@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: दिनेशराय द्विवेदी
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बुधवार, 25 मार्च 2020

कोरोना और दाढ़ी-मूँछ


उम्र का 14वाँ साल था। नाक और ऊपरी होठ के बीच रोआँली का कालापन नजर आने लगा था। एक दम सुचिक्कन चेहरे पर काले बालों वाली रोआँली देख कर अजीब सा लगने लगा था। समझ नहीं आ रहा था कि इस का क्या किया जाए। स्कूल में लड़के मज़ाक बनाने लगे थे कि मर्दानगी फूटने लगी है, अब लड़कियाँ फ़िदा होने लगेंगी। मज़ाक क्लास की लड़कियों के कानों तक भी पहुँच जाता था। जब कभी किसी लड़की से आँखें मिलतीं तो वह मुहँ दबा कर हँस पड़ती। साथ की लड़कियाँ साथ देतीं। लड़कों को फिर से मज़ाक करने का मौका मिल जाता।

घर में दादाजी, पिताजी, बड़े काका मोहनजी, और छोटे काका बाबू मर्द थे। दादाजी गाँव से अपने साथ पड़ौसी बनिए के लड़के को पढ़ने के लिए साथ ले आए थे जो उनके साथ मन्दिर में ही रहता था। वह उम्र में मुझ से तीन-चार साल बड़ा था। उसकी रोआँली बालों में  परिवर्तित हो चुकी थी।  नाई ने उसे तराश कर बाकायदे मूँछों का आकार दे दिया  था। दो महीने में जब वो कटिंग कराने जाता तो नाई से मूँछे तराशवा कर आता। नाई मुझे भी  2-3 दफा   कह चुका था कि मेरे भी अब मूँछे आकार लेने लगी हैं। चार-छह महीने बाद इन्हें तराशना पड़ेगा।

दादाजी हमारे पारिवारिक नाई को हर इतवार दोपहर साढ़े बारह बजे  बुलाते थे। वे बड़े मंन्दिर के पुजारी थे। दोपहर 12 बजे मन्दिर बन्द होने के बाद ही उन्हें समय मिलता। इतवार को वे मन्दिर के काम से निपट कर नाई के पास हजामत कराने बैठ जाते। नाई  साथ लाए काले पत्थर पर उस्तरा तैयार करता और  हजामत शुरू कर देता। पहले सिर के सारे बाल उतारता, बाद में दाढ़ी-मूँछ भी उस्तरे से साफ कर देता। नाई के जाने के बाद वे दोबारा स्नान कर के  भोजन करते। थोड़ी देर आराम करने पर तीन बज जाते और उन की मन्दिर की ड्यूटी  शुरू हो जाती। उनके सिर, दाढ़ी और मूँछ के बाल नौरात्रों के अलावा कभी 1-2  सूत से अधिक नहीं बढ़े। उन दिनों सब जवान  लोग सिर पर अच्छे-खासे बाल रखने लगे थे। लेकिन दादाजी को लंबे बाल अच्छे नहीं लगते। वे अक्सर हमारे नाई को हिदायत देते रहते कि कटिंग करो तब बाल छोटे जरूर कर दिया करो। जब कि कटिंग कराने जाने पर हम नाई से कहते केवल दिखावे के लिए छोटे करना, बस सैटिंग कर देना। कटिंग के बाद दादाजी को बाल छोटे हुए दिखाई नहीं देते तो वे डाँट देते।

पिताजी एक दिन छोड़ कर एक दिन खुद शेव बनाते थे वे दाढ़ी पूरी तरह साफ कर देते थे। लेकिन मूँछों के बाल छोटी कैंची से इस तरह छाँटते थे कि बालों के सिर मात्र चमड़ी से बाहर दिखाई देते रहें। उन्हेँ मूँछ कहना उचित नहीं था। बड़े काका मोहनजी ने भी पिताजी वाली ही पद्धति अपना रखी थी। अलबत्ता छोटे काका बाबू को मूंछ रखने का शौक था। वे खुद दाढ़ी नहीं बनाते थे, सप्ताह में एक बार नाई से बनवाते। तभी मूँछों को तराशवा आते।

जब से स्कूल में लड़के मेरा मजाक बनाने लगे थे। तब से मैं सोचता था कि ये होठों पर उग आई मूँछों का क्या किया जाए। धीरे-धीरे दाढ़ी पर भी बाल नजर आने लगे। यह एक नई समस्या थी। घर में बहुत सारे भगवानों के चित्र थे। उन में से किसी के भी दाढ़ी मूँछ नहीं थीं। आखिर एक दिन मैं ने फैसला ले लिया कि दाढ़ी मूँछ साफ कर ली जाए। उस दिन सब लोग कहीं बाहर गए हुए थे। घर पर मैं अकेला था। बस उस दिन मैने पिताजी का शेव वाला डब्बा उठाया और रेजर से दाढ़ी और मूँछ साफ कर डाली।

अगले दिन स्कूल में एक नए तरह का मजाक बना। कुछ दिन बनता रहा। अब हर पन्द्रह दिन में दाढ़ी मूँछ बनाने का सिलसिला आरंभ हो गया था। फिर सप्ताह में एक बार, उसके बाद दो बार। तीन साल ऐसे ही निकल गए। आखिर तीन दिन की दाढ़ी-मूँछ भी बुरी लगने लगी। मैं सप्ताह में तीन दिन बनाने लगा। शादी के बाद तो जब कभी दाढ़ी बनाए तीन दिन हो जाते तो    उत्तमार्ध टोकना शुरू कर देती। क्या ब्लेड खत्म हो गयी है या शेविंग क्रीम। मैं पलट कर पूछता तो जवाब देती कि बस दाढ़ी नहीं बनी इसलिए पूछा। जल्दी ही मुझे पता लग गया था कि उसे दाढ़ी का बढ़े रहना पसंद नहीं। जब तक जिला मुख्यालय आ कर वकालत शुरू नहीं की तब तक उत्तमार्ध का मेरे साथ रहना कैजुअल सा था। साल में आधे दिन वह मायके में रहती। जिला मुख्यालय आ जाने के बाद तो निरन्तर साथ हो गया था। अब प्रतिदिन शेव करना शुरू हो गया जो आज तक चला आ रहा है।

