा कर कायल कर सकें।

लो कोई नहीं। गप्पू सम्प्रदाय ऐसी मूर्खताएं करता रहा है, करता रहता है और आगे भी करता रहेगा। उन के ऐसे प्रहसन अभी अगले साल तक खूब दिखाई पड़ेंगे। आप चाहें तो इन प्रहसनों को लाफ्टर शोज से रिप्लेस कर सकते हैं। पप्पू तो पप्पू न रहा पर गप्पू अभी तक भी गप्पू बने हुए हैं।

बुधवार, 16 अक्टूबर 2013

खुली कलई, निकला पीतल

सुमल सिरुमलानी एक साधारण आदमी। काम-धंधे की तलाश, अपराधिक गतिविधियों और अध्यात्म के अभ्यास के बीच उसे जीवन का रास्ता मिल गया। सीधे-सादे, भोले-लोग अपने जीवन के कष्टों के बीच सहज ही साधु-संत टाइप के लोगों पर विश्वास करने लगते हैं कि शायद वे उन के जीवन में कुछ सुख और आनन्द की सृष्टि कर दें, और नहीं तो कम से कम परलोक ही सुधार दें। इसके लिए वे अपना थोड़ा बहुत से ले कर सब कुछ तक समर्पित सकते हैं। उसने अध्यात्म, औषध, योग, संगीत, नृत्य, पुराण आदि आदि... सब को मिला कर घोल बनाया। भक्ति का उद्योग चल निकला, उसके उत्पादन की बाजार में मांग हो गई।

सुमल के आसाराम में रूपान्तरण से उत्पन्न उस का यह उद्योग-व्यापार अच्छा चला तो साधारण आदमी की इच्छाएं जोर मारने लगीं। सबको पूरा करने का साधन जो जुट गया था। अब वह कुछ भी कर सकता था। कोई व्यापारी, उद्योगपति, राजनेता उस के समकक्ष नहीं रहा, वह उन सबसे ऊपर उठ गया। खुद को भगवान के समझने लगा। शायद यह भी समझने लगा हो कि जिन्हें लोगों ने अब तक भगवान समझा है वे भी ऐसे ही बने हों। वह साधारण से विशिष्ट होते-होते खुद को समष्टि समझने लगा। ऊपर उठा तो खुद को विष्णु समझा तो पत्नी लक्ष्मी हो गई, बेटा नारायण साईं और बेटी भारती। सब के सब... सब से ऊपर। लोग, समाज, कानून, राज्य, पुलिस, अदालत, जेल... सब से ऊपर।




र जो ऊपर होते हैं वे ऊपरवालों जैसा व्यवहार भी करते हैं। वह जब भी फंसता तब ऊपराई से काम चलाता लोग झांसे में आ जाते। लेकिन इस बार फंसा तो यह हथियार न चला, पुलिस ने बुलाया तो अपनी ऊपराई से काम चलाने की कोशिश की वह काम न आई तो डर गया। बचने की कोशिश की तो लोगो को फांसने को बनाए गए खुद के जाल में फंसता चला गया। पीछे बचे परिवार ने बचाने की कोशिश की तो वे भी अपनी ऊपराई छोड़ कर साधारण हो गए। कलई खुली तो पीतल नजर आने लगी। उबलती चाशनी में दूध पड़ गया, शक्कर का मैल अपने आप ऊपर आने लगा।

खुद को ऊपर समझने और ऊपराई दिखाने वाले जब साधारण होते हैं तो साधारण व्यक्ति की तरह व्यवहार करते हैं। जब बाकी तीनों के खिलाफ पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज कर ली है और उनसे पूछताछ का सिलसिला शुरू हुआ है तो वे तीनों भी गायब हैं। मूर्ख, ये भी नहीं जानते कि वे कहीं नहीं बचेंगे। आखिर हाथ पड़ ही जाएंगे। वे चाहते तो सीधे पुलिस के पास जा कर कह सकते थे कि जो पूछना है पूछ लो, जो करना है कर लो। हम सच्चे हैं। ईसा ने बादशाह के फैसले से भागने की कोशिश नहीं की थी, फांसी पर चढ़ गया। तब ईसा के अनुयाइयों की संख्या आसाराम के अनुयाइयों के लाखवें हिस्से से भी कम रही होगी। लेकिन आज इक्कीस शताब्दियों के बाद भी वह दुनिया में करोड़ों लोगों का आदर्श है। पर जो सच्चे नहीं हैं, वे कैसे फांसी या जेल की राह का सामना कर सकते हैं? उनमें तो दूसरे विश्वयुद्ध के अपराधी हिटलर जैसा भी साहस नहीं कि जब अपराधों की सजा मिलने की स्थिति बने तो खुद का जीवन समाप्त कर लें।

