@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

यह निबंध सभी ब्लागरों को पढ़ना चाहिए

सूक्ष्मतम मानवीय संवेदनाओं को कलात्मक तरीके से अभिव्यक्त करने की क्षमता कविता में होती है। यही विशेषता कविता की शक्ति है। इन संवेदनाओं को पाठक और श्रोता तक पहुँचाना उस का काम है। शिवराम रंगकर्मी, कवि, आलोचक, संपादक, संस्कृतिकर्मी, भविष्य के समाज के निर्माण की चिंता में जुटे हुए एक राजनेता, एक अच्छे इंसान सभी कुछ थे। वे कविताई की वर्तमान स्थिति से संतुष्ट न थे। उन्हों ने अपनी इस असंतुष्टि को प्रकट करने के लिए उन्हों ने एक लंबा निबंध "कविता के बारे में" उन के देहावसान के कुछ समय पूर्व ही लिखा था, जो बाद में 'अलाव' पत्रिका में प्रकाशित हुआ। रविकुमार इस निबंध की चार कड़ियाँ अपने ब्लाग सृजन और सरोकार पर प्रस्तुत कर चुके हैं, संभवतः और दो कड़ियों में यह पूरा हो सकेगा। मैं ने इस  निबंध को आद्योपान्त पढ़ा। उन की जो चिंताएँ कविता के बारे में हैं, वही सब चिंताएँ इन दिनों ब्लागरी के बारे में अनेक लोग उठा रहे हैं। मेरी राय में शिवाराम के इस निबंध को प्रत्येक ब्लागर को पढ़ना चाहिए। इस निबंध से ब्लागरों को भी वे सू्त्र मिलेंगे जो ब्लागरों को बेहतर लेखन के लिए मार्ग सुझा सकते हैं। 
दाहरण के रूप उस निबंध के पहले चरण को कुछ परिवर्तित रूप में यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। बस अंतर केवल इतना है कि इस में 'कविताई' को 'ब्लागरी' से विस्थापित कर दिया गया है ...

शिवराम
"आजकल ब्लाग खूब लिखे जा रहे हैं। यह आत्माभिव्यक्ति की प्रवृत्ति का विस्तार है और यह अच्छी बात है। लेखनकर्म, जो अत्यन्त सीमित दायरे में आरक्षित था, वह अब नई स्थितियों में व्यापक दायरे में विस्तृत हो गया है। हमारे इस समय का लेखन एक महान लेखक नहीं रच रहा, हजारों लेखक रच रहे हैं। जीवन के विविध विषयों पर हजारों रंगों में, हजारों रूपों में लेखन प्रकट हो रहा है। हजारों फूल खिल रहे हैं और अपनी गंध बिखेर रहे हैं। यह और बात है कि मात्रात्मक विस्तार तो खूब हो रहा है, लेकिन गुणात्मक विकास अभी संतोषजनक नहीं है। ब्लाग खूब लिखे जा रहे हैं, लेकिन अभी पढ़े बहुत कम जा रहे हैं। यूं तो समग्र परिस्थितियां इसके लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन हमारे ब्लागरों के लेखन-कौशल और लेखन की गुणवत्ता में न्यूनता भी इसके लिए जिम्मेदार है। उसकी आकर्षण क्षमता और इसके असर में कमियां भी इसके लिए जिम्मेदार है। यही चिन्ता का विषय है। इस सचाई को नकारने से काम नहीं चलेगा। इसे स्वीकार करने और इस कमजोरी से उबरने का परिश्रम करना होगा। यूं तो और बेहतर की सदा गुंजाइश रहती है तथा सृजनशीलता सदैव ही इस हेतु प्रयत्नरत रहती है, लेकिन फिलहाल हिन्दी ब्लागरी जिस मुकाम पर खड़ी है, इस हेतु विशेष प्रयत्नों की जरूरत है।

ब यदि आप समझते हैं कि मूल आलेख को पढ़ना चाहिए तो "कविता के बारे में" को चटखाएँ और वहाँ पहुँच जाएँ। 





अभी ... कविता

ज यहाँ अंबिकादत्त की एक कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह कविता कविता के बारे में है। लेकिन जो कुछ कविता के बारे में इस कविता में कहा गया है। उसे संपूर्ण लेखन और संपूर्ण ब्लागरी के बारे में समझा जाना चाहिए। क्या ब्लागरी को भी ऐसी ही नहीं होना चाहिए, जैसी इस कविता में कविता से अपेक्षा की गई है? 