आज सुबह  ब्लागर  मित्र विवेक रस्तोगी जी ने सुझाया कि अब 21 दिन घर ही रहना है तो दाढ़ी बढ़ा कर देख लिया जाए कि शक्ल कैसी लगती है। एक बार तो मुझे भी लगा कि बात ठीक है। इस होली पर ब्लागर मित्र राजीव तनेजा ने दाढ़ी वाला मीम बनाया था। उसमें दाढ़ी में अपना चेहरा देख चुका था। इस कारण खुद को दाढ़ी में देखने का कोई  चार्म नहीं रहा था। फिर याद आया, कोरोना महामारी के चलते इस वक्त हर कोई कह रहा है कि हाथ से मुहँ, नाक, कान और आँखें न छुएँ।  दाढ़ी बढ़ाई  तो बार बार हाथ वहीं जाएगा, रोका न जाएगा। मुहँ, नाक, कान और आँखे  भी नजदीक ही हैं।  वैसे भी दो महीने से कोरोना वायरस के इलस्ट्रेशन देख रहा हूँ। उन पर भी बढ़ी हुई दाढ़ी-मूँछ के बालों जैसे बाल होते हैं। आखिर उत्तमार्ध से कहा कि मन कर रहा है कि 21 दिन दाढ़ी न बनाई जाए। तो कहने लगीं कि क्या शेविंग क्रीम खत्म हो गया है? मैं समझ गया कि उधर भी अच्छा नहीं लगेगा। मैं फौरन उठा और जा कर बिलकुल रोज की तरह क्लीन शेव बनाई और घुस गया बाथरूम में।

अब अपना तो कहना है कि जब तक कोरोना है, जिन लोगों ने दाढ़ी-मूँछ रख रखी हैं, उन्हें भी क्लीन-शेव हो जाना चाहिए, रोज दाढ़ी बनानी चाहिए। जी, बिलकुल मोदी जी को भी और शाह जी को भी।

रविवार, 22 मार्च 2020

महापुरुष


एक तरह के लोग सोचते हैं-
कोई है जिसने दुनिया बनाई
फिर दुनिया चलाई
वही है जो दुनिया चला रहा है
वे उसे ईश्वर कहते हैं।

दूसरी तरह के लोग सोचते हैं-
ऐसा कोई नहीं जो दुनिया बनाए और उसे चलाए
दुनिया तो खुद-ब-खुद है
हमेशा से और हमेशा के लिए
वह चलती भी खुद-ब-खुद है
उसके अपने नियम हैं जिनसे वह चलती है
ये लोग जो सोचते हैं
उसे कहते भी हैं और जीते भी हैं।

कुछ तीसरी तरह के लोग हैं
जो सोचते हैं कि कभी कोई ईश्वर रहा होगा
जिसने दुनिया बनाई और चलाई
पर वो कभी का मर चुका है
जीवन ने कीड़े से लेकर वानर तक
और वानर से लेकर पुरुष तक की यात्रा
खुद ही तय की है

वानर के लिए कीड़े का कोई महत्व नहीं
पुरुष के लिए वानर का कोई महत्व नहीं
पुरुष को महापुरुष बनना है
महापुरुष के लिए पुरुषों का कोई महत्व नहीं
वे एक दिन महापुरुष बनेंगे
वे महापुरुष बन रहे हैं
वे महापुरुष बन चुके हैं।

बन चुके महापुरुष सोचते हैं कि मेरे सामने
किसी पुरुष का कोई महत्व नहीं
वे सोचते हैं और अपने इस विचार को जीते भी हैं
लेकिन वे इसे कहते नहीं

वे लोगों को कहते हैं-
ईश्वर कभी नहीं मरता
वह कभी नहीं दिखता
वह कहीँ नहीं आता जाता

मैं उसका पुत्र हूँ
मैं उसका दूत हूँ
मैं उसका अवतार हूँ
तुम मेरे सामने झुको
तुम्हें मेरे सामने झुकना होगा
तुम्हें मेरे सामने झुका दिया जाएगा

ये जो तीसरा व्यक्ति है
खुद-ब-खुद बना हुआ महापुरुष
दुनिया की सबसे खतरनाक चीज है।
कोटा, 22.03.2020
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शनिवार, 9 दिसंबर 2017

शट-अप


एक सच्ची सी 'लघुकथा'

मारे मुहल्ले की एक औरत बहुत लड़ाकू और गुस्सैल थी। अक्सर घर में सब से लड़ती रहती। सास, पति, ननद, देवर, बेटे, बेटी कोई भी उस की लड़ाई से महरूम नहीं था। अब इस आदत की औरत पड़ौसियों से कैसा व्यवहार करताी होगी इस का अनुमान तो आप लगा सकते हैं। उस के दोनों पड़ौसियों से रिश्ते सिर्फ और सिर्फ लड़ाई के थे। हमारा घर उस के घर से दो घर छोड़ कर था। इस कारण इस लड़ाई की मेहरबानी से हम बचे हुए थे। कभी राह में मिलती तो मैें तो भाभीजी प्रणाम कर के खिसक लेता। कभी कभी मेरी उत्तमार्ध शोभा को मिल जाती तो बातें करती। एक बार उसे लगा कि शोभा ने किसी से उस की बुराई कर दी है। तो वह तुरन्त लड़ने हमारे घर पहुँच गयी।

ये वो वक्त था जब मैं अदालत गया हुआ था और शोभा घर पर थी। वह आई और गेट पर हमारी घंटी बजा दी। जैसे ही शोभा ड्राइंग रूम से बाहर पोर्च में आयी उस ने अपना गालियों का खजाना उस पर उड़ेल दिया। शोभा को न तो गाली देना आता है और न ही लड़ना। वह यह हमला देख कर स्तब्ध रह गयी। उसे कुछ भी न सूझ पड़ा कि वह इस मुसीबत का सामना कैसे करे। गालियां सुन कर गुस्सा तो आना ही था गुस्से में उस ने अपने दाहिने हाथ की तर्जनी पड़ोसन को दिखाई और जोर से बोली शट-अप।

पड़ोसन शट-अप सुन कर हक्की बक्की रह गयी। शोभा से उसे ऐसी आशा न थी। वह तुरन्त मुड़ी और सड़क पर जा कर चिल्लाने लगी। मुझे फलाँनी ने शट-अप कह दिया, वह ऐसा कैसे कह सकती है? ऐसा उसे आज तक किसी ने नहीं कहा। वह बहुत बदतमीज है। उस की इस तरह चिल्लाने की आवाज सुन कर मोहल्ले की औरतें बाहर आ कर पड़ोसन को देखने लगी। सारा वाकया समझ कर सब हँसने लगी। यहाँ तक कि जब बाद में उस के परिजनों को पता लगा तो उन का भी हँसने का खूब मन हुआ। पर लड़ाई के डर से हंसी को पेट में ही दबा गए। आखिर उस लड़ोकनी पड़ोसन को किसी ने शट-अप तो कहा।