बुधवार, 9 अक्टूबर 2013

ज़ाजरू से फ्लश शौचालय तक


पुरखे जरूर गांव के थे, लेकिन मैं एक छोटे शहर में पैदा हुआ। वहां कोई जंगल-वंगल नहीं था, जहां लोग जाते। शहर से लगी हुई एक और उस से आधा किलोमीटर दूर दूसरी नदी थी। बहुत से लोग वहां जाते और तटों पर हाज़त खारिज कर के गंदगी फैलाते। हालांकि ख़ास इसी वजह से अल्लाह के भेजे गए प्राणी के वंशज ताक लगाए नथनों से तेजी से सांसें लेते रहते, जिन के नथुनों से आती जाती हवा की आवाजें हाज़त खारिज करने वाले की सांसे रोक देते। जैसे ही वह उठता, वे तेजी से ऐसे टूटते कि उठने वाला जरा सुस्ती दिखाता तो उस की शामत ही आ जाती।

ई लोग इस तरह की दुर्घटना के शिकार हो भी जाते और हफ़्तों तक हाथ या पैर में प्लास्टर चढ़ाए रहते। बच्चे, बूढ़े और औरतें तो नदियों के किनारों तक जा नहीं सकती थीं, इसलिए घरों में ज़ाजरुएं थीं और मुंसिपैल्टी ने भी बम्पुलिस बना रखे थे। ये सब मिला कर भी अपर्याप्त थे। चार-पांच बरस तक के बच्चे जो ज़ाजरू का इस्तेमाल करने के लायक न होते और जिन के ज़ाजरू में गिर कर घायल होने का खतरा रहता, उन्हे चड्डियां उतार कर नालियों पर बैठा दिया जाता, उन की छोड़ी हुई गंदगी को साफ करने के लिए सुअर गलियों में चक्कर लगाते रहते।

ज़ाजरुएं ऐसी थीं कि उन से मैला उठाने के लिए सुबह आठ बजे के करीब सफाई वाले आते, जाजरू के गली या सड़क की तऱफ खुलने वाली खिड़की के पल्ले को हटा कर टोकरी भर कर ले जाते। इस खिड़की का पल्ला अक्सर टूटा होता था जिन से सुअर अपने थूथन अंदर घुसा कर सफाईकर्मी की मेहनत को हल्का करते थे। सफाई के बाद इन में कोई हाजत खारिज करता और जाजरू का पल्ला टूटा न होता तो ज़ाजरु अगले दिन सुबह तक गंध फैलाती रहती। ज़ाजरुओं की खिड़की का पल्ला सफाई कर्मी तोड़ता था या वे सुअरों की कुश्ती का नतीजा होते थे या फिर खुद जाजरू के मालिक उन्हें तोड़ कर रखते थे, यह मेरे लिए आज तक एक रहस्य है।

टूटा हुआ ही सही लेकिन पल्ले का होना इसलिए जरूरी था कि कहीं मुंसिपैल्टी जुर्माना न कर दे। बूढ़ों और बीमारों को जाजरुओं तक पहुंचाने का काम परिवार में किसी को करना पड़ता और जब तक वे सही सलामत बाहर न निकल आते तब तक उसे इस बात की निगरानी रखनी पड़ती कि कोई दुर्घटना न हो जाए या उन्हें किसी मदद की जरूरत न पड़ जाए।

फ्लश जैसा शौचालय पहली बार बड़े शहर में देखने को मिला था। जो पहली मंजिल पर था। लेकिन उस का मल नीचे भूतल पर गिरता था, जिसे उठा कर ले जाने के लिए सफाईकर्मी की जरूरत होती थी। फिर पहला फ्लश वाला शौचालय पिताजी की पोस्टिंग वाले गांव के रेलवे स्टेशन पर देखने को मिला था। चैन खींचते ही ढेर सा पानी ऊपर लटके डिब्बे से निकल पड़ता और सीट एक दम साफ हो जाती। उस का इस्तेमाल कर के बहुत आनन्द हुआ था। रेलवे स्टेशन की बाउंड्री से लगे हुए घर में ही हम रहते थे। स्टेशन पर दिन भर में पांच-छह गाड़ियां रुकतीं, तभी वहां चहल-पहल रहती। बाकी समय प्लेटफॉर्म खाली पड़ा रहता।

स्कूल सुबह जल्दी जाना पड़ता जिस से दोपहर को शौच जाने की जरूरत पड़ती। मैं उस वक्त स्टेशन की बाउंड्री लांघ कर प्लेटफॉर्म पर पहुंच जाता और फ्लश शौचालय का इस्तेमाल कर लेता। स्टेशन कर्मचारी भले थे। उन्हों ने मुझे शौचालय का बेजा इस्तेमाल करने से कभी न रोका।