'कविता'
अभी कविता
  • अंबिकादत्त
अभी तो लिखी  गई है कविता
उन के लिए 
जिन के औजार छीन लिए गए

अभी बाकी है कविता !
उन के लिए लिखी जानी 
जिन के हाथ नहीं हैं
जीभ का इस्तेमाल जो सिर्फ पेट के लिए करते हैं

अभी बाकी है कविता का उन तक पहुँचना 
सपने जिन के राख में दबे हैं

उन के लिए बाकी है अभी कविता
जो कविता लिख रहे हैं
जो कविताएँ बाकी हैं
उन्हें कौन लिखेगा
किस के जिम्मे है उन का लिखा जाना

और हम जो लिख रहे हैं कविता
वो किस के लिए है?





रविवार, 27 फ़रवरी 2011

जीवन से विलग हुआ साहित्य महत्वहीन है

हिन्दी के शब्द 'साहित्य' और अंग्रेजी के 'लिटरेचर' (literature) का उपयोग अत्यन्त व्यापक किया जाता है। मेरे यहाँ कोई सेल्समेन आ कर घंटी बजाता है, वह कोई वस्तु बेचने के लिए उस के गुण-उपयोग समझाने लगता है। मुझे समय नहीं है, मैं उसे फिर कभी आने को कहता हूँ।  वह 'लिटरेचर रख लीजिए' कह कर एक पर्चा और दस पन्नों की किताब छोड़ जाता है। इन में किसी कंपनी के उत्पादों के चित्र और विवरण अंकित हैं। अब ये भी साहित्य है। हम धर्म संबंधी पाठ्य सामग्री को सहज ही धार्मिक साहित्य कह देते हैं, ज्योतिष विषयक पाठ्य सामग्री को ज्योतिष का साहित्य कहते हैं, दर्शन संबंधी पाठ्य सामग्री को दार्शनिक साहित्य कह देते हैं। लेकिन साहित्य शब्द का उपयोग केवल पुस्तकों तक ही सीमित नहीं रहता। लोक-साहित्य का अधिकांश अभी भी लिपिबद्ध नहीं है। वह लोक की के मुख में ही जीवित है, और बहुधा व्यवहृत भी, जिस में गीत, कहावतें, मुहावरे आदि हैं। इतना होने पर भी जब हिन्दी साहित्य या बांग्ला साहित्य कह देने से एक अलग अनुभूति होती है। यह उस का एक विशिष्ठ अर्थ है। यदि सभी पाठ्य सामग्री को हम व्यापक अर्थों में साहित्य मान लें तो उस में कुछ श्रेणियाँ खोजी जा सकती हैं। 
हली श्रेणी में हम ऐसी पाठ्य सामग्री पाते हैं जो हमारी जानकारी बढ़ाती हैं। उन्हें पढ़ने से हमें नई सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। लेकिन वे हमारी बोध  क्षमता को  कहीं से छू भी नहीं पातीं। इसे हम सूचनात्मक साहित्य कह सकते हैं। दूसरी श्रेणी में हम दर्शन, गणित और विज्ञान आदि विषयों की सामग्री को रख सकते हैं जिन्हें हम विवेचनात्मक साहित्य कह सकते हैं। इस सामग्री के मूल में विवेकवृत्ति है जो भिन्न-भिन्न वस्तुओं, नियमों, धर्मों आदि के व्यवहार को स्पष्ट करती हैं। 