मुझे शाम को यह खबर शोभा ने सुनाई तो मुझे भी खूब हँसी आई। इस घठना ने मेरी ही नहीं बल्कि उस मुह्ल्ले के लगभग सभी लोगों की स्मृति में स्थायी स्थान बना लिया है।

  • दिनेशराय द्विवेदी

मंगलवार, 5 दिसंबर 2017

किस का कसूर

कविता

किस का कसूर 

दिनेशराय द्विवेदी 

जब कोई अस्पताल
मरीज के मर जाने पर भी
चार दिनों तक वेंटिलेटर लगाकर
लाखों रुपए वसूल लेता है
तब किसी डॉक्टर का कोई कसूर नहीं होता।


कसूर होता है अस्पताल का
जिसमें कारपोरेट प्रबंधन होता है
बैंकों से उधार ली गई वित्तीय पूंजी लगी होती है,और
न्यूनतम संभव वेतन पर टेक्नीशियन काम कर रहे होते हैं

वित्तीय पूंजी का स्वभाव यही है
वह अपने लिए इंसानों का खून मांगती है
खून पीती है और दिन-रात बढ़ती है
सारा कसूर इसी वित्तीय पूंजी का है

क्या है यह वित्तीय पूंजी?
जो रुपया हम जैसे छोटे छोटे लोगों ने
अपनी मासिक तनख्वाह से
हाड़तोड़ मेहनत की कमाई से
पेट काटकर बचाया, और
बुरे वक्त के लिए बैंकों में जमा कराया
वहीं वित्तीय पूंजी है

वही रुपया बैंकों ने कंपनियों को
उद्योगों और अस्पतालों को ऋण दिया
और वही ऋणीअब हमारे लिए
बुरा वक्त पैदा कर रहे हैं

इन बैंकों पर सरकारों का नियन्त्रण है
सरकारों पर पूंजीपतियों का
इसलिए किसी डॉक्टर का कसूर नहीं है
अब आप जानते हैं कसूर किसका है?
04.12.2017

सोमवार, 19 दिसंबर 2016

वे देेर तक हाथ हिलाते रहे


___________________ लघुकथा




हिन को शाम को जाना था। छुट्टी का दिन था। वह स्टेशन तक छोड़ने जाने वाला था।

तभी कंपनी से कॉल आ गई। नए लांचिंग में कुछ प्रोब्लम है। फोन पर सोल्व नहीं हो सकी। कंपनी जाना पड़ा। बहिन को मकान मालिक को किराया नकद में देना है, पर नोटबंदी के युग में नकदी इत्ती तो नहीं। बहिन ने सिर्फ जिक्र किया था। यह भी कहा था कि वह खुद जा कर लेगी। भाई ने सोचा कहाँ परेशान होती रहेगी। उसने इधर उधर से थोड़ा इन्तजाम किया।

बहिन के घर से निकलने का समय हो गया। वह निकल ली। भाई ने देखा वह कोशिश करे तो बहिन के पास स्टेशन तक पहुँच सकता है। कैब बुक की और उसे तेजी से चलाने को कहा।

ट्रेन छूटने के ठीक कुछ सैकंड पहले वह प्लेटफार्म पर पहुँच गया। बहिन उसी की राह देख रही थी। भाई को देखते ही उस की आँखें चमक उठीं। भाई ने कुछ भी कहने के पहले जेब से नोट निकाले और बहिन को थमाए।

-तो तू इस लिए लेट हो गया? मैं ने तो पहले ही कहा था। मैं कर लूंगी।
-नहीं लेट तो मैं इसलिए हुआ कि कंपनी का काम देर से निपटा। वर्ना नोट तो मैं ने पहले ही कबाड़ लिए थे।

तभी ट्रेन चल दी। बहिन कोच के दरवाजे में खड़ी हाथ हिलाने लगी, और भाई प्लेटफार्म पर खड़े खड़े। दोनों के बीच दूरी बढ़ती रही। दोनों एक दूसरे की आंखों से ओझल हो गए। फिर भी दोनों देर तक हाथ हिलाते रहे।

रविवार, 11 दिसंबर 2016

अब तो मैं यहीं निपट लिया

'लघुकथा'

        बस स्टैंड से बस रवाना हुई तब 55 सीटर बस में कुल 15 सवारियाँ थीं। रात हो चुकी थी। शहर से बाहर निकलने के पहले शहर के आखिरी कोने पर रोडवेज की एक बुकिंग विण्डो थी। वहाँ कुछ सैकण्ड्स के लिए बस रुकी बुकिंग विण्डो बन्द थी। कण्डक्टर कम ड्राइवर ने  सीट से उतर कर देखा। वहाँ से 2 सवारियाँ और चढ़ीं। कुल मिला कर बस में 17 सवारियाँ हो गयीं। अब बस में कैपेसिटी की लगभग 31% सवारियाँ थीं। ड्राइवर जो कण्डक्टर भी था वापस अपनी सीट पर आ बैठा। बस में बैठी एक सवारी ने खड़े हो कर ड्राइवर को आवाज लगाई और हाथ खड़ा कर के अपनी कनिष्ठिका दिखाई। ड्राइवर समझ गया कि उसे पेशाब करना है। तब तक ड्राइवर गियर लगा कर एक्सीलेटर दबा चुका था। उस ने ड्राइविंग सीट से ही चिल्ला कर कहा। बस थोड़ी देर में आगे बस रुकेगी तब कर लेना।

बस कोई आठ--8-10 किलोमीटर आगे आई तो फिर उसी सवारी ने खड़े हो कर पूछा -ड्राईवर साहब! बस कब रुकेगी?
- बस थोड़ी देर में रुकेगी।

5 किलोमीटर बाद फिर वह सवारी उठ खड़ी हुई उस ने फिर ड्राईवर से पूछा -ड्राईवर साहब! बस कितनी देर बाद रुकेगी?
ड्राईवर ने फिर अपनी सीट से चिल्ला कर कहा बस थोड़ी देर में रोकेंगे। 

बस जब 20वें किलोमीटर पर पहुँची तो फिर वह सवारी उठ खड़ी हुई और जोर से कहा -ड्राईवर साहब! कित्ती देर और लगेगी?
ड्राईवर साहब ने जोर से कहा -बस दो किलोमीटर और। 

