प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया,
यहां तक कि सोशल मीडिया को भी सनसनी चाहिए। उस के लिए वे कुछ भी कर सकते
हैं। कोई भी चटपटी बात हुई या किसी की टोपी उछालने का अवसर हो तो उस से लोग
चूकते नहीं। जिस की टोपी उछल गई वह अपनी शिकायत ले कर सारे जग घूम आए, तो
भी उसे राहत देने वाला कोई नहीं। आखिर ये हालत क्यों है?
गांधी जयन्ती के दिन मुझे राजस्थान के एक नगर से आए मेल में यह एक सज्जन ने लिखा है-
“मैं
डॉक्टर हूं, मेरी धर्म पत्नी अपने मां बाप की इकलौती संतान है। शादी के
बाद मेरे सास ससुर मेरे साथ ही रहते हैं। ससुर जी की चार भाइयों की शामलाती
संपत्ति पड़ोस के गांव में है, बाकी भाई उनके हिस्से की संपत्ति का बेचान
करना चाहते थे, इससे डरकर ससुर जी ने कोर्ट से बेचने पर स्टे लिया। इस स्टे
को तुड़वाने और उस संपत्ति को बेचने के लिए उन पर दबाव बने इसके लिए फोन
पर गाली गलौच करना रोजमर्रा की बात है। मेरे डर से उनमें से किसी की हिम्मत
नहीं पड़ती इसलिए मारपीट करने वो मेरे घर तक नहीं आ सकते। कल उनके छोटे
भाई की पत्नी (जिसका कि चरित्र सत्यापन अनेक बार हो चुका है) अपनी गर्भवती
बेटी को साथ में लेकर सुबह सात बजे घर पहुंची जिसका सीधा सीधा इंटेन्शन
मुझे और मेरे ससुर को दुष्कर्म जैसे केस में फंसाना था। लगातार डेढ घंटे तक
वो घर में आकर मुझे मां बहन की गालियां निकालती रही फिर घर पर बाहर वाले
चौक में आकर पूरे वॉल्यूम में उसी रफ्तार से गाली गलौच चालू रहा।
मेरी पत्नि ने उसे बाहर जाने को कहा इतने में उसने मेरी पत्नी से
हाथापाई चालू कर दी इस पर मुझे उन्हें छुड़ाना पड़ा। इतने में उसने अपनी
चूङियां निकालकर फेंक दी और अपने कपड़े फाड़े और मुझ पर चिल्लाने लगी कि
तुमने मुझे छेड़ा उसकी लड़की जैसा कि उनकी पहले योजना थी। घर के बाहर सड़क
पर आकर जोर-जोर से रो-रोकर चिल्लाने लगी कि देखो मेरी मां के साथ क्या हो
रहा है मैं घबरा कर पीछे हट गया और मैंने पुलिस को फोन किया। तब मेरी पत्नी
ने उसे बड़ी मुश्किल से धक्के देकर बाहर निकाला तब तक पुलिस भी आ गई। पर
तब तक कोई सौ पचास लोग मेरे घर के सामने इकट्ठा हो गए थे और पुलिस हाथ पांव
जोड़कर उसे वहां से लेकर गई। इस हिदायत के साथ कि डॉक्टर साहब इससे समझौता
कर लो नहीं तो ये आपको फंसा देगी।
अंत
में अपने वकील से बात की। एफआईआर लिखाने की बात की तो उसने कहा कि वो भी
क्रॉस केस करेंगे और उसमें आपके खिलाफ बलात्कार के प्रयास तक की कोई भी
झूठी रिपोर्ट लिखा दी जाएगी तो आपको बचाने वाला कोई नहीं है। आपकी इज्जत
खराब होना तय है। दस-पांच दिन जेल की हवा खाना तो मामूली बात है। कल को
अखबार में आएगी अब हालत ये है कि वो लोग मुझे लगातार धमकियां दे रहे हैं,
वो अपनी बेटी का गर्भपात करवा कर रिपोर्ट करवाने पर आमादा हैं तो मेरा
फंसना तो तय है। आज तो चलो मैं बच गया पर यदि फिर से मेरे सास ससुर को
परेशान करेंगे और फिर यही सीन रिपीट होगा तब क्या होगा? क्योंकि मैं अपने
साथ रहने वाले किसी भी व्यक्ति की रक्षा तो फिर भी करूंगा।
सही
पूछो तो मैं फ्रस्टेट हो रहा हूं। घबरा रहा हूं डरा हुआ हूं। क्योंकि आज
के माहौल में यदि मेरे ऊपर कोई झूठा इल्जाम भी लगा दिया गया तो मुझे जेल तो
जरूर जाना पड़ जाएगा। मेरी इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी। ऐसे में मैं क्या
करूं मेरे पास पास क्या रास्ता है? क्या भारतीय कानून की नजर में किसी
शरीफ इज्जतदार व्यक्ति के सम्मान की कोई कीमत नहीं? क्या मेरे मानवाधिकार षड़यंत्रकारियों के अधिकारों के सामने कुछ भी नहीं?”
कानून
का बेजा इस्तेमाल लंबे समय से होता आया है लेकिन अब सनसनी की चाहत से यह
आम हो रहा है। पुलिस के पास शिकायत दर्ज हो और पुलिस उस पर कार्रवाई न करे
और मामला प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास पहुंच जाए तो बवाल खड़ा हो
जाता है। बहुत से राजनीतिक लोग सामने आ जाते हैं। इस माहौल का असर ये है कि
पुलिस बजाय इसके कि वह सचाई का पता लगाए और कार्रवाई करे, चुपचाप मामला
दर्ज करती है, शिकायतकर्ता द्वारा प्रस्तुत झूठे-सच्चे गवाहों का बयान लेती
है, मामला बनाकर आरोपी को गिरफ्तार करती है और अदालत में आरोप पत्र
प्रस्तुत कर देती है। बाद में अदालत जाने और अदालत का काम जाने। वह यह
जानने की कोशिश ही नहीं करती कि शिकायत सही है या मिथ्या। अदालतों के पास
काम भी क्षमता से कई गुना है, वे भी अपना काम यांत्रिक तरीके से करती हैं।
जब तक अदालत का निर्णय आता है एक पीड़ित व्यक्ति के सम्मान, आर्थिक स्थिति
का जनाजा निकल चुका होता है।
इस
हालत ने जो समाज में व्यवस्था ने जो आतंकी माहौल उत्पन्न किया है उससे
कानून से डरने वाले आम नागरिक जिस भय के माहौल में जी रहे हैं। उस से
निकलने पर समाज के राजनैतिक, सामजिक और बौद्धिक क्षेत्रों में कोई चर्चा
नहीं है और न समाज को इस आतंक से निकालने के लिए कोई काम हो रहा है।