स तरह हम अनेक श्रेणियाँ खोज सकते  हैं। लेकिन पाठ्य सामग्री की एक श्रेणी है। कोई आवश्यक नहीं कि इस श्रेणी की पाठ्य सामग्री से हमें कोई नई सूचनाएँ प्राप्त हों ही। ये हमारी जानी हुई बातों को एक नई रीति से नए रूप में भी प्रस्तुत कर सकती हैं और बार-बार जानी हुई बातों को पढ़ने के लिए उत्सुक बनाए रखती है। यह सामग्री हमें सुख-दुख की वैयक्तिक संकीर्णता और दुनियावी झगड़ों से ऊपर ले जाती हैं और संपूर्ण मानवता, और उस से भी आगे बढ़ कर प्राणी मात्र के दुख-शोक, राग-विराग, आल्हाद-आमोद आदि को समझने के लिए एक दृष्टि प्रदान करती है। वह पाठक के हृदय को कोमल और संवेदनशील बनाती है जिस से वह क्षुद्र स्वार्थों को विस्मृत कर प्राणी मात्र के सुख-दुख को अपना समझने लगता है, सारी दुनिया के साथ आत्मीयता का अनुभव करता है। इसी भाव को सत्वस्थ होना कहा गया है। इस से पाठक को एक प्रकार का आनंद प्राप्त होता है जो स्वार्थगत दुख-सुख से परे है। इसे ही लोकोत्तर आनंद की संज्ञा भी दी जाती है। कविता, नाटक, उपन्यास, कहानी आदि इसी श्रेणी की पाठ्य सामग्री हैं। इसी को हम रचनात्मक साहित्य भी कहते हैं। यह सामग्री हमारे ही अनुभवों के ताने-बाने से एक नए रस-लोक की रचना करती है। साहित्य शब्द का विशिष्ठ अर्थ यही है।  
ही रचनात्मक साहित्य सारी दुनिया में बड़े चाव से पढ़ा जाता है। इसे लोग आग्रह के साथ पढ़ते हैं। यह मानव जीवन से उत्पन्न हो कर मानव जीवन को ही प्रभावित करता है। इसे पढ़ने के साथ ही हम जीवन के साथ ताजा और घनिष्ठ संबंध बनाते हैं। इस में मनुष्य की देखी, अनुभव की हुई, सोची, समझी बातों का सजीव चित्रण मिलता है। जीवन के जो पहलू हमें निकट से स्थाई रूप से प्रभावित करते हैं उन के विषय में मनुष्य के अनुभव को समझने का एक मात्र साधन यही साहित्यिक पाठ्य-सामग्री है। इस तरह यह उक्ति सही है कि भाषा के माध्यम से जीवन की अभिव्यक्ति ही 'साहित्य' है। इसे जीवन की व्याख्या भी कहा गया है। हम इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि जीवन की गति जहाँ तक है वहाँ तक साहित्य का क्षेत्र है, जीवन से विलग हुआ साहित्य महत्वहीन है।