22वें किलोमीटर पर कस्बे का बस स्टेैंड था। ड्राईवर ने बस रोकी और उतर कर बुकिंग विण्डो की और जाते हुए चिल्ला कर कहा जिस को पानी पेशाब करना हो कर ले। आगे बस कोटा जा कर रुकेगी। ड्राईवर बुकिंग विण्डो पर बस बुक कराने चला गया। वह सवारी अपनी सीट से नहीं उठी तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मैं ने पीछे मुड़ कर उसे कहा -तुम्हें पेशाब करना था, कर आओ। ड्राईवर कह कर गया है कि आगे न रोकेगा।

-अब तो मैं यहीं निपट लिया। बाराँ से बीयर की बोतल पी कर चला था। जोर की लगी थी, नहीं रुकी तो क्या करता। सवारियाँ जिन ने सुना वे सब हँस पड़े। एक ने कहा वहीं कह दिया होता तो हम ही ड्राइवर से बस रुकवा देते। कुछ सवारियाँ जो उस सवारी के ठीक अगली सीट पर बैठी थीं। उन्हों ने सीट बदल ली। कोटा आने पर सब सवारियाँ बस से उतर गईं। उस सवारी को नीन्द लग गयी थी उसे जगा कर उतारना पड़ा।

रविवार, 4 दिसंबर 2016

वर्ना सुखा दूंगा

ˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍ एक लघुकथा
रामचन्दर कई दिन से कमान पर तीर चढ़ा कर समन्दर को ललकार रहा था।
-देख! सीधाई से रस्ता दे दे वर्ना सुखा दूंगा।

समन्दर था कि उस पर कोई असर ही नहीं हो रहा था। वह तो पहले की तरह लहर लहर लहरा रहा था। न तो उसे रामचन्दर दिखाई दे रहा था, न उस के साथ के लोग। रामचन्दर की आवाज तो लहरों की आवाज में दबी जा रही थी।

अचानक कहीं से बाबा तुलसी आ निकला। रामचन्दर के कानों में गाने की आवाज पहुँची........
-विनय न मानत जलधि जड़ गए कई दिन बीत ......

रामचन्दर के हाथों से तीर छूट गया। समन्दर का पानी सूखने लगा। हा हाकार मच गया। समंदर के जीवजंतु मरने लगे। कुछ ही घंटों में समंदर की तलहटी दिखाई देने लगी। ऐसी ऊबड़ खाबड़ और नुकीले पत्थर, बीच बीच के गड्ढों में बदबू मारता कीचड़। इंसान और बन्दर तो क्या उड़ने वाले पंछी भी अपने पैर वहाँ न जमा सकें।

रामचन्दर माथा पकड़ वहीं चट्टान पर बैठ गया।

लंका का रस्ता भी न मिला, लाखों की हत्या और गले बंध गई।


  • दिनेशराय द्विवेदी

बुधवार, 23 नवंबर 2016

ये नौ



महेन्द्र नेह

भाई “महेन्द्र नेह” को ...

उपहार समझ लें


उन के 69वें जन्मदिन पर ...


1.

तुम्हारा पैसा दे दें तुम्हें

तो पूंजीपति को क्या दें?

आखिर बैंक और हम

उसी ने बनाए हैं

2.

वे हैं

जब तक

साजिशों का जाल है।

मौत के ऐलान के बाद

भी जिन्दा बचे हैं

यही तो उन का कमाल है।

3.

भूत कैसे मरे?

मर कर ही तो बनता है।

इसलिए वह उसे

2000 की बोतल में बंद करता है।

4.

बहुत जरूरत है

एक हिटलर एक मुसोलिनी बनाएँ।

न बने, तो

खुद को बनाएँ।

5.

उसके लक्षण ढूंढें

चरक, सुश्रुत, माधव

या हनिमेन की किताब में।

किसी रोग का सूत्र न मिले

लाक्षणिक चिकित्सा करें।

6.

आज कल वह हँसता नहीं

बस बात बात पर रो देता है।

परेशान है

अक्सर आपा खो देता है।

7.

मैं ने नया गेजेट बनाया

इस में गेम है

गेम में सवाल हैं

सवालों के लिए कुछ बटन हैं

हर सवाल पर कोई बटन दबाओ

फिर मैं फैसला करूंगा

मैं जीता कि मैं हारा

कौन उल्लू का पट्ठा

खुद हारना चाहता है?

8.

ताजमहल

एक दुनियावी आश्चर्य

अपने अन्दर समेटे कब्र को

मंदिर

अपने अंदर समेटे एक मूरत

पार्लियामेंट,

न मंदिर न ताजमहल

इस की सीढ़ी चूमो

एप घिसो

इंसान को उल्लू बनाने के

साधन कम नहीं।

9.

असल बात जे है

के हम जिस की भौत इज्जत करैं

उसके पाँव छुएँ हैं

और खसक लेवैं हैं।

और हम

पार्लियामिंट की तो

भौत से भी भौत

इज्जत करैं हैं।


सोमवार, 21 नवंबर 2016

सिकुड़न

कविता



____________ दिनेशराय द्विवेदी





अहा!
वह सिकुड़ने लगा

लोग उसे आश्चर्य से देख रहे हैं
वे भी जो अब तक
उसे सिर पर उठाए हुए थे

कुछ लोग तलाश रहे हैं
कहाँ से पंक्चर हुआ है
वे पकड़ कर
उसे तालाब के पानी में
डूबोना चाहते हैं
देख सकें कि हवा
निकल कहाँ से रही है

वह तालाब में घुस ही नहीं रहा है
सारे लोगों की ताकत कम पड़ गई है
बस सिकुड़ता जा रहा है

उन्हों ने उसे तालाब मे घुसेड़ने
की कोशिश छोड़ दी है

आखिर सिकुड़ते सिकुड़ते एक दिन
हो ही जाएगा पिचका हुआ गुब्बारा
तब बच्चे फुलाएंगे उस की छोटी छोटी चिकोटियाँ
और फिर
मुक्का मार कर फोड़ देंगे