दादाजी मंदिर के पुजारी थे और मंदिर में ही रहते थे। मंदिर के पिछवाड़े में बनी ज़ाजरू का इस्तेमाल करते। हम भी मंदिर पर होते तो उसी का इस्तेमाल करते। फिर मंदिर के पास का घर पिताजी ने खरीद लिया, लेकिन उस में ज़ाजरू न थी। इसलिए पूरा परिवार मंदिर वाले ज़ाजरू का इस्तेमाल करता। हालांकि इस के लिए पानी भरा डिब्बा या लौटा हाथ में लटका कर घर के दरवाजे से निकल कर पास ही मंदिर परिसर के पिछवाड़े वाले दरवाजे में प्रवेश करना पड़ता था, जो बहुत अज़ीब लगता था। कुछ साल बाद जब फ्लश वाले शौचालय शहर में बनने शुरू हुए तो पिताजी ने एक मिस्त्री से बात कर के घर पर ही दो शौचालय बनवा लिए। तब जा कर मंदिर वाले ज़ाजरू से पीछा छूटा।

बाजी अब पलट गई थी। अब तो मंदिर में रहने वाले परिजन मंदिर वाली ज़ाजरू के बजाए घर आ कर फ्लश वाले शौचालय का इस्तेमाल करने लगे।

हां बड़े शहर में आने के बाद जिन जिन घरों में मैं रहा उन सब में फ्लश वाले शौचालय थे लेकिन बिना कमोड वाले। पच्चीस बरस पहले जब मैं ने अपना खुद का मकान बनाया तो एक कमोड वाला और एक इंडियन स्टाइल वाली सीटें लगवाईं। दो बरस पहले जब उस मकान को छोड़ कर हम वर्तमान मकान में आए तो इस में कमोड नहीं था। साल भर पहले घुटने के लिगामेंट में चोट लगी तो उस की जरूरत पड़ी और एक स्नानघर में कमोड लगवाना पड़ा। अब तो इंडियन स्टाइल का शौचालय उपयोग करना पड़े तो पहले से डर लगने लगता है।

पिछले सप्ताह जब से मीडिया में मंदिर और शौचालय की प्रतियोगिता आरंभ हुई सवाल ज़ेहन में उमड़ रहे थे कि हमारे छोटे शहर वाले घर में अभी कमोड लगा होगा या नहीं? मंदिर में अभी भी ज़ाजरू विद्यमान है या नहीं? आखिर भाई को फोन कर के मैंने अपनी जिज्ञासा शान्त कर ही ली। सन्तोष की बात ये है कि अम्मा को घुटनों की तकलीफ के कारण दो बरस पहले ही भाई ने एक शौचालय में कमोड लगवा ली है और मंदिर वाला ज़ाजरू भी अब नहीं है। उसकी जगह फ्लश शौचालय बनवा दिया गया है, हालांकि अभी वहां कमोड लगाने की किसी को नहीं सूझी है।

रविवार, 6 अक्टूबर 2013

आतंक पैदा करने वाली व्यवस्था . . .

प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, यहां तक कि सोशल मीडिया को भी सनसनी चाहिए। उस के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। कोई भी चटपटी बात हुई या किसी की टोपी उछालने का अवसर हो तो उस से लोग चूकते नहीं। जिस की टोपी उछल गई वह अपनी शिकायत ले कर सारे जग घूम आए, तो भी उसे राहत देने वाला कोई नहीं। आखिर ये हालत क्यों है? 
गांधी जयन्ती के दिन मुझे राजस्थान के एक नगर से आए मेल में यह एक सज्जन ने लिखा है- 
“मैं डॉक्टर हूं, मेरी धर्म पत्नी अपने मां बाप की इकलौती संतान है। शादी के बाद मेरे सास ससुर मेरे साथ ही रहते हैं। ससुर जी की चार भाइयों की शामलाती संपत्ति पड़ोस के गांव में है, बाकी भाई उनके हिस्से की संपत्ति का बेचान करना चाहते थे, इससे डरकर ससुर जी ने कोर्ट से बेचने पर स्टे लिया। इस स्टे को तुड़वाने और उस संपत्ति को बेचने के लिए उन पर दबाव बने इसके लिए फोन पर गाली गलौच करना रोजमर्रा की बात है। मेरे डर से उनमें से किसी की हिम्मत नहीं पड़ती इसलिए मारपीट करने वो मेरे घर तक नहीं आ सकते। कल उनके छोटे भाई की पत्नी (जिसका कि चरित्र सत्यापन अनेक बार हो चुका है) अपनी गर्भवती बेटी को साथ में लेकर सुबह सात बजे घर पहुंची जिसका सीधा सीधा इंटेन्शन मुझे और मेरे ससुर को दुष्कर्म जैसे केस में फंसाना था। लगातार डेढ घंटे तक वो घर में आकर मुझे मां बहन की गालियां निकालती रही फिर घर पर बाहर वाले चौक में आकर पूरे वॉल्यूम में उसी रफ्तार से गाली गलौच चालू रहा।

