यह प्रश्न कि "बेहतर कैसे लिखा जाए?" हमारे सामने है, इस का उत्तर भी हमें ही तलाशना होगा। इस का कोई बना बनाया सूत्र तो है नहीं कि उसे किसी पाठ की तरह रट लिया जाए। लेकिन हम चाहें तो कुछ न कुछ तलाश कर सकते हैं। चलिए उस का आरंभ करते हैं।
मैं खुद मानता हूँ कि मेरा लेखन बेहतर नहीं है, उसे अत्यंत साधारण श्रेणी में ही रखा जा सकता है। मुझे कभी-कभी वाह-वाही भी मिलती है, लेकिन उस से मुझे कतई मुगालता नहीं होता कि मैं बेहतर लिख रहा हूँ। अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि मैं बेहतर संवाद स्थापित कर लेता हूँ। बात साहित्य से आरंभ हुई थी कि ब्लागीरी में साहित्य नहीं है, और है तो वह यहाँ छापे से हो कर आया है। तो हम भी अपनी बेहतर लिखने की खोज को साहित्य से ही क्यों न आरंभ करें? अब ये साहित्य क्या है? साहित्य किसे कहा जा सकता है? इस को समझने का प्रयत्न करें। सब से पहले हम जानें कि यह शब्द कहाँ से आया?
आप्टे ने अपने संस्कृत हिन्दी कोष में 'साहित्यम्' के अर्थ दिए हैं - 1. साहचर्य, भाईचारा, मेल-मिलाप, सहयोगिता 2. साहित्यिक या आलंकारिक रचना, 3. रीति शास्त्र, काव्यकला 4. किसी वस्तु के उत्पादन या सम्पन्नता के लिए सामग्री का संग्रह।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं -'साहित्य' शब्द का व्यवहार नया नहीं है। बहुत पुराने जमाने से लोग इस का व्यवहार करते आ रहे हैं, समय की गति के साथ इस का अर्थ थोड़ा-थोड़ा बदलता जरूर आया है। यह शब्द संस्कृत के 'सहित' शब्द से बना, जिस का अर्थ है 'साथ-साथ'। 'साहित्य' शब्द का अर्थ इसलिए 'साथ-साथ रहने का भाव' हुआ।
आगे वे लिखते हैं -दर्शन की पोथियों में एक क्रिया के साथ योग रहने को ही 'साहित्य' कहा गया है। अलंकार-शास्त्र में इसी अर्थ से मिलते-जुलते अर्थ में इस का प्रयोग हुआ है। वहाँ शब्द और अर्थ के साथ-साथ रहने के भाव (साहित्य) को 'काव्य' बताया गया है। परन्तु ऐसा तो कोई वाक्य हो नहीं सकता जिस में शब्द और अर्थ साथ-साथ न रहते हों। इसलिए 'साहित्य' शब्द को विशिष्ठ अर्थ में प्रयोग करने के लिए इतना और जोड़ दिया गया है कि "रमणीयता उत्पन्न करने में जब शब्द और अर्थ एक दूसरे से स्पर्धा करते हुए साथ-साथ आगे बढ़ते रहें, तो ऐसे 'परस्पर स्पर्धा' शब्द और अर्थ का जो साथ-साथ रहना होगा, वही साहित्य 'काव्य' कहा जा सकता है।" ऐसा जान पड़ता है कि शुरु-शुरू में यह शब्द काव्य की परिभाषा बनाने के लिए ही व्यवहृत हुआ था और बाद में चल कर सभी रचनात्मक पुस्तकों के अर्थ में व्यवहृत होने लगा। पुराने जमाने में ही इसे 'सुकुमार वस्तु' समझा जाता है और जिस की तुलना में न्याय, व्याकरणादि शास्त्रों को 'कठिन' भाग माना जाता रहा है। कान्यकुब्ज राजा के दरबार में प्रसिद्ध कवि श्री हर्ष को विरोधी पंडित ने यही कह कर नीचा दिखलाना चाहा था कि वे 'सुकुमार वस्तु' के ज्ञाता हैं। 'सुकुमार वस्तु' से मतलब साहित्य से था। उत्तर में श्री हर्ष ने गर्वपूर्वक कहा था कि मैं 'सुकुमार' और 'कठोर' दोनों का ज्ञाता हूँ।
अब हम कुछ-कुछ समझ सकते हैं कि साहित्य क्या है? वह सब से पहले तो 'साथ साथ रहने का भाव' है, उस में शब्द और अर्थ साथ-साथ रहते हैं, यह 'सुकुमार' अर्थात् मनुष्य के मनोभावों को कोमलता से प्रभावित करने वाला होता है और अंत में हमें यह जान लेना चाहिए कि वह रचनात्मक होता है।
साहित्य पर बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। हम इस पर आगे भी और बात करेंगे, जो बेहतर लिखने के सूत्र खोजने में हमारी सहायक सिद्ध हो सके। आज के लिए इतना ही ...