अहा!
वह सिकुड़ने लगा है।

रविवार, 27 दिसंबर 2015

सोए रहो निरन्तर

सोए रहो निरन्तर 




अब ये बात कोई छिपी तो नहीं
न छिप सकती थी और न हम ने छिपाया
हमें किसी ने नहीं, उद्योगपतियों ने बनाया
उन्हों ने पूंजी निवेश किया, जैसा अक्सर वे करते हैं
मुनाफा बटोरने के लिए, अपनी पूंजी को बढ़ाने के लिए
उन्हों ने भरपूर पूंजी लगायी और हम बन गए
कहाँ से कहाँ पहुँच गए। 


अब हम दुनिया घूम रहे हैं
लोगों को लगता है, हम मौज कर रहे हैं
पर हम कहाँ मौज कर रहे हैं?
हम ड्यूटी कर रहे हैं
जो पूंजी लगाई थी उन्होंने वह लौटनी चाहिए उन के पास
इस उद्योग में पूंजी लगाना
कतई नहीं होना चाहिए घाटे का सौदा।


अपनी पूंजी को बहुगुणित करने को
वे ही दौड़ाते है मुझे और मैं दौड़ता हूँ
सुदूर पूरब के उस छोर से सुदूर पश्चिम के उस छोर तक
वे साधन जुटाते हैं, जहाँ जाता हूँ
मेरी जय-जयकार के लिए लोग जुटाते हैं
जब लोग मेंरी जय-जयकार कर रहे होते हैं
तब पूंजी के सवार कर रहे होते हैं सौदेबाजी।


ऐसा नहीं है सिर्फ पूंजी का खयाल है मुझे
तुम्हारा भी रखता हूँ
जब जब मैं होता हूँ देश में जाता हूँ गंगाघाट
उतारता हूँ आरतियाँ, यही नहीं
दूर देश के प्रधानों से भी उतरवा देता हूँ
क्या ये कम है तुम्हारे लिए
तुम्हारी संस्कृति का झण्डा
फहराता है गंगा किनारे
सारी दुनिया देखती है उसे।


अब की बार वे ले गए मुझे सूदूर उत्तर तक
मैं ने देखा वहाँ, आप ने भी देखा ही होगा टीवी पर
एक भूरी रूसी बाला बजाती थी तानपूरा
दूसरी गाती थी वैदिकगान, औउम् गं गणपतये नमः
क्या यह कम है तुम्हारे लिए?
तुम्हारी संस्कृति को ओढ़ रही है,
बिछा रही है सारी दुनिया।


वापस लौटते हुए रुका कैकय में कुछ देर
मुझे पता है वहीँ से आए थे मंथरा और शकुनि
देख कर आया हूँ वहाँ के आज के हाल
फिर रुका कुछ देर इरावती के किनारे
गले मिला बिछड़े हुए भाई से, माँ के पैर छू लिए
माँ, भाई और सभी बन्धु हो लिए गद-गद
इतना समय बहुत था, लोहे वाला अपना सौदा पटा ले
लगता है न देखो सपने सा!

तुम तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे।

मैं न कहता था सब सपने पूरे करूंगा
तो दिखा रहा हूँ सपनों पर सपने
सपने कभी पूरे नहीं होते जागते में
अच्छा सपना देखते हुए बीच में टूट जाए निद्रा
तो जबरन सोना पड़ता है फिर से
ये जो जगाने वाले हैं सब शत्रु हैं तुम्हारे
इन्हें दूर करो खुद से, ये तोड़ देते हें तुम्हारे सपने।


देखो उधर, वहाँ माधव कुछ कह रहा है
सपना चलेगा अखंड भारत होने तक
यह सुखद सपना लंबा है,
यह पूरा हो, इस के लिए जरूरी है
एक लंबे समय की गहरी निद्रा
इस के लिए सोए रहो निरन्तर
कसम उठाओ गंगा की कि नहीं जागोगे बीच में
दरवाजे पर कुण्डी घालो और सो जाओ
प्रवेश न कर सके कोई घर के भीतर जगाने वाला।


-दिनेशराय द्विवेदी

शनिवार, 5 सितंबर 2015

डरे न कोई जमना तट पर

सहसमुखी विषधर जब कोई
जमना जल पर काबिज हो ले
उधर पड़े ना पाँव किसी का
जमना तट वीराना हो ले

बच्चे खेलें जा कर तट पर
भय न उन को कोई सताए
खेल खेल में उछले गेंद
सीधी जमना जल में जाए

तब बालक कोई जा कूदे
जमना में हलचल मच जाए
लगे झपटने विषधर उस पर
नटखट बालक हाथ न आए

गाँव गाँव के सब नर नारी
डरें सभी अरु काँपें थर थर
भाग भाग कर होएँ इकट्ठा
पड़े साँप भारी बालक पर

बालक चपल साँप से ज्यादा
चढ़ बैठे विषधर के फण पर
नाच नाच कुचले फण सारे
लगे उसे बस एक घड़ी भर

विवश विषधर सरपट भागे
पीछा छोड़े जमना जल का
हो जाएँ निर्भय तटवासी
जल निर्मल हो फिर जमना का

जब भी अहम् कुण्डली मारे
फुफकारे जब कोई विषधर
डरे न कोई जमना तट पर
चपल हैं बालक इस धरा पर
  •  दिनेशराय द्विवेदी

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

भण्डारा

'लघुकथा'


भिखारियों को भोजन के लिए बाजार वालों ने भण्डारा किया। बाजार को कनातें लगा कर बन्द कर दिया गया था। सड़क को नगर निगम से टैंकर मंगवा कर धुलवाया गया। जब वह सूख ली तो उस पर टाट पट्टियाँ बिछाई गयीं। भोजन के लिए आए भिखारी यह सब कार्रवाई बाजार के कोने में भीड़ लगाए टुकुर टुकुर देखते रहे। जब हलवाई ने बताया कि इतना भोजन तैयार है कि भिखारियों को भोजन के लिए बिठाया जा सकता है। भिखारी आए और टाटपट्टियों पर बैठ गए। उन में से एक-दो ही थे जिन्हों ने पालथी मारी हो। अधिकांश उकड़ूँ बैठे थे। उन्हें देख कर एक हाथियाए व्यापारी ने कहा, 'बेकार ही टाट पट्टियाँ मंगाईं, ये तो सब उकड़ूँ बैठगए'।

मोटे पेट वाले एक व्यापारी ने उन्हें पत्तलें परोसीं, दूसरे पूरी, सब्जी, नुक्ती और सेव परसने लगे। ये वही थे जो और दिनों भिखारियों के कुछ मांगने पर एक सैंकड़ा गाली देकर भगा दिया करते थे। कभी कभी किसी जिद्दी भिखारी के सामने तो डंडे का उपयोग भी कर लेते थे। भिखारीगण भोजन करने लगे। एक पंगत उठती तो दूसरी बैठ जाती। भिखारी आते जा रहे थे उन का कोई वारापार न था।

दोपहर बाद एक अच्छे कपडे पहने नौजवान आया और भिखारियों की पंक्ति में बैठ गया। परोसने वाले चौंके ये भिखारियों के बीच कौन आ गया। व्यापारियों में खुसुर फुसुर होने लगी। तभी एक नौजवान व्यापारी ने उसे पहचान लिया। वह तो नगर के सब से ज्यादा चलने वाले महंगे ग़ज़ब रेस्टोरेंट के मालिक का बेटा था। व्यापारियों ने कुछ तय किया और तीन चार उस के नजदीक गए। बोले -तुम तो ग़ज़ब के मालिक के बेटे हो न? तुम्हें यहाँ भिखारियों के साथ खाने को बैठने की क्या जरूरत?


