पुरखे जरूर गांव के थे,
लेकिन मैं एक छोटे शहर में पैदा हुआ। वहां कोई जंगल-वंगल नहीं था, जहां
लोग जाते। शहर से लगी हुई एक और उस से आधा किलोमीटर दूर दूसरी नदी थी। बहुत
से लोग वहां जाते और तटों पर हाज़त खारिज कर के गंदगी फैलाते। हालांकि
ख़ास इसी वजह से अल्लाह के भेजे गए प्राणी के वंशज ताक लगाए नथनों से तेजी
से सांसें लेते रहते, जिन के नथुनों से आती जाती हवा की आवाजें हाज़त खारिज
करने वाले की सांसे रोक देते। जैसे ही वह उठता, वे तेजी से ऐसे टूटते कि
उठने वाला जरा सुस्ती दिखाता तो उस की शामत ही आ जाती।
कई
लोग इस तरह की दुर्घटना के शिकार हो भी जाते और हफ़्तों तक हाथ या पैर में
प्लास्टर चढ़ाए रहते। बच्चे, बूढ़े और औरतें तो नदियों के किनारों तक जा
नहीं सकती थीं, इसलिए घरों में ज़ाजरुएं थीं और मुंसिपैल्टी ने भी बम्पुलिस
बना रखे थे। ये सब मिला कर भी अपर्याप्त थे। चार-पांच बरस तक के बच्चे जो
ज़ाजरू का इस्तेमाल करने के लायक न होते और जिन के ज़ाजरू में गिर कर घायल
होने का खतरा रहता, उन्हे चड्डियां उतार कर नालियों पर बैठा दिया जाता, उन
की छोड़ी हुई गंदगी को साफ करने के लिए सुअर गलियों में चक्कर लगाते रहते।
ज़ाजरुएं
ऐसी थीं कि उन से मैला उठाने के लिए सुबह आठ बजे के करीब सफाई वाले आते,
जाजरू के गली या सड़क की तऱफ खुलने वाली खिड़की के पल्ले को हटा कर टोकरी
भर कर ले जाते। इस खिड़की का पल्ला अक्सर टूटा होता था जिन से सुअर अपने
थूथन अंदर घुसा कर सफाईकर्मी की मेहनत को हल्का करते थे। सफाई के बाद इन
में कोई हाजत खारिज करता और जाजरू का पल्ला टूटा न होता तो ज़ाजरु अगले दिन
सुबह तक गंध फैलाती रहती। ज़ाजरुओं की खिड़की का पल्ला सफाई कर्मी तोड़ता
था या वे सुअरों की कुश्ती का नतीजा होते थे या फिर खुद जाजरू के मालिक
उन्हें तोड़ कर रखते थे, यह मेरे लिए आज तक एक रहस्य है।
टूटा
हुआ ही सही लेकिन पल्ले का होना इसलिए जरूरी था कि कहीं मुंसिपैल्टी
जुर्माना न कर दे। बूढ़ों और बीमारों को जाजरुओं तक पहुंचाने का काम परिवार
में किसी को करना पड़ता और जब तक वे सही सलामत बाहर न निकल आते तब तक उसे
इस बात की निगरानी रखनी पड़ती कि कोई दुर्घटना न हो जाए या उन्हें किसी मदद
की जरूरत न पड़ जाए।
फ्लश
जैसा शौचालय पहली बार बड़े शहर में देखने को मिला था। जो पहली मंजिल पर
था। लेकिन उस का मल नीचे भूतल पर गिरता था, जिसे उठा कर ले जाने के लिए
सफाईकर्मी की जरूरत होती थी। फिर पहला फ्लश वाला शौचालय पिताजी की पोस्टिंग
वाले गांव के रेलवे स्टेशन पर देखने को मिला था। चैन खींचते ही ढेर सा
पानी ऊपर लटके डिब्बे से निकल पड़ता और सीट एक दम साफ हो जाती। उस का
इस्तेमाल कर के बहुत आनन्द हुआ था। रेलवे स्टेशन की बाउंड्री से लगे हुए घर
में ही हम रहते थे। स्टेशन पर दिन भर में पांच-छह गाड़ियां रुकतीं, तभी
वहां चहल-पहल रहती। बाकी समय प्लेटफॉर्म खाली पड़ा रहता।
स्कूल
सुबह जल्दी जाना पड़ता जिस से दोपहर को शौच जाने की जरूरत पड़ती। मैं उस
वक्त स्टेशन की बाउंड्री लांघ कर प्लेटफॉर्म पर पहुंच जाता और फ्लश शौचालय