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

हर कोई अपनी सुरक्षा तलाशता है, ... साहित्य भी

नुष्य ही है जो आज अपने लिए खाद्य का संग्रह करता है। लेकिन यह निश्चित है कि आरंभ में वह ऐसा नहीं रहा होगा। उस के पास न तो जानकारी थी कि खाद्य को संग्रह किया जा सकता है और न ही साधन थे। वह आरंभ में भोजन संग्राहक और शिकारी रहा। लेकिन कभी भोजन या शिकार न मिला तो? अनुभव ने उसे सिखाया कि भोजन संग्रह कर के रखना चाहिए। आरंभिक पशुपालन शायद भोजन संग्रह का ही परिणाम था। तब किसी विचार, सम्वाद या सूचना को संग्रह करने का कोई साधन भी नहीं था। भाषा, लिपि और लिखने के साधनों के विकास ने इन्हें संग्रह करने और उस के संचार का मार्ग प्रशस्त किया। अंततः कागज इस संग्रह के बड़े माध्यम के रूप मे सामने आया। लेकिन विचार, सम्वाद और सूचना के संग्रह और संचार के लिए बेहतर साधनों की मनुष्य की तलाश यहीं समाप्त नहीं हो गई। उस ने आगे चल कर कम्प्यूटर और इंटरनेट का आविष्कार किया।
ब लिखने के लिए कोई माध्यम नहीं था तो लोग विचार, सम्वाद और सूचना को रट कर कंठस्थ कर लेते थे। शिक्षा भी मौखिक ही थी और परीक्षा भी। बाद में कागज का आविष्कार हो जाने पर भी कंठस्थ करना जारी रहा। तमाम वैदिक साहित्य को श्रुति कहा ही इसलिए जाता है कि वे कंठस्थ किए जाते रहे और आगे सुनाए जाते रहे। सुनाए जाने की यह परंपरा आज भी नानी की कहानियों और कवि-सम्मेलनों के रूप में मौजूद है। समूचे लोक साहित्य का दो-तिहाई आज भी  कागज पर नहीं आया है, वह आज भी उसी सुनने और सुनाने की परंपरा से जीवित है। बोलियों के लाखों शब्द आज तक भी कागज और शब्दकोषों से बाहर हैं। मेरी अपनी बोली 'हाड़ौती' के अनेक शब्द, कहावतें, मुहावरे, पहेलियाँ, गीत अभी तक कागज पर नहीं हैं। अनेक शब्द, कहावतें, मुहावरे, पहेलियाँ ऐसे हैं कि खड़ी बोली हिन्दी या अन्य किसी भाषा में उन के समानार्थक नहीं हैं। अनेक भावाभिव्यक्तियाँ ऐसी हैं जो अन्य शब्दों के माध्यम से संभव नहीं हैं। 