मुझे बाप के रेस्टोरेंट का खाना पसंद नहीं। रेस्टोरेंट का धन्धा भी कोई धन्धा है। बहुत परेशानियाँ हैं। मैने बाप से कहा तो उस ने घर से निकाल दिया। अब भिखारी जैसा ही हूँ, इस लिए भंडारे के भोजन का अधिकारी भी।

व्यापारियों ने विचार किया कि बाप ने नाराज हो कर घर से निकाला है हम ने भंडारे में खाने दिया तो इस का बाप नाराज हो जाएगा, दूसरे भिखारियों को भी ये पसन्द न आएगा। उन्हों ने उसे उठा दिया।

उसे गुस्सा आ गया। गुस्से में भर कर उस ने मुट्ठियाँ तानीं और भाषण देने लगा -तुम ने मेरा अपमान किया है। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे यहाँ से उठाने की। मेरे दोस्तों और फॉलोवरों की कमी नहीं है।अभी सब को साथ ले कर आता हूँ। देखता हूँ कैसे करते हो भंडारा। यह कहते हुए वह वहाँ से चला गया। व्यापारी भंडारा करते रहे।

आधे घंटे बाद हाथों मेे हॉकियाँ और बेसबॉल के डंडे लिए बाइकों पर 20-30 नौजवान आए। भंडारे की भट्टियाँ बुझा दीं। तेल के कड़ाह और भोजन भरे बरतन उलट दिए। जिस ने रोका उस का सिर फोड़ दिया। कुल तीन मिनट लगे। वे सब कुछ तहस नहस कर के दफा हो गए। पूरे बाजार में हाहाकार मच गया।

यह पिछले साल की बात थी। इस साल फिर भंडारे का दिन नजदीक आ रहा है। व्यापारी सोच रहे हैं कि भंडारा करें कि नहीं?

शनिवार, 11 जुलाई 2015

'घड़ीसाज'



'लघुकथा'

'घड़ीसाज'

- दिनेशराय द्विवेदी


- कुछ सुना तुमने?
- क्या?
- अरे! तुमने रेडियो नहीं सुना? टीवी नहीं देखा?
- देखा है, सब देखा है। उस में तो न जने क्या क्या होता है। मुझे कैसे पता कि तुम किस के लिए बोल रहे हो?
- मैं वो बड़े साहब की बात कर रहा था।
- कौन बड़े साहब?
- अरे? वही शेरखान साहब!
- अच्छा, अच्छा!
- अच्छा अच्छा क्या? वही अपने सरकस के नए मनीजर साहब!
- हाँ हाँ वही न? जो बात बात में जो बात बात में राष्ट्र बनाने की बात करते हैं?
- हाँ, वही। अब समझे तुम! उन ने बोला है कि राष्ट्र बनाना है।
- क्या मतलब? क्या राष्ट्र अभी तक बना हुआ नहीं था?
- नहीं नहीं, उन का ये मतलब नहीं था। राष्ट्र तो बना हुआ है। पर जरा बिगड़ा हुआ है न! उसे फिर से बनाना है। जैसे घड़ी चलते चलते आगे या पीछे चलने लगती है तो उसे घड़ीसाज के पास ले जाना पड़ता है, वह बना देता है।
- अच्छा तो बड़े साहब घड़ीसाज भी हैं?
- तुम्हें कितना ही समझाओ। तुम रहोगे चुगद के चुगद ही। राष्ट्र कोई घड़ी थोड़े ही है जिसे बनाने के लिए घड़ीसाज की जरूरत होगी।
- हाँ, वो भी सही है। आज कल घड़ी कौन बनवाता है। थोड़ी भी इधर उधऱ होने लगी कि फेंक दी और नयी ले आए। वैसे भी यूज एण्ड थ्रो का जमाना है। यार! तुम्हारे साहब इस खराब राष्ट्र को फेंक क्यों नहीं देते। नया खरीद लें। बिलकुल कंपनी की गारण्टी वारण्टी वाला। सारा खेल खतम।
- तुम नहीं सुधरोगे! समझना ही नहीं चाहते तो वैसे कह दो।
- नहीं नहीं? ऐसी कोई बात नहीं। मैं समझना चाहता हूँ। पर उदाहरण से समझें तो अच्छा समझ आता है।
- ठीक है, ठीक है। उदाहरण ही सही। पर उदाहरण तो सही दिया करो। अब ये घड़ी और घड़ीसाज का उदाहरण सही नहीं है। कोई और अच्छा सा होना चाहिए था। चल! छोड़। हम भी कहाँ उलझ गए। ..... तो मैं बता रहा था कि साहब ने सब को संदेश दिया है।
- क्या?
- कि गैस सब्सिडी छोड़ दो, राष्ट्र बनाना है।
- गैस सब्सिडी?
- वही पैसा न जो सिलेंडर का पैसा देने के बाद अब खाते में आ जाता है, उस के लिए लिख दो कि वो हमें नहीं चाहिए।
- ओह! तो साहब को पैसा चाहिए?
- क्यों नहीं चाहेगा पैसा? साहब राष्ट्र जो बनाएंगे।
- तब तो मेरा उदाहरण बिलकुल सही था। घड़ीसाज भी तो घड़ी बनाने का पैसा लेता है।