का इस्तेमाल कर लेता। स्टेशन कर्मचारी भले थे। उन्हों ने मुझे शौचालय का
बेजा इस्तेमाल करने से कभी न रोका।
दादाजी
मंदिर के पुजारी थे और मंदिर में ही रहते थे। मंदिर के पिछवाड़े में बनी
ज़ाजरू का इस्तेमाल करते। हम भी मंदिर पर होते तो उसी का इस्तेमाल करते।
फिर मंदिर के पास का घर पिताजी ने खरीद लिया, लेकिन उस में ज़ाजरू न थी।
इसलिए पूरा परिवार मंदिर वाले ज़ाजरू का इस्तेमाल करता। हालांकि इस के लिए
पानी भरा डिब्बा या लौटा हाथ में लटका कर घर के दरवाजे से निकल कर पास ही
मंदिर परिसर के पिछवाड़े वाले दरवाजे में प्रवेश करना पड़ता था, जो बहुत
अज़ीब लगता था। कुछ साल बाद जब फ्लश वाले शौचालय शहर में बनने शुरू हुए तो
पिताजी ने एक मिस्त्री से बात कर के घर पर ही दो शौचालय बनवा लिए। तब जा कर
मंदिर वाले ज़ाजरू से पीछा छूटा।
बाजी अब पलट गई थी। अब तो मंदिर में रहने वाले परिजन मंदिर वाली ज़ाजरू के बजाए घर आ कर फ्लश वाले शौचालय का इस्तेमाल करने लगे।
यहां
बड़े शहर में आने के बाद जिन जिन घरों में मैं रहा उन सब में फ्लश वाले
शौचालय थे लेकिन बिना कमोड वाले। पच्चीस बरस पहले जब मैं ने अपना खुद का
मकान बनाया तो एक कमोड वाला और एक इंडियन स्टाइल वाली सीटें लगवाईं। दो बरस
पहले जब उस मकान को छोड़ कर हम वर्तमान मकान में आए तो इस में कमोड नहीं
था। साल भर पहले घुटने के लिगामेंट में चोट लगी तो उस की जरूरत पड़ी और एक
स्नानघर में कमोड लगवाना पड़ा। अब तो इंडियन स्टाइल का शौचालय उपयोग करना
पड़े तो पहले से डर लगने लगता है।
पिछले सप्ताह जब से मीडिया में मंदिर और शौचालय की प्रतियोगिता आरंभ हुई सवाल
ज़ेहन में उमड़ रहे थे कि हमारे छोटे शहर वाले घर में अभी कमोड लगा होगा या
नहीं? मंदिर में अभी भी ज़ाजरू विद्यमान है या नहीं? आखिर भाई
को फोन कर के मैंने अपनी जिज्ञासा शान्त कर ही ली। सन्तोष की बात ये है कि
अम्मा को घुटनों की तकलीफ के कारण दो बरस पहले ही भाई ने एक शौचालय में
कमोड लगवा ली है और मंदिर वाला ज़ाजरू भी अब नहीं है। उसकी जगह फ्लश शौचालय
बनवा दिया गया है, हालांकि अभी वहां कमोड लगाने की किसी को नहीं सूझी है।
3 टिप्पणियां:
ज़ाजरू से फ्लश शौचालय तक के सफ़र में बहुत परिवर्तन आ गया है देखते देखते ....
हम भी ऐसे ही दौर से गुजरे हैं ...
बहुत बढ़िया यादगार पोस्ट
जाजरु था तो बड़ा दुखदाई, इसके सफ़ाई का रास्ता गलियों या सड़कों पर होता था। हमेशा सड़कें और गलियाँ गंधाते रहती थी। जाजरु से सैप्टिंग टैंक ने छुटकारा दिला दिया।
बचपन में खेत की बाड़ की ओट में निवृत होते रहे बाद में घर के पिछवाड़े फ्लस वाला शौचालय बनवा दिया गया अब तो खेत में भी पिता जी ने शौचालय बनवा दिया ताकि खुले में गंदगी ना फैले!
जाजरु पहली बार दसवीं की परीक्षा के लिए दांता गए तब पहाड़ी पर बने किले में प्रयोग किया पर उसकी सफाई के लिए किसी की जरुरत नहीं पड़ती थी मल सीधा पहाड़ी की ढलान में गिर जाता था| दूसरा किला भी वीरान था !!
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