हिन्दी की खड़ी बोली के प्रभाव ने इन बोलियों को सीमित कर दिया है। मेरी चिंता है कि यदि किसी तरह ये शब्द, कहावतें, मुहावरे, पहेलियाँ, गीत यदि संरक्षित न हो सके तो शायद हमेशा के लिए नष्ट हो जाएंगे, और उन के साथ वे भावाभिव्यक्तियाँ भी जिन्हें ये रूप प्रदान करते हैं। उन्हें कागज तक पहुँचाने में विपुल धन की आवश्यकता है। लेकिन यह काम कम्प्यूटर से सीडी, या डीवीडी में संग्रहीत करने तथा उन्हें इंटरनेट पर उपलब्ध करा देने से भी संभव है, और कम खर्चीला भी। यदि ऐसा हो सका तो बहुत सारा साहित्य कागज पर कभी नहीं पहुँचेगा और इलेक्ट्रॉनिक माध्यम पर पहुँच जाएगा। छापे के साथ आज क्या हो रहा है। छापे की तकनीक उस स्तर पर पहुँच गई है कि कागज पर कोई चीज छापने के पहले उस का इलेक्ट्रोनिक संकेतों में तब्दील होना आवश्यक हो गया है। किताब, पर्चे और अखबार छपने के पहले किसी न किसी डिस्क पर संग्रहीत होते हैं। उस के बाद ही छापे पर जा रहे हैं। किसी भी साहित्य के किसी डिस्क पर संग्रहीत होने के बाद छपने और इंटरनेट पर प्रकाशित होने में फर्क इतना रह जाता है कि यह काम इंटरनेट पर तुरंत हो जा रहा है ,जब कि छप कर पढ़ने लायक रूप में पहुँचने में कुछ घंटों से ले कर कुछ दिनों तक का समय लग रहा है। 
दि कागज और डिस्क के बीच कभी कोई जंग छिड़ जाए तो डिस्क की ही जीत होनी है, कागज तो उस में अवश्य ही पिछड़ जाएगा क्यों कि वह भी डिस्क का मोहताज हो चुका है, इसे हम ब्लागर तो भली तरह जानते हैं। ऐसे में सभी कलाओं के लिए भी मौजूदा परिस्थितियों में सब से अधिक सुरक्षित स्थान डिस्क और इंटरनेट ही है। साहित्य भी एक कलारूप ही है। उस के लिए भी सुरक्षित स्थान यही हैं। हर कोई अपने लिए सुरक्षित स्थान तलाशता है, साहित्य को स्वयं की सुरक्षा के लिए डिस्क और इंटरनेट की ही शरण में आना होगा। 
....... और अंत में एक शुभ सूचना कि भाई अजित वडनेरकर की शब्दों का सफ़र भाग -२ की पांडुलिपि को एक लाख रुपये का विद्यानिवास मिश्र पुरस्कार घोषित हुआ है। राजकमल प्रकाशन अजित वडनेरकर को यह सम्मान 28 फ़रवरी को नई दिल्ली के त्रिवेणी सभागार में शाम पांच बजे आयोजित कार्यक्रम में प्रदान करेगा। पुरस्कार के चयनकर्ता मंडल में प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी और अरविंद कुमार शामिल थे। इस सूचना ने आज के दिन को मेरे लिए बहुत बड़ी प्रसन्नता का दिन बना दिया है, मैं बहुत दिनों से इस दिन की प्रतीक्षा में था। अजित भाई को व्यक्तिगत रूप से बधाई दे चुका हूँ। आज सारे ब्लाग जगत को इस पर प्रसन्न होना चाहिए। इस महत्वपूर्ण पुस्तक का जन्म पहले इंटरनेट पर ब्लाग के रूप में हुआ। अजित भाई के साथ सारा हिन्दी ब्लाग जगत इस बधाई का हकदार है।