शनिवार, 13 जून 2015

फर्जी डिग्री

'लघुकथा'
रामदास सरकारी टीचर हो गया। वह स्कूल में मुझ से चार साल पीछे था। एक साधारण विद्यार्थी जो हमेशा पास होने के लिए जूझता रहता था।  मैं स्कूल से कालेज में चला गया। फिर पता लगा कि वह दसवीं क्लास में दो बार फेल हो जाने पर पढ़ने मध्यप्रदेश चला गया। कुछ साल बाद जानकारी मिली कि उस ने वहाँ से न केवल हायर सैकण्डरी बल्कि बीए भी कर लिया और बीएड भी। कुछ दिन उस ने निजी स्कूलों में भी पढाया।

सरकारी नौकरी मिलने पर उस की पहली पोस्टिंग किसी गाँव के स्कूल में हुई थी। वह एक जीप से रोज शहर से गाँव जाता। इसी जीप से बहुत टीचर और टीचरनियाँ रोज शहर से गाँवों के स्कूल जाया करते थे। एक टीचरनी से उस की दोस्ती हो गयी। दोस्ती भी ऐसी कि धीरे धीरे प्यार में बदल गयी। दोनों ने शादी कर ली। 

शादी हो जाने के बाद दोनों ने कोशिश कर के अपनी पोस्टिंग जिला मुख्यालय पर करवा ली। दोनों कमाते और बचाते। फिर जिला मुख्यालय के शहर की ही एक बस्ती में प्लाट ले लिया। धीरे धीरे उस पर दो मंजिला मकान बना लिया। उन्हीं दिनों पडौस में कोचिंग इंस्टीट्यूट खुले तो पढ़ने वाले बच्चे कमरे ढूंढने लगे। रामदास ने बैंक से लोन ले कर दो मंजिलें और बना लीं और कमरे कोचिंग स्टूडेण्ट्स को किराए पर चढ़ा दिए। 

फिर एक दिन पता लगा कि रामदास की हायर सैकण्डरी का प्रमाण पत्र फर्जी निकला। उसे आरोप पत्र मिला और आखिर उसे नौोकरी से निकाल दिया गया। पर इस से रामदास के जीवन पर कोई बड़ा असर नहीं हुआ। रामदास की पत्नी अब भी सरकारी टीचर है। वह नौकरी पर जाती है। घर का सारा काम रामदास देख लेता है। खाना भी अक्सर दोनों वक्त का खुद ही बनाता है और बच्चों को भी संभाल लेता है। आमदनी की कोई कमी नहीं। जितना वेतन टीचर की नौकरी से मिलता था उस से दुगना तो वह मकान के किराए से कमा लेता है। रामदास सुखी है, उस की पत्नी अब भी खुश है। बेटा इंजिनियर हो गया है, बंगलौर में नौकरी कर रहा है। रामदास के पास बेटे के लिए खूब रिश्ते आ रहे हैं अच्छे खासे दहेज के प्रस्ताव के साथ।

रविवार, 7 जून 2015

भूत-कथा

भूत-कथा 

  • दिनेशराय द्विवेदी



रात बाथरूम में चप्पल के नीचे दब कर एक कसारी (झिंगूर) का अंत हो गया। चप्पल तो नहाने के क्रम में धुल गयी। लेकिन कसारी के अवशेष पदार्थ बाथरूम के फर्श पर चिपके रह गए।

अगली सुबह जब मैं बाथरूम गया तो देखा कसारी के अवशेष लगभग गायब थे। केवल अखाद्य टेंटेकल्स वहाँ कल रात की दुर्घटना का पता दे रहे थे। बचे हुए भोजन कणों का सफाया करने में कुछ चींटियाँ अब तक जुटी थीं।

अगली बार जब मेैं बाथरूम गया तो वह पूरी तरह साफ था। वहाँ न चींटियाँ थीं और न ही कसारी का कोई अवशेष। किसी ने स्नान के पहले उस के फर्श को जरूर धोया होगा।

कसारी एक जीवित पदार्थ थी, एक दुर्घटना ने उस के जीवन तंत्र को विघटित कर दिया, वह मृत पदार्थ रह गयी। चींटियों ने उसे अपना भोजन बनाया। मृत पदार्थ अनेक जीवनों को धारण करने का आधार बना। बाथरूम धुलने के समय कुछ चींटियाँ वहाँ रही होंगी तो पानी में बह गयी होंगी। जाने वे जीवित होंगी या फिर उन में से कुछ मृत पदार्थ में परिवर्तित हो कर और किसी जीवन का आधार बनी होंगी।

इस बीच काल्पनिक आत्मा और परमात्मा कहीं नहीं थे, अब इस कथा को पढ़ कर वे किसी के चित्त में मूर्त हो भी जाएँ तो उन सब का आधार यह भूत-कथा ही होगी।

शनिवार, 6 जून 2015

गऊ माँ!

 गऊ माँ


बहुत आसान है
गाय को माँ कहना
अगर आप गाय पालते नहीं हैं


आप गाय पालें
उस का दूध न निकालें
सारा का सारा उस के बछड़ों के लिए छोड़ दें


बछड़ों को बधिया न करें
न उन के कांधे पर हल लादें,न तेली की घाणी,
न रहँट, ना गन्ने का कोल्हू और न बैलगाड़ी खिंचवाएँ 


बछडों और बछिया को भाई बहन कहें
सांडों को बाप, दादा और चाचा, ताऊ मानें
पूरे परिवार को पालें और गाय को माता कहें


इस गौ परिवार में हो जाए कभी गमी
तो खूब स्यापा करें, ले जाएँ कांधों पर उठा कर श्मशान
वैदिक मंत्रों के साथ संस्कार करें


तीया करें, अस्थियों को ले जाएँ हरिद्वार
पंडित से करवाएँ पिण्डदान और फिर
लौट कर तेरहीं करें, ब्राह्मण भोज के साथ 


कौन है फिर
जो आप पर उंगली उठाए
आपत्ति करे कि गाय जानवर है, माँ नहीं

  • दिनेशराय द्विवेदी

बुधवार, 3 जुलाई 2013

धरती पिराती है

'कविता'


धरती के अंतर में
धधक रही ज्वाला के
धकियाने से निकले 

गूमड़ हैं,     पहाड़

मदहोश इंसानो! 

जरा हौले से 
चढ़ा करो इन पर
धरती पिराती है,

जब भी पक जाते हैं, गूमड़

तो फूट  पड़ते हैं।
  • दिनेशराय द्विवेदी

सोमवार, 3 सितंबर 2012

जन्मदिन कब मनाया जाए?