मेरी पत्नि ने उसे बाहर जाने को कहा इतने में उसने मेरी पत्नी से हाथापाई चालू कर दी इस पर मुझे उन्हें छुड़ाना पड़ा। इतने में उसने अपनी चूङियां निकालकर फेंक दी और अपने कपड़े फाड़े और मुझ पर चिल्लाने लगी कि तुमने मुझे छेड़ा उसकी लड़की जैसा कि उनकी पहले योजना थी। घर के बाहर सड़क पर आकर जोर-जोर से रो-रोकर चिल्लाने लगी कि देखो मेरी मां के साथ क्या हो रहा है मैं घबरा कर पीछे हट गया और मैंने पुलिस को फोन किया। तब मेरी पत्नी ने उसे बड़ी मुश्किल से धक्के देकर बाहर निकाला तब तक पुलिस भी आ गई। पर तब तक कोई सौ पचास लोग मेरे घर के सामने इकट्ठा हो गए थे और पुलिस हाथ पांव जोड़कर उसे वहां से लेकर गई। इस हिदायत के साथ कि डॉक्टर साहब इससे समझौता कर लो नहीं तो ये आपको फंसा देगी।

अंत में अपने वकील से बात की। एफआईआर लिखाने की बात की तो उसने कहा कि वो भी क्रॉस केस करेंगे और उसमें आपके खिलाफ बलात्कार के प्रयास तक की कोई भी झूठी रिपोर्ट लिखा दी जाएगी तो आपको बचाने वाला कोई नहीं है। आपकी इज्जत खराब होना तय है। दस-पांच दिन जेल की हवा खाना तो मामूली बात है। कल को अखबार में आएगी अब हालत ये है कि वो लोग मुझे लगातार धमकियां दे रहे हैं, वो अपनी बेटी का गर्भपात करवा कर रिपोर्ट करवाने पर आमादा हैं तो मेरा फंसना तो तय है। आज तो चलो मैं बच गया पर यदि फिर से मेरे सास ससुर को परेशान करेंगे और फिर यही सीन रिपीट होगा तब क्या होगा? क्योंकि मैं अपने साथ रहने वाले किसी भी व्यक्ति की रक्षा तो फिर भी करूंगा।

ही पूछो तो मैं फ्रस्टेट हो रहा हूं। घबरा रहा हूं डरा हुआ हूं। क्योंकि आज के माहौल में यदि मेरे ऊपर कोई झूठा इल्जाम भी लगा दिया गया तो मुझे जेल तो जरूर जाना पड़ जाएगा। मेरी इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी। ऐसे में मैं क्या करूं मेरे पास पास क्या रास्ता है? क्या भारतीय कानून की नजर में किसी शरीफ इज्जतदार व्यक्ति के सम्मान की कोई कीमत नहीं? क्या मेरे मानवाधिकार षड़यंत्रकारियों के अधिकारों के सामने कुछ भी नहीं?”

कानून का बेजा इस्तेमाल लंबे समय से होता आया है लेकिन अब सनसनी की चाहत से यह आम हो रहा है। पुलिस के पास शिकायत दर्ज हो और पुलिस उस पर कार्रवाई न करे और मामला प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास पहुंच जाए तो बवाल खड़ा हो जाता है। बहुत से राजनीतिक लोग सामने आ जाते हैं। इस माहौल का असर ये है कि पुलिस बजाय इसके कि वह सचाई का पता लगाए और कार्रवाई करे, चुपचाप मामला दर्ज करती है, शिकायतकर्ता द्वारा प्रस्तुत झूठे-सच्चे गवाहों का बयान लेती है, मामला बनाकर आरोपी को गिरफ्तार करती है और अदालत में आरोप पत्र प्रस्तुत कर देती है। बाद में अदालत जाने और अदालत का काम जाने। वह यह जानने की कोशिश ही नहीं करती कि शिकायत सही है या मिथ्या। अदालतों के पास काम भी क्षमता से कई गुना है, वे भी अपना काम यांत्रिक तरीके से करती हैं। जब तक अदालत का निर्णय आता है एक पीड़ित व्यक्ति के सम्मान, आर्थिक स्थिति का जनाजा निकल चुका होता है।

स हालत ने जो समाज में व्यवस्था ने जो आतंकी माहौल उत्पन्न किया है उससे कानून से डरने वाले आम नागरिक जिस भय के माहौल में जी रहे हैं। उस से निकलने पर समाज के राजनैतिक, सामजिक और बौद्धिक क्षेत्रों में कोई चर्चा नहीं है और न समाज को इस आतंक से निकालने के लिए कोई काम हो रहा है।