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

महेन्द्र नेह का काव्य संग्रह 'थिरक उठी धरती' अंतर्जाल पर उपलब्ध

हेन्द्र 'नेह' मूलतः कवि हैं, लेकिन वे कोटा और राजस्थान की साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों के केन्द्र भी हैं। वे देश के एक बड़े साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन 'विकल्प' जन सांस्कृतिक मंच की कोटा इकाई के अध्यक्ष हैं। इस संगठन के महासचिव शिवराम थे, उन के देहान्त के उपरान्त यह जिम्मेदारी भी महेन्द्र 'नेह' के कंधों पर है।  विकल्प की कोटा इकाई ने स्थानीय साहित्यकारों की रचनाओं की अनेक छोटी पुस्तिकाएँ प्रकाशित की हैं, उन के प्रकाशन का महत् दायित्व उन्हों ने उठाया है। कोटा, राजस्थान और देश के विभिन्न भागों में होने वाले साहित्यिक सासंकृतिक आयोजनों में लगातार उन्हें शिरकत करना पड़ता है। उन के सामाजिक-सास्कृतिक कामों की फेहरिस्त से कोई भी यह अनुमान कर सकता है कि वे इस काम के लिए पूरा-वक़्ती कार्यकर्ता होंगे। लेकिन अपने घर को चलाने के लिए उन्हें काम करना पड़ता है। वे एक पंजीकृत क्षति निर्धारक हैं और बीमा कंपनियों पास संपत्तियों-वाहनों आदि के क्षति के दावों में सर्वेक्षण कर वास्तविक क्षतियों का निर्धारण करते हैं। उन्हें देख कर सहज ही यह कहा जा सकता है कि एक मेधावान सक्रिय व्यक्ति हर क्षेत्र में अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के साथ ही कीर्तिमान स्थापित कर सकता है। क्षति निर्धारक के रूप में बीमा कंपनियों में जो प्रतिष्ठा है वह किसी के लिए भी ईर्ष्या का कारण हो सकती है।
हेन्द्र 'नेह' बरसों कविताएँ, गीत, गज़लें लिखते रहे। लेकिन उन की पुस्तक नहीं आई, इस के बावजूद वे अन्य साहित्यकारों की पुस्तकों के प्रकाशन के लिए जूझते रहे। जब इस ओर ध्यान गया तो लोग उन की काव्य संग्रहों के प्रकाशन के लिए जिद करने लगे। आखिर उन के दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए 'सच के ठाठ निराले होंगे' और 'थिरक उठेगी धरती'। वे बहुत से ब्लाग नियमित रूप से पढ़ते हैं। कल उन से फोन पर बात हो रही थी तो मैं ने कहा -आप इतने ब्लाग पढ़ते हैं, लेकिन प्रतिक्रिया क्यों नहीं करते"? उन्हों ने बताया कि वे नेट पर देवनागरी टाइप नहीं कर सकते। मैं उन की इस कमजोरी को जानता हूँ कि उन्हें यह सब सीखने का समय नहीं है। फिर भी मैं ने उन्हें कहा कि यह तो बहुत आसान है, तो कहने लगे एक दिन वे मेरे यहाँ आते हैं या फिर मैं उन के यहाँ जाऊँ और उन्हें यह सब सिखाऊँ। मैं ने उन के यहाँ जाना स्वीकार कर लिया। 
पिछले दिनों नेट और ब्लाग पर साहित्य न होने की बात कही गई थी। लेकिन बहुत से साहित्यकारों द्वारा कंप्यूटर का उपयोग न कर पाने या देवनागरी टाइप न कर पाने की अक्षमता भी नेट और ब्लाग पर साहित्य की उपलब्धता में बाधा बनी हुई है। निश्चित रूप से इस के लिए हम जो ब्लागर इस क्षेत्र में आ गए हैं, उन्हें पहल करनी होगी। हमें लोगों को कंप्यूटर और अंतर्जाल का प्रयोग करने और उस पर हिन्दी टाइप करना सिखाने के सायास प्रयास करने होंगे। हमें कंप्यूटर पर टाइपिंग सिखाने वाले केन्द्रों पर इन्स्क्रिप्ट की बोर्ड के बारे में बताना होगा, कि भविष्य में हिन्दी इसी की बोर्ड से टाइप की जाएगी, और उन्हें हिन्दी टाइपिंग सीखने वालों को इनस्क्रिप्ट की बोर्ड पर टाइपिंग सिखाने के लिए प्रेरित करना होगा। इस तरह बहुत काम है जो हम पहले ब्लाग और नेट पर आ चुके लोगों को मैदान में आ कर करना होगा। 
हुत बातें कर चुका। वास्तव में यह पोस्ट तो इस लिए आरंभ की थी कि आप को यह बता दूँ कि जब महेन्द्र 'नेह' का दूसरा काव्य संग्रह 'थिरक उठेगी धरती' का विमोचन हुआ तो उस के पहले ही इस संग्रह का पीडीएफ संस्करण मैं स्क्राइब पर प्रकाशित कर चुका था और वह इंटरनेट पर उपलब्ध है। जो पाठक इस संग्रह को पढ़ना चाहते हैं, यहाँ फुलस्क्रीन पर जूम कर के पढ़ सकते हैं और चाहें तो स्क्राइब पर जा कर डाउनलोड कर के अपने कंप्यूटर पर संग्रह कर के भी पढ़ सकते हैं।
तो पढ़िए.....
'थिरक उठेगी धरती'
Neh-Poems_Thirak Uthegi Dharti