सब से पुराना चित्र
पृथ्वी (भू) से आकाश (ख) एक गेंद की तरह दिखाई देता है और लगता है कि धरती इस के मध्य बिंदु पर स्थित है।  अब आकाश का अध्ययन करना हो तो खगोल के हिस्से तो करने ही होंगे।   सूर्य हमें नित्य ही पूरब से पश्चिम की ओर यात्रा करता दिखाई देता है।  इस कारण जिस वृत्तीय रेखा पर हो कर वह यात्रा करता है उस रेखा पर हम ने खगोल को बारह भागों में बाँट रखा है।  वृत्त को हम ने 360 अंशों में विभाजित किया है। इस तरह बारह भागों मे बँटे इस खगोल का एक एक भाग 30-30 अंशों का है।  इन में से प्रत्येक भाग को उस भाग में सूर्य यात्रा के वृत्तीय मार्ग के निकट स्थित तारे जो आकृति बनाते हैं उन के नाम दे दिए हैं।  इन नामों को हम राशियों के नाम से जानते हैं।  प्रतिमाह सूर्य एक भाग से दूसरे में प्रवेश करता है, अर्थात एक राशि से दूसरी में जाता हुआ दिखाई देता है।  एक राशि से दूसरी में  सूर्य के इस प्रवेश करने को ही हम संक्रांति तथा एक के बाद एक दो संक्रांतियों के बीच के माह को हम सौर मास कहते हैं।  वर्ष में इस तरह बारह संक्रांतियाँ होती हैं।  एक सौर वर्ष 365.2564 दिनों का होता है। अब वर्ष किसी एक दिन से आरंभ हो कर किसी एक दिन समाप्त हो जाता है इस लिए उसे 365 दिन का मानते हैं। शेष लगभग चौथाई दिन इस गणना में नहीं आता इस कारण  हम हर चौथे वर्ष में एक दिन बढ़ा देते हैं और वह वर्ष 366 दिन का हो जाता है। इस बढ़े हुए दिन वाले वर्ष को हम लीप इयर कहते हैं। 

1968
माह की पहली अवधारणा पूरे चांद से पूरे चांद के या नवचंद्र से नवचंद्र के पहले वाले दिन तक के लिए हुई।  लेकिन चान्द्रमास तो 29.5306 दिन का ही होता है।  इस तरह के 12 माह को जोड़ें तो यह लगभग 354.3672 दिन का वर्ष ही होगा।  इस तरह सौर वर्ष और बारह चांद्र मासों के वर्ष में 10.8892 दिनों का अंतर आ जाता है। जो तीन वर्ष में 32.6676 दिन का हो जाता है। इस तरह हम पाते हैं कि तीन वर्षों में जहाँ संक्रांतियाँ केवल 36 होंगी वहीं चान्द्र मास 37 हो जाएंगे। इस तरह कोई भी एक चांद्र मास ऐसा होगा जिस में कोई संक्रांति नहीं होगी।  इस कारण से यह तय किया गया कि  नवचंद्र से आरंभ होने वाले जिस चांद्र मास में संक्रांति नहीं होगी उसे अधिक मास माना जाए और ऐसे महिने वाले वर्ष को 13 मास का माना जाए।  इस वर्ष भाद्रपद मास की अमावस्या से अगली अमावस्या तक कोई संक्रांति नहीं पड़ रही है इस कारण से यह नवचंद्र मास अधिक मास हुआ और इस वर्ष में दो भाद्रपद मास हुए। अभी यही अधिक मास चल रहा है।

1975
मेरा जन्म विक्रम संवत 2012 सन् 1955 में हुआ।  यह वर्ष भी तेरह मास का था और दो भाद्रपद मास थे।  पहला भाद्रपद बीत जाने के उपरांत दूसरे भाद्रपद मास की प्रतिपदा तिथि शनिवार को मेरा जन्म हुआ।  उस जमाने में जन्मदिन अंग्रेजी केलेंडर की तारीख से नहीं मनाया जाता था बल्कि तिथि से मनाया जाता था। भले ही मेरा जन्म अधिक मास में हुआ हो पर वह प्रतिवर्ष भाद्रपद मास की प्रतिपदा को मनाया जाने लगा।  यह दिन रक्षाबंधन के दूसरे दिन आता था।  बचपन से यही स्मरण रहा कि जन्मदिन रक्षाबंधन के दूसरे दिन आता है।  लेकिन तिथि से वास्तविक जन्मदिन तो तब हो जब भाद्रपद मास में अधिकमास आ रहा हो।  जन्म के वर्ष के अतिरिक्त ऐसा केवल तीन बार हुआ है। 1974 में 1993 में और अब 2012 में भाद्रपद मास में अधिक मास हुए हैं।  इस में आश्चर्य जनक समानता यह है कि इन वर्षों में हर बार 19 वर्ष का अंतराल है। 

1992
स तरह यदि द्वितीय भाद्रपद की प्रतिपदा को जन्मदिन मनाया जाए तो इस वर्ष जन्मदिन शनिवार 1 सितंबर 2012 को ही हो चुका है।  इस दिन भी शनिवार था जैसा कि मेरे जन्मवर्ष संवत् 2012 ईस्वी सन् 1955 में था। जन्म रात्रि के 3.25 बजे हुआ था।  तब तक तारीख बदल कर 3 सितम्बर के स्थान पर 4 सितम्बर हो चुकी थी और प्रतिपदा समाप्त हो कर द्वितिया तिथि आरंभ हो चुकी थी। यदि जन्म समय की तिथि को देखा जाए तो रविवार 2 सितंबर 2012 को द्वितिया तिथि है।  इस तरह रविवार को भी जन्मदिन मनाने का मौका था। जन्म के समय नक्षत्र उत्तराभाद्रपद था। यह नक्षत्र 3 सितंबर 2012 को प्रातः तक है तो इस दिन भी जन्मदिन मनाया जा सकता है और 4 सितंबर 2012 को तो मनाया ही जा सकता है क्यों कि अंग्रेजी केलेंडर के हिसाब से वही मेरा जन्मदिन है।   

2010
फेसबुक और इंटरनेट पर उपलब्ध साधनों ने मित्रों को सितंबर की पहली तारीख से ही मेरे जन्मदिन की सूचना देना आरंभ कर दिया था और उसी दिन से शुभकामनाएँ भी मिलनी आरंभ हो गई हैं।  अब तक अनेक मित्र शुभकामनाएँ दे चुके हैं।  मैं भी चारों दिन शुभकामनाएँ प्राप्त करने के लिए तैयार बैठा हूँ।