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

बेहतर लेखन के सूत्रों की खोज ... साहित्य क्या है?

ह प्रश्न कि "बेहतर कैसे लिखा जाए?"    हमारे सामने है, इस का उत्तर भी हमें ही तलाशना होगा। इस का कोई बना बनाया सूत्र तो है नहीं कि उसे किसी पाठ की तरह रट लिया जाए। लेकिन हम चाहें तो कुछ न कुछ तलाश कर सकते हैं। चलिए उस का आरंभ करते हैं।  
मैं खुद मानता हूँ कि मेरा लेखन बेहतर नहीं है, उसे अत्यंत साधारण श्रेणी में ही रखा जा सकता है। मुझे कभी-कभी वाह-वाही भी मिलती है, लेकिन उस से मुझे कतई मुगालता नहीं होता कि मैं बेहतर लिख रहा हूँ। अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि मैं बेहतर संवाद स्थापित कर लेता हूँ। बात साहित्य से आरंभ हुई थी कि ब्लागीरी में साहित्य नहीं है, और है तो वह यहाँ छापे से हो कर आया है। तो हम भी अपनी बेहतर लिखने की खोज को साहित्य से ही क्यों न आरंभ करें? अब ये साहित्य क्या है? साहित्य किसे कहा जा सकता है? इस को समझने का प्रयत्न करें। सब से पहले हम जानें कि यह शब्द कहाँ से आया? 
प्टे ने अपने संस्कृत हिन्दी कोष में 'साहित्यम्' के अर्थ दिए हैं - 1. साहचर्य, भाईचारा, मेल-मिलाप, सहयोगिता 2. साहित्यिक या आलंकारिक रचना, 3. रीति शास्त्र, काव्यकला 4. किसी वस्तु के उत्पादन या सम्पन्नता के लिए सामग्री का संग्रह।  
चार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं -'साहित्य' शब्द का व्यवहार नया नहीं है। बहुत पुराने जमाने से लोग इस का व्यवहार करते आ रहे हैं, समय की गति के साथ इस का अर्थ थोड़ा-थोड़ा बदलता जरूर आया है। यह शब्द संस्कृत के 'सहित' शब्द से बना, जिस का अर्थ है 'साथ-साथ'। 'साहित्य' शब्द का अर्थ इसलिए 'साथ-साथ रहने का भाव' हुआ।
गे वे लिखते हैं -दर्शन की पोथियों में एक क्रिया के साथ योग रहने को ही 'साहित्य' कहा गया है। अलंकार-शास्त्र में इसी अर्थ से मिलते-जुलते अर्थ में इस का प्रयोग हुआ है। वहाँ शब्द और अर्थ के साथ-साथ रहने के भाव (साहित्य) को 'काव्य' बताया गया है। परन्तु ऐसा तो कोई वाक्य हो नहीं सकता जिस में शब्द और अर्थ साथ-साथ न रहते हों। इसलिए 'साहित्य' शब्द को विशिष्ठ अर्थ में प्रयोग करने के लिए इतना और जोड़ दिया गया है कि "रमणीयता उत्पन्न करने में जब शब्द और अर्थ एक दूसरे से स्पर्धा करते हुए साथ-साथ आगे बढ़ते रहें, तो ऐसे 'परस्पर स्पर्धा' शब्द और अर्थ का जो साथ-साथ रहना होगा, वही साहित्य 'काव्य' कहा जा सकता है।"  ऐसा जान पड़ता है कि शुरु-शुरू में यह शब्द काव्य की परिभाषा बनाने के लिए ही व्यवहृत हुआ था और बाद में चल कर सभी रचनात्मक पुस्तकों के अर्थ में व्यवहृत होने लगा। पुराने जमाने में ही इसे 'सुकुमार वस्तु' समझा जाता है और जिस की तुलना में न्याय, व्याकरणादि शास्त्रों को 'कठिन' भाग माना जाता रहा है। कान्यकुब्ज राजा के दरबार में प्रसिद्ध कवि श्री हर्ष को विरोधी पंडित ने यही कह कर नीचा दिखलाना चाहा था कि वे 'सुकुमार वस्तु' के ज्ञाता हैं। 'सुकुमार वस्तु' से मतलब साहित्य से था। उत्तर में श्री हर्ष ने गर्वपूर्वक कहा था कि मैं 'सुकुमार' और 'कठोर' दोनों का ज्ञाता हूँ।
ब हम कुछ-कुछ समझ सकते हैं कि साहित्य क्या है? वह सब से पहले तो 'साथ साथ रहने का भाव' है, उस में शब्द और अर्थ साथ-साथ रहते हैं, यह 'सुकुमार' अर्थात् मनुष्य के मनोभावों को कोमलता से प्रभावित करने वाला होता है और अंत में हमें यह जान लेना चाहिए कि वह रचनात्मक होता है।
साहित्य पर बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। हम इस पर आगे भी और बात करेंगे, जो बेहतर लिखने के सूत्र खोजने में हमारी सहायक सिद्ध हो सके। आज के लिए इतना ही ...

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

"बेहतर कैसे लिखा जाए?"

ल मैं ने कहा कि साहित्य पुस्तकों में सीमित नहीं रह सकता, उसे इंटरनेट पर आना होगा।  वास्तविकता यह है कि जब से मनुष्य ने लिपि का आविष्कार किया और वह उस का प्रयोग करते हुए अपनी अभिव्यक्ति को दूसरों तक पहुँचाने लगा, तब से ही वह उस माध्यम को तलाशने लगा जहाँ लिपि को उकेरा जा सके और दूसरों तक पहुँचाया जा सके।  मिट्टी की मोहरें, पौधों के पत्ते, पेड़ों की छालें, कपड़ा, कागज, प्लास्टिक और न जाने किस किस का उस ने इस्तेमाल कर डाला। कागज पर आ कर उस की यह तलाश कुछ ठहरी और उस का तो इस कदर इस्तेमाल किया गया है कि जंगल के जंगल साफ हुए हैं। लेकिन इस सफर में बहुत सी चीजें ऐसी थीं जिन्हें कागज पर नहीं उकेरा जा सकता था, जैसे ध्वन्यांकन, और चल-चित्र। इन के लिए उसने दूसरे साधन तलाश किये। प्लास्टिक फिल्म से ले कर कंप्यूटर की हार्ड डिस्क तक का उपयोग किया गया। इस काम के लिए उपयोग की गई डिस्क ने एक मार्ग और खोज लिया। उस पर लिपि को बहुत ही कम स्थान पर अंकित किया जा सकता था। अब लिपि भी उस में अंकित होने लगी। लेकिन लिपि, ध्वन्यांकन, चल-दृश्यांकन आदि को अंकित ही थोड़े ही होना था, उन्हें तो पढ़ने वाले के पास पहुँचना था। इस के लिए इंटरनेट का आविष्कार हुआ। आज कंप्यूटर और इंटरनेट ने मिल कर एक ऐसा साधन विकसित किया है जिस पर आप कुछ भी अंकित कर देते हैं तो वह न केवल दीर्घावधि के लिए सुरक्षित हो जाता है, अपितु दुनिया भर में किसी के लिए भी उसे पढ़ना, देखना, सुनना संभव है, वह भी कभी भी, किसी भी समय। 
तो जान लीजिए कंप्यूटर और इंटरनेट कागज से बहुत अधिक तेज, क्षमतावान माध्यम है। यह कागज की जरूरत को धीरे-धीरे कम करता जा रहा है। वह मौजूदा पीढ़ी का माध्यम है, विज्ञान यहीं नहीं रुक रहा है। हो सकता है इस से अगली पीढ़ी का माध्यम भी अनेक वैज्ञानिकों के मस्तिष्क में जन्म ले चुका हो, हो सकता है कि वह कहीँ लैब में भौतिक रूप भी ले चुका हो और यह भी हो सकता है कि उस का परीक्षण चल रहा हो। जीवन और उस की प्रगति दोनों ही नहीं रुकते। पर हमें आज इसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि कागज हमारा हमेशा साथ नहीं देगा। इस के लिए नए माध्यमों की ओर हमें जाना ही होगा। जो यदि न जाएंगे और कागज के भरोसे बैठे रहेंगे तो उनकी कुछ ही बरसों में वैसी ही स्थिति होगी जैसी कि आज कल घर में दो बाइकों और कार के साथ कोने में खड़े बजाज स्कूटर की हो चुकी है। जिसे उस का मालिक रोज कबाड़ी को देने की सोचता है, लेकिन केवल इसीलिए रुका रहता कि शायद कोई इस का उपयोग करने की इच्छा रखने वाला कुछ अधिक कीमत दे जाए। 

लेकिन हम लोग जो इस नवीनतम माध्यम पर आ गए हैं। केवल इसी लिए अजर-अमर नहीं हो गए हैं कि हम कुछ जल्दी यहाँ आ गए हैं। हम केवल इसीलिए साहित्य सर्जक नहीं हो जाते कि हम इस नवीनतम माध्यम का उपयोग कर रहे हैं। हमें निश्चित रूप से जैसा सृजन कर रहे हैं, उस से बेहतर सृजन करना होगा। अपनी अपनी कलाओं में निष्णात होना होगा। हमें बेहतर से बेहतर पैदा करना होगा। जो लोग कागज को बेहतर मानते हैं वे चाहे यह स्वीकार करें न करें कि कभी इंटरनेट बेहतर हो सकता है। लेकिन हम जो इधर आ चुके हैं, जानते हैं कि वे सभी एक दिन इधर आएंगे। इसलिए हमें उन तमाम लोगों से बेहतर सृजन करना होगा। इसलिए हम सभी लोगों का जो इंटरनेट का प्रयोग कर रहे हैं,  सब से बड़ा प्रश्न होना चाहिए कि "बेहतर कैसे लिखा